11 अगस्त 2003. लखनऊ पहुंचे हुए मुझे 1 साल और 10 दिन हुए थे. लखनऊ जाने का कारण था पढ़ाई. आज सोचता हूं तो लगता है, क्या बेवकूफ़ी थी. लेकिन ठीक है. चलता है. जिस स्कूल में भर्ती हुआ, उसका नाम था लखनऊ पब्लिक स्कूल. सहारा स्टेट्स ब्रांच. आह! सहारा स्टेट्स. वो जगह जो हमारी सल्तनत होती थी. दाखिला हुआ था छठी क्लास में. जिस वक़्त का ये किस्सा है, सातवीं क्लास में हमारा आना हो चुका था. एकदम ताजा-ताजा. कुछ एक दोस्त भी बन गए थे. हालांकि देहात के माहौल से निकलकर नखलऊ (गंवारों के मुंह से ये लखनऊ निकलता था) में आकर दोस्त बनाने में काफ़ी तकलीफ़ हुई थी. वो भी तब जब क्लास में अंग्रेजी बोलना कम्पलसरी था. ऐसे में दोस्तों की संख्या बड़ी ही कम थी.
खैर, जितने भी दोस्त थे, सभी के साथ स्कूल पहुंचे. दस बजे. जबकि स्कूल की टाइमिंग 8 बजे हुआ करती थी. क्यूंकि उस दिन स्कूल में किसी को आना था. देश के प्रेसिडेंट. यानी राष्ट्रपति. अब्दुल कलाम आज़ाद. उस वक़्त मैं भी आलिया भट्ट हुआ करता था. अब्दुल कलाम आज़ाद कहता था. खुशी इस बात की थी कि कोई आ रहा है इसलिए दो दिन स्कूल में छुट्टी रहेगी.
स्कूल पहुंच कर तफ़री शुरू कर दी हो गयी. इधर उधर कूदना-फांदना. पूरी तरह से टाइमपास. मैं अपने दो दोस्तों के साथ इसी टाइम पास के क्रम में स्कूल के उस हिस्से में खड़ा था, जहां प्रिंसिपल का ऑफिस था. उससे ठीक पहले एक एंट्रेन्स गेट था, जिससे आप मेन गेट से घुसने के बाद स्कूल की बिल्डिंग के अन्दर घुसते हैं. वहीं अचानक हड़बड़ी मच गयी. हम सभी गेट की ओर देखने लगे. एक आदमी चला आ रहा था. तेज़ चाल में. आगे-पीछे लोग घूम रहे थे. वो लोग, कभी जिनके आगे-पीछे लोग घूमते थे. मैं समझ गया. यही है प्रेसिडेंट. इसी को आना था. फ़ोटो भी तो देखी थी इसकी कितनी बार पेपर में. अब्दुल कलाम आज़ाद. हमने आपस में उसके बालों को लेकर एक दो जोक मारे. एक लड़की थी हमारे ग्रुप में. उससे पूछने लगे, “तुम ऐसे बाल रख लो.” और उसके बाद एक ज़ोरदार मगर दबी हुई हंसी. और इसी बीच उसने एंट्रेन्स पर खड़ी दो औरतों से कुछ पूछा. गेट पर एक रिबन लगा हुआ था. वो वहीं थाली में कुछ तो लेकर खड़ी थीं. अब्दुल कलाम आज़ाद उनसे कुछ पूछ रहे थे. पूछने लगे कि आप क्या करती हैं. उसे जवाब मिला कि वो टीचर्स हैं. उसने पूछा कि क्या पढ़ाती हैं. उसे जवाब भी मिला “साइंस.”
