जीवन में हर कोई सफल बनना चाहता है । वह पढ़ लिख कर आगे बढ़ना चाहता हैं । हर कोई किसी न किसी तरीके से अपने जीवन में आगे बढ़ता हैं और हर किसी का कुछ ना कुछ बनने का सपना जरूर होता है जैसे कि कोई डॉक्टर बनना चाहता है । कोई इंजीनियरिंग तो कोई वकील इत्यादि .... मैं विकास ठाकुर .. रतन ठाकुर का तृतीय सुपुत्र जिसे हर कोई नालायक की दृष्टि से ही देखता था लेकिन इस नालायक ने कभी किसी से यह नहीं कहा कि वह डाॅक्टर बनना चाहता है । वह तों अपने लक्ष्य को निर्धारित कर सिर्फ उसे ही पाने की तरफ प्रयासरत था । बचपन में घटी एक घटना ने विकास ठाकुर के मानसपटल पर ऐसी दुखद स्मृतियां छोड़ी थी कि उसे अपने लक्ष्य को निर्धारित करने में कुछ और सोचने की आवश्यकता नहीं पड़ी । बच्चें जिस उम्र में अपनी माॅं का साथ हर पल चाहते है उस उम्र में विकास ठाकुर ने अपनी माॅं को डाॅक्टर के सही वक्त पर नहीं आने की वजह से खो दिया था । छोटा विकास अपनी माॅं से बहुत प्यार करता था । उसे उस दिन उस डाॅक्टर पर बहुत गुस्सा आया था तभी तो आठ वर्ष के बच्चें ने चालीस साल के डाॅक्टर के काॅलर को पकड़ लिया था । वह अपनी माॅं की मृत्यु का जिम्मेवार उस शहर से आएं हुए डाॅक्टर को ही तो समझ रहा था । गाॅंव के मुखिया और कुछ प्रतिष्ठित सदस्यों द्वारा समझाने जाने पर आठ बरस के विकास को सिर्फ इतना ही समझ आया कि उनके गाॅंव में भी अगर शहर के जैसे अस्पताल और डाॅक्टर होते तो आज उसकी माॅं उसके पास होती और वह अपनी माॅं की गोदी में सिर रखकर उनसे अपने देश के वीर पुरूषों की कहानियां सुन रहा होता । उसकी माॅं उसे हमेशा से ही शिवाजी , पृथ्वीराज चौहान , महाराणा प्रताप , चंद्रगुप्त मौर्य , लक्ष्मीबाई इत्यादि की वीरता की कहानी सुनाती रहती थी । बढ़ती उम्र में बच्चों के मन में अनेकों सवालों का उठना स्वाभाविक ही है । छोटे विकास के मन में उठते सभी सवालों के जवाब उसकी माॅं ही उसे देती । माॅं की मृत्यु के पश्चात वह शांत रहने लगा । पिता से वह पहले से भी उतना घुला - मिला नहीं था । पिता ने भी पत्नी के जाने के बाद शराब का सहारा लें लिया था । उसके पिता को कोई सुध नहीं थी कि उसके घर में क्या हो रहा है । वों तो विकास की बूढ़ी दादी अभी जिंदा थी जिन्होंने अपनी बहू की मौत के बाद अपने घर को संभाल लिया था । खाना और बच्चों की देखभाल तो उन्होंने संभाल ली थी लेकिन नहीं संभाल पाई थी तो अपने घर की गरीबी और अपने बेटे के बदलते मिजाज को । गाॅंव के मुखिया जी ने विकास की दादी को सलाह दिया कि हमारे गाॅंव के बहुत परिवार अब शहर में रह कर ही मेहनत - मजदूरी कर अपने परिवार का पेट पाल रहें हैं इसलिए आपलोग शहर जाकर रहों । भले आदमी थे मुखिया जी तभी तो विकास ठाकुर के परिवार के रहने और नौकरी करने का तक का इंतजाम उन्होंने शहर में कर दिया था । वह दिन भी जल्द आ गया जब विकास ठाकुर , उसके बड़े दोनों भाई , पिता और दादी सभी शहर आ गए । विकास को अपना गाॅंव , अपना घर और उस घर में माॅं के साथ बिताए वह खुशनुमा पल अक्सर याद आते । अकेले में याद कर वह घंटों रोता रहता । उसे हमेशा ही लगता कि उसकी माॅं उसके आस - पास ही है और उसे उसके लक्ष्य की तरफ बढ़ने के लिए प्रेरित कर रही है । मेरे से बड़े दोनों भाई पहले ही पिता का नाम रौशन कर आइएएस बन