बच्चे जब बहुत छोटे होते हैं, तो उनकी अपनी एक अलग ही दुनिया होती है। उनके अपने-अपने खेल-खिलौनें होते हैं, जिनमें वे दुनियादारी के तमाम झमेलों से कोसों दूर अपनी बनायी दुनिया में मस्त रहते हैं। इसीलिए तो उन्हें भगवान का रूप कहा जाता है। प्रायः सभी बच्चों को बचपन में खेल-खिलौनों से बड़ा लगाव रहता है, वे तरह-तरह के खिलौनों से खेलना पसंद करते हैं, लेकिन मेरे शिवा को बचपन में कोई खिलौना पसंद ही नहीं आता था; हम जब भी उसे बाजार ले जाकर किसी खिलौने की दुकान पर अपनी पसंद का खिलौना पसंद करने को कहते तो वह पूरी दुकान में इधर-उधर घुसते हुए ढूढ़ता-फिरता, लेकिन बहुत देर बाद जब उसे उसकी पसंद की कोई चीज नहीं मिलती तो वह मुंह फुलाकर बुत बन सामने खड़ा हो जाता। पूछने पर कि क्या हुआ, क्या हुआ? तो ओंठों पर गंभीर चुप्पी साधे हमारा हाथ पकड़कर एक दुकान से दूसरी दुकान के चक्कर कटवाता रहता। जैसे ही उसे किसी दुकान पर भगवान् गणेश के खिलौने या मूर्ति दिखाई देती तो झट से उनकी और उंगुली से इशारा करते हुए हाथ खींचकर उसके करीब ले जाता। जब उसे उसकी पसंद के गणपति जी मिल जाते तो वह खुशी से उछल-कूद करते हुए घर चलने को कहता और यदि नहीं मिले तो फिर एक दुकान से दूसरी दुकान खंगालने की जिद्द कर अपनी मांग पूरी करके ही दम लेता।
मेरा शिवा अब बड़ा हो गया है। अब तो वह ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता है, लेकिन उसका गणपति से जो लगाव बचपन में था, वह कम नहीं हुआ है। हाँ थोड़ा सा जो उसमें बदलाव आया है, वह यह कि अब वह गणपति जी को दुकान से खरीदने के स्थान पर खुद अपने हाथों से कभी ड्राइंग तो कभी मिट्टी से सुन्दर व आकर्षक कलाकृतियाँ बनाता रहता है। मूर्ति बनाने के लिए कभी वह मिट्टी बाजार से तो कभी खुद कहीं से खोदकर ले आता है। खोदकर लायी मिट्टी को वह सबसे पहले कूट-कूट कर उनके कण-कण को अलग करता है। धूप में सुखाता है और फिर कूटता है। बिल्कुल बारीक होने पर उसे छलनी से छानकर सभी कंकड़ अलग कर देता है। फिर पानी डालकर उसे तब तक गूंथता रहता है, जब तक वह मैदे की तरह कोमल नहीं हो जाता। मुझे मेरे शिवा को इस तरह अपने हाथों से गणपति जी की प्रतिमाएँ बनाते देखना बहुत अच्छा लगता है। कई बार प्रतिमा बनाते समय जब उसमें कभी टूट-फूट हो जाती है, तो वह परेशान सा हो जाता है, लेकिन ऐसे क्षण में उसकी जो बात मुझे सबसे अच्छी लगती है, वह यह कि वह किसी भी कीमत पर हार नहीं मानता, जुनून की हद तक उसे पूरा करके ही दम लेता है।
गणेशोत्सव के पूर्व पर्यावरण संरक्षण जागरूकता के लिए इको-फ्रेंडली गणेश प्रतिमा बनाने और झांकी डेकोरेशन की कार्यशालाएं शहर भर में जगह-जगह आयोजित की जाती हैं। ऐसी ही एक कार्यशाला जवाहर बाल भवन में मूर्तिकला प्रशिक्षक हर्षित तिवारी के मार्गदर्शन में मेरे शिवा ने दो वर्ष पूर्व भाग लिया, जहाँ उसने दूसरे बच्चों के साथ इको-फ्रेंडली गणेश प्रतिमा बनाने की आसान विधि सीखी। इसका ही सुखद