दिवंगत पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के बारे में सब जानते हैं कि वो बचपन में ट्रेन से अखबारों के बंडल उतारा करते थे. लेकिन यह उनका पहला रोजगार नहीं था.
दूसरे विश्व युद्ध के समय जब रोजमर्रा की चीजों की कमी हो गई थी, उन्होंने तय किया कि कुछ पैसे कमाकर फैमिली की मदद करेंगे. लिहाजा कलाम इमली के बीज जमा करने लगे. उस समय कुछ वजहों से इमली के बीज की डिमांड थी. कलाम ठीक-ठाक मात्रा में उन्हें जमा कर लेते तो उन्हें दुकान पर बेचकर उन्हें एक आना मिल जाता था. आना भारत में 1957 तक प्रचलित था. एक आने में चार पैसे होते थे.
स्कूल में या और कहीं पर भी कलाम की निगाहें सिर्फ इमली के बीज तलाशतीं. उन्हें ढेर सारा जमा करके वह लोकल दुकानदार को बेच आते. जैसे ही उन्हें आने का सिक्का मिलता, वे दौड़कर मां के पास जाते और उन्हें वह सिक्का दे देते. मां उस सिक्के को उस छोटे से बक्से में डाल देतीं, जिसमें घर की आजीविका रखी जाती थी.
जब तूफान में तबाह हुई अब्दुल कलाम की नाव
अब्दुल कलाम जब छोटे थे तो उनका परिवार नाव चलाकर आजीविका कमाता था. वे तीर्थयात्रियों को रामेश्वरम से धनुषकोडी तक नाव में ले जाते थे. नन्हे कलाम भी कई बार इस नाव में होते थे.
एक बार समंदर में भयंकर तूफान आया. शाम के समय बहुत तेज हवाएं चलने लगीं और लहरें आपे के बाहर हो गईं. लहरों ने समंदर किनारे स्थित कलाम के घर को भी चपेट में ले लिया. बारिश काफी तेज थी. कलाम का परिवार घर के भीतर अंधेरे में बैठा रहा.
कलाम अपनी ऑटोबायोग्राफी ‘माय लाइफ’ में लिखते हैं, ‘बिजली चमक रही थी और तूफान गरज रहा था. हम बच्चे अपनी मांओं के जितने पास हो सकते थे, उतने पास थे. सारी रात तूफान तांडव करता रहा और हम एक-दूसरे के पास बैठे बैठे सो गए.’
लेकिन अगली सुबह जब वे उठे तो बहुत कुछ बदल चुका था. पेड़ उखड़े हुए थे और कई घरों की छतें टूट गई थीं. स्कूल बंद कर दिए गए थे और कलाम का परिवार अपने घरों को दुरुस्त करने में जुटा था. कलाम के परिवार का बड़ा नुकसान ये हुआ था कि वह नाव जो उनकी आजीविका का सहारा थी, वह लहरों में बह गई थी. कलाम के पिता इस बात से दुखी थे, पर साथ ही शांत भी थे क्योंकि वह नई नाव खरीदने के बारे में सोच रहे थे. जलालुद्दीन (जिनसे बाद में कलाम की बहन ब्याही गईं) ने नई नाव बनाने में मदद की, जो कई सालों तक उनके परिवार के काम आती रही.
साभार : The Lallantop