जीवन के मुख्य तीन तत्व हैं, जिनमें पहला है उद्योग, दूसरी है भक्ति और तीसरी है सीखना सिखाना। उद्योग की कमी के कारण ही देश में आलस्य भर गया है, आलस्य से बेकारी आई है। पढ़े लिखे लोगों ने उद्योग से मुँह मोड़ लिया है। इसलिए वे सुखी नहीं हैं। जहाँ उद्योग न होने के कारण घुन लग जाता है। उससे भारी हानि होती है। इससे जिस घर में उद्योग की शिक्षा नहीं दी जाती है उस घर का जल्दी नाश हो जाता है। इस संसार में मुझे जो भी कोई मिला है उसने अपनी दुःख की ही कहानी सुनाई है, मालूम होता है सारा संसार दुःख से ही भरा हुआ है लेकिन जो लोग उद्योगी है वे इस दुःख की दुनिया में सुख का रस लेते हैं। शेटे नामक एक कवि ने अपने काव्य में एक दुःखिनी स्त्री का चित्र खींचा है, उस स्त्री ने तकली से उद्योग की शरण ली। उससे उसे बहुत कुछ सान्त्वना मिली। खाली बैठना ही बहुत से दुःखों को जन्म देता है इस लिए कुछ न कुछ करते रहने से मनुष्य व्यर्थ के अनेकों दुःखों से छुटकारा पा लेता है। इसलिए हमें उद्योग की ओर बढ़ना चाहिए।
दूसरा है भक्ति, मैंने इसकी शिक्षा अपनी माता से ली, आगे चलकर तो दोनों समय प्रार्थना करने की आदत पड़ जाने से इस भक्ति का संचार मेरे अन्दर खूब हुआ लेकिन भक्ति का मतलब ढोंग नहीं है जो उद्योग नहीं करता वह भक्ति कर ही नहीं सकता। भक्ति तो उद्योग में ही मिलती है। अपने उद्योग में ही भगवान को देखना, भगवान के उद्देश्य से ही काम करना नित्य भगवान के संपर्क का उद्योग द्वारा अनुभव करना इसी से भक्ति का साक्षात्कार होता है। दिन भर झूठ बोल कर लबारी-लफारी करके न प्रार्थना की जा सकती है न भक्ति। जो कुछ किया जा सकता है वह तो ढोंग है। सत्कर्म करके दिन सेवा में बिताकर सायंकाल वह सारी सेवा भगवान के अर्पण करनी चाहिए भगवान हमारे हाथ से हुए अनजान पापों को क्षमा करते हैं। जानते में यदि पाप वन आवे तो उस का प्रायश्चित करना चाहिए। पश्चात्ताप ही सच्चा प्रायश्चित है। ऐसों के पाप भगवान क्षमा कर देते हैं। सबको लड़कों, बच्चों, स्त्रियों, पुरुषों को मिलकर नित्य प्रार्थना करनी चाहिए। जहाँ भगवान की सच्चे दिल से प्रार्थना होती है वहाँ भगवान अवश्य रहते हैं। लेकिन उद्योग छोड़कर भक्ति के पीछे पड़ने से भक्ति का फल नहीं मिलता बल्कि वह ढोंग ही हो जाता है।
तीसरा है-खूब सीखना, खूब सिखाना जिसे जिसकी जानकारी है उसकी जानकारी वह दूसरों को दे और जो वह नहीं जानता है उसे दूसरों से सीखे और सीखने की जिज्ञासा रखे। भजन सिखावें, गीता सिखावें तात्पर्य यह है कि कुछ न कुछ जरूर सिखावे। अनेक प्रकार के उद्योग चलें। इसमें एक आध घण्टा जरूर सिखाना चाहिए और सीखना चाहिए। सीखने सिखाने की इस वृति से आदमी का जीवन सार्थक होता है।
- आचार्य-बिनोवा