वो आदमी सब कुछ सुन रहा था. सब कुछ देख रहा था. और हम उसके हर हाव-भाव पर मज़ाक उड़ा रहे थे. मैं जोक मारता रहता था. तब भी. और मुझे मालूम था नेताओं पर जोक चलते हैं. सबको पसंद आते हैं. ये प्रेसिडेंट था. यानी नेता था. यानी इसपे भी जोक बनना चाहिए. मैं बना रहा था. उसकी नक़ल कर रहा था. उसके बोलने के स्टाइल की. उसके एक हाथ को दूसरे हाथ पर रखकर, कंधे झुका कर चलने के स्टाइल की. उसके काले रंग पर. उसके हिंदी न बोल पाने पर.
वो बढ़ रहा था. स्कूल के बेसमेंट में पहुंच गया. वहां नेशनल चिल्ड्रेन साइंस फेस्टिवल चल रहा था. ये पहली किस्त थी. हमें साइंस में भी खास इन्ट्रेस्ट नहीं था. वो सभी बस हमारे लिए ‘मॉडल’ थे. एक ‘मॉडल’ बड़ा अच्छा लगा था. नौंवी क्लास के एक सीनियर ने बनाया था. हवा में एक नल की टोंटी टंगी हुई थी. और उससे पानी गिर रहा था. बिना किसी पाइप के, जिससे उस टोंटी में पानी जा रहा हो. उस मॉडल पर जब अब्दुल कलाम आज़ाद पहुंचे तो मुस्कुराने लगे. वो सभी को देख रहे थे. उन सीनियर से बात की. उनके बारे में पूछा. और फिर, अब्दुल कलाम आजाद ने वो किया जो हम सोच भी नहीं सकते थे. उसने टोंटी से गिरते पानी को पकड़ लिया. और हंसने लगे. वो सीनियर्स उन्हें देखकर हंसने लगे. उनकी हंसी में कुछ शर्म भी थी. जैसे उनकी चोरी पकड़ ली गयी हो. हम एक-दूसरे को देख रहे थे. अब्दुल कलाम आज़ाद ने वो क्रैक कर लिया था, जो हमें जादू लग रहा था. हम सोच रहे थे कि ये टोंटी में पानी पहुंच कहां से रहा है जो गिर रहा है. लेकिन उसे मालूम था कि टोंटी के पीछे तो कुछ नहीं था लेकिन उसके मुंह पर एक पतली, कांच की नली नीचे से ऊपर तक लगी हुई थी. वही नली उसे हवा में ‘टांगे’ हुई थी. उसी नली में पानी जा रहा था और वही नीचे आ रहा था. नली चूंकि ट्रांसपैरेंट थी, गिरता हुआ पानी, गिरता हुआ पानी ही दिख रहा था. नली दिख ही नहीं रही थी. और ये उस आदमी को देखते ही समझ में आ गया था.
उस दिन खूब भाषणबाजी हुई. मैंने उसे वैसे ही सुना जैसे किसी नेता को सुनना चाहिए. दोपहर होते-होते हमें उस दिन मिलने वाले अच्छे खाने का इंतज़ार होने लगा. वो मिलते ही हमारा ध्यान उस पर लग गया. वो आदमी स्कूल से चला गया.
सालों बाद, कुछ और पढ़ने, समझने, देखने, सुनने, थोड़ी ही सही मगर अक्ल आने पर अपनी इस बेवकूफ़ी का प्रायश्चित किया. हिंदी के इम्तहान में देश की महानता या ऐसे ही किसी टॉपिक पर निबंध लिखने को आया. मैंने उसमें एक लाइन लिखी थी, “जिस देश का राष्ट्रपति दुनिया के सबसे बड़े वै ज्ञान िकों में एक हो, जो देश की डिफ़ेंस रिसर्च प्रोग्राम का मुखिया हो, जो स्पेस रिसर्च करता हो, जो मिसाइल मैन ऑफ़ इंडिया कहलाता हो, उस देश का बायोडाटा बनाने की किसे ज़रूरत है?”
और हां, अब मुझे उनका नाम भी मालूम है. अवुल पाकिर जैनुलब्दीन अब्दुल कलाम.