अपराधी है कौन, दण्ड का
भागी बनता है कौन ?
कोई उनसे कहे कि पल भर
सोचें रह कर मौन ।
वे क्या समझ सकेंगे
उनकी खीजमयी मनुहार ।
उनका हँस कर कह देना, 'सखि,
निभ न सकेगा प्यार ।
यहीं कुचल दो, यहीं मसल दो
मत बढ़ने दो बेल
निर्मम जग के आघातों से
बिगड़ जायेगा खेल ।
मेरे लिए न करना, सखि,
तुम थोड़ा सा भी त्याग ।
जलने दो, मुझ को सुखकर है
यह जीवन की आग ।
रहने दो क्यों मोल ले रही
हो नाहक उन्माद ।
जीवन का सुख बेच रही
हो लेकर विषम विषाद ।
स्नेहसलिल अपराधी है कौन
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मोल लिया उन्माद ।
सखा बन गया जीवन का अब
उनके विषय विवाद ।
है प्रफुल्लता के परदे में
भीषण-भीषण दाह ।
अपनी इन आंखों से मैं सब
देख रही हूं आह ।
जलती हूं, ज्वाला उठती है
पा नैनों का नीर ।
क्रांति मच रही जीवन में
हूं उद्भ्रांत अधीर ।।
नहीं मार्ग अज्ञात, किन्तु मैं
फिर भी हूं गतिहीन ।
वैभव की गोदी में हूं पर
फिर भी दीन मलीन ।
कोई उनसे कहे कि मेरा
ही है सब अपराध ।
उनको अपना कहूं हृदय में
मेरी ही थी साध ।
वही साध अपराध हुई,
हो गयी हृदय का दाह ।
प्राणों का उन्माद बन गयी ।
मेरी पागल चाह ।