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आत्मा का मुक्त स्वभाव

26 अप्रैल 2022

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हम जिस कठोपनिषद् की चर्चा कर रहे थे, वह छान्दोग्योपनिषद् के, जिसकी हम अब चर्चा करेंगे बहुत समय बाद रचा गया था। कठोपनिषद् की भाषा अपेक्षाकृत आधुनिक है, उसकी चिन्तन-शैली भी सब से अधिक प्रणालीबद्ध है। प्राचीनतर उपनिषदों की भाषा कुछ अन्य प्रकार की है । वह अति प्राचीन एवं बहुत कुछ वेद के संहिता-भाग की तरह है, और कभी-कभी तो सार तत्त्व में पहुँचने के लिए बहुत ही अनावश्यक बातों में से होकर जाना पड़ता है। इस प्राचीन उपनिषद् पर वेद के कर्मकाण्ड का, जिसके विषय में मैं तुमको बतला चुका हूँ, और जो वेदों का दूसरा खण्ड है, काफी प्रभाव पड़ा है । इसीलिए इसका अधिकांश अब भी कर्मकाण्डात्मक है । तो भी, अति प्राचीन उपनिषदों के अध्ययन से एक बड़ा लाभ होता है । वह यह है कि उससे आध्यात्मिक भावों का ऐतिहासिक विकास जाना जा सकता है । अपेक्षाकृत आधुनिक उपनिषदों में ये आध्यात्मिक तत्व एकत्र संगृहीत एवं सज्जित पाये जाते हैं । उदाहरणार्थ भगवद्गीता में, जिसे अन्तिम उपनिषद् कहा जा सकता है, कर्मकाण्ड का लेशमात्र भी नहीं है। गीता उपनिषदों से संगृहीत अनेक पुष्पों से निर्मित एक सुन्दर गुच्छे जैसी है । किन्तु उसमें इन सब तत्त्वों का क्रमविकास देखने में नहीं आता, उनका स्रोत नहीं जाना जा सकता। आध्यात्मिक तत्त्वों के इस क्रमविकास को जानने के लिए हमें वेदों का अध्ययन करना होगा। वेदों को अत्यन्त पवित्र मानने के कारण संसार के अन्यान्य धर्मशास्त्रों की भांति उनका अंग-भंग नहीं होने पाया। उनमें उच्चतम और निम्नतम दोनों प्रकार के विचारों को वैसे का वैसा ही रखा गया है – सार-असार अति उन्नत विचार और साथ ही सामान्य छोटी-छोटी बातें, दोनों ही उनमें सुरक्षित हैं। क्योंकि किसी ने उनका स्पर्श करने का साहस नहीं किया। भाष्यकारों ने उनको सुसंगत बनाने और प्राचीन विषयों में से अछूता नये भावों को निकालने की चेष्टा की। उन्होंने अत्यन्त साधारण बातों में भी आध्यात्मिक तत्त्व देखने का प्रयास किया। किन्तु मूल जैसे का तैसा ही रहा, और इसीलिए वे ऐतिहासिक अध्ययन के लिए अनुपम विषय हैं । हम सभी जानते हैं कि प्रत्येक धर्म के शास्त्रों में परवर्ती काल की विकासमान आध्यात्मिकता के अनुरूप परिवर्तन किये गये – इधर-उधर एक शब्द बदल दिया, या जोड़ दिया गया। पर वैदिक साहित्य में संभवतः ऐसा नहीं किया गया है। और यदि हुआ भी हो, तो उसका पता ही नहीं चलता। हमें इससे यह लाभ है कि हम विचार के मूल उत्पत्तिस्थान में पहुँच सकते हैं और देख सकते हैं कि किस प्रकार क्रमशः उच्च से उच्चतर विचारों का – स्थूल आधिभौतिक धारणाओं से सूक्ष्मतर आध्यात्मिक धारणाओं का – विकास हुआ है और अन्त में किस प्रकार वेदान्त में उन सभी की चरम परिणति हुई है। वैदिक साहित्य में अनेक प्राचीन आचार-व्यवहारों का भी आभास पाया जाता है । पर उपनिषदों में उनका अधिक वर्णन नहीं है। वे एक ऐसी भाषा में लिखे गये हैं जो अत्यन्त संक्षिप्त है और सरलता से याद रखी जा सकती है।

