मालदा की हिंसा के बहाने : सर फिरा दे इंसा का, ऐसा ख़ब्त-ए-मजहब क्या !
मुसलमानों की आर्थिक बदहाली पर चर्चा के लिए एक सभा बुलाइए.
तालीम की कमी से जूझते मुसलमान बच्चों के भविष्य पर बात करने के लिए किसी सेमीनार का आयोजन कीजिये.
वैचारिक और सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने की खातिर मुसलमानों में जनजागरण हो इसके लिए कोई रैली का प्रस्ताव रखिये.
देखिये कितने लोग आते हैं..!!
कोई नहीं आएगा.
कहीं किसी फिल्म में मजहब का मजाक उड़ता है,कहीं कुरआन के पन्ने फटे पाए जाते हैं,कहीं कोई सरफिराआदमी हुजूर की शान में कुछ कह देता और अचानक से मुस्लिम समाज की धार्मिक चेतना जाग जातीहै.सड़कों पर एक हजूम उमड़ आता है.
मालदा में जो हुआ उसकी जितनी मजम्मत की जाए कम है. ऐसी मूर्खता का कोई जवाब भी नहीं सूझता.गुस्से से ज्यादा तरस आता है अब.
जब फ्रस्ट्रेशन का लेवल हद से ज्यादा बढ़ जाता है तो मेरा दिल करता है कि मैं तमाम मजहबी कट्टरपंथियों का गिरेबान पकड़ कर उनको यास यगाना चंगेज़ी साहब का ये शेर सुनाऊं....
"सब तेरे सिवा काफिर, आखिर इसका मतलब क्या !
सर फिरा दे इंसा का,ऐसा ख़ब्त-ए-मजहब क्या!!!
मैं मुसलमान हूँ और मुझे बहुत दुख होता है जब मुस्लिम समाज जहालत के नित नए कीर्तिमान स्थापितकरता है. मजहब को चारदीवारी में रखकर जियो भाइयो. मेरे भारत का सामाजिक तानाबाना बड़ा नाजुक है. उसे बचाए रखने की जिम्मेदारी सिर्फ बहुसंख्यक समाज की नहीं है.सबकी है.जितनी जल्दी ये सबक हम सीख जाएं वो अच्छा.
जब तक मजहब निजी चीज नहीं हो जाता तब तक ये जीने के लिए जरुरी मुद्दों पर हावी होता रहेगा.अपनी आस्था बरकरार रखो, जरुर रखो लेकिन उसको जानलेवा हथियार ना बनाओ.
मजहब के नाम पर बही लहू की एक बूँद भी इंसानियत के दामन पर एक भद्दे दाग की शक्ल में जड़ी जाती है. खुदा/ईश्वर/गॉड भीइ से किसी हाल में ठीक नहीं मानने वाला.
एक शायर थे अब्दुल हमीदअदम. उन्होंने लिखा कि,
"दिल खुश हुआ एक मस्जिद-ए-वीरां को देख कर,
मेरी तरह खुदा का भी खाना खराब है...!!"
सोचता हूँ कि अगर वो आज ये शेर लिखते तो उन्हें सर में गोली रिसीव करने में कितने दिन लगते ? शुक्र है कि उन्हें गुजरे 33 साल हो गए वरना मजहब के रखवाले उनका वाकई खाना खराब करने पर तुल जाते.
जब मुगलिया सल्तनत थी तब एक मुस्लिम हुकूमत के जेरेसाया रहते ग़ालिब लिखने की हिम्मत कर पाये कि,
"ईमां मुझे रोके है तो खींचे है मुझे कुफ्र,
काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे.."
आज होते ग़ालिब तो शांतिदूतों ने उनकी मानसिक शांति में पलीता लगा देना था.
मीर से लेकर अल्लामा इकबाल तक,हफीज जलंधरी से लेकर फैज़ अहमद फैज़ तक कई शायरों ने अपने अपने नजरिये से ईश्वर को परिभाषित करने की,उससे संवाद साधने की, उससे सवाल करने की कोशिशें की है. बिना किसी डर के. मीर कहा करते थे:
'अब तो चलते हैं बुतकदे से ऐ'मीर',
फिर मिलेंगे गर खुदा लाया...!!"
अल्लामा इकबाल का ये ऐलानिया ऐतराफ किसी आईएसआईएस के सूरमा की भावनाएं भड़काने के लिए काफी से ज्यादा था कि,
"मस्जिद तो बना ली पल भर में,ईमां की हरारत वालों ने,
दिल अपना पुराना पापी था,बरसों में नमाज़ी बन ना सका.."
इसी तरह और भी कुछ शेर हैं जिन पर कुफ्रिया शायरी का लेबल लगा हुआ है. ऐसी शायरी जिससे अल्लाह पता नहीं खफा होगा या नहीं लेकिन उसके नेक बन्दों की भावनाएं तवे पर उछलते पॉपकॉर्न की तरह फड़कती है. चंद एक नमूनें अर्ज़ है....... सिर्फ ये बताने के लिए कि किसी ज़माने में शायर लोग इतने हौसलामंद भी हुआ करते थे. आज अगर होते तो खौफ के जेरेसाया ही रहते या दरबदर हो जाते….
"होता इन्हें यकीन गर जन्नत में हूरों का,
ये वाइज़-ओ-शेख कब के मरचुके होते..!"( नामालूम )
"बंदा परवर मैं वो बंदा हूँ के बहर-ए-ज़िन्दगी,
जिसके आगे सर झुका दूंगा खुदा होजाएगा..!" ( आज़ाद अंसारी)
"बेखुदी में हम तो तेरा दर समझ कर झुक आयें,
अब खुदा मालूम वो काबा था के बुतखाना था..!"( तालिब बागपती)
"जुबान-ए-होश से ये कुफ्र सरज़द हो नहीं सकता,
मैं कैसे बिन पिये ले लूं खुदा का नाम ऐ साकी..!"( अब्दुल हमीद अदम )
"महशर में इक सवाल किया था करीम ने,
मुझसे वहां भी आपकी तारीफ़ हो गई..!"( अब्दुल हमीद अदम )
"हुआ है चार सजदों पे ये दावा जाहिदों तुमको,
खुदा ने क्या तुम्हारे हाथ ये जन्नत बेच डाली है..!" ( नामालूम )
"जिसने इस दौर के इंसान किये हैं पैदा,
वही मेरा भी खुदा हो मुझे मंज़ूर नहीं..!" ( हफीज जलंधरी )
"बन्दे ना होंगे जितने खुदा है खुदाई में,
किस किस खुदा के सामने सजदा करे कोई..!" ( यास यगाना चंगेजी )
"मिट जायेगी मखलूक तो इन्साफ करोगे,
मुंसिफ हो तो अब हश्र उठा क्यूँ नहीं देते?" ( फैज़ अहमद फैज़ )
"अल्लाह जिसको मार दे, हो जाए वो हराम,
बन्दे के हाथ जो मरे,हो जाए वो हलाल?" ( गिरगिट अहमदाबादवी )
"ये जनाब शेख का फलसफा है अजीब तरह का फलसफा,
जो वहां पियो तो हलाल है, जो यहाँ पियो तो हराम है..!" ( खादिम अरशद )
"शबाब आया, किसी बुत पर फ़िदा होने का वक्त आया,
मेरी दुनिया में बन्दे के खुदा होने का वक्तआया..!" ( पंडित हरी चंद अख्तर)
"लज्जते गुनाह की खातिर जिसने हार दी थी जन्नत,
मेरी रगों में भी उसी आदम का खून है..!"( नामालूम )
ये तमाम शायर अलग अलग कालखंड में अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी को जी सकें क्यूँकि तब तकमजहबों के ठेकेदारों का ये बदसूरत चेहरा नमूदार नहीं हुआ था.
जब निदा फाजली ने शेर पढ़ा कि,
"उठ उठ के मस्जिदों से नमाज़ी चले गए,
दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया..!"
तो कट्टरपंथी उनके पीछे पड़ गए. जिस महफ़िल में उन्होंने ये शेर पढ़ा वहां से उन्हें बीच में ही उठ जाना पड़ा. और भी सौ तरह की सफाइयां देनी पड़ी.ये तो अच्छा हुआ कि ऊपर के शेर कहने वाले ज्यादातर शायर दुनिया के तख्ते पर से कूच फरमा चुके हैं वरना धर्म के ठेकेदार उन्हें दौड़ा दौड़ा कर मारते.
तमाम कट्टरपंथी भेडियों पर लानत भेजते हुए मैं 'फिराक गोरखपुरी' साहब का ये शेर एक बार फिर पूरे होशोहवास में दोहराता हूँ...
"मजहब कोई लौटा ले, और उसकी जगह दे दे,
तहजीब करीने की,इंसान सलीके के...!"