चुके थे । मैं सबसे छोटा ... ऊपर से मुझ पर यह दवाब कि मुझे भी अपने से बडो़ दोनों भाईयों की तरह अपने पिता का नाम रौशन करना ही है । बचपन से एक ही चाहत थी की डाॅक्टर बनूं। अपने गाॅंव के लोगों का इलाज कर उनकी दुख तकलीफ को कम करूं । उन्हें इतनी दूर शहर ना आना पड़े । किसी बेटे के जीवन में ऐसा दिन कभी ना आएं कि उसे अपने माता-पिता से इसलिए जुदा होना पड़े कि डाॅक्टर वक्त से नही पहुॅंचा । मैं अपने लक्ष्य की तरफ प्रयत्नशील भी हूॅं लेकिन दोनों भाइ कह रहे हैं कि हमारी तरह प्रशासनिक अधिकारी बनकर पिताजी का नाम रौशन करों । ईश्वर की कृपा से तुम्हारी कद-काठी भी ठीक - ठाक ही हैं । मैं प्रशासनिक अधिकारी कैसे बन सकता हूॅं ? मेरी चाहत तो कुछ और ही ......... ......... दादी को गुजरे ५ साल बीत चुके हैं । दादी होती तो मेरे मन की बात समझ लेती लेकिन मेरे पिता और दोनों भाई बचपन में मुझे नहीं समझ सके तों अब क्या समझेंगे ? मैं अपने सपनों के टूटने से रोता .. रोता कब नींद की आगोश में चला गया मुझे खुद पता नहीं । सुबह जब उठा तो मुझे सिर्फ यह पता था कि मुझे यदि अपने लक्ष्य को पाना है तो अपनों के विरुद्ध मुझे जाना ही होगा क्योंकि कल रात माॅं ने भी सपने में आ मुझे भगवान श्री कृष्ण द्वारा अपनों के लिए गीता में कही बातों को समझाया था । अब मैंने निश्चय कर लिया था कि मुझे कितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़े लेकिन मुझे डॉक्टर बनना ही है । मैंने शहर में ही अपने पिता और भाइयों से अलग रह कर ट्यूशन बनाना शुरू किया और दिन - रात मेहनत कर अपने लक्ष्य को पाने की ओर बढ़ता रहा । एंट्रेंस एग्जाम में अच्छे नंबरों से पास होने का फायदा मुझे मिला और सरकारी कॉलेज में मेरा एडमिशन हो गया। वहां पर मैंने लगभग ५ साल मन लगाकर पढ़ाई की और अच्छे नंबरों से पास भी हो गया । १ साल मेडिकल कॉलेज में इंटर्नशिप करने के बाद मैं एमबीबीएस डॉक्टर बन गया। एमबीबीएस करने के बाद २ साल का ग्रामीण सेवा का बांड भर कर अपने गाॅंव में ही मैंने अपना तबादला करवा लिया । बहुत खुश था मैं । इतने सालों के बाद गाॅंव जाने का सोच कर ही मन प्रफुल्लित हो रहा था। रह - रह कर बचपन में देखे गाॅंव की छवि मेरी ऑंखों के सामने उभर रही थी और मैं उसी छवि से अपने गाॅंव को देखता हुआ गाॅंव जाने वाली ट्रेन में बैठ चुका था । ऐसा नहीं था कि विगत वर्षों में मुझे गाॅंव जाने का मन नहीं हुआ हो। कई बार तो मैं रेलवे स्टेशन पर आकर उस ट्रेन को निहारता रहता था जो ट्रेन मेरे गाॅंव की तरफ जाती थी लेकिन गाॅंव जाने वाली उस ट्रेन में में कैसे बैठ सकता था क्योंकि गाॅंव से निकलते समय जो मैंने प्रण लिया था ? उस प्रण को पूरा किए बगैर मैं अपने गाॅंव में कदम कैसे रख सकता था ? आज मेरा वह प्रण पूरा हो चुका है । अब जब मैं डॉक्टर बन चुका हूॅं ऐसे में मैं अपने गाॉंव को कैसे भूल सकता हूॅं ? मेडिकल कॉलेज में मेरे साथ पढ़ने वाले अधिकांश युवा अपने गाॅंव से निकलने के पश्चात उस मिट्टी को भूल जाते हैं जहाॅं वह पले - बढ़े थे ... जिस मिट्टी में उन्होंने अपना बचपन गुजारा था ... जिस मिट्टी ने अपने सीने से लगाकर उन्हें ठंडक दी थी .... गांव की जिस बरगद की छांव में वें घंटों खेला करते थे और उसकी शीतल छाया उन्होंने अपने ऊपर पाई हुई रहती है । उन सब के प्रति युवाओं की कोई जिम्मेदारी नहीं होती । वह तो बस इस प्रगतिशील देश में अपनी प्रगति करना चाहते हैं । मेडिकल कॉलेज से निकले डॉक्टरों को सरकार द्वारा जब गाॅंव में जाकर लोगों की सेवा करने का काम सौंपा जाता है तों वहाॅं ना जाने के उनके पास हजारों बहाने होते हैं यहां तक की वहां उन्हें ना जाना पड़े इसके लिए वें बहुत बड़ी रकम देकर उस गाॅंव में नहीं जाते हैं लेकिन मेरी यह सोच नहीं है । जिस गाॅंव ने मुझे इतना सब कुछ दिया । मुझे तो डॉक्टर बनने का लक्ष्य भी उसी गाॅंव से प्राप्त हुआ है इसलिए मैं अपने गाॅंव को बहुत कुछ लौट आना चाहता हूॅं मैं वहाॅं जाकर जीवनपर्यंत काम करना चाहता हूॅं । वहाॅं के लोगों की सेवा करना चाहता हूॅं । एक डॉक्टर होने के नाते मुझसे जो बन पड़ेगा मैं उसे अपना कर्म समझकर करूंगा और साथ ही अपने गाॅंव के विकास के लिए भी प्रयत्नशील रहूंगा । मेरी सोच की उड़ान को और भी कल्पनाओं का साथ मिलता लेकिन मेरी ऑंखें स्टेशन पर लगे बोर्ड को देखकर चौंक गई । अरे .... मेरा गाॅंव आ गया । मैंने जल्दी-जल्दी अपना सामान समेटा और अपने गाॅंव के स्टेशन पर उतर गया । स्टेशन से करीब २ किलोमीटर की दूरी पर मेरा गाॅंव था । मैं चाहता तो स्टेशन के बाहर खड़ी गाड़ियों में बैठकर अपने गाॅंव तक जा सकता था लेकिन मुझे अपने गाॅंव को .. उसके हर एक रास्ते को अपने दिल में महसूस कर आगे बढ़ना था । उन पलों को मैं खुद ही जीना चाहता था । उन रास्तों पर मैं अपने पांव से चलकर जाना चाहता था जिन पर मैं कभी अपने नन्हे - नन्हे पावों से दौडा़ करता था । एक हाथ में सूटकेस लिए मैंने अपने ११ नंबर की बस पकड़ी और निकल पड़ा गाॅं व की उन्ही पगडंडियों पर जिन पर मेरा बचपन गुजरा था । आगे बढ़ा तो मुझे गांव की मिट्टी दिखी मैंने उस मिट्टी को उठाकर अपने माथे पर लगा लिया लेकिन यह क्या ? अपने ही गाॅंव की मिट्टी में वो सोंधी गंध ना थी जिस की महक मुझे यहाॅं तक खींच लाई थी । जिन पीपल के पेड़ के नीचे हम घंटों खेलते थे वह बुड्ढा पीपल ठूंठ बना खड़ा था । अब उसके नीचे शीतल छांव नही थी । ताल - तलैया सूख चुके थे। खेत- खलिहान सब उजड़ चुके थे । जिस पनघट पर मेरी माॅं और गांव की चाची ...काकी ...दादी पानी भरती थी । अब वही पनघट वीरान पड़ा था । सारे नए - नए चेहरे थें । काका ....बाबा ....काकी ....भैया ... दादी .... भाभी..... हर एक रिश्ता अब अनजान बना था । किसी ने कुशल - क्षेम भी ना पूछी और ना ही उनके चेहरे पर मुस्कान ही थी सभी की आंखों में एक दर्द था । मैं इतने सालों के बाद आया इसीलिए सब मुझे पहचान नहीं रहे हैं जब मैं अपना परिचय दूंगा तब शायद ये सभी मुझे पहचानने लगे। इसी आशा में मैं चौपाल की तरफ बड़ा लेकिन वहाॅं पर भी वीरानी ही छाई हुई थी । पास ही नीम का पेड़ था जिस पर गाॅंव के सभी बच्चें बचपन में सावन के झूले झूलते थे । वह नीम का पेड़ आज भी था लेकिन अब उसकी लंबी लंबी डाल नहीं थी । पहले की अपेक्षा गाॅंव में लोग भी नहीं थे । स्कूल और आंगनवाड़ी की दीवारें ढह चुकी थी । उसी में कुछ बच्चे पढ़ रहे थे। शिक्षक भी नाममात्र के ही थे । मैं मुखिया जी के घर की तरफ बढ़ा । मुखिया जी के घर में भी वीरानी छाई हुई थी । जिस मुखिया जी के घर के आगे लोगों का जमघट लगा रहता था उसी घर के आगे आज कोई नहीं था । मैं उनके घर के दरवाजे पर गया । मैंने मुखिया जी ...