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आदमी से आदमी तक

28 अप्रैल 2015

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कविता नंबर -१ अपनी हद से गुजर गिर गया आदमी कैसा था आज कैसा हुआ आदमी खुद ही खुद की नजर में गिरा आदमी आदमी ही नहीं अब रहा आदमी । खूनी रिश्ते हि कत्लों का कारण बनें भाई खुद ही बहन का हरण कर रहे इस कदर हमनें लूटा है खुद को यहाँ कुछ बचा ही नहीं अब सिवा देंह के। पैसा ही आदमी का धरम बन गया पैसा ही आदमी का करम बन गया पैसा ही बन गया ईश ईसा खुदा पैसा ही आदमी का जीवन बन गया। जिस धरम के लिये राम बन बन फिरे जिस धरम के लिये ईसा शूली चढे जिस धरम के लिये पैगम्बर पैदा हुये वह धरम आज देखो जहर बन गया। हम सदा झूठ को ही सहरा दिये उसको पाला परोसा किनारा दिये जब कभी सत्य हमसे मुखातिब हुआ उसको पैरों तले रौंद कर चल दिये जिन्दगी जिन्दगी को हि डसती रही हम खडे मौत की राह तकते रहे पहले हम सब ने मिल कर उजाडा जहाँ अब सभी उसके दर्दे दुखन् बन गये।। आज जब हमने की कोशिशें प्यार की अपनी माँ को दिये जख्म उपचार की। कपडों से जब ढंका उसका घायल बदन अश्रू धारा बही एक नदी बन गयी।॥(२) कविता नंबर -2 गाँव भी था देश भी था धर्म और ईमान भी था । इन सभी को जोडता एक अदद् इन्सान भी था। सब का सब दोजख किया इस व्यक्ति ने शैतान बन कर खुद को हीमारा है इसने खुद का ही भगवान बन कर ।।

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