मन की बात !
.......
अभी यूट्यूब पर Tigmanshu Dhulia पर हुआ एक प्रेंक वीडियो देख रहा था। देखते देखते न जाने कितना कुछ यादों में गुजर गया।
तिग्मांशु यानी पान सिंह तोमर, हासिल जैसी
यादगार मूवी का डायरेक्टर।
सन 1989 की बात है।
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा था।
जिसमें एक पोस्टर वर्कशाप हुआ। वर्कशाप में तिग्मांशु, प्रमोद सिंह, अजय जेटली और मेरे अलावा कई मित्र शामिल हुए।
तीन या चार दिन चला वर्कशाप।
उसके बाद मोनिर्बा में हमारे पोस्टर्स की प्रदर्शनी लगाई गई।
मुझे याद है , पता नहीं क्या हुआ कि आखिरी वक्त तय हुआ की इसे प्रतियोगिता में बदल दिया जाए।
हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार डॉ जगदीश गुप्त और उस वक्त यूनिवर्सिटी के प्रो वाइस चांसलर प्रो टी पति जज बनकर आए। प्रो पति थे तो गणित के लेकिन ना जाने कितने विषयों पर कमाल की पकड़ थी। मोनालिसा पर कई घण्टे धारा प्रवाह बोलते मेने खुद सुना और एक वाक्य या तथ्य का दोहराव नहीं हुआ।
मुझे याद है
तिग्मांशु और हम सभी मेहमानों के लिए कुर्सी वगेरह लगा रहे थे तभी मित्र Digvijai Nath Singh और गौतम पांडेय ने कहा, अबे! तेरा नाम बुलाया जा रहा है। डिग्बी यानी दिग्विजय अभी यूपी में सेल्स टैक्स कमिश्नर है। जीएसटी से जूझ रहा है फ़िलहाल।
मुझे पहला पुरस्कार मिला था।
और तिग्मांशु को शायद कुछ नहीं।
आज रात 2 बजे तिग्मांशु की वीडियो देखी और उसका अंदाज दिल में उतर गया। वही इलाहाबादी अंदाज, हाव भाव, बार बार बांह समेटना। गरियाना। सोचा जो भाव आ रहे हैं, लिख डालूँ। पता नहीं कल जिंदगी मौका दे या ना दे ? कौन जाने ?
मुस्कराया इसलिए।
क्योंकि उस रोज तिग्मांशु को शिकस्त दी थी। और आज टिशू को पता भी नहीं होगा की सुमन्त उसकी वीडियो देख रहा है।
खैर , इलाहबाद के बाद मैं टाइम्स ऑफ इंडिया में आ गया। टिशू मुंबई चला गया फिल्म में स्ट्रगल करने। शायद शेखर कपूर की टीम में रहा। यह बात मुझे दिल्ली में टिशू के बड़े भाई सुभाष धुलिया जी से पता चली थी। टिशू यानी तिग्मांशु का दुलरुवा नाम।
बहरहाल अपन पत्रकारिता और भावी पत्नी के इश्क में जुट गए और टिशू फिल्म लाइन में। प्रमोद सिंह भी मुंबई चले गए लेख न में। कहाँ हैं? पता नहीं। अजय जेटली यूनिवर्सटी में आर्ट डिपार्टमेंट में नोकरी में गए।
आज तो पेंटिंग डिपार्टमेंट का हेड हैं।
तो बात हो रही थी तिग्मांशु की ......
तिग्मांशु का पहला धमाका "हासिल" फिल्म से हुआ और "पान सिंह तोमर" से तो अलग पहचान ही बना ली।
उस समय में इंडियन एक्सप्रेस में था और हम भी तुर्रम खां समझते थे खुद को।
क्योंकि तब एक्सप्रेस का पत्रकार होना ही बड़ी बात थी।
प्रधानमंत्री से कम पर तो बात ही नहीं होती थी।
मंत्री दरवाजा खोल इंतजार करते थे
एक्सप्रेस के पत्रकारों का।
टिशू से फोन पर बात हुई जब मैं आउटलुक में था। उसी समय शायद हम फेसबुक पर भी जुड़े। लेकिन शायद वह कुछ लिखता नहीं। वक्त भी कहाँ होगा उसके पास।
आज देखा तो आखिरी पोस्ट फरवरी 2016 की दिखा रहा है फेसबुक।
आज यह सब इस वजह से लिख रहा हूँ.....
क्योंकि कोई वजह नहीं है।
बस टिशू के बतियाने के अंदाज से माटी की भूली बिसरी सौंधी महक सीधे नाक में घुसकर दिमाग में जा बैठी है।
कम्बख्त उस महक ने दिमाग को जाम कर डाला।
लिखकर कब्ज मिटा रहा हूँ अपनी।
और कुछ नहीं।
वरना लिखने और शिट करने में कोई फर्क नहीं।
दोनों के बाद ही बड़ी राहत मिलती है।
वैसे टिशू तुम फ़िल्मकार बन गए और अपन पत्रकार ।
तुमने खलनायक किरदारों को स्क्रीन पर उतार कर धन और यश कमाया।
और अपन ने खलनायक किरदारों को कागज पर उतार कर जान और परिवार के दुश्मन बनाए।
क्या गजब का फर्क है मेरे और तेरे पेशे में।
और सुतिया जनता दोनों पर वाह! वाह! करती है !
है ना ?
तुम्हारे कहे को सच मानती है
और मेरे कहे को झूठ!
क्या तमाशा है बॉस !
वैसे जिंदगी ने कभी वक्त दिया तो मिलना चाहूंगा तुमसे।
ताकि भदेस इलाहाबादी स्टाइल में तेरी मुंबइया राम कहानी सुनु।
वैसे आज तक तुम दूसरे फिल्म डायरेक्टर होंगे
जिसको सुनूँगा।
पहले सत्यजीत रे साहब थे।
जिनकी झिड़की खाकर भागा था। पर धन्य भी हुआ था।
कोई मामूली बात तो है नहीं,सत्यजीत रे साहब से झिड़की खाना ? है कि नहीं ? अबे ! लोंडा था उस वक्त। तेजस्वी यादव की तरह !
उम्मीद है तुमसे अनुभव कुछ और होगा।
पोस्ट यदि पढ़ना तो नबर इनबॉक्स कर देना।
खो गया है।
और हाँ! कभी ऐबी टैप पत्रकार पर फिल्म
बनाना तो याद करना ।
एक सलाह दूँ..
बना ही डालो !
आज पत्रकार ,नेता से भी बड़ा खलनायक !
मूल लेखक : सुमंत भट्टाचार्य