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आज मैं पहचानता हूँ

23 जून 2022

23 बार देखा गया 23

आज मैं पहचानता हूँ राशियाँ, नक्षत्र,

ग्रहों की गति, कुग्रहों के कुछ उपद्रव भी,

मेखला आकाश की;


जानता हूँ मापना दिन-मान;

समझता हूँ अयन-विषुवत्ï, सूर्य के धब्बे, कलाएँ चन्द्रमा की

गति अखिल इस सौर-मण्डल के विवर्तन की


और इन सब से परे, मैं सोचता हूँ, जरा कुछ-कुछ

भाँपने-सा भी लगा हूँ

इस गहन ब्रह्मांड के अन्त:स्थ विधि का अर्थ

अथ!-रे कितनी निरर्थक वंचना की मोह-स्वर्णिम यह यवनिका-


यह चटक, तारों-सजा फूहड़ निलज आकाश

अर्थ कितना उभर आता था अचानक

अल्पतम भी तारिका की चमक को जब

देखते ही मैं तुरत, नि:शब्द तुलना में तुम्हारे

कुछ उनींदे लोचनों की युगल जोड़ी कर लिया करता कभी था याद!

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रचनाएँ
'अज्ञेय' जी की रचनाएँ
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अज्ञेय जी का पूरा नाम सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय है। इनका जन्म 7 मार्च 1911 में उत्तर प्रदेश के जिला देवरिया के कुशीनगर में हुआ। इस कविता का संदेश है कि व्यक्ति और समाज एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसलिए व्यक्ति का गुण उसका कौशल उसकी रचनात्मकता समाज के काम आनी चाहिए। जिस तरह एक दीपक के लिए अकेले जलने से बेहतर है, दीपकों की कतार में जलना। उसी तरह व्यक्ति के लिए समाज से जुड़े रहकर अपने जीवन को सार्थक बनना चाहिए। अज्ञेय की कई कविताएं काव्य-प्रक्रिया की ही कविताएं हैं। उनमें अधिकतर कविताएं अवधारणात्मक हैं जो व्यक्तित्व और सामाजिकता के द्वंद्व को, रोमांटिक आधुनिक के द्वंद्व को प्रत्यक्ष करती है। उन्हें सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।” जिजीविषा अज्ञेय का अधिक प्रिय काव्य-मूल्य है। एक लंबी साधना प्रक्रिया से गुजरता है। वह अपने आत्म को उस परम सत्ता में विलीन कर देता है। इसलिए आत्म विसर्जन के जरिये वह स्वयं को परम सत्ता से जोड़ देता है। यही पूरी कविता की मूल संवेदना है
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अकाल-धन

23 जून 2022
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घन अकाल में आये, आ कर रो गये। अगिन निराशाओं का जिस पर पड़ा हुआ था धूसर अम्बर, उस तेरी स्मृति के आसन को अमृत-नीर से धो गये। घन अकाल में आये, आ कर रो गये। जीवन की उलझन का जिस को मैं ने माना था अन्

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चलो, चलें!

23 जून 2022
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जीवन-पट की धुँधली लिपि को व्यथा-नीर से धो चलें। कहाँ फूल-फल, पत्ते-पल्लव? दावानल में राख हुए सब, उजड़े-से मानस-कानन में नया बीज हम बो चलें। इच्छा का है इधर रजत-पथ उधर हमारा कंटकमय पथ, जीवन की बि

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विशाल जीवन

23 जून 2022
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है यदि तेरा हृदय विशाल, विराट् प्रणय का इच्छुक क्यों? है यदि प्रणय अतल, तो अपनी अतल-पूर्ति का भिक्षुक क्यों? दावानल की काल-ज्वाल जलती-बुझती एकाकी ही जीवन हो यदि ऊँचा तो ऊँची समाधि हो रक्षक क्यों?

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वन-पारावत

23 जून 2022
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 भग्नावशेष पर मन्दिर के, नभ पृष्ठ-भूमि पर चित्रित-से, दो वन-पारावत बैठे हैं। मधु आगम से उन में जागी कोई दुर्निवार झंकार क्योंकि प्रकृति-लय से हैं मिले हुए उन के प्राणों के तार! कुछ माँग रही इठला-इ

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कीर

23 जून 2022
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प्रच्छन्न गगन का वक्ष चीर जा रहा अकेला उड़ा कीर, जीवन से मानो कम्प-युक्त आरक्त धार का तीक्ष्ण तीर! प्रकटित कर उर की अमिट साध, पर कर जीवन की गति अबाध, कृषि-हरित रंग में दृश्यमान उत्क्षिप्त अवनि का प

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द चाइल्ड इज द फ़ादर आफ़ द मैन

23 जून 2022
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तरुण अरुण तो नवल प्रात में ही दिखलाई पड़ता लाल- इसीलिए मध्याह्न में अवनि को झुलसाती उसकी ज्वाल! मानव किन्तु तरुण शिशु को ही दबना-झुकना सिखला कर आशा करते हैं कि युवक का ऊँचा उठा रहेगा भाल!

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ध्रुव

23 जून 2022
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मानव की अन्धी आशा के दीप! अतीन्द्रिय तारे! आलोक-स्तम्भ सा स्थावर तू खड़ा भवाब्धि किनारे! किस अकथ कल्प से मानव तेरी धु्रवता को गाते : हो प्रार्थी प्रत्याशी वे उसको हैं शीश नवाते। वे भूल-भूल जाते

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सूर्यास्त

23 जून 2022
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अन्तिम रवि की अन्तिम रक्तिम किरण छू चुकी हिमगिरि-भाल, अन्तिम रक्त रश्मि के नर्तन को दे चुके चीड़-तरु ताल । नीलिम शिला-खंड के पीछे दीप्त अरुण की अन्तिम ज्वाल           जग को दे अन्तिम आश्वासन अस्ताच

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बद्ध

23 जून 2022
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बद्ध! हृत वह शक्ति किये थी जो लड़ मरने को सन्नद्ध! हृत इन लौह शृंखलाओं में घिर कर, पैरों की उद्धत गति आगे ही बढऩे को तत्पर; व्यर्थ हुआ यह आज निहत्थे हाथों ही से वार- खंडित जो कर सकता वह जगव्याप

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जीवन-दान

23 जून 2022
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मुक्त बन्दी के प्राण ! पैरें की गति शृंखल बाधित, काया कारा-कलुषाच्छादित पर किस विकल प्रेरणा-स्पन्दित उद्धत उस का गान ! मुक्त बन्दी के प्राण ! अंग-अंग उस का क्षत-विह्वल हृदय हताशाओं से घाय

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बंदी और विश्व

23 जून 2022
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मैं तेरा कवि! ओ तट-परिमित उच्छल वीचि-विलास! प्राणों में कुछ है अबाध-तनु को बाँधे हैं पाश! मैं तेरा कवि! ओ सन्ध्या की तम-घिरती द्युति कोर! मेरे दुर्बल प्राण-तन्तु को व्यथा रही झकझोर! मैं तेरा कवि

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उषा के समय

23 जून 2022
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प्रियतम, पूर्ण हो गया गान! हम अब इस मृदु अरुणाली में होवें अन्तर्धान! लहर-लहर का कलकल अविरल, काँप-काँप अब हुआ अचंचल व्यापक मौन मधुर कितना है, गद्गद अपने प्राण! ये सब चिर-वांछित सुख अपने, बाद उषा

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प्रेरणा

23 जून 2022
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जब-जब थके हुए हाथों से छूट लेखनी गिर जाती है 'सूखा उर का रस-स्रोत' यह शंका मन में फिर जाती है, तभी, देवि, क्यों सहसा दीख, झपक, छिप जाता तेरा स्मित-मुख कविता की सजीव रेखा-सी मानस-पट पर तिर आती है?