इनके लेखकों ने इन पंक्तियों को, कुछ ऐसे तथ्यों को स्मरण रखने में सहायता देने के निमित्त लिख लिया है, जो उनकी समझ में सभी को ज्ञात थे। इससे एक बड़ी कठिनाई यह होती है कि हम उपनिषदों की किसी भी कथा का वास्तविक तात्पर्य मुश्किल से ग्रहण कर पाते, क्योंकि परम्परा लगभग नष्ट हो चुकी है और जो थोड़ी सी अवशिष्ट है, वह बड़ी अतिरंजित रूप में है । उनकी अनेक नयी नयी व्याख्याएँ की गयी हैं, यहाँ तक कि जब हम उनको पुराणों में पढ़ते हैं, तो देखते हैं कि वे गीति-काव्य बन गयी हैं।

जिस प्रकार पश्चात देशों में पाश्चात्य जातियों के राजनीतिक विकास के सम्बन्ध में हम यह महत्त्वपूर्ण सत्य पाते हैं कि वे किसी का निरंकुश शासन नहीं सहन कर सकतीं, किसी एक मनुष्य के द्वारा अपने ऊपर शासन होने का वे सतत विरोध करती रही हैं और जनतन्त्र-प्रणाली एवं शारीरिक स्वाधीनता की उत्तरोत्तर उच्च धारणाओं की ओर बढ़ रही हैं, उसी प्रकार भारतीय दर्शन में भी आध्यात्मिक जीवन के विकास में ठीक वही बात घटती है। अनेक देवताओं का स्थान एक ईश्वर ने लिया, और उपनिषदों में तो इस एक ईश्वर के विरुद्ध भी विद्रोह हुआ है । इस जगत् के अनेक शासनकर्ता उनके भाग्य को नियन्त्रित कर रहे हैं, केवल यही धारणा उन्हें असह्य नहीं हुई, बल्कि कोई एक व्यक्ति भी इस विश्व का शासक हो – यह धारणा भी उन्हें सहा न हो सकी। यही बात सब से पहले हमारे सामने आती है। यह धारणा धीरे-धीरे विकसित होती हुई अन्त में अपनी चरम परिणति पर पहुँचती है । प्रायः सभी उपनिषदों में अन्त में हम यही परिणति पाते हैं और वह है – विश्व के ईश्वर को सिंहासन-च्युत करना। ईश्वर की सगुणता विलीन हो जाती है और निर्गुण धारणा उपस्थित होती है। तब ईश्वर एक व्यक्ति अथवा एक अनन्तगुण-संपन्न मानव के रूप में जगत् का शासक नहीं रह जाता, प्रत्युत यह भूतमात्र में, विष भर में, व्याप्त एक तत्व मात्र रह जाता है। ईश्वर की सगुण धारणा से निर्गुण धारणा में पहुँचने पर, तब मनुष्य का सगुनण – व्यक्ती – रह जाना तर्क की दृष्टि से असंगत होता। अतएव सगुण मनुष्य भी उड़ गया – मनुष्य भी एक तत्व के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। सगुण व्यक्ति केवल एक गोचर बाह्य तथ्य है प्रकृत तत्व उसके अंतर्देश में है । इस तरह दोनों ओर से क्रमशः सगुणत्व चला जाता है और निर्गुणत्व का आविर्भाव होता रहता है । सगुण ईश्वर की क्रमशः निर्गुण धारणा हो जाती है और सगुण मनुष्य का भी निर्गुण भाव आ जाता है । तब निर्गुण ईश्वर और निर्गुण मनुष्य की इन दो आगे बढ़ती धाराओं के क्रमिक मिलन की क्रमागत अवस्थाएँ आती हैं । ये दो धाराएँ जिन अवस्थाओं को पार करके अंततः मिल जाती हैं उनके वर्णन उपनिषदों में संगृहीत है, एवं प्रत्येक उपनिषद् की अन्तिम बात है – तत्त्वमस्ति । नित्य-आनन्दमय तत्त्व एक ही है, और वही एक जगत् रूप में अनेक प्रकार से प्रकाशित हुआ है ।