परिणाम है कि आज वह अपने घर के लिए ही नहीं, बल्कि हमारे कुछ परिचितों और दोस्तों को भी मूर्ति बनाकर देता है। पिछले वर्ष जब कोरोना काल में स्कूल बंद थे उसे अपनी कला निखारने का समय मिला तो उसने घर पर ही अपने हाथों से पर्यावरण और तालाब को प्रदूषित होने से बचाने के लिए हमारी आस्था, श्रद्धा और पूजा विधि के अनुरूप मिट्टी के एक नहीं अपितु ३० से अधिक गणेश प्रतिमा बनाई। मैं जब-जब भी उसे अपने हाथों से मिट्टी के गणेश की प्रतिमाओं की आकार देते देखती हूँ तो तब-तब मैंने अनुभव किया कि पीओपी की तुलना में मिट्टी से गणेश प्रतिमा बनाने में कठिन परिश्रम और समय की आवश्यकता तो पड़ती ही है, साथ ही साथ उसके धैर्य की भी परीक्षा होती है। क्योंकि इसके लिए एक लम्बी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। पहले मिट्टी का चुनाव करना होता है फिर उससे कंकड़-पत्थर अलग करने फिर उसे लगभग २ दिन तक भिगो कर रखने और फिर उसके बाद उसे कपड़े से छानकर किसी दूसरे कपड़े में पोटली बनाकर किसी पेड़ या मजबूत रस्सी के बल पर लगभग ४-५ दिन के लिए लटका कर रखना होता है। इसके बाद पोटली खोलना और मिट्टी को आटे की तरह गूंथने के बाद उसकी जांच-परख कर मूर्ति बनाना शुरू करना और इस दौरान उसके एक-एक अंग को देखने जांचने और स्वयं ही निरीक्षण भी करना होता है।
कड़े परिश्रम से बनने वाली मिट्टी की प्रतिमाएं भले ही पीओपी से बनी प्रतिमाओं से कम सुन्दर और आकर्षक लगती हों, बावजूद इसके लोगों को यह बात कतई नहीं भूलनी चाहिए कि मिट्टी से बनी प्रतिमाएं हमारी आस्था, श्रद्धा और पूजन के साथ ही हमारे पर्यावरण के सर्वथा अनुकूल हैं और आज के समय की मांग है। अतः मिट्टी से बने गणेश ही घर में विराजमान करने का संकल्प सभी लोग करें तो हमारी झीलें, नदियां और तालाब प्रदूषित होने से बच जाएंगे और हमारे पर्यावरण को किसी तरह की क्षति नहीं होगी। जब भी मैं मेरे शिवा को मिट्टी से सने कपड़ों में गणेश की प्रतिमा अपने हाथों से बनांते देखती हूँ तो मुझे कवि 'रत्नम' की ये पंक्तियाँ याद आती हैं-
"जीवन की अमूल्य धरोहर है
अपने तन में दो लगे हाथ
मैंने 'रत्नम' जान लिए -
यह अपने हाथ हैं जगन्नाथ"
भगवान गणेश हमारे विध्नहर्ता है, मंगलकर्ता है, उनकी पूजा बिना सब काम अधूरे हैं। गृह प्रवेश हो, व्यापार का शुभारम्भ हो, प्राणिग्रहण संस्कार की बेला हो या कोई भी मंगल कार्य, प्रथम पूज्य गणेश की ही सर्वप्रथम पूजा की जाती है। अब यदि हम गणेशोत्सव में मिट्टी के गणेश की प्रतिमा बनाकर उन्हें अपने घर विराजमान कर उनका विसर्जन भी घर पर ही करते हैं तो वे घर में ऊर्जा के रूप में हमारे साथ हमेशा बने रहेंगे; सोचिए इससे अच्छी क्या कोई और बात हो सकती है! नहीं न, तो फिर इस बार ही नहीं, अपितु हर बार इको-फ्रेंडली गणेशोत्सव मनाएँ। बोलो गणपति बप्पा मोरया !
मेरे शिवा और हमारे परिवार की ओर से सभी को गणेशोत्सव की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ।