कौन पूरा करेगा हिंदुस्तान का वह सबसे बड़ा ख़्वाब जो मुफ़्ती ने देखा था..?
एक ख़्वाब, एक सपना। जिस मिट्टी से पैदा हुए, उसका क़र्ज़ अदा करने का सपना। लेकिन वो कौन सा सपना हो सकता है, जो इस देश का सबसे बड़ा सपना है? जिसको पालने की इच्छा तो न जाने कितनों ने की लेकिन शायद अपने समय की मजबूरियों ने उन्हें इसका मौक़ा नहीं दिय़ा। वो सपना जिसे लगभग पिछले चार सौ वर्षों से इंतेज़ार है पूरा होने का। वो सपना हमारे और आपके बीच मौजूद एक शख़्स की आंखों में पल रहा था। अफ़सोस कि अब वो इस दुनिया में नहीं है। जी हां, हम बात कर रहे हैं मुफ़्ती मोहम्मद सईद की जो पिछली सात जनवरी को हमसे विदा हो गए। जिन्हें शायद क़ुदरत थोड़ी और मोहलत देती तो वह अपनी आख़ों में पल रहे इस सपने को साकार कर जाते, अपनी आंखों से उसे होता हुआ भी देख जाते। मुफ़्ती का सपना था, कश्मीर की वादी में, अपने गांव ‘बिजबेहरा’ में, 17वीं सदी में एक मुग़ल शाहज़ादे के बनवाए हुए बाग़ को राष्ट्रीय एकता का स्मारक बनाने का। पिछले चार सौ वर्षों से जिसे छुपाने की/मिटाने की भरपूर कोशिशें हो रही हैं। कोशिश हो रही है कि कहीं ये स्थल दुनिया की नज़रों में न आ जाए। क्योंकि अगर ये ज़िदां हो गया तो हर वो कोशिश मर जाएगी जो इसे हमेशा-हमेशा के लिए मार देने की कोशिश थी। इस जगह को दारा शिकोह ने अपने हाथों से बनाया था। इस बाग़ की जड़ों में दारा के हाथों से दिया हुआ पानी आज भी ज़िंदा है। वह दारा शिकोह, जिसने अपनी पूरी उम्र, अपनी पूरी ताक़त, इस देश की एकता को बनाने में लगा दी। जो अपने अंतिम क्षणों में, उन लम्हों में, जब कि तलवार की धार उसके जिस्म के दो टुकड़े करने ही वाली थी, वो सोच रहा था, या ख़ुदा, अब इस मुल्क की हिंदू-मस्लिम एकता का क्या होगा? एक पुरानी कहावत है कि इंसान बड़ा नहीं होता वल्कि उसकी आंखों में जो सपने बसते हैं वह उसे बड़ा बनाते हैं। अपने देश के हज़ारों वर्षों के इतिहास में ऐसे महापुरुष भरे पड़े हैं जिन्होंने अपने समय-काल में बड़े सपने संजोए। हम उन्हें आज भी याद करते हैं। आज भी उनका अनुसरण करने की कोशिश करते हैं। हमने स्वंय अपने समय-काल में भी ऐसे महा-पुरुषों को देखा, अनुभव किया। ऐसे ही एक बड़े व्यक्तित्व के मालिक थे मुफ़्ती मोहम्मद सईद। सईद चाहते थे कि दारा शिकोह के बनवाए हुए बाग़ को, जिसे इतिहास में आनंद और प्रेम के उपवन जैसी मिसाल बने मुग़ल बाग़ों (निशात बाग़ और शालीमार बाग़) की तरह कभी कोई महत्व नहीं मिला, के रख-रखाव पर ध्यान दिया जाए, उसे देश-विदेश के सैलानियों के लिए खोला जाए। ये एक ऐसा स्थान, एक ऐसा बाग़ बने जिसके माहौल में एकता की महक हो, जहां के फूलों में दार-शिकोह का दर्शन दिखाई दे। संभव है ये सोचते समय मुफ़्ती की आंखों में 17वीं शताब्दी के वो पल आ खड़े होते हों जब दार-शिकोह अपने संस्कृत गुरू पंडितराज जगन्नाथ के हमराह, क़ादिरिया सिलसिले के सूफ़ी-संत और अपेन पीर ‘मुल्लाशाह’ की ख़ानक़ाह में हाज़री दे रहे हैं। पंडितराज के शब्दों में “जब हम दारा के साथ उनकी ख़ानकाह में पहुंचे तो उन्होंने स्नेह दृष्टि से मुझे देखकर पूछा ‘क्या ये वही बनारसी आलिम हैं शाहज़ादे, जिनसे तुम इस मुल्क की ज़बान सीख रहे हो?’ मेरा प्रणतिपुरस्सर स्वीकार करने पर उन्होंने कहा ‘तुम दोनों को मिलकर बहुत बड़ा काम करना है, पंडित! तुम चाहो तो इस मुल्क की ज़मीन में पड़ी गहरी खाई को पाट सकते हो, मुझे बड़ी उम्मीद है तुम लोगों से। देखें ख़ुदा को क्या मंज़ूर है।’” हो सकता है ये दृश्य मुफ़्ती के ख़वाब में आया हो, हो सकता है दारा और पंडितराज जगन्नाथ ने अपने सपने को मुफ़्ती की आंखों का सपना बना दिया हो। सायद तभी मुफ़्ती अपने गांव ‘बिजबेहरा’ में दारा-शिकोह के सींचे बाग़ को राष्ट्रीय एकता के रूप में खिला देखना चाहते थे। ये वास्तब में मुफ़्ती की आंखों से देखा गया हिंदुस्तान का सबसे बड़ा ख़्वाब है और इस ख़्वाब के पूरा होने के लिए कश्मीर से बेहतर और कोई स्थान हो भी नहीं सकता। अब देखना बस ये है कि देखें मुफ़्ती के इस ख़्वाब को कौन पूरा करता है।