अब दार्शनिक आये। उपनिषदों का कार्य यहीं पर समाप्त हुआ प्रतीत होता है; उसके बाद का कार्य दार्शनिकों ने हाथ में लिया। उपनिषदों ने उन्हें मुख्य ढाँचा प्रदान किया और उनका कार्य था उसे ब्यौरों से पूर्ण करना। अतएव, बहुत से प्रश्नों का उठना स्वाभाविक था। यदि यह स्वीकार किया जाए कि एक निर्गुण तत्व ही परिदृश्यमान नाना रूपों से व्यक्त हो रहा है, तो यह जिज्ञासा होती है कि एक क्यों अनेक हुआ? यह उसी प्राचीन प्रश्न को नये ढंग से पूछना है, जो अपने अमार्जित रूप में मानव हृदय में उत्पन्न होता है और जगत् में दुःख और अशुभ का कारण जानना चाहता है । उस प्रश्न ने स्थूल भाव त्यागकर सूक्ष्म, अमूर्त रूप धारण कर लिया है । अब हमारी इन्द्रियसीमित दृष्टि से नहीं, बल्कि दार्शनिक दृष्टि से यह प्रश्न किया जा रहा है कि हम दुःखी क्यों हैं क्यों वह एक तत्त्व अनेक हुआ? इसका उत्तर – सर्वोत्तम उत्तर – भारत में मिला। वह है मायावाद जो कहता है कि वास्तव में वह अनेक नहीं हुआ वास्तव में उसके प्रकृत स्वरूप का लेशमात्र भी हानि नहीं हुई । यह अनेकत्व केवल आभासिक है । मनुष्य केवल ऊपरी दृष्टि से व्यक्ति के रूप में प्रतीत हो रहा है, किन्तु वास्तव में वह निर्गुण पुरुष है। ईश्वर भी आपाततः ही सगुण या व्यक्ति के रूप में प्रतीत हो रहा है, वास्तव में वह निर्गुण पुरुष है ।

इस उत्तर के लिए भी विभिन्न सोपानों में से जाना पड़ा, दार्शनिकों में मतभेद हुए। मायावाद भारत के सभी दार्शनिकों को मान्य नहीं था। संभवतः उनमें से अधिकांश दार्शनिकों ने इस मत को स्वीकार नहीं किया। एक अपरिमार्जित द्वैतवाद में विश्वास करनेवाले कुछ द्वैतवादी हैं, जो इस प्रश्न को उठने ही नहीं देते; इसके उदित होते ही वे इसे दबा देते हैं । वे कहते हैं “तुमको ऐसा प्रश्न करने का अधिकार नहीं है। ‘क्यों इस तरह हुआ’ इसकी व्याख्या पूछने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं। वह तो ईश्वर की इच्छा है और हमें शान्त भाव से उसे सिर-आँखों पर लेना होगा। जीवात्मा को कुछ भी स्वाधीनता नहीं है। सब कुछ पहले से ही निर्दिष्ट है । हम क्या क्या करेंगे, हमें क्या क्या अधिकार हैं, हम क्या क्या सुख-दुःख भोगेंगे – सब कुछ पहले से ही निर्दिष्ट है । जब दुःख आये तो धैर्य से उन सब का भोग करते जाना ही हमारा कर्तव्य है । यदि हम ऐसा न करें, तो और भी अधिक कष्ट पाएँगे । हमने यह कैसे जाना? – क्योंकि वेद ऐसा कहते हैं । “फिर उनके अपने ग्रन्थ हैं, एवं ग्रंथों की अपनी व्याख्या है और वे उनका उपदेश करते हैं ।

