प्रगतिशीलता अपनाने का उपाय एक ही है कि अवांछनीयताओं को निरस्त करते चला जाय और जो अभीष्ट आवश्यक है उसे अपनाने के लिए पूरे उत्साह का प्रयोग किया जाय। उत्कर्ष के उच्च शिखर पर चढ़ने के लिए इस रीति-नीति को अपनाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग है नहीं।
आत्मिक प्रगति का भवन, चार दीवारों से मिल कर बनता है। इस तख्त में चार पाये हैं। चारों दिशाओं की तरह आत्मिक उत्कर्ष के भी चार आधार हैं। ब्रह्माजी के चार मुखों से निकले हुए चार वेदों में इसी ज्ञान-विज्ञान का वर्णन है। चार वर्ण-चार आश्रमों का विभाजन इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया गया है। इन्हें (1) आत्म-चिन्तन (2) आत्म-सुधार (3) आत्म-निर्माण और (4)आत्म विकास के नाम से पुकारा जाता है। इन्हें एक एक करके नहीं वरन् समन्वित रूप से सम्पन्न किया जाता है।