दिल्ली: 23 मार्च को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत को याद करने का दिन होता है. सब तरफ इंकलाब ज़िंदाबाद के नारे सुनाई देते हैं और भगत सिंह और उनके साथियों की याद में तरह तरह के सरकारी गैर सरकारी आयोजन होते हैं. लेकिन क्रांतिकारियों के नाम पर नारे लगाने की रस्म निभाने के सिवाय हम एक समाज के तौर पर हमारे लिए संघर्ष करने वालों को लेकर कितने असंवेदनशील और कृतघ्न हैं , इसकी मिसाल भगत सिंह के साथी बटुकेश्वर दत्त की दुखद दास्तान है जो असेम्बली बम काण्ड में भगत सिंह के साथ पकडे गए थे और काला पानी की सजा पूरी करने के बाद आज़ाद हिंदुस्तान में बेहद बदहाली में जिए. रोज़ी रोटी के लिए उन्हें जगह-जगह जूझना पड़ा। सिगरेट कंपनी के सेल्समेन बने, बिस्कुट-डबलरोटी बेची और जब अपनी ट्रांसपोर्ट सर्विस शुरू करने के लिए बस का परमिट मांगने गए तो सरकारी अफसर ने उनसे बटुकेश्वर दत्त होने का सबूत मांग लिया.और जिस दिल्ली में बम फेंकने के इल्ज़ाम में वो भगत सिंह के साथ पकड़े गए थे, उसी शहर में उन्होंने एम्स में लाचार हालत मेंदम तोडा.
रामप्रसाद बिस्मिल की मां की कहानी तो और भी हृदय विदारक है जिसका ज़िक्र भगत सिंह के सहयोगी शिव वर्मा ने अपने संस्मरणों में किया है .
जेल से छूटने के बाद शिव वर्मा रामप्रसाद बिस्मिल की मां से मिलने गए थे. उस मुलाकात का मार्मिकवर्णन करते हुए शिव वर्मा लिखते हैं -
“अशफ़ाक़ और बिस्मिल का यह शहर (शाहजहांपुर) कॉलेज के दिनों में मेरी कल्पना का केंद्र था। फिर क्रान्तिकारी पार्टी का सदस्य बनने के बाद काकोरी के मुखबिर की तलाश में काफी दिनों तक इसकी धूल छानी थी। अस्तु , यहाँ आने पर पहली इच्छा हुई बिस्मिल की मां के पैर छूने की. काफी पूछताछ के बाद उनके मकान का पता चला। छोटे से मकान में दुनिया की नज़रों से अलग वो वीर प्रसविनी अपने जीवन के अंतिम दिन काट रही थी । Unknown, unnoticed.
पास जाकर मैंने पैर छुए। आँखों की रोशनी समाप्त सी हो चुकने के कारण पहचाने बिना ही उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया और पूछा, " तुम कौन हो?"
क्या उत्तर दूँ समझ नहीं आया।
थोड़ी देर बाद उन्होंने फिर पूछा, " कहाँ से आए हो बेटा?" इस बार मैंने साहस कर अपना परिचय दिया , " गोरखपुर जेल में अपने साथ किसी को ले गईं थीं अपना बेटा बनाकर?" अपनी ओर खींचकर सिर पर हाथ फेरते हुए माँ ने पूछा," तुम वही हो बेटा? कहाँ थे अब तक? मैं तो तुम्हें बहुत याद करती रही , पर जब तुम्हारा आना एकदम ही बंद हो गया तो समझी कि शायद तुम भी कहीं उसी के रास्ते पर चले गये। "
माँ का दिल भर आया। कितने ही घावों पर एक साथ ठेस लगी। अपने अच्छे दिनों की याद, बिस्मिल की याद, फाँसी, तख्ता, रस्सी, जल्लाद की याद, जवान बेटे की जलती हुई चिता की याद और न जाने कितनी यादों से उनके ज्योतिहीन नेत्रों में पानी भर आया। वह रो पड़ीं।
बात छेड़ने के लिए मैंने पूछा, " रमेश (बिस्मिल का छोटा भाई) कहाँ है? " मुझे क्या पता था कि मेरा प्रश्न आँखों में बरसात भर लाएगा।वे और ज़ोर से रो पड़ीं। बरसों का रुका बाँध टूट पड़ा सैलाब बनकर। कुछ देर बाद अपने को संभालकर उन्होंने कहानी शुरू की।
आरंभ में लोगों ने पुलिस के डर से उनके घर आना छोड़ दिया। वृद्ध पिता की कोई बंधी हुई आमदनी न थी। कुछ साल बाद रमेश बीमार पड़ा । दवा, इलाज के अभाव में बीमारी ज़ोर पकड़ती गई। घर का सबकुछ बिक जाने के बाद भी रमेश का इलाज न हो पाया। पथ्य व उपचार के अभाव में तपेदिक का शिकार बनकर एक दिन वह माँ को निपूती छोड़कर चला गया। पिता को कोरीहमदर्दी दिखाने वालों से चिढ़ हो गई। वे बेहद चिड़चिड़े हो गये। घर का सबकुछ तो बिक ही चुका था। अस्तु, फाकों से तंग आकर एक दिन वह भी चले गये, माँ को संसार में अनाथ और अकेला छोड़ कर।
पेट में दो दाना अनाज तो डालना ही था। माँ ने मकान का एक भाग किराये पर उठाने का निश्चय किया। काफ़ी दिनों तक पुलिस के डर से कोई किरायेदार भी नहीं आया और जब आया तो पुलिस का ही एक आदमी। लोगों ने बदनाम किया कि माँ का संपर्क तो पुलिस से हो गया है। उनकी दुनिया से बचा-खुचा प्रकाश भी चला गया । पुत्र खोया, लाल खोया, अंत में बचा था नाम, सो वह भी चला गया।“
(बिस्मिल की मां की कहानी प्रोफेसर प्रमोद कुमार की किताब‘सरदार भगत सिंह के सहयोगी शिव वर्मा‘से)