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अंतिम आलोक

23 जून 2022
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सन्ध्या की किरण-परी ने उठ अरुण पंख दो खोले कम्पित-कर गिरि-शिखरों के उर-छिपे रहस्य टटोले ।         देखी उस अरुण किरण ने         कुल पर्वत-माला श्यामल         बस एक शृंग पर हिम का         था कम

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तंद्रा में अनुभूति

23 जून 2022
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तंद्रा में अनुभूति उस तम-घिरते नभ के तट पर स्वप्न-किरण रेखाओं से बैठ झरोखे में बुनता था जाल मिलन के प्रिय! तेरे। मैं ने जाना, मेरे पीछे सहसा तू आ हुई खड़ी झनक उठी टूटे-से स्वर से स्मृति-शृंखल की क

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घृणा का गान

23 जून 2022
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 सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान! तुम, जो भाई को अछूत कह वस्त्र बचा कर भागे, तुम, जो बहिनें छोड़ बिलखती, बढ़े जा रहे आगे! रुक कर उत्तर दो, मेरा है अप्रतिहत आह्वान- सुनो, तुम्हें लल

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बंदी-गृह की खिड़की

23 जून 2022
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ओ रिपु! मेरे बन्दी-गृह की तू खिड़की मत खोल! बाहर-स्वतन्त्रता का स्पन्दन! मुझे असह उस का आवाहन! मुझ कँगले को मत दिखला वह दु:सह स्वप्न अमोल! कह ले जो कुछ कहना चाहे, ले जा, यदि कुछ अभी बचा है! रिपु

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अचरज

23 जून 2022
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 आज सबेरे अचरज एक देख मैं आया। एक घने, पर धूल-भरे-से अर्जुन तरु के नीचे एक तार पर बिजली के वे सटे हुए बैठे थे दो पक्षी छोटे-छोटे, घनी छाँह में, जब से अलग; किन्तु परस्पर सलग। और नयन शायद अधमीचे

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प्राण तुम्हारी पद-रज फूली

23 जून 2022
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 प्राण, तुम्हारी पद-रज फूली मुझ को कंचन हुई तुम्हारे चंल चरणों की यह धूली। आयी थी तो जाना भी था, फिर भी आओगी, दुख किस का? एक बार जब दृष्टि-करों रसे पद-चिह्नों की रेखा छू ली। वाक्य अर्थ का हो प्र

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कीर की पुकार

23 जून 2022
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 तड़पी कीर की पुकार : प्राण! विह्वल नाच उठा यह मेरा छोटा-सा संसार-प्राण! कितनी जीवनियों की नीरवता छिन्न हुई उस स्वर से सहसा मेरा यह संगीत अपरिचित जगत हुआ ध्वनि से आलोकित दुर्निवार कर-स्पर्श प्रत

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स्मृति

23 जून 2022
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नये बादल में तेरी याद! आदिम प्रेयसि! किसी समय जीवन के उजड़े कानन में- विस्तृत, आशा-हीन गगन में किसी अजाने ही क्षण में; आशा-अभिलाषा की तप्त उसाँसों से हो पुंजीभूत तू अकाल-घन-सी आयी थी बन वसन्त का

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राखी

23 जून 2022
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मेरे प्राण स्वयं राखी-से प्रतिक्षण तुझको रहते घेरे पर उनके ही संरक्षक हैं अथक स्नेह के बन्धन तेरे। भूल गये हम कौन कौन है, कौन किसे भेजे अब राखी अपनी अचिर अभिन्न एकता की बस यही भूल हो साखी!

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मत माँग

23 जून 2022
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मूढ़, मुझ से बूँदें मत माँग! मैं वारिधि हूँ, अतल रहस्यों का दानी अभिमानी पूछ न मेरी इस व्यापकता से चुल्लू-भर पानी! तुझे माँगना ही है तो ये ओछी प्यासें त्याग मेरे खारेपन में भी मम-मय होना बस माँग

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गा दो

23 जून 2022
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 कवि, एक बार फिर गा दो! एक बार इस अन्धकार में फिर आलोक दिखा दो! अब मीलित हैं मेरी आँखें पर मैं सूर्य देख आया हूँ; आज पड़ी हैं कडिय़ाँ पर मैं कभी भुवन भर में छाया हूँ; उस अबाध आतुरता को कवि, फिर

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दिवाकर के प्रति दीप

23 जून 2022
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लो यह मेरी ज्योति, दिवाकर! उषा-वधू के अवगुंठन-सा है लालिम गगनाम्बर मैं मिट्टी हूँ, मुझे बिखरने दो मिट्टी में मिल कर! लो यह मेरी ज्योति दिवाकर! मैं पथ-दर्शक बन कर जागा करता रजनी को आलोकित या मैं

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विश्वास

23 जून 2022
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 तुम्हारा यह उद्धत विद्रोही घिरा हुआ है जग से पर है सदा अलग, निर्मोही! जीवन-सागर हहर-हहर कर उसे लीलने आता दुर्धर पर वह बढ़ता ही जाएगा लहरों पर आरोही! जगती का अविरल कोलाहल कर न सकेगा उस को बेकल

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धूल भरा दिन

23 जून 2022
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पृथ्वी तो पीडि़त थी कब से आज न जाने नभ क्यों रूठा, पीलेपन में लुटा, पिटा-सा मधु-सपना लगता है झूठा! मारुत में उद्देश्य नहीं है धूल छानता वह आता है, हरियाली के प्यासे जग पर शिथिल पांडु-पट छा जाता है।

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अतीत की पुकार

23 जून 2022
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 जेठ की सन्ध्या के अवसाद-भरे धूमिल नभ का उर चीर ज्योति की युगल-किरण-सम काँप कौंध कर चले गये दो कीर। भंग कर वह नीरव निर्वेद, सुन पड़ी मुझे एक ही बार, काल को करती-सी ललकार, विहग-युग की संयुक्त पुकार!

