आज का विषय है कॉफी और दोस्ती। इस विषय पर बात करने से पहले बताती चलूँ कि हमें तो बचपन से ही चाय का चस्का है। क्योंकि बचपन से ही देखते आये कि घर आये मेहमान हो या नाते-रिश्तेदार जब तक उन्हें चाय-पानी नहीं पिला लेते तब तक न घर वालों की और न उनकी कोई भी बात आगे बढ़ पाती थी और न पूरी होती थी। एक बार चाय की चुस्की क्या ली कि कि उनके शरीर में ऐसी फुर्ती आती थी कि घंटों बीत जाते लेकिन उनकी बातें पूरी ही नहीं हो पाती थी। ये सब चाय का कमाल था, जिसे शब्दों में व्यक्त करना किसी के लिए भी आसान नहीं होता। अब बात करती हूँ कॉफी की। मुझे याद है जब हम छोटे थे, तब हमारे घर ताऊ जी आते तो केवल उनके लिए कॉफी बनायीं जाती थी। क्योँकि उन्हें कॉफी पीने का बड़ा शौक था। इसके लिए उन्होंने हमारे घर में नेस्कैफे की एक शीशी रख छोड़ी थी। हमारे घर में गाय पली थी तो दूध पर्याप्त रहता था। इसलिए ताऊ जी जब भी आते तो उनके लिए स्पेशली कॉफ़ी बनायी जाती थी। उनके आने पर जब माँ उनके लिए कॉफी बनाने किचन में जाती तो मुझे एक गिलास में कॉफी का पॉउडर डालकर उसे फेंटने को दे देती। क्योँकि वे जानती थी कि कॉफी फेंटने में मुझे बड़ा मजा आता है। मेरे लिए तो वह एक खेल जैसा था। इससे माँ का काम भी आसान होता और मेरा भी खेल हो जाता। माँ दूध को खूब खौलाकर उसमें फेंटी कॉफी डालती और फिर जब ताऊ जी के सामने गिलास में गरमागरम कॉफी रखकर जाती तो मैं चुपके से उनके पास आकर कॉफी की उड़ती खुश्बू सूँघने लगती, तो ताऊ जी समझ जाते कि मुझे भी थोड़ी कॉफी चाहिए। वे फ़ौरन दूसरा गिलास मँगवाते और थोड़ी कॉपी उसमें डाल कर मुझे पकड़ा देते, जिसे मैं जोर-जोर से सुर्र-सुर्र कर सुड़की मारने बैठ जाती तो आवाज सुनकर माँ किचन से मुझे डाँट लगाती और हिदायत देती कि कॉफी पीना अच्छी बात नहीं है। यह सुनकर ताऊ हंसने लगते तो मैं जल्दी-जल्दी बिना आवाज किये एक लम्बी सुड़की लगाकर कॉफी ख़त्म कर गिलास मैं को पकड़ा आती।
बचपन में ताऊ जी के कॉफी पीने के शौक के चलते उनके घर आने पर ही थोड़ी-थोड़ी कॉफी पीने को मिलती थी। लेकिन जब बड़े हुए और स्कूल से कॉलेज पहुंचे तो फिर सहेलियों के साथ कभी-कभार इंडियन कॉफी हाउस चले जाते थे, जहाँ कॉफी पीते हुए गप्पियाने के साथ ही कॉफी और दोस्ती के मायने भी समझ आता था। कॉफी पीने से पहले विशेष तौर पर सामूहिक रूप से डोसा मंगवाकर एक साथ खाना भी बड़ा अच्छा लगता था। क्योंकि किसी के पास इतने पैसे तो होते नहीं थे कि अलग-अलग मंगवाकर खा सके। लेकिन सहेलियों के साथ मिलकर थोड़े-थोड़े पैसे इकट्ठे कर कॉफी और डोसा खाने में जो मजा आता था, वह आज जब भी हम परिवार के साथ इंडियन कॉफ़ी हाउस जाते हैं तो न वह ताऊ वाली कॉफी का स्वाद और मिठास मिलता है और सहेलियों के साथ वाली बात मिलती है।