किसी व्यक्ति या प्रचलित धारणा पर आंख मूँदकर बिना सोचे-समझे विश्वास करना अन्धविश्वास है। किन्हीं रुढ़िवादियोँ, विशिष्ट धर्माचार्योँ के उपदेश या किसी राजनैतिक सिद्धांत को बिना अपने विवेक के विश्वास कर स्वीकार लेना अन्धविश्वास है। पारलौकिक शक्तियों के भय को भोलेपन से बिना अपने विवेक से सोचे मान लेना भी अन्धविश्वास है। दुनिया के बहुत से लोगों का मानना है कि भारत में सबसे अधिक अन्धविश्वास है , लेकिन इसे पूर्ण रूप से सत्य नहीं ठहराया जा सकता है। हाँ बहुत कुछ अन्धविश्वास आज भी व्याप्त है- जैसे लोग बीमारी में या विषैले जीव की काटने पर ओझा,पण्डे, बाबाओं या झाड़-फूंकने वालों के चक्कर में फंस जाते हैं। नौकरी, संतान प्राप्ति के लिए गंडे-ताबीज बंधवाते हैं। भरा लोटा हाथ से गिर जाने या किसी के पीछे से आवाज देने या बिल्ली के रास्ता काट देने को अपशगुन मानते हैं। लेकिन अन्धविश्वास की यह परम्परा हमारे भारत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में है। यह प्रत्येक देश और समाज में व्याप्त है। यह पिछड़े और अविकसित या विकासशील देशों में ही नहीं बल्कि विकसित देशों में भी प्रचलित है, जो हमें समय-समय पर समाचार पत्रों अथवा टीवी या इंटरनेट पर आसानी से देखने को मिल जाता है। हमारे देश में जिन बाबा, पीर-फ़कीर या तांत्रिकों पर हमारा भारतीय समृद्ध वर्ग और राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ आस्था रखते हैं, उन्हीं में पश्चिम के औद्योगिक समाज की भी आस्था स्पष्ट दिखती है। चंद्रास्वामी, बालयोगेश्वर या महेश योगी जैसे इसी तबके में सांस्कृतिक नायक बने। आज तो चमत्कारी बाबाओं की धाक इस बात पर निर्भर करने लगी हैं कि विदेशों में उनकी कितनी मान्यता है।
हमारे भारतीय समाज में ही नहीं अपितु विश्व के लगभग सभी देशों में अन्धविश्वास का व्यापक स्तर पर बोलबाला है। इसे श्री गिरीश्वर मिश्र की धारणा से समझना आसान होगा, जहाँ उनका कहना है कि , ' प्राय: अन्धविश्वासोँ का जन्म और प्रचलन जीवन की अनबूझ पहेली जैसी स्थिति में नियंत्रण करने के लिए होता है। जब मनुष्य को कोई उचित मार्ग दिखाई नहीं पड़ता तो अन्धकार में छटपटाहट से उभरने और बचने के लिए जीने का बहाना ढूंढना पड़ता है। अन्धविश्वास ऐसे ही बहानों के बलबूते गढ़े जाते हैं, जीवित रहते हैं और आदमी की जिंदगी में अहम् भूमिका निभाते हैं। "
आज देश में अन्धविश्वासोँ को दूर करने के स्थान उन्हें कैसे हवा देकर हथियार बनाया जा रहा है, इसी सन्दर्भ में वे आगे कहते हैं कि, " आज बौद्धिकता के प्रबल आग्रह की जमीन में भी सत्य, शिव, सुन्दर की दुहाई देने वाले देश में, सत्य की अनुभूति की जिज्ञासा करने वाले नचिकेता के देश में अब कोरे विश्वास, खोखले विश्वास, अनुभव को मुंह चिढ़ाते विश्वास चारोँ और चुनौती दे रहे हैं। उनकी चुनौती तो कोई नहीं स्वीकारता। हाँ, उन्हें हथियार बनाकर या ढाल बनाकर अपना उल्लू जरूर सीधा करने की कोशिश होती रहती है। विश्वास राजनीतिक दांव-पेंच का हथकंडा हो चला है।"