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मैं वह धनु हूँ

23 जून 2022
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मैं वह धनु हूँ, जिसे साधने में प्रत्यंचा टूट गई है। स्खलित हुआ है बाण, यदपि ध्वनि दिग्दिगन्त में फूट गई है प्रलय-स्वर है वह, या है बस मेरी लज्जाजनक पराजय, या कि सफलता ! कौन कहेगा क्या उस में है

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निमीलन

23 जून 2022
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 निशा के बाद उषा है, किन्तु देख बुझता रवि का आलोक अकारण हो कर जैसे मौन ज्योति को देते विदा सशोक तुम्हारी मीलित आँखें देख किसी स्वप्निल निद्रा में लीन हृदय जाने क्यों सहसा हुआ आद्र्र, कम्पित-सा, कात

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विपर्यास

23 जून 2022
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 तेरी आँखों में पर्वत की झीलों का नि:सीम प्रसार मेरी आँखों बसा नगर की गली-गली का हाहाकार, तेरे उर में वन्य अनिल-सी स्नेह-अलस भोली बातें मेरे उर में जनाकीर्ण मग की सूनी-सूनी रातें!

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ताजमहल की छाया में

23 जून 2022
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मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है मैं कविता कर पाऊँ, या कूँची में रंगों ही का स्वर्ण-वितान बनाऊँ । साधन इतने नहीं कि पत्थर के प्रासाद खड़े कर तेरा, अपना और प्यार का नाम अमर कर जाऊँ। पर वह क्या कम कवि

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प्रार्थना

23 जून 2022
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 इस विकास-गति के आगे है कोई दुर्दम शक्ति कहीं, जो जग की स्रष्टा है, मुझ को तो ऐसा विश्वास नहीं। फिर भी यदि कोई है जिस में सुनने की सहृदयता है; और साथ ही पूरा करने की कठोर तन्मयता है; तो मैं आज ब

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अखंड ज्योति

23 जून 2022
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 कर से कर तक, उर से उर तक बढ़ती जा, ओ ज्योति हमारी, छप्पर-तल से महल-शिखर तक चढ़ती जा, ओ ज्योति हमारी! पैंतिस कोटि शिखाएँ जल कर कोना-कोना दीपित कर दें- एक भव्य दीपक-सा भारत जगती को आलोकित कर दे!

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गोप गीत

23 जून 2022
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नीला नभ, छितराये बादल, दूर कहीं निर्झर का मर्मर चीड़ों की ऊध्र्वंग भुजाएँ भटका-सा पड़कुलिया का स्वर, संगी एक पार्वती बाला, आगे पर्वत की पगडंडी : इस अबाध में मैं होऊँ बस बढ़ते ही जाने का बन्दी!

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नाम तेरा

23 जून 2022
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 पूछ लूँ मैं नाम तेरा मिलन-रजनी हो चुकी विच्छेद का अब है सबेरा। जा रहा हूँ-और कितनी देर अब विश्राम होगा, तू सदय है किन्तु तुझ को और भी तो काम होगा! प्यार का साथी बना था, विघ्न बनने तक रुकूँ क्यो

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मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

23 जून 2022
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प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! वह गया जग मुग्ध सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! तुम विमुख हो, किन्तु मैं ने कब कहा उन्मुख रहो तुम? साधना है सहसनयना-बस, कहीं सम्मुख रहो तुम! विमुख-उन्मुख से

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विधाता वाम होता है

23 जून 2022
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कर चुका था जब विधाता प्यार के हित सौध स्थापित विरह की विद्युन्मयी प्रतिमा वहाँ कर दी प्रतिष्ठित! बुद्धि से तो क्षुद्र मानव भी चलाता काम अपने- वामता से हीन विधि की शक्ति क्या होती प्रमाणित! भर दि

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आज थका हिय हारिल मेरा!

23 जून 2022
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इस सूखी दुनिया में प्रियतम मुझ को और कहाँ रस होगा? शुभे! तुम्हारी स्मृति के सुख से प्लावित मेरा मानस होगा! दृढ़ डैनों के मार थपेड़े अखिल व्योम को वश में करता, तुझे देखने की आशा से अपने प्राणों में

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एक चित्र

23 जून 2022
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 मुझे देख कर नयन तुम्हारे मानो किंचित् खिल जाते हैं, मौन अनुग्रह से भर कर वे अधर तनिक-से हिल जाते हैं। तुम हो बहुत दूर, मेरा तन अपने काम लगा रहता है फिर भी सहसा अनजाने में मन दोनों के मिल जाते हैं,

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चिंतामय

23 जून 2022
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 आज चिन्तामय हृदय है, प्राण मेरे थक गये हैं बाट तेरी जोहते ये नैन भी तो थक गये हैं; निबल आकुल हृदय में नैराश्य एक समा गया है वेदना का क्षितिज मेरा आँसुओं से छा गया है। आज स्मृतियों की नदी से शब्

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द्वितीया

23 जून 2022
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 मेरे सारे शब्द प्यार के किसी दूर विगता के जूठे : तुम्हें मनाने हाय कहाँ से ले आऊँ मैं भाव अनूठे? तुम देती हो अनुकम्पा से मैं कृतज्ञ हो ले लेता हूँ तुम रूठीं-मैं मन मसोस कर कहता, भाग्य हमारे रूठे!

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रहस्यवाद

23 जून 2022
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 (1) मैं भी एक प्रवाह में हूँ लेकिन मेरा रहस्यवाद ईश्वर की ओर उन्मुख नहीं है, मैं उस असीम शक्ति से सम्बन्ध जोडऩा चाहता हूँ अभिभूत होना चाहता हूँ जो मेरे भीतर है। शक्ति असीम है, मैं शक्ति का एक

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ओ मेरे दिल!

23 जून 2022
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 (1) धक-धक, धक-धक ओ मेरे दिल! तुझ में सामर्थ्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल! जब ईसा को दे कर सूली जनता न समाती थी फूली, हँसती थी अपने भाई की तिकटी पर देख देह झूली, ताने दे-दे कर कहते थे सैनिक

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निवेदन

23 जून 2022
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 मैं जो अपने जीवन के क्षण-क्षण के लिए लड़ा हूँ, अपने हक के लिए विधाता से भी उलझ पड़ा हूँ, सहसा शिथिल पड़ गया है आक्रोश हृदय का मेरे- आज शान्त हो तेरे आगे छाती खोल खड़ा हूँ। मुझे घेरता ही आया है

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मैंने आहुति बन कर देखा

23 जून 2022
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मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने, मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ? काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है, मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?

