हमें अपने आपको एक विचारधारा में नहीं बांध लेना चाहिए, किसी मत-पंथ में नहीं बांध लेना चाहिए। हमारे मन को उड़ने की जगह देनी चाहिए, एक छेद तो रखना ही चाहिए जहां से नई बातें दिमाग में आ सकें, पुरानी बाहर निकल सकें। एक ही मान्यता में, एक सम्प्रदाय में, एक पंथ में, एक विचारधारा में मन को कैद करने से उसकी रचनात्मकता, सृजनात्मकता, उत्पादकता, नवीनता का गला घुट जाता है, कूपमण्डूक नहीं बनना चाहिए।
पोखरे में भरा पानी खुदको ही महान समझता है, पर उसमें से एक नाली नदी में जोड़ दो, नदी में पहुंचकर उसे भान होगा कि कैसी संकीर्णता में जी रहा था मैं, कितना अविकसित था, यहाँ नए जीव, नई वनस्पतियां उसे समृद्धतर कर देती हैं, फिर जब वह पहुंचता है समुद्र में तब पुनः उसकी सीमाएं खंडित हो जाती हैं, पुनः नई व्यापकता पाकर हर्षित होता है, फिर से हज़ारों नई चीजों को देख समझकर अपनी पुरानी दीनता का शोक करता है, पुराने अभिमान चकनाचूर हो जाते हैं।
योग की भाषा में हमारे मन में कोई विचार चित्त में कोई घर्षण पैदा करता है, सहयोगी विचार और संस्कारों द्वारा वो धीरे धीरे परिपक्व होकर मन का रुझान बन जाता है, बार बार फिर वही सब होने से अभ्यास बन जाता है, वह अभ्यास ही स्वभाव बन जाता है, प्रकृति बन जाती है, आदत बन जाती है, हम भी वही बन जाते हैं, इस प्रकार एक विचार में हम कैद हो जाते हैं, चित्त पर इन वृत्तियों के घर्षण को रोकना ही योग है।
हम अपने आप को विचारों की एक निश्चित परिधि में हमेशा कैद रखते हैं, पर जब हम हमारी परिधिओं से बाहर निकलते हैं तब हमें अहसास होता है, क्या हमारे विचार सही थे? आचार, व्यवहार सही थे? विचारधारा सही थी, हमारी परिधि कितनी संकुचित थी, मन कैसी संकीर्णता में घिरा था यही विचार फिर हमारी धारणाएं बदल देता है, विचारधाराएं बदल देता है, पर हम पर निर्भर करता है कि किस दिशा में हम खुद को मोड़ ले रहे हैं। परिधि बनाना मन की स्वतंत्रता छीन लेता है, मन की शक्तियों का विकास रोक देता है, खुद को परिच्छिन्न बना लेना है।
एक साधारण आदमी की दृष्टि अपने परिवार तक ही सीमित रहती है, राष्ट्र के प्रति समर्पित व्यक्ति का कार्यक्षेत्र अपने राष्ट्र तक ही सीमित रहता है, एक मत वाला व्यक्ति मतान्ध होकर अपनी बात को ही सब पर थोपना चाहता है। हालाँकि सभी लोग इस विशाल अंतरिक्ष में रहते हैं फिर भी
ज्ञान , विचार, पुरुषार्थ में असमानता के कारण जिस प्रकार के संस्कार मानव के अन्तःस्थल में होते हैं उन्हीं के कारण या तो वो संकुचित दायरे से बाहर आ जाता है या फिर अपनी परिधि की संकीर्णता में ही आनन्द मनाने लगता है। परिधि से अतीत हो जाना ही अनन्त हो जाना है, यही मुक्ति है, मोक्ष है, परिधि से अलग होकर ब्रह्म हो जाता है।
सनातन वैदिक धर्म में मन की उड़ान के लिए असीमित आकाश है, इसलिए मत-मतान्तरों-वादों में बंध जाना हमारे लिए ठीक नहीं है। हमेशा नई खोज नए अनुसन्धान नए शोध में लगे रहना चाहिए, पर शास्त्रों, गुरु और पूज्य आचार्यों के मार्गदर्शन में। पर यह सब बातें केवल सनातन वैदिक धर्म के लिए ही हैं, अन्य सारे मत-वाद गर्त हैं।
यजुर्वेद ने कहा, "उरु अन्तरिक्षं अन्वेमि" बड़े विशाल अंतरिक्ष में मैं जाता हूँ...