मुखिया जी.... कहकर आवाज लगाई। अरे ...कौन हो भाई ? जो मुखिया जी... मुखिया जी... चिल्ला रहे हो ? अब मैं इस गाॅंव का मुखिया नहीं हूॅं । आवाज की तरफ नजर घुमाई तो देखा खटिया पर एक जर्जर काया लेटी हुई थी । मुखिया जी तो बहुत बड़े हो गए लगता है शायद जीवन के अंतिम क्षणों में पहुंच चुके हैं। मैं यह सोच ही रहा था कि मुखिया जी ने हाथ के इशारे से मुझे अपने पास बुलाया । मैं उनके पास गया । मैंने झुक कर उन्हें प्रणाम किया उन्होंने हाथ उठा कर आशीर्वाद दिया जैसे वह मुझे बचपन में दिया करते थे। मैंने जब उन्हें अपने माता पिता का नाम बताया और मुझे पहचान गए । उनकी आंखों में आए आंसू मुझे यह एहसास दिला रहे थे कि उन्होंने हमारे परिवार को नहीं भूलाया है । मैंने जब उनके परिवार के बारे में पूछा तो उनके आंखों से अविरल अश्रु बहने लगे। उनकी आंखों से बहते अश्रुओं की धारा देखकर मैं समझ गया कि वह अपनी पत्नी के साथ वहां पर अकेले रहते हैं । जीवन के अंतिम क्षणों में अपने गांव से दूर नहीं जाना चाहता था अपने गांव को नहीं छोड़ना चाहता था इस कारण हमारे बच्चों ने हमें छोड़ दिया लेकिन कोई बात नहीं जहां मैंने जन्म लिया अपने कर्म की वहीं पर प्राण निकले इसी में मुझे स्वर्ग की प्राप्ति मिलेगी ... मुखिया जी द्वारा कहे इन शब्दों ने मेरे गांव के प्रति अपने कर्तव्य को निभाने की मेरी दृढशक्ति को और भी बढ़ा दिया । जब मैंने उनसे कहा कि मैं गांव में डॉक्टर बन कर सिर्फ इसलिए आया हूॅं ताकि अपने गाॅंव में एक बहुत बड़ा अस्पताल बनवा सकूं और उसमें जीवनपर्यंत गाॅंव के लोगों की सेवा कर सकूं । मेरी माॅं जिस तरह बीमारी में मर गई । मैं चाहता हूॅं कि इस गाॅंव के लोग वैसे ना मरे और उन्हें शहर जाने की जरूरत ना हो । इस गाॅंव के लिए मुझसे जितना हो पड़ेगा मैं करूंगा । इस वीरान पड़े गाॅंव में उन लोगों को भी लाने की कोशिश करूंगा जिन्हें यहाॅं से सुख - सुविधाओं और पर्याप्त सुविधा के अभावों के कारण इस गाॅंव को मजबूरी में छोड़ना पड़ा था । मैं इस गांव में को पहले की तरह ही खुशहाल बनाना चाहता हूॅं । इस वीरान गाॅंव को देखकर मुझे बहुत दुख हो रहा है और मैं चाहता हूॅं कि मेरे इस कार्य में आप मेरी मदद करें । आप मेरे मार्गदर्शक बने । आपकी छत्रछाया में मैं इस गाॅंव के विकास में अपना योगदान देना चाहता हूॅं । यहाॅं रह रहे युवाओं के साथ मिलकर मैं इस गाॅंव का उत्थान करना चाहता हूॅं । वीरान गाॅंव की इस बंजर पड़ चुकी भूमि को हरियाली में तब्दील करना चाहता हूॅं । मुखिया जी ने अपनी भीगती आंखों से मुझे बड़े ही स्नेह से देखा और आंखों के इशारे से मेरी मदद करने के लिए तैयार हो गए उन्होंने मेरे रहने खाने-पीने सभी का इंतजाम कर दिया था । मैं उन्हीं के साथ और उन्हीं के पास रहकर अपने गांव के विकास के कार्यों में लग गया । मैं जानता हूॅं कि यह इतना आसान नहीं है। इसमें मुझे सालों लग जाएंगे लेकिन अपने गाॅंव के लिए मैं अपना यह जीवन हंसते-हंसते कुर्बान करना चाहता हूॅं क्योंकि मैं इस वीरान गाॅंव का ऐसा बेटा हूॅं जिसे मेरी और मेरे जैसे अनेकों युवाओं की जरूरत है । धन्यवाद 🙏🏻🙏🏻 " गुॅंजन कमल " 💓💞💗
6 फ़ॉलोअर्स
4 किताबें