आज भी दैनिक लेखन का विषय अन्धविश्वास है। सोच रही थी कि इस बारे में क्या लिखूँ तो कुछ वर्ष पूर्व अपने मोहल्ले की एक घटना याद आ गयी। जब हमारी बिल्डिंग के चौथे माले में एक ऐसा परिवार रहता था। उनके घर में आये दिन कोई न कोई पूजा-पाठ, टोना-टोटका चलता रहता था। इस कारण मोहल्ले के बाकी लोग अक्सर उनसे दूरी बनाये रखने में ही अपनी भलाई समझते थे। उनके घर में जब-तब पंडितों और ओझाओं का कोई न कोई पूजा-पाठ` या तंत्र-मंत्र, झाड़-फूंक, टोना-टोटका चलता रहता था। वे लोग इन बातों में बड़ा विश्वास करते थे। नवदुर्गा स्थापना के समय जब अष्टमी का दिन आता था तो उनके घर में देर रात तक तांत्रिक क्रियाएं चलती रहती थी। उसके बाद वे रात को ही निकट चौराहे पर एक मटके में सिंदूर लगा भूरा कद्दू, काली दाल, नीबूं आदि रख आते थे, जिसे देख आस-पास के लोग सहज ही अनुमान लगा लेते थे कि यह उनके घर की बला है।
एक बार का रोचक किस्सा याद है। उसके घर में कुछ परेशानी चल रही थी तो उन्हें पंडित जी ने उन्हें उपाय बताया कि सास-बहु को ७ दिन तक सुबह-सुबह हलुवा-पूड़ी बनाकर काली गाय को खिलाना है। पंडित की बात मानकर जब दो दिन तक सास-बहु का सुबह से लेकर आधे दिन का समय काली गाय को ढूंढकर हलुवा-पूड़ी खिलाने में बीतने लगा तो थक-हार कर उन्होंने एक गौपालक का पता लगाकर उसे हर दिन काली गाय सुबह-सुबह मोहल्ले के सामने वाली सड़क तक लाने का सौदा तय कर लिया। अब सुबह-सुबह जब हम मोहल्ले वाले सास-बहु को एक साथ काली गाय को हलुवा-पूड़ी खिलाते देखते तो यह हमारे लिए कौतुहल का विषय बना रहता। हम देखते कि वे गाय को बड़े जतन से हलुवा-पूड़ी खिलाते और फिर उसके माथे पर प्यार से हाथ फिरते। इस तरह उन्होंने ६ दिन तक आराम से काली गाय को हलुवा-पूड़ी खिलाने की टोटका अच्छे से पूरा कर लिया। अब जब सातवां अंतिम दिन आया तो गौपालक हर दिन लाने वाली काली गाय की जगह दूसरी काली गाय लेकर आया', जो सीधी-साधी नहीं थी। जब हर दिन की तरह सास-बहु ने उस काली गाय को भी जब हलुवा-पूड़ी दी तो उसने एक बार ही उसे लपक लिया, तो दोनों को बड़ी आत्मिक ख़ुशी हुई। इसी ख़ुशी में आशीर्वाद के लिए उन्होंने जैसे ही गाय माता के सिर पर प्यार से हाथ फेरा तो वह कुपित हो गयी और उसने सींग से उन दोनों पर हमला कर दिया। अचानक हुए हमले से वे दोनों जोर से चिल्लाये तो मोहल्ले के लोग भी उस और भागे तब तक उसके मालिक ने उसे जैसे-तैसे उनसे दूर कर लिया। बहु को ज्यादा चोट तो नहीं लगी लेकिन सास सीढ़ियों में गिर गयी तो उनके पैर में जबरदस्त मोच आ गयी। वह गाय के मालिक पर चिल्लाने लगी तो वह भी उससे लड़ने लगा तो मोहल्ले वालों ने जैसे -तैसे मामला शांत किया। गाय वाला चलते-चलते भीड़ देख कहने लगा कि उसकी कोई गलती नहीं हैं। भले ही वह गाय है लेकिन है तो जानवर ही और जानवर का क्या कोई भरोसा होता है क्या? अरे हलुवा-पूड़ी खिला दिया तो फिर उसके सिर पर हाथ फिरने की क्या जरुरत थी। उसकी बातें सुनकर सभी लोग कभी सास-बहु तो कभी एक-दूसरे का मुँह ताकते रह गए। यहाँ गनीमत यह बात रही कि गाय वाले ने एडवांस में सौदा तय कर लिया था वर्ना आज तो उन्हें इस नयी काली गाय के कारण सौदा महँगा पड़ जाता।
आज भी ऐसे-ऐसे अन्धविश्वास भरे-पटे है हमारे शहरी समाज में कि जिन्हें देख-सुन कर हंसी भी आती है और आश्चर्य भी होता है कि पढ़े-लिखे कहलाने वाले सभ्य समाज में भी ऐसा होता है तो फिर ग्रामीण अंचलों में क्या होता होगा?