देव ! वे कुंजें उजड़ी पड़ीं
और वह कोकिल उड़ ही गयी ।
हटायीं हमने लाखों बार
किन्तु घड़ियां जुड़ ही गयीं ।।
विष्णु ने दिया दान ले लिया
कुश्लता गयी, अंधेरा मिला ।
मातृ-मन्दिर में सूने खड़े
मुक्ति के बदले मरना मिला ।।
आह की कठिन लूह चल रही
नाश का घन-गर्जन हो रहा ।
बूंद या बाण बरसने लगे
पापियों से तर्जन हो रहा ।
अमर-लोचन के धन को लिये
चलो, चल पड़ें, खुले हैं द्वार ।
गर्ज का कुश्लाम्बर ले चलें
मातृ-मन्दिर से हुई पुकार ।।
जननि के दुख की घड़ियां कटें
सजावें पूजा का साहित्य । आरती उतरे आदर-भरी
करों में लें नभ का आदित्य ।।
आज वे सन्देशे सुन पड़ें
कटे पद-कंजों की जंजीर ।
मुक्ति की मतवाली मां उठे
उठावें बेटी-बेटे वीर ।।
पाप पृथ्वी से उठ जाय
पापियों से टूटे सम्बन्ध।
प्यार, प्रतिभा, प्राणों की उठे
त्यागमय शीतल-मंद-सुगंध ।।
विजयिनी मां के वीर सुपुत्र
पाप से असहयोग लें ठान ।
गुंजा डालें स्वराज्य की तान
और सब हो जावें बलिदान ।।
जरा ये लेखनियां उठ पड़ें
मातृ-भूमि को गौरव से मढ़ें ।
करोड़ों क्रांतिकारिणि मूर्ति
पलों में निर्भयता से गढ़ें ।।
हमारी प्रतिभा साध्वी रहे
देश के चरणों पर ही चढ़े ।
अहिंसा के भावों में मस्त
आज यह विश्व जोतना पड़े ।।