पांच नदियों से घिरे होने के बावजूद बुंदेलखंड क्षेत्र पीने के पानी तक को तरस रहा है और यह देखकर प्रधानमंत्री ने हाल ही में गहरी पीड़ा व्यक्त की है, लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ पीड़ा व्यक्त करने भर से समस्याओं का हल संभव है? यूं तो पूरे देश के किसान बेहाल हैं, परेशान हैं, किन्तु बात जब बुंदेलखंड क्षेत्र की आती है तो यह बेहद कटु अनुभव जैसी पीड़ा का अनुभव कराता है. सूखे से बेहाल इस क्षेत्र के लोगों के पेट से उफन रही भूख-प्यास की आग पर सियासत की रोटियां खूब सेंकी जाती हैं, किन्तु अगर कुछ नहीं बदलता है तो वह हैं यहाँ के ज़मीनी हालात. इस सन्दर्भ में, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने साफ़ तौर पर कहा है कि बुंदेलखंड का विकास उनकी प्राथमिकता में शामिल है, किन्तु सवाल यहाँ भी वही है कि क्या प्रशासन और नौकरशाही अपने सीएम की उत्तम भावनाओं के क्रियान्वयन को भी प्राथमिकता देगी? यूपी के मुख्यमंत्री ने अपनी हालिया यात्रा में, वहां कई योजनाओं की आधार शिला रखी तो बुंदेलखंड के विकास के लिये महत्वपूर्ण घोषणाएं भी की है. एक सोलर प्लांट का लोकार्पण, कालपी नेशनल हाइवे 91 के फोरलेन का उदघाटन और इसके साथ ही साथ बुंदेलखंड में 108 योजनाओं का लोकार्पण उत्तर प्रदेश सरकार की कथनी और करनी में समानता का बोध जरूर कराता है, हालाँकि इस क्षेत्र के लिए और अतिरिक्त प्रयासों की बेहद आवश्यकता भी दिखती है. सरकारी सूत्रों की मानें तो वर्षों से उपेक्षित बुंदेलखंड में यूपी सरकार द्वारा बहुत बड़ी पहल को अंजाम दिया गया है. इस सन्दर्भ में, ललितपुर में पावर प्लांट के साथ बुंदेलखंड के लिये सरकार बजट में विशेष व्यवस्था के लिए दृढ-प्रतिज्ञ दिख रही है. बुंदेलखंड में सबसे ज्यादा बिजली निर्माण होने को अखिलेश सरकार अपनी उपलब्धियों में गिना रही है तो मुख्यमंत्री ने पूर्ववर्ती सरकार पर तंज कसते हुये कहा है कि एक सरकार कागजों पर डैम बनवाती थी, लेकिन वर्तमान सरकार ठोस कार्यों में यकीन कर रही ही. बागवानी के लिये पॉलिसी और बुंदेलखंड में सड़कों की हालत सुधारने पर कार्य किये जाने को अखिलेश यादव अपने सरकार की प्राथमिकता मान रहे हैं तो आने वाले समय में प्रयासों को तेज किये जाने की जरूरत भी पहचान रहे हैं. अखिलेश सरकार ने बुंदेलखंड की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए प्रदेश के बजट में सूखे की मार झेल रहे बुंदेलखंड समेत प्रदेश के 50 जिलों के लिए 2057 करोड़ का बजट आबंटित किया भी है. बुंदेलखंड में जिन दुसरे प्रयासों को अखिलेश सरकार ने किया है, उसमें स्पेशल स्कीम फंड को 71.50 करोड़ से बढ़ाकर 200 करोड़ किया गया है तो पीने के पानी के लिए 200 करोड़ रुपये आबंटित किये गए हैं. इसी कड़ी में, ग्रामीण इलाकों में पीने के पानी के लिए 500 करोड़ रुपये और स्पेशल स्कीम के लिए 338 करोड़ रुपये के साथ ऑयल सीड प्लांट लगाने के लिए 15 करोड़ रुपये का ज़िक्र मुख्य रूप से किया जा सकता है. दुसरे अन्य प्रावधान जो अनेक मदो में किये गए हैं, वह तो इसमें शामिल हैं ही.
इन सबके बावजूद, दो राज्यों के बीच फंसे बुंदेलखंड से प्यासे-लाचार लोगों का पलायन जारी है और यह स्थिति इतनी विकट हालत में है कि कई जिलों की तो आधी आबादी अपने घर गांव छोड़कर कहीं और जा चुकी है. साफ़ तौर पर समस्या सिर्फ यूपी सरकार के प्रयासों से दूर नहीं होने वाली, बल्कि समाज को भी इन मामलों में बेहद सजग भूमिका निभानी ही होगी. कहना बेमानी होगा कि राजनीति इस समस्या को सच में समझना चाहती भी है अथवा जानबूझकर इस शोषित-पीड़ित क्षेत्र को विकास की राह पर चलने देना ही नहीं चाहते, ताकि वोट बटोरने का कार्य अनवरत चलता रहे! कभी राहुल गांधी तो कभी दुसरे राजनेता यहाँ आकर फोटो-सेशन जरूर करा लेते हैं, लेकिन समस्या के हल पर ध्यान देना शायद ही जरूरी समझते हों! थोड़ा पीछे जाकर इन समस्याओं का आंकलन करें तो हम पाते हैं कि कम वर्षा की समस्या के बावजूद यहां के बाशिंदे कम पानी में जीवन जीना जानते थे, किन्तु आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल प्रबंधन तंत्र नष्ट हो गये और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे शब्दों ने ले ली. बुंदेलखंड के स्वाभिमानी लोगों को 'दया का पात्र' बना दिया गया तो अब 'राहत का इंतजार' सभी को स्वाभाविक रूप से रहता है. लोग बाग़ भी सूखे की 'मलाई वाली राहत' की चाह में, प्रकृति की इस नियति को नजर अंदाज करते हैं और समस्या जस की तस बनी रहती है. राजनीति के साथ समाज भी इस बात को भूल चुका है कि इस क्षेत्र के उद्धार के लिये किसी राहत पैकेज से ज्यादा वहां के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की दरकार है, जिसमें पानी की बर्बादी को रोकना, लोगों को पलायन के लिये मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देने के साथ जल-संरक्षण के उपायों को अपनाना शामिल हो सकता है. तकरीबन 1.60 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल के इस इलाके की आबादी तीन करोड़ से अधिक है, तो यहां हीरा, ग्रेनाइट की बेहतरीन खदानें हैं, साथ ही साथ अमूल्य यूरेनियम की खोज में भी अच्छे संकेत मिले हैं. यहां के जंगल तेंदूपत्ता, आंवला, सागौन जैसी बेशकीमती लकड़ी से पटे पड़े हैं, किन्तु इसका लाभ स्थानीय लोगों को न मिलकर चंद रसूखदारों को मिलता है, जिससे यहाँ के लोग गरीब और मजदूर बने रहने को मजबूर हैं. बिडम्बना यह है कि बुंदेलखंड खदानों व अन्य करों के माध्यम से सरकारों को अपेक्षा से अधिक टैक्स उगाह कर देता है लेकिन इस राजस्व आय का बीस फीसदी भी यहां खर्च नहीं होता, जो आधारभूत अन्याय की रूपरेखा तय कर देता है. बुंदेलखंड के पन्ना का हीरा और ग्रेनाईट, खदानों में गोरा पत्थर, सीमेंट का पत्थर और रेत बजरी के भंडार से संपन्न यह क्षेत्र खून के आंसू रोने को क्यों मजबूर है, यह प्रश्न दशकों से जस का तस है. खजुराहों, झांसी, ओरछा, महोबा जैसे पर्यटन स्थल देशी सहित विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करते हैं तो अनुमानतःदोनों राज्यों के बुंदेलखंड-क्षेत्र को मिलाकर कोई एक हजार करोड़ की आय सरकार के खाते में जमा होती है, लेकिन विकास के पैमाने पर इस क्षेत्र को फीसदी बने रहने को मजबूर किया गया है तो इसका दोषी कौन है, इस बात का जवाब देने वाला कोई नहीं मिलता है!
मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार भी जब-तब राहत की घोषणा करके समस्याओं के स्थाई हल से दूर ही भागती है. काश! यह सभी लोग मिलकर उन तथ्यों की ओर गौर करते, जिनसे यह क्षेत्र कभी बेहद समृद्ध हुआ करता था. चंदेल राजाओं ने उस उन्नत तकनीक के साथ तालाबों का निर्माण कराया था, जिसमें एक तालाब में पानी भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था, यानि बारिश की एक-एक बूंद पानी का संरक्षण होता था. निजी स्वार्थ और सरकारी उपेक्षा के कारण यह जीवांत संस्कृति अब मृतप्राय हो चुकी है. शहरी तालाब तो गंदगी ढोने वाले नाले बनकर रह गये हैं. बदलते समय के साथ शहरों सहित गांव भी भूगर्भीय जल स्रोतों पर निर्भर हो गये हैं और तालाबों, कुओं को भूलना किस कदर महंगा पड़ रहा है, यह बुंदेलखंड के जीवंत उदाहरण से समझा जा सकता है. देश के अन्य क्षेत्रों में भी जल-संकट उत्पन्न होता जा रहा है, जिन्हें इस वाकये से सीख लेकर पारम्परिक जल-संरक्षण के उपायों को जीवंत करने की आवश्यकता महसूस करनी ही चाहिए. इन पूरी स्थितियों से बुंदेलखंडी किसान सिंचाई से वंचित हो गया है तो तालाब सूखने से भूगर्भ जल का भंडार भी गड़बड़ा गया है. पिछले कुछ वर्षों में भूगर्भ को रिचार्ज करने वाले तालाबों का उजड़ना और अधिक से अधिक टयूबबेल, हैंडपंपों पर आधारित होने का परिणाम है कि यह इलाका भीषण सूखे की चपेट में आ चुका है, जिस पर सरकारों द्वारा मूलभूत ध्यान न दिया जाना घोर चिंता उत्पन्न करता है. नलकूप लगाने में खर्च किये गये अरबों रुपये पानी में बह गये हैं, क्योंकि इस क्षेत्र में लगे आधे से अधिक हैंडपंप अब महज शो-पीस बनकर रह गये हैं. कभी बुंदेलखंड के 41 फीसदी हिस्से पर घने जंगल हुआ करते थे, जो सिमट कर वर्तमान में 10 फीसद तक रह गए हैं. ठेकेदारों ने जमकर जंगल उजाड़े हैं और सरकारी महकमे ने कागजी पेड़ लगाये हैं, जिससे स्थिति में बदलाव की उम्मीद अपने आप में बेमानी बात बन है. यदि बुंदेलखंड के बारे में ईमानदारी से काम करना है तो सबसे पहले यहां के तालाबों का संरक्षण, उनसे अतिक्रमण हटाना, तालाबों को समाज की संपत्ति घोषित करना सबसे जरूरी है. दूसरा इलाके के पहाड़ों को अवैध खनन से बचाना, पहाड़ों से बहकर आने वाले पानी को तालाब तक निर्बाध पहुंचाने के लिये उसके रास्ते में आए अवरोध, अतिक्रमणों को हटाना जरूरी है. बुंदेलखंड में केन, केल, धसान जैसी गहरी नदियां हैं जो एक तो उथली हो गई हैं, दूसरा उनका पानी सीधे यमुना जैसी नदियों में जा रहा है. इन नदियों पर छोटे बांध बनाकर पानी को रोका जा सकता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के बरेली में किसान रैली को संबोधित करते हुए हाल ही में कहा है कि हमें अपने किसान को तकदीरवाला बनाना होगा. अगर किसान को पानी मिल जाए तो मिट्टी से सोना पैदा होगा. किसानों को देश की शान बताते हुए प्रधानमंत्री ने कहा, 'मैं कामना करता हूं कि जब देश 2022 में आजादी के 75 साल पूरे होने का जश्न मना रहा होगा, किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी.' इस क्रम में केंद्र सरकार को इस क्षेत्र के लिए मदद बढ़ाने के साथ-साथ समाज को जागरूक करने के लिए भी आगे आना होगा. इस क्रम में कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार के बाद केंद्र सरकार के प्रयासों से पूरे देश के साथ-साथ बुंदेलखंडी लोगों की हालत सुधरने की उम्मीद जगी है, किन्तु यह उम्मीद किस हद तक कार्यान्वित होती है, यह देखने वाली बात होगी. इन सभी प्रयासों में जो बात सर्वाधिक अहम है वह यह है कि एक समन्वित नीति के तहत दोनों राज्य सरकार, केंद्र सरकार और वहां के स्थानीय समाज को जल-संरक्षण के मामलों में जागरूक किये वगैर समस्या के स्थायी हल की उम्मीद नहीं की जा सकती है. नौकरशाही को भी बजाय चंद रहत सामग्री वितरित किये जाने की सलाह देने के नेताओं और मंत्रियों को स्थाई हल की योजना बतानी चाहिए, जिससे इस क्षेत्र का गौरव वापस आ सके.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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