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रक्तस्नात वह मेरा साकी

23 जून 2022
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मैं ने कहा, कंठ सूखा है दे दे मुझे सुरा का प्याला। मैं भी पी कर आज देख लूँ यह मेरी अंगूरी हाला। -एक हाथ में सुरापात्र ले एक हाथ से घूँघट थामे नीरव पग धरती, कम्पित-सी बढ़ी चली आयी मधुबाला। मैंने

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पार्क की बेंच

23 जून 2022
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 उजड़ा सुनसान पार्क, उदास गीली बेंचें दूर-दूर के घरों के झरोखों से निश्चल, उदास परदों की ओट से झरे हुए आलोक को -वत्सल गोदियों से मोद-भरे बालक मचल मानो गये हों बेंच पर टेहुनी-सा टिका मैं आँख भर देख

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आह्वान

23 जून 2022
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 ठहर, ठहर, आततायी! जरा सुन ले! मेरे क्रुद्ध वीर्य की पुकार आज सुन जा! रागातीत, दर्पस्फीत, अतल, अतुलनीय, मेरी अवहेलना की टक्कर सहार ले क्षण-भर स्थिर खड़ा रह ले-मेरे दृढ़ पौरुष की एक चोट सह ले! नू

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दूरवासी मीत मेरे

23 जून 2022
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दूरवासी मीत मेरे! पहुँच क्या तुझ तक सकेंगे काँपते ये गीत मेरे? आज कारावास में उर तड़प उठा है पिघल कर बद्ध सब अरमान मेरे फूट निकले हैं उबल कर याद तेरी को कुचलने के लिए जो थी बनायी- वह सुदृढ़ प्र

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उड़ चल हारिल

23 जून 2022
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उड़ चल हारिल लिये हाथ में यही अकेला ओछा तिनका उषा जाग उठी प्राची में कैसी बाट, भरोसा किन का! शक्ति रहे तेरे हाथों में छूट न जाय यह चाह सृजन की शक्ति रहे तेरे हाथों में रुक न जाय यह गति जीवन क

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रजनीगंधा मेरा मानस

23 जून 2022
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रजनीगन्धा मेरा मानस! पा इन्दु-किरण का नेह-परस, छलकाता अन्तस् में स्मृति-रस| उत्फुल्ल, खिले इह से बरबस, जागा पराग, तन्द्रिल, सालस, मधु से बस गयीं दिशाएँ दस, हर्षित मेरा जीवन-सुमनस् लो, पुलक उठी म

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सावन-मेघ

23 जून 2022
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 (1) घिर गया नभ, उमड़ आये मेघ काले, भूमि के कम्पित उरोजों पर झुका-सा, विशद, श्वासाहत, चिरातुर छा गया इन्द्र का नील वक्ष-वज्र-सा, यदपि तडि़त् से झुलसा हुआ-सा। आह, मेरा श्वास है उत्तप्त धमनियों में

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उषा काल की भव्य शांति

23 जून 2022
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उष:काल की भव्य शान्ति निविडाऽन्धकार को मूर्त रूप दे देने वाली एक अकिंचन, निष्प्रभ, अनाहूत, अज्ञात द्युति-किरण आसन्न-पतन, बिन जमी ओस की अन्तिम ईषत्करण, स्निग्ध, कातर शीतलता अस्पृष्ट किन्तु अनुभू

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निरालोक

23 जून 2022
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निरालोक यह मेरा घर रहने दो! सीमित स्नेह, विकम्पित बाती इन दीपों में नहीं समाएगी मेरी यह जीवन-थाती; पंच-प्राण की अनझिप लौ से ही वे चरण मुझे गहने दो निरालोक यह मेरा घर रहने दो! घर है उस की आँचल-छ

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क्षण भर सम्मोहन छा जावे!

23 जून 2022
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क्षण-भर सम्मोहन छा जावे! क्षण-भर स्तम्भित हो जावे यह अधुनातन जीवन का संकुल- ज्ञान-रूढि़ की अनमिट लीकें, ह्रत्पट से पल-भर जावें धुल, मेरा यह आन्दोलित मानस, एक निमिष निश्चल हो जावे! मेरा ध्यान अकम

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शिशिर की राका-निशा

23 जून 2022
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वंचना है चाँदनी सित, झूठ वह आकाश का निरवधि, गहन विस्तार शिशिर की राका-निशा की शान्ति है निस्सार! दूर वह सब शान्ति, वह सित भव्यता, वह शून्यता के अवलेप का प्रस्तार- इधर-केवल झलमलाते चेतहर, दुर्ध

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वर्ग-भावना-सटीक

23 जून 2022
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अवतंसों का वर्ग हमारा : खड्ïगधार भी, न्यायकार भी। हम ने क्षुद्र, तुच्छतम जन से अनायास ही बाँट लिया श्रम-भार भी, सुख-भार भी। बल्कि गये हम आगे भी-हम निश्चल ही हैं उदार भी। टीका-(यद्यपि भाष्यकार है

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ऋतुराज

23 जून 2022
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 शिशिर ने पहन लिया वसन्त का दुकूल, गन्धवह उड़ रहा पराग-धूल झूल, काँटों का किरीट धारे बने देवदूत पीत-वसन दमक उठे तिरस्कृत बबूल। अरे, ऋतुराज आ गया। पूछते हैं मेघ, 'क्या वसन्त आ गया?' हँस रहा समी

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रात होते, प्रात होते

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प्रात होते सबल पंखों की अकेली एक मीठी चोट से अनुगता मुझ को बना कर बावली जान कर मैं अनुगता हूँ उस बिदा के विरह के विच्छेद के तीखे निमिष में भी युता हूँ उड़ गया वह बावला पंछी सुनहला कर प्रहर्षित

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मिट्टी ही ईहा है!

23 जून 2022
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 मैं ने सुना : और मैं ने बार-बार स्वीकृति से, अनुमोदन से और गहरे आग्रह से आवृत्ति की : 'मिट्टी से निरीह' और फिर अवज्ञा से उन्हें रौंदता चला जिन्हें कि मैं मिट्टी-सा निरीह मानता था। किन्तु वसन्त के

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जब-जब पीड़ा मन में उमँगी

23 जून 2022
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जब-जब पीड़ा मन में उमँगी तुमने मेरा स्वर छीन लिया मेरी नि:शब्द विवशता में झरता आँसू-कन बीन लिया। प्रतिभा दी थी जीवन-प्रसून से सौरभ-संचय करने की क्यों सार निवेदन का मेरे कहने से पहले छीन लिया?

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जैसे तुझे स्वीकार हो

23 जून 2022
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 जैसे तुझे स्वीकार हो! डोलती डाली, प्रकम्पित पात, पाटल-स्तम्भ विलुलित, खिल गया है सुमन मृदु-दल, बिखरते किंजल्क प्रमुदित, स्नात मधु से अंग, रंजित-राग केशर-अंजली से स्तब्ध-सौरभ है निवेदित: मलय मार

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चार का गजर

23 जून 2022
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चार का गजर कहीं खड़का रात में उचट गयी नींद मेरी सहसा  छोटे-छोटे, बिखरे से, शुभ्र अभ्र-खंडों बीच द्रुत-पद भागा जा रहा है चाँद जगा हूँ मैं एक स्वप्न देखता जाने कौन स्थान है, मैं खड़ा एक मंच पर एक

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भादों की उमस

23 जून 2022
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सहम कर थम से गए हैं बोल बुलबुल के, मुग्ध, अनझिप रह गए हैं नेत्र पाटल के, उमस में बेकल, अचल हैं पात चलदल के, नियति मानों बँध गई है व्यास में पल के ।           लास्य कर कौंधी तड़ित् उर पार बादल के

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चेहरा उदास

23 जून 2022
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रात के रहस्यमय, स्पन्दित तिमिर को भेदती कटार-सी, कौंध गयी बौखलाये मोर की पुकार वायु को कँपाती हुई, छोटे-छोटे बिन जमे ओस-बिन्दुओं को झकझोरती, दु:सह व्यथा-सी नभ पार! मेरे स्मृति-गगन में सहसा अन्ध

