रात गाड़ी रुक गयी वीरान में।
नींद से जागा चमक कर, सुना
पिछले किसी डिब्बे में किसी ने
मार कर छुरा किसी को दिया बाहर फेंक
रुकी है गाड़ी-यहीं पड़ताल होगी।
न जाने कौन था वह पर हृदय ने
तभी साखी दी रात में कोई अभागा
मार बैठा छुरा अपने ही हृदय में
स्वयं अपने को उठा कर फेंक बैठा
दनदनाती बढ़ रही कुल मनुजता की रेल से।
और उस के लिए रुकना पड़ेगा
मनुजता के यान को मुक्ति-उन्मुख रथ
हमारा-वाहिनी सारी-यहाँ रुक जाएगी
देह अपने रोग का भी भार ढोती है।
धिक्! पुन: धिक्कार! और यह धिक्कार
हिन्दू या मुसल्मां नहीं, यह धिक्कार
आक्रोश है अपमानिता मेरी मनुजता का!