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स्त्री विषयक उपभोक्तावाद - घर से और स्त्री से ही शुरुआत

27 दिसम्बर 2021

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बहुत सी कहानियां अब भी पढ़ने को मिल जाती हैं, जिसमें बंगालनों के काले  जादू के चर्चे रहते हैं। अब भी महिलाएं अपने पतियों प्रेमियों को सीधा समझती हैं और जिन दूसरी महिलाओं की संगत में वह आ जाता है, उसे ही दोष देती हैं। अब भी किसी के पागल होने या मरने का इल्जाम किसी महिला पर ऐसे लगाया जाता है, जैसे डायन कहकर कुछ महिलाओं पर गाँव की सारी आपत्ति विपत्ति का इल्जाम दिया जाता था तो चौंकने की बात तो है ही। विस्मित हूँ इस बात पर कि कहाँ तो सबकुछ बदल रहा और कहाँ कुछ भी नहीं बदल रहा!

खैर, भोजपुरी के एक प्रसिद्ध कथाकार, कवि, नाटककार भिखारी ठाकुर तो केवल सुंदरी पत्नी, बंगालन या असमिया रखेलन और पति की पृष्ठभूमि पर विदेशिया नाटक लिखने के लिखने के लिए ही जाने जाते हैं। उस नाटक के लिए जीवन.भर वे गीत, संवाद नये नये लिखते थे, लेकिन मूलतः कहानी एक ही थी। सुंदरी मानती थी कि पति निर्दोष है, बंगालनों ने काला जादू कर उसे बाँध लिया है, बकरा बनाकर कैद कर लिया है, आदि।

जबकि सच ये था कि बंगाल में महिलाओं की आबादी पुरुषों से ज्यादा थी। सभी महिलाओं को विवाह के लिए पुरुष नहीं मिलते थे। और देश के बाकी हिस्सों में इसका ठीक उल्टा था। तो अंग्रेजों के समय में, जब कलकत्ता देश की राजनीतिक, और उसके बाद आर्थिक राजधानी रहा था तो श्रमिक से व्यवसायी तक, सब लोग वहाँ जाकर काम करते थे। जिनका विवाह न हुआ होता, उनको वहाँ लड़कियां मिल जाती और माँग आपूर्ति के सिद्धांत के अनुसार, वहाँ लोग बेटियों के रिश्ते के लिए आने वालों से पैसे लेते। वे बेटीबेचवा कहलाते थे, लेकिन विडंबना है कि पूरे देश में दहेज लेकर बेटे का ब्याह करने वाले बेटाबेचवा नहीं कहलाए। तो खैर, जो अविवाहित थे, वे वहाँ से औरत ले आते, लेकिन जिनके घर एक पत्नी पहले से है, वे ला तो सकते नहीं थे, फिर भी पुरुषों ने अक्सर एकपत्नीव्रत के पालन को जरूरी समझा ही नहीं। ये दिल माँगे मोर वाले पुरुष वहीं किसी औरत के साथ उसी के घर में बस जाते और अक्सर लौटकर ही नहीं आते। बालबच्चों वाली, ज्यादा उम्र की पत्नी, जो घर पर ही रह सकती हो, साथ न लाई जा सके, उनकी तुलना में बंगाली तेजतर्रार, साँवली सलोनी बड़ी बड़ी आँखों वाली या गोरी चिट्टी असमिया युवतियाँ उन्हें ज्यादा तो पसंद आती ही। उन महिलाओं को भी समस्या नहीं होती, क्योंकि उधर पुरुष ही कम थे, तो या तो उन्हें अविवाहित रहना होता या किसी की दूसरी पत्नी बनकर। तो जिनकी पत्नी साथ है, उनकी दूसरी पत्नी से बेहतर किसी परदेशी के साथ रहना, जिसकी पत्नी उसके साथ नहीं रहती। अब जो घर छूट गई, वह सौतन को कोसती, तो इस बात को ही विषय बनाकर खूब गीत कविता, नाटक लिखे जाते उस समय। मजदूरों के लिए रोज लौटना मुश्किल था, मनीऑर्डर और चिट्ठियां भी बंद हो जाती तो मान लिया जाता कि किसी ने जादू कर कैद कर लिया।

एक गीत इधर किसी ने पोस्ट किया - जिसका अर्थ था कि मैं अगर काली कलूटी होती तो समझ में भी आता कि क्यों दूसरी खोजी। मैं चाँद सी सुंदर, फिर भी दूसरी औरत क्यों? मतलब स्त्री ये मानती है कि वह केवल सुंदर खिलौने के जैसी चीज है। अगर पत्नी सुंदर न हो तो दूसरी औरत के साथ रहना पति का अधिकार या सामान्य बात है। उसी तरह इधर किसी और ने पोस्ट किया कि पत्नी सुंदर होनी चाहिए, पर दिमाग वाली नहीं। स्त्रियों को उपभोक्ता सामग्री बनाने का रिवाज तो फिर इस तरह से देखा जाए तो घर से ही शुरू हुआ है। बाजार ने बस उसे हाथोंहाथ लिया है, शुरू थोड़ी किया। स्त्री खुद भी स्त्री को ही कठघरे में खड़ी करती है, उपभोक्ता की प्रकृति रखने वाले पुरुष को क्लीनचिट देती है। जब तक यह प्रवृत्ति है, सिर्फ बाजार पर खीजकर क्या होगा।

Astha Singhal

Astha Singhal

बढ़िया लेख 👌

29 दिसम्बर 2021

वंदना

वंदना

29 दिसम्बर 2021

धन्यवाद

Papiya

Papiya

बधाई हो 👏🏼👏🏼👏🏼💐🎉

28 दिसम्बर 2021

वंदना

वंदना

29 दिसम्बर 2021

धन्यवाद

ममता

ममता

बहुत ही यथार्थ सप्रमाण लेख

27 दिसम्बर 2021

वंदना

वंदना

27 दिसम्बर 2021

धन्यवाद ममता जी

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