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चरण पर धर चरण

23 जून 2022
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 चरण पर धर चरण चरण पर धर सिहरते-से चरण, आज भी मैं इस सुनहले मार्ग पर पकड़ लेने को पदों से मृदुल तेरे पद-युगल के अरुण-तल की छाप वह मृदुतर जिसे क्षण-भर पूर्व ही निज लोचनों की उछटती-सी बेकली से मै

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मुक्त है आकाश

23 जून 2022
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निमिष-भर को सो गया था प्यार का प्रहरी उस निमिष में कट गयी है कठिन तप की शिंजिनी दुहरी सत्य का वह सनसनाता तीर जा पहुँचा हृदय के पार खोल दो सब वंचना के दुर्ग के ये रुद्ध सिंहद्वार! एक अन्तिम निमिष

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किस ने देखा चाँद

23 जून 2022
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किस ने देखा चाँद?-किस ने, जिसे न दीखा उस में क्रमश: विकसित एकमात्र वह स्मित-मुख जो है अलग-अलग प्रत्येक के लिए किन्तु अन्तत: है अभिन्न  है अभिन्न, निष्कम्प, अनिर्वच, अनभिवद्य, है युगातीत, एकाकी, एक

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मेरी थकी हुई आँखों को

23 जून 2022
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मेरी थकी हुई आँखों को किसी ओर तो ज्योति दिखा दो कुज्झटिका के किसी रन्ध्र से ही लघु रूप-किरण चमका दो। अनचीती ही रहे बाँसुरी, साँस फूँक दो चाहे उन्मन मेरे सूखे प्राण-दीप में एक बूँद तो रस बरसा दो!

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आज मैं पहचानता हूँ

23 जून 2022
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आज मैं पहचानता हूँ राशियाँ, नक्षत्र, ग्रहों की गति, कुग्रहों के कुछ उपद्रव भी, मेखला आकाश की; जानता हूँ मापना दिन-मान; समझता हूँ अयन-विषुवत्ï, सूर्य के धब्बे, कलाएँ चन्द्रमा की गति अखिल इस सौर-

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कृत-बोध

23 जून 2022
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तीन दिन बदली के गये, आज सहसा खुल-सी गयी हैं दो पहाड़ों की श्रेणियाँ और बीच के अबाध अन्तराल में, शुभ्र, धौत मानो स्फुट अधरों के बीच से प्रकृति के बिखर गया हो कल-हास्य एक क्रीड़ा-लोल अमित लहर-सा-

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बदली की साँझ

23 जून 2022
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धुँधली है साँझ किन्तु अतिशय मोहमयी, बदली है छायी, कहीं तारा नहीं दीखता। खिन्न हूँ कि मेरी नैन-सरसी से झाँकता-सा प्रतिबिम्ब, प्रेयस! तुम्हारा नहीं दीखता। माँगने को भूल कर बोध ही में डूब जाना भिक

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आशी:

23 जून 2022
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(वसन्त के एक दिन) फूल कांचनार के, प्रतीक मेरे प्यार के! प्रार्थना-सी अर्धस्फुट काँपती रहे कली, पत्तियों का सम्पुट, निवेदित ज्यों अंजली। आये फिर दिन मनुहार के, दुलार के -फूल कांचनार के! सुमन-व

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वीर-बहू

23 जून 2022
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एक दिन देवदारु-वन बीच छनी हुई किरणों के जाल में से साथ तेरे घूमा था। फेनिल प्रपात पर छाये इन्द्र-धनु की फुहार तले मोर-सा प्रमत्त-मन झूमा था बालुका में अँकी-सी रहस्यमयी वीर-बहू पूछती है रव-हीन मखम

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कल की निशि

23 जून 2022
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मिथ, कल मिथ्या  कल की निशि घनसार तमिस्रा और अकेली होगी- स्मृति की सूखी स्रजा रुआँसी एक सहेली होगी। चरम द्वन्द्व, आत्मा नि:सम्बल, अरि गोपित, मायावी प्यार? प्यार! अस्तित्व मात्र अनबूझ पहेली होगी!

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प्रिया के हित गीत

23 जून 2022
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दृश्य लख कर प्राण बोले : 'गीत लिख दे प्रिया के हित!' समर्थन में पुलक बोली : 'प्रिया तो सम-भागिनी है साथ तेरे दुखित-नन्दित!' लगा गढऩे शब्द। सहसा वायु का झोंका तुनक कर बोला, 'प्रिया मुझ में नहीं ह

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देख क्षितिज पर भरा चाँद

23 जून 2022
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देख क्षितिज पर भरा चाँद, मन उमँगा, मैं ने भुजा बढ़ायी। हम दोनों के अन्तराल में कमी नहीं कुछ दी दिखलायी, किन्तु उधर, प्रतिकूल दिशा में, उसी भुजा की आलम्बित परछाईं अनायस बढ़, लील धरा को, क्षिति की सी

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प्रतीक्षा

23 जून 2022
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नया ऊगा चाँद बारस का, लजीली चाँदनी लम्बी, थकी सँकरी सूखती दीर्घा  चाँदनी में धूल-धवला बिछी लम्बी राह। तीन लम्बे ताल, जिन के पार के लम्बे कुहासे को चीरती, ज्यों वेदना का तीर, लम्बी टटीरी की आह।

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एक दर्शन

23 जून 2022
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माँगा नहीं, यदपि पहचाना, पाया कभी न, केवल जाना-परिचिति को अपनापा माना। दीवाना ही सही, कठिन है अपना तर्क तुम्हें समझाना इह मेरा है पूर्ण, तदुत्तर परलोकों का कौन ठिकाना!

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हिमंती बयार

23 जून 2022
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(1) हवा हिमन्ती सन्नाती है चीड़ में, सहमे पंछी चिहुँक उठे हैं नीड़ में, दर्द गीत में रुँधा रहा-बह निकला गल कर मींड में- तुम हो मेरे अन्तर में पर मैं खोया हूँ भीड़ में! (2) सिहर-सिहर झरते पत्ते

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नन्ही शिखा

23 जून 2022
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जब झपक जाती हैं थकी पलकें जम्हाई-सी स्फीत लम्बी रात में, सिमट कर भीतर कहीं पर संचयित कितने न जाने युग-क्षणों की राग की अनुभूतियों के सार को आकार दे कर, मुग्ध मेरी चेतना के द्वार से तब नि:सृत हो

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माघ-फागुन-चैत

23 जून 2022
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अभी माघ भी चुका नहीं, पर मधु का गरवीला अगवैया कर उन्नत शिर, अँगड़ाई ले कर उठा जाग भर कर उर में ललकार-भाल पर धरे फाग की लाल आग। धूल बन गयी नदी कनक की-लोट-पोट न्हाती गौरैया। फूल-फूल कर साथ-साथ जुड

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जागर

23 जून 2022
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पूर्णिमा की चाँदनी सोने नहीं देती। चेतना अन्तर्मुखी स्मृति-लीन होती है, देह भी पर सजग है-खोने नहीं देती। निशा के उर में बसे आलोक-सी है व्यथा व्यापी प्यार में अभिमान की पर कसक ही रोने नहीं देती।

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शाली

23 जून 2022
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नभ में सन्ध्या की अरुणाली, भू पर लहराती हरियाली, है अलस पवन से खेल रही भादों की मान भरी शाली  री, किस उछाह से झूम उठी तेरी लोलक-लट घुँघराली? झुक कर नरसल ने सरसी में अपनी लघु वंशी धो ली, झिल्ली क

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आषाढ़स्य प्रथम दिवसे

23 जून 2022
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घन अकास में दीखा। चार दिनों के बाद वह आएगी मुझ पर छा जाएगी, सूखी रेतीली धमनी में फिर रस-धारा लहराएगी वह आएगी-मैं सूखी फैलाव रेत (वह आएगी-) मेरी कन-कनी सिंच जाएगी (वह आएगी-) ठंड पड़ेगी जी को, आस

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पानी बरसा

23 जून 2022
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ओ पिया, पानी बरसा ! घास हरी हुलसानी मानिक के झूमर-सी झूमी मधुमालती झर पड़े जीते पीत अमलतास चातकी की वेदना बिरानी। बादलों का हाशिया है आस-पास बीच लिखी पाँत काली बिजली की कूँजों के डार-- कि असाढ़

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किसने देखा चाँद

23 जून 2022
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किस ने देखा चाँद?-जिस ने उसे न चीन्हा एक अकेली आँख, अकेला एक अनझरा आँसू जीवन के इकलौते अपने दुख का, बँधी चिरन्तन आयासों से, खुली अजाने, अनायास सीपी के भीतर का अनगढ़ मोती? सीपी-वासी जीव, न जाने ज

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समाधि-लेख

23 जून 2022
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मैं बहुत ऊपर उठा था, पर गिरा। नीचे अन्धकार है-बहुत गहरा पर बन्धु! बढ़ चुके तो बढ़ जाओ, रुको मत  मेरे पास-या लोक में ही-कोई अधिक नहीं ठहरा!

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जन्म-दिवस

23 जून 2022
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एक दिन और दिनों-सा      आयु का एक बरस ले चला गया।

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मानव की आँख

23 जून 2022
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कोटरों से गिलगिली घृणा यह झाँकती है। मान लेते यह किसी शीत रक्त, जड़-दृष्टि जल-तलवासी तेंदुए के विष नेत्र हैं और तमजात सब जन्तुओं से मानव का वैर है क्यों कि वह सुत है प्रकाश का-यदि इन में न होता

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पक गई खेती

23 जून 2022
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वैर की परनालियों में हँस-हँस के हमने सींची जो राजनीति की रेती उसमें आज बह रही खूँ की नदियाँ हैं कल ही जिसमें ख़ाक-मिट्टी कह के हमने थूका था घृणा की आज उसमें पक गई खेती फ़सल कटने को अगली सर्दियाँ

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ठाँव नहीं

23 जून 2022
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शहरों में कहर पड़ा है और ठाँव नहीं गाँव में अन्तर में ख़तरे के शंख बजे, दुराशा के पंख लगे पाँव में त्राहि! त्राहि! शरण-शरण! रुकते नहीं युगल चरण थमती नहीं भीतर कहीं गूंज  रही एकसुर रट    कैसे बच

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मिरगी पड़ी

23 जून 2022
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अच्छा भला एक जन राह चला जा रहा है। जैसे दूर के आवारे बादल की हलकी छाँह पकी बालियों का शालिखेत लील ले कारिख की रेख खींच या कि कोई काट डाले लिखतम सहसा यों मूर्छा उसे आती है। पुतली की जोत बुझ जाती

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रुकेंगे तो मरेंगे

23 जून 2022
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सोचने से बचते रहे थे, अब आयी अनुशोचना। रूढिय़ों से सरे नहीं (अटल रहे तभी तो होगी वह मरजाद!) अब अनुसरेंगे-नाक में नकेल डाल जो भी खींच ले चलेगा उसी को! चलो, चलो, चाहे कहीं चलो, बस बहने दो  व्यवस्थ

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समानांतर साँप

23 जून 2022
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 (1) हम एक लम्बा साँप हैं जो बढ़ रहा है ऐंठता-खुलता, सरकता, रेंगता। मैं-न सिर हूँ (आँख तो हूँ ही नहीं) दुम भी नहीं हूँ औ' न मैं हूँ दाँत जहरीले। मैं-कहीं उस साँप की गुंजलक में उलझा हुआ-सा एक

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गाड़ी रुक गई

23 जून 2022
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रात गाड़ी रुक गयी वीरान में। नींद से जागा चमक कर, सुना पिछले किसी डिब्बे में किसी ने मार कर छुरा किसी को दिया बाहर फेंक रुकी है गाड़ी-यहीं पड़ताल होगी। न जाने कौन था वह पर हृदय ने तभी साखी दी

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हमारा रक्त

23 जून 2022
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यह इधर बहा मेरे भाई का रक्त वह उधर रहा उतना ही लाल तुम्हारी एक बहिन का रक्त! बह गया, मिलीं दोनों धारा जा कर मिट्टी में हुईं एक पर धरा न चेती मिट्टी जागी नहीं न अंकुर उस में फूटा। यह दूषित द

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श्री मद्धर्मधुरंधर पंडा

23 जून 2022
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 (1) धरती थर्रायी, पूरब में सहसा उठा बवंडर महाकाल का थप्पड़-सा जा पड़ा चाँदपुर-नोआखाली-फेनी-चट्टग्राम-त्रिपुरा में स्तब्ध रह गया लोक सुना हिंसा का दैत्य, नशे में धुत्त, रौंद कर चला गया है जाति

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कहती है पत्रिका

23 जून 2022
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कहती है पत्रिका चलेगा कैसे उन का देश? मेहतर तो सब रहे हमारे हुए हमारे फिर शरणागत- देखें अब कैसे उन का मैला ढुलता है! 'मेहतर तो सब रहे हमारे हुए हमारे फिर शरणगत।' अगर वहीं के वे हो जाते पंग

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जीना है बन सीने का साँप

23 जून 2022
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जीना है बन सीने का साँप हम ने भी सोचा था कि अच्छी ची ज है स्वराज हम ने भी सोचा था कि हमारा सिर ऊँचा होगा ऐक्य में। जानते हैं पर आज अपने ही बल के अपने ही छल के अपने ही कौशल के अपनी समस्त सभ्यत

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देखती है दीठ

23 जून 2022
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हँस रही है वधू-जीवन तृप्तिमय है। प्रिय-वदन अनुरक्त-यह उस की विजय है। गेह है, गति, गीत है, लय है, प्रणय है  सभी कुछ है। देखती है दीठ लता टूटी, कुरमुराता मूल में है सूक्ष्म भय का कीट!

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क्षमा की वेला

23 जून 2022
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आह भूल मुझ से हुई-मेरा जागता है ज्ञान, किन्तु यह जो गाँठ है साझी हमारी, खोल सकता हूँ अकेला कौन से अभिमान के बल पर? हाँ, तुम्हारे चेतना-तल पर तैर आये अगर मेरा ध्यान, और हो अम्लान (चेतना के सलिल

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एक आटोग्रॉफ़

23 जून 2022
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अल्ला रे अल्ला होता न मनुष्य मैं, होता करमकल्ला। रूखे कर्म-जीवन से उलझा न पल्ला। चाहता न नाम कुछ, माँगता न दाम कुछ, करता न काम कुछ, बैठता निठल्ला अल्ला रे अल्ला!

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तुम्हीं हो क्या बन्धु वह

23 जून 2022
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तुम्हीं हो क्या बन्धु वह, जो हृदय में मेरे चिरन्तन जागता है? काँप क्यों सहसा गया मेरा सतत विद्रोह का स्वर स्तब्ध अन्त:करण में रुक गया व्याकुल शब्द-निर्झर? तुम्हीं हो क्या गान, जो अभिव्यंजना मुझ म

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प्रणति

23 जून 2022
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शत्रु मेरी शान्ति के-ओ बन्धु इस अस्तित्व के उल्लास के; ऐन्द्रजालिक चेतना के-स्तम्भ डावाँडोल दुनिया में अडिग विश्वास के; लालसा की तप्त लालिम शिखे- स्थिर विस्तार संयम-धवल धृति के; द्वैत के ओ दाह

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राह बदलती नहीं

23 जून 2022
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राह बदलती नहीं-प्यार ही सहसा मर जाता है, संगी बुरे नहीं तुम-यदि नि:संग हमारा नाता है स्वयंसिद्ध है बिछी हुई यह जीवन की हरियाली जब तक हम मत बुझें सोच कर-'वह पड़ाव आता है!'

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विश्वास का वारिद

23 जून 2022
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 रो उठेगी जाग कर जब वेदना, बहेंगी लूहें विरह की उन्मना, उमड़ क्या लाया करेगा हृदय में सर्वदा विश्वास का वारिद घना?

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किरण मर जाएगी

23 जून 2022
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किरण मर जाएगी! लाल होके झलकेगा भोर का आलोक उर का रहस्य ओठ सकेंगे न रोक। प्यार की नीहार-बूँद मूक झर जाएगी! इसी बीच किरण मर जाएगी! ओप देगा व्योम श्लथ कुहासे का जाल कड़ी-कड़ी छिन्न होगी तारकों की

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शक्ति का उत्पाद

23 जून 2022
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क्रान्ति है आवत्र्त, होगी भूल उस को मानना धारा : उपप्लव निज में नहीं उद्दिष्ट हो सकता हमारा। जो नहीं उपयोज्य, वह गति शक्ति का उत्पाद भर है  स्वर्ग की हो-माँगती भागीरथी भी है किनारा।

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पराजय है याद

23 जून 2022
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भोर बेला--नदी तट की घंटियों का नाद। चोट खा कर जग उठा सोया हुआ अवसाद। नहीं, मुझ को नहीं अपने दर्द का अभिमान मानता हूँ मैं पराजय है तुम्हारी याद।

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दीप थे अगणित

23 जून 2022
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 दीप थे अगणित : मानता था मैं पूरित स्नेह है। क्योंकि अनगिन शिखाएँ थीं, धूम था नैवेद्य-द्रव्यों से सुवासित, और ध्वनि? कितनी न जाने घंटियाँ टुनटुनाती थीं, न जाने शंख कितने घोखते थे नाम  नाम वह, आ

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खुलती आँख का सपना

23 जून 2022
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अरे ओ खुलती आँख के सपने! विहग-स्वर सुन जाग देखा, उषा का आलोक छाया, झिप गयी तब रूपकतरी वासना की मधुर माया; स्वप्न में छिन, सतत सुधि में, सुप्त-जागृत तुम्हें पाया चेतना अधजगी, पलकें लगीं तेरी याद

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पावस-प्रात

23 जून 2022
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भोर बेला। सिंची छत से ओस की तिप्-तिप्! पहाड़ी काक की विजन को पकड़ती-सी क्लान्त बेसुर डाक 'हाक्! हाक्! हाक्!' मत सँजो यह स्निग्ध सपनों का अलस सोना- रहेगी बस एक मुट्ठी खाक! 'थाक्! थाक्! थाक्!'

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सागर के किनारे

23 जून 2022
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 सागर के किनारे तनिक ठहरूँ, चाँद उग आये, तभी जाऊँगा वहाँ नीचे कसमसाते रुद्ध सागर के किनारे। चाँद उग आये। न उस की बुझी फीकी चाँदनी में दिखें शायद वे दहकते लाल गुच्छ बुरूँस के जो तुम हो। न शायद च

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दूर्वांचल

23 जून 2022
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पार्श्व गिरि का नम्र, चीड़ों में डगर चढ़ती उमंगों-सी। बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा। विहग-शिशु मौन नीड़ों में। मैं ने आँख भर देखा। दिया मन को दिलासा-पुन: आऊँगा। (भले ही बरस-दिन-अनगिन य

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कितनी शान्ति ! कितनी शान्ति !

23 जून 2022
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 कितनी शान्ति! कितनी शान्ति! समाहित क्यों नहीं होती यहाँ भी मेरे हृदय की क्रान्ति? क्यों नहीं अन्तर-गुहा का अशृंखल दुर्बाध्य वासी, अथिर यायावर, अचिर में चिर-प्रवासी नहीं रुकता, चाह कर-स्वीकार कर

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कतकी पूनो

23 जून 2022
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छिटक रही है चांदनी, मदमाती, उन्मादिनी, कलगी-मौर सजाव ले कास हुए हैं बावले, पकी ज्वार से निकल शशों की जोड़ी गई फलांगती सन्नाटे में बाँक नदी की जगी चमक कर झाँकती ! कुहरा झीना और महीन, झर-झर पड़

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वसंत की बदली

23 जून 2022
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यह वसन्त की बदली पर क्या जाने कहीं बरस ही जाय? विरस ठूँठ में कहीं प्यार की कोंपल एक सरस ही जाय? दूर-दूर, भूली ऊषा की सोयी किरण एक अलसानी उस की चितवन की हलकी-सी सिहरन मुझे परस ही जाय?

