शिक्षक को राष्ट्र का निर्माता और उसकी संस्कृति का संरक्षक माना जाता है। वे शिक्षा द्वारा छात्र-छात्राओं को सुसंस्कृतवान बनाकर उनके अज्ञान रूपी अंधकार को दूर कर देश को श्रेष्ठ नागरिक प्रदान करने में अहम् दायित्व निर्वहन करते हैं। वे केवल बच्चों को न केवल साक्षर बनाते हैं, बल्कि अपने ज्ञान रुपी प्रकाश के माध्यम से उनका तीसरा नेत्र भी खोलते हैं, जिससे उनमें भला-बुरा, हित-अहित सोचने की शक्ति उत्पन्न होती हैं और वे राष्ट्र के समग्र विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने हेतु सक्षम बनते हैं। डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् प्रकांड विद्वान, दार्शनिक, शिक्षा-शास्त्री, संस्कृतज्ञ और राजनयज्ञ थे। उन्होंने महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय स्तर पर अध्यापन का कार्य किया, बावजूद इसके उन्होंने अपने जन्म दिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाये जाना का संकल्प किया। इसका कारण स्पष्ट है कि वे भलीभांति जानते थे कि माध्यमिक शिक्षण संस्थानों में छात्र-छात्राओं में जो संस्कार अंकुरित होते हैं, वे ही आगे चलकर महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में पल्लवित होते हैं। आज का दिन शिक्षकों में एक नयी प्रेरणा और ऊर्जा लेकर आता है। इस दिन उनके द्वारा किए गए श्रेष्ठ कार्यों का मूल्यांकन कर उन्हें सम्मानित करने का दिन होता है। आज के दिन को ‘अध्यापक दिवस’ के नाम से जानते हैं क्योँकि यह दिन छात्र-छात्राओं के प्रति और अधिक उत्साह-उमंग से अध्यापन, शिक्षण और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संघर्ष के लिए उनके अंदर छिपी शक्तियों को जागृत करने का संकल्प-दिवस भी है। यह दिवस समाज और राष्ट्र में ‘शिक्षक’ के गर्व और गौरव को पहचान कराता है। इसलिए आज के दिन विभिन्न राज्यों से शिक्षण के प्रति समर्पित अति विशिष्ट शिक्षकों को पुरुस्कृत कर सम्मानित किया जाता है।
एक शिक्षक कैसा होना चाहिए इसे 'मालविकाग्रिमित्रम' नाटक में महाकवि कालिदास ने स्पष्ट करते हुए लिखा है कि -
“लब्धास्पदोऽस्मीति विवादभीरोस्तितिक्षमाणस्य परेण निन्दाम्।
यस्यागमः केवल जीविकायां तं ज्ञानपण्यं वाणिजं वदन्ति।। "
- अर्थात जो अध्यापक नौकरी पा लेने पर शिक्षण (शास्त्रार्थ) से भागता है, दूसरों के अंगुली उठाने पर चुप रह जाता है और केवल पेट पालने के लिए विद्या पढ़ाता है, ऐसा पंडित (शिक्षक) नहीं वरन् ज्ञान बेचने वाला बनिया है।
लेकिन आज शिक्षकों के सन्दर्भ में गंभीर सोच का विषय है कि इनमें ज्ञान से पेट भरने वालों की संख्या सबसे ज्यादा नजर आती है। स्वतंत्रता के पश्चात् जिस तीव्र गति से विद्यालयों की संख्या बढ़ी उस अनुपात में शिक्षा का स्तर ऊँचा होने के बजाय नीचे गिरना गंभीर चिन्ता का विषय है। आज शासकीय और शासकीय अनुदान प्राप्त विद्यालयों में अध्यापन और अनुशासन का बुरा हाल जब-तब जगजाहिर होना आम बात है। बावजूद इसके जब कोई शिक्षक या प्राचार्य राजनीतिक दांव-पेंच के माध्यम से सम्मानित होता है तो यह एक निराशाजनक स्थिति निर्मित करता है। जिस प्रकार दाल-चावल में कंकर देखकर उसे अनुपयोगी न मानकर उसमें से कंकर चुनकर उन्हें बाहर कर उसका सदुपयोग किया जाता है, उसी प्रकार यदि शासन-प्रशासन बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के प्रति समर्पित अध्यापकों को ही सम्मानित करें तो ‘शिक्षक दिवस‘ और भी गौरवान्वित होकर सार्थकता को प्राप्त होगा।