महाकवि कालिदास के एक सूक्ति है - शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात धर्म का (कर्तव्य का) सर्वप्रथम साधन स्वस्थ शरीर है। यदि शरीर स्वस्थ नहीं तो मन स्वस्थ नहीं रह सकता। मन स्वस्थ नहीं तो विचार स्वस्थ नहीं होते। जब विचार स्वस्थ नहीं होंगे तो धर्म (कर्तव्य) की साधना कहाँ से होगी। इसलिए शरीर को स्वस्थ रखना व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य है। कहते हैं कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मष्तिष्क रहता है और इसलिए लिए शरीर का स्वस्थ रहना सबसे जरुरी है। सुश्रुत संहिंता में स्वस्थ शरीर के लक्षण इस प्रकार बताए गए हैं -
समदोष: समाग्निश्च समधातुमलक्रिय:।
प्रसन्नात्मेन्द्रिव्यमन: स्वस्थ इत्यभिधीयते ।।
अर्थात जिसके वात, पित्त और कफ समान रूप से कार्य कर रहे हों, पाचन शक्ति ठीक हो, रस आदि धातु एवं मलों की क्रिया सम हो और आत्मा, इन्द्रियाँ तथा मन प्रसन्न हो, उसी को स्वस्थ कहते हैं।
वास्तव में जीवन में स्वास्थ्य ही सब कर्मों के लिए महत्वपूर्ण है। अस्वस्थ व्यक्ति सांसारिक सुखों का भोग नहीं कर सकता। चाहे घर में छप्पन भोग बने हों अथवा सुन्दर वस्त्र और आभूषण पहनने का प्रश्न हो और चाहे वार-त्योहार और उत्सव-मेले क्यों न हो, अस्वस्थ व्यक्ति के लिए ये सब चीजें व्यर्थ हैं। उसे इन सबकों देखकर ईर्ष्या होती है , वह जीवन भर इनके लिए हाथ मल-मलकर पछताता है। इसलिए किसी ने ठीक ही कहा कि- "पहला सुख निरोगी काया' अर्थात सबसे बड़ा सुख स्वस्थ शरीर है।
आज मनुष्य भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए दिन-रात भाग-दौड़ में इस कदर लगा रहता है कि उसे अपने शरीर की देखभाल करने तक का समय नहीं मिल पाता है, परिणामस्वरुप उसे धीरे-धीरे अनेक शारीरिक व्याधियाँ तो घेर ही लेती हैं, जिनका वह कुछ हद तक उपचार कर स्वस्थ भी हो जाता है लेकिन यदि इस दौरान उसका मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ता है तो फिर उसके लिए यह जीवन क्या समूची दुनिया ही व्यर्थ बन जाती है। इसलिए किसी भी व्यक्ति के लिए यह बहुत जरुरी है कि वह अपने शरीर के साथ अपने मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान भी रखे। इसके लिए हमें अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए नित्य व्यायाम करना चाहिए, जिससे हमारे शरीर में चुस्ती-फुर्ती बने रहे, पाचन शक्ति ठीक रहे, समय पर भूख लगे, चित्त प्रसन्न रहे और कोई भी काम करने की इच्छा शक्ति बनी रहे। इसके साथ ही हमें अपने मानसिक स्वास्थ्य ठीक रखने के लिए सामजिक गतिविधियोँ में भाग लेना चाहिए, मनोरंजन के साधनों का भी उपयोग करना चाहिए और अपने मन में किसी भी प्रकार के दूषित विचारों का घर नहीं बनने देना चाहिए। क्योँकि मानसिक रोग शारीरिक व्याधि से घातक होती है, जो व्यक्ति को भरे-पूरे संसार में सबकुछ होते हुए भी अकेला कर देता है।