फिर ऐसे भी दार्शनिक हैं, जो मायावाद तो स्वीकार नहीं करते, पर जिनकी स्थिति मध्य में है । वे कहते हैं कि यह समस्त ब्रह्माण्ड ईश्वर के शरीर जैसा है । ईश्वर सभी आत्माओं की आत्मा और विश्व की आत्मा है जीवात्माओं का संकोचन असत्-कर्मों से होता है। प्रत्येक जीवात्मा के इस संकोच का कारण है, जब मनुष्य कुछ असत्-कर्म करता है, तो उसकी आत्मा संकुचित होने लगती है और उसकी शक्ति तब तक घटती जाती है, जब तक कि वह फिर से सत्कर्म आरम्भ नहीं करता। तब पुनः उसका विकास होने लगता है। सभी भारतीय मतों में, और मेरे विचार में, संसार के सभी मतों में एक सर्वसाधारण भाव दिखाई देता है – चाहे वे उसे जानते हों या न जानते हों – और उसे मैं ‘मनुष्य का देवत्व या ईश्वरत्व कहना चाहता हूँ। संसार में ऐसा कोई मत नहीं है यथार्थ धर्म नाम के योग्य ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो किसी न किसी तरह; चाहे पौराणिक या रूपक-भाव से हो अथवा दर्शनों की परिमार्जित स्पष्ट भाषा में, यह भाव प्रकाशित न करता हो कि जीवात्मा चाहे, जो हो ईश्वर के साथ उसका चाहे, जो सम्बन्ध हो, पर स्वरूपतः वह शुद्धस्वभाव एवं पूर्ण है। पूर्णानन्द और शक्ति ही उसका स्वभाव है, दुःख या दुर्बलता नहीं । यह दुःख किसी तरह उसमें आ गया है। अमार्जित मत इसे मूर्तिमान् अशुभ, शैतान या अहिन नाम देकर अशुभ के अस्तित्व की व्याख्या करते हैं। कुछ मतों में एक ही आधार में ईश्वर और शैतान दोनों का भाव आरोपित किया जाता है, जो अकारण ही चाहे जिसे सुखी या दुःखी करता है। फिर कुछ अधिक चिन्तनशील व्यक्ति मायावाद आदि के द्वारा अशुभ की व्याख्या करने की चेष्टा करते हैं। किन्तु एक बात सभी मतों में अत्यन्त स्पष्ट है और वही हमारा प्रास्ताविक विषय है। ये समस्त दार्शनिक मत और प्रणालियाँ अंततः केवल मन के व्यायाम और बुद्धि की कसरत हैं। जो एक महान् उज्ज्वल भाव मुझे प्रत्येक देश और प्रत्येक धर्म के अन्धविश्वासों के बीच स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है, वह यह है कि मनुष्य दिव्य है, यह दिव्यता ही हमारा स्वरूप है ।

