जहाँ पहले बचपन में सखी-सहेलियों के साथ खेलने-कूदने के साथ ही स्कूल की पढ़ाई खत्म होती तो कौन कहाँ चला गया, इसकी खबर तक नहीं हो पाती थी, वहीं जब से इंटरनेट का मकड़जाल फैला तो भूली-बिसरी सखी सहेलियों की खोज खबर लेना आसान हो गया। ऐसी ही एक सुखद अनुभूति मुझे तब हुई जब मेरी एक सहेली ने व्हाट्सएप्प में 'बचपन ग्रुप' नाम से एक ग्रुप बनाकर मुझे उसमें सम्मिलित किया। इस ग्रुप में जब बचपन और स्कूल की एक-एक कर कई सहपाठियों से बातचीत का दौर चला तो इसी में मुझे करीब 20 वर्ष बाद मेरी एक बचपन और स्कूल की सखी निवेदिता मिली तो भूली-बिसरी बचपन और स्कूल की कई यादें फिर से ताजी हो गयी। बातों-बातों में उसने बताया कि उसका ससुराल बैतूल में है और उसे कविता लिखने का शौक है तो मुझे बड़ी ख़ुशी हुई कि चलो कोई तो अपना साथी मिला। दिसम्बर,2017 को एक दिन उसने मुझे दूरभाष पर बताया कि वह उसकी कविता संग्रह ’ख्याल’ के लोकार्पण
हेतु भोपाल स्थित स्वामी विवेकानंद पुस्तकालय, भोपाल आ रही है, जिसमें मेरी हाजिरी जरूरी है तो मन में कई भूली-बिसरी यादें ताजी हो चली और इसी बहाने मेल-मिलाप का ’खुल जा सिमसिम’ की तरह एक बंद दरवाजा खुला गया।
नियत तिथि को जब मैं और मेरी भोपाल में रहने वाली एक सहेली गायत्री स्वामी विवेकानंद पुस्तकालय, भोपाल पहुंचे तो उससे मिलकर बड़ी ख़ुशी हुई। उसके काव्य संग्रह ’ख्याल’ के लोकार्पण के बाद जब मैंने उसकी कुछ कविताएं पढ़ी तो मुझे उसके और अपने ख्याल बहुत कुछ मिलते-जुलते मिले तो मुझे यह देख सुखद अनुभूति हुई। मैंने अनुभव किया कि उसने अपने कविता संग्रह ’ख्याल’ में न सिर्फ अपना बल्कि दुनिया का भी बखूबी ख्याल रखा है। मुझे उसकी काव्य संग्रह में जहाँ एक ओर उसके आस-पास के वातावरण, रोजमर्रा की घटनाएं, अनुभूतियों की उपज मिली तो वही दूसरी ओर गीत, गजल, छंद, तुकांत, अतुकांत का मिश्रण देखने को मिला। मुझे उसका ’ख्याल’ कविता संग्रह अलग-अलग स्वादिष्ट व्यंजनों से परोसा गया एक थाल लगा, जिसमें विविधता का इस तरह समावेश था, जहाँ न बनावट थी, न कृत्रिमता और नहीं भाषा के अनावश्यक अलंकरण था। उसके लेखन में ताजगी और सरलता के साथ परिपक्वता थी, जो मुझे उसकी पहली कविता से ही स्पष्ट देखने को मिली-
“ये जो एक लफ्ज है ’हाँ’/ lये अगर मुख्तसर नहीं होता/ तो जरा सोचिये कि क्या होता?
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इसलिए लम्बा और दुश्वार सा होना था इसे/ कि कोई बीच में ही रूक जाये/‘हा’ कहते कहते ’
आपसी प्रेम जाने कब और कैसे कितने रूपों में हमारे सामने आकर खड़ा हो जाय, यह कोई नहीं जानता। इसका कोई पारखी नहीं मिलता। प्रेम की उड़ान सोच से भी ऊँची है। मुझे कुछ ऐसे ही ख्याल निवेदिता की 'अघटित’ कविता में देखने को मिली-
“मेरे कानों में गूँजती हैं वो बातें/ जो तुमने कभी नहीं कही/ और मैं सुनती हूँ एकांत में हवा की पत्तियों से छेड़खानी ...............
और हो जाती हूँ सराबोर, उस प्रेम से/ जो तुमने मुझसे कभी नहीं किया।“
यूँ ही बचपन की सहेली को याद कर जाने कितने ख्याल मन में आ रहे हैं, लेकिन यहाँ 48 स्वादिष्ट व्यंजनों को एक ही थाल में सुघड़ तरीके से परोसने वाली और हर व्यंजन में अलग-अलग स्वाद भरने वाली अपनी सखी निवेदिता के काव्य संग्रह 'ख्याल' की एक रचना ' दुनिया' से विराम देना चाहूंगी, जिसमें उसने नारी मन की उलझनों को बहुत सरल और सटीक रूप से मन की छटपटाहट के साथ मर्मस्पर्शी रूप से व्यक्त किया है। जहाँ मानो सारे दर्द एक जगह रखकर भी वह बहुत प्रयास करने के बाद भी जीवन की सुंदरता और कोमलता को शब्दों में संजोने में अपने को असमर्थ है। वे चाहती हैं कि सुंदरता और कोमलता दिखे, लेकिन जीवन के मन को समझने की वजह से वह विफल नजर आती हैं-
“बहुत बार चाहा मैंने कि फूलों पर लिखूं कविता
लेकिन आंखों के आगे
सड़कों पर भीख मांगते बच्चे आ गए
और शब्द कहीं खो गये।"