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मुझे सब कुछ याद है

23 जून 2022
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 मुझे सब कुछ याद है मुझे सब कुछ याद है। मैं उन सबों को भी नहीं भूला। तुम्हारी देह पर जो खोलती हैं अनमनी मेरी उँगलियाँ-और जिन का खेलना सच है, मुझे जो भुला देता है सभी मेरी इन्द्रियों की चेतना उन

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अकेली न जैयो राधे जमुना के तीर

23 जून 2022
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'अकेली न जैयो राधे जमुना के तीर' 'उस पार चलो ना! कितना अच्छा है नरसल का झुरमुट!' अनमना भी सुन सका मैं गूँजते से तप्त अन्त:स्वर तुम्हारे तरल कूजन में। 'अरे, उस धूमिल विजन में?' स्वर मेरा था चिकन

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जब पपीहे ने पुकारा

23 जून 2022
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जब पपीहे ने पुकारा-- मुझे दीखा दो पँखुरियाँ झरीं गुलाब की, तकती पियासी पिया-से ऊपर झुके उस फ़ूल को ओठ ज्यों ओठों तले। मुकुर मे देखा गया हो दृश्य पानीदार आँखों के। हँस दिया मन दर्द से ’ओ मूढ! तून

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माहीवाल से

23 जून 2022
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शान्त हो! काल को भी समय थोड़ा चाहिए। जो घड़े-कच्चे, अपात्र!-डुबा गये मँझधार तेरी सोहनी को चन्द्रभागा की उफनती छालियों में उन्हीं में से उसी का जल अनन्तर तू पी सकेगा औ' कहेगा, 'आह, कितनी तृप्ति!'

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शरद

23 जून 2022
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सिमट गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी गगन के बदन में फिर नयी एक दमक आयी दीप कोजागरी बाले कि फिर आवें वियोगी सब ढोलकों से उछाह और उमंग की गमक आयी बादलों के चुम्बनों से खिल अयानी हरियाली शरद की धू

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क्वाँर की बयार

23 जून 2022
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इतराया यह और ज्वार का क्वाँर की बयार चली, शशि गगन पार हँसे न हँसे शेफाली आँसू ढार चली ! नभ में रवहीन दीन बगुलों की डार चली; मन की सब अनकही रही पर मैं बात हार चली !

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सो रहा है झोंप

23 जून 2022
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सो रहा है झोंप अँधियाला नदी की जाँघ पर : डाह से सिहरी हुई यह चाँदनी चोर पैरों से उझक कर झाँक जाती है। प्रस्फुटन के दो क्षणों का मोल शेफाली विजन की धूल पर चुपचाप अपने मुग्ध प्राणों से अजाने आँक

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सवेरे सवेरे

23 जून 2022
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 सबेरे-सबेरे नहीं आती बुलबुल, न श्यामा सुरीली न फुटकी न दँहगल सुनाती हैं बोली; नहीं फूलसुँघनी, पतेना-सहेली लगाती हैं फेरे। जैसे ही जागा, कहीं पर अभागा अडड़़ाता है कागा- काँय! काँय! काँय! बोलो भ

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सपने मैंने भी देखे हैं

23 जून 2022
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 सपने मैं ने भी देखे हैं मेरे भी हैं देश जहाँ पर स्फटिक-नील सलिलाओं के पुलिनों पर सुर-धनु सेतु बने रहते हैं। मेरी भी उमँगी कांक्षाएँ लीला-कर से छू आती हैं रंगारंग फानूस व्यूह-रचित अम्बर-तलवासी द

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हमारा देश

23 जून 2022
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इन्हीं तृण-फूस-छप्पर से ढंके ढुलमुल गँवारू झोंपड़ों में ही हमारा देश बसता है इन्हीं के ढोल-मादल-बाँसुरी के उमगते सुर में हमारी साधना का रस बरसता है। इन्हीं के मर्म को अनजान शहरों की ढँकी लो

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नई व्यंजना

23 जून 2022
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तुम जो कुछ कहना चाहोगे विगत युगों में कहा जा चुका  सुख का आविष्कार तुम्हारा? बार-बार वह सहा जा चुका! रहने दो, वह नहीं तुम्हारा, केवल अपना हो सकता जो मानव के प्रत्येक अहं में सामाजिक अभिव्यक्ति पा

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कवि, हुआ क्या फिर

23 जून 2022
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कवि, हुआ क्या फिर तुम्हारे हृदय को यदि लग गयी है ठेस? चिड़ी-दिल को जमा लो मूठ पर ('ऐहे, सितम, सैयाद!') न जाने किस झरे गुल की सिसकती याद में बुलबुल तड़पती है न पूछो, दोस्त! हम भी रो रहे हैं लिये टू

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बंधु हैं नदियाँ

23 जून 2022
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इसी जुमना के किनारे एक दिन मैं ने सुनी थी दु:ख की गाथा तुम्हारी और सहसा कहा था बेबस : 'तुम्हें मैं प्यार करता हूँ।' गहे थे दो हाथ मौन समाधि में स्वीकार की। इसी जमुना के किनारे आज मैं ने फिर कहा

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हरी घास पर क्षण भर

23 जून 2022
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आओ बैठें इसी ढाल की हरी घास पर। माली-चौकीदारों का यह समय नहीं है, और घास तो अधुनातन मानव-मन की भावना की तरह सदा बिछी है-हरी, न्यौती, कोई आ कर रौंदे। आओ, बैठो तनिक और सट कर, कि हमारे बीच स्ने

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पहला दौंगरा

23 जून 2022
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गगन में मेघ घिर आये। तुम्हारी याद स्मृति के पिंजड़े में बाँध कर मैं ने नहीं रक्खी, तुम्हारे स्नेह को भरना पुरानी कुप्पियों में स्वत्व की मैं ने ही नहीं चाहा। गगन में मेघ घिरते हैं तुम्हारी य

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मेरा तारा

23 जून 2022
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अज्ञेय » हरी घास पर क्षण भर » ऐसे ही थे मेघ क्वाँर के, यही चाँद कहता था मुझ को आँख मार के : अजी तुम्हारा मैं हूँ साथी- जीवन-भर इस धुली चाँदनी में तुम खेला करना खेल प्यार के! वही मेघ हैं, साँझ क

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आत्मा बोली

23 जून 2022
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आत्मा बोली  सुनो, छोड़ दो यह असमान लड़ाई लडऩा ही क्या है चरित्र? यश जय ही? धैर्य पराजय में-यह भी गौरव है! मैं ने कहा  पराजय में तो धैर्य सहज है, क्योंकि पराजय परिणति तो है। मैं तो अभी अधर में

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कलगी बाजरे की

23 जून 2022
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हरी बिछली घास। दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।   अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका अब नहीं कहता, या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई, टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो नहीं कारण कि मेरा हृ

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नदी के द्वीप

23 जून 2022
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हम नदी के द्वीप हैं। हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए। वह हमें आकार देती है। हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत-कूल सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।   माँ है वह! है, इसी से हम बने हैं

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छंद है यह फूल

23 जून 2022
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छन्द है यह फूल, पत्ती प्रास। सभी कुछ में है नियम की साँस। कौन-सा वह अर्थ जिसकी अलंकृति कर नहीं सकती यही पैरों तले की घास? समर्पण लय, कर्म है संगीत टेक करुणा-सजग मानव-प्रीति। यति न खोजो-अहं ह

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बने मंजूष यह अंतस्

23 जून 2022
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किसी एकान्त का लघु द्वीप मेरे प्राण में बच जाय जिस से लोक-रव भी कर्म के समवेत में रच जाय। बने मंजूष यह अन्तस् समर्पण के हुताशन का- अकरुणा का हलाहल भी रसायन बन मुझे पच जाय।

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