अन्य जो कुछ है, वह जैसा वेदान्त कहता है अभ्यास, आरोप मात्र है । कुछ उसके ऊपर आरोपित कर दिया गया है, पर उसके दिव्य स्वरूप का कभी भी नाश नहीं होता। यह जिस प्रकार अतिशय साधु-प्रकृति व्यक्ति में है, वैसे ही एक अत्यन्त पतित व्यक्ति में भी है। इस देव-स्वभाव का आह्वान करना होगा, और वह अपने स्वयं को ही प्रकट कर देगा। हम उसे पुकारेंगे और वह जग जाएगा। पहले के लोग जानते थे कि चकमक पत्थर और सूखी लकड़ी में आग रहती है, पर उस आग को बाहर निकालने के लिए घर्षण आवश्यक था। इसी प्रकार यह मुक्तभाव और पवित्रता-रूपी अग्नि प्रत्येक आत्मा का स्वभाव है, आत्मा का गुण नहीं, क्योंकि गुण तो उपार्जित किया जा सकता है, इसलिए वह नष्ट भी हो सकता है । आत्मा मुक्त भाव से अभिन्न है, सत् या अस्तित्व और ज्ञान से अभिन्न है। यह सत्-चित्- आनन्द आत्मा का स्वभाव है आत्मा का जन्मसिद्ध अधिकार है और यह सब व्यक्त भाव जो हम देख रहे हैं, उसी की धुँधली और उज्ज्वल अभिव्यक्तियाँ है। यहाँ तक कि मृत्यु भी उस प्रकृत सत्ता की एक अभिव्यक्ति है। जन्म-मृत्यु, क्षय-वृद्धि, उन्नति-अवनति, सब कुछ उस एक अखण्ड सत्ता की ही विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। इसी प्रकार हमारा साधारण शान भी, वह चाहे विद्या अथवा अविद्या किसी भी रूप से प्रकाशित क्यों न हो, उसी चित् का, उसी ज्ञानस्वरूप का प्रकाश है, विभिन्नता प्रकारगत नहीं है, अपितु परिमाणगत है। नीचे धरती पर रेंगनेवाला क्षुद्र कीड़ा और स्वर्ग का श्रेष्ठतम देवता इन दोनों के ज्ञान का भेद प्रकारगत नहीं, परिमाणगत है । इसी कारण वेदान्ती मनीषी निर्भय होकर कहते है कि हमारे जीवन के सारे सुखोपभोग, यहाँ तक कि नितान्त गर्हित आनन्द भी उसी आनन्दस्वरूप आत्मा का प्रकाश है।

यही वेदान्त का सर्वप्रधान भाव ज्ञात होता है और जैसा मैंने पहले कहा है, मुझे मालूम होता है कि सभी धर्मों का यही मत है । मैं ऐसा कोई धर्म नहीं जानता जिसके मूल में यह मत न हो। सभी धर्मों में यह सार्वभौमिक भाव विद्यमान है । उदाहरण के तौर पर बाइबिल ही को ले लो। उसमें यह रूपक है कि आदि-मानव आदम अत्यन्त पवित्र था, अन्त में उसके असत्कार्यों से उसकी पवित्रता नष्ट हो गयी । इस रूपक से यह प्रमाणित होता है कि वे विश्वास करते थे कि आदिम मानव का स्वभाव पूर्ण था। हमें जो तरह तरह की दुर्बलताएँ- और अपवित्रता दिखाई देती है, वह सब उस पूर्णस्वभाव पर आरोपित आवरण या उपाधि मात्र है । फिर ईसाई धर्म का परवर्ती इतिहास यह भी बतलाता है कि उसके अनुयायी उस पूर्व-अवस्था की पुनः प्राप्ति की केवल सम्भावना में ही नहीं, वरन् उसकी निश्चिंतता में भी विश्वास करते हैं। यही समस्त बाइबिल का – प्राचीन तथा नव व्यवस्थान का – इतिहास है। मुसलमानों के सम्बन्ध में भी ऐसा ही है। वे भी आदम तथा उसकी जन्मजात पवित्रता’ पर विश्वास करते हैं । और उनकी यह धारणा है कि हजरत मुहम्मद के आगमन से उस लुप्त पवित्रता के पुनरुद्धार का उपाय प्राप्त हो गया है। बौद्धों के विषय में भी यही है। वे भी निर्वाण नामक अवस्थाविशेष में विश्वास रखते है । यह अवस्था द्वैत-जगत् से अतीत की अवस्था है । वेदान्ती लोग जिसे ब्रह्म कहते हैं, यह निर्वाण भी ठीक वही है । और बौद्ध धर्म के सारे उपदेशों का यही मर्म है कि उस खोयी हुई निर्वाण-अवस्था को फिर से प्राप्त करना होगा। इस तरह हम देखते हैं कि सभी धर्मों में यह, एक तत्त्व पाया जाता है कि जो तुम्हारा पहले से ही नहीं है, उसे तुम कभी नहीं पा सकते। इस विश्व-ब्रह्माण्ड में तुम किसी के भी प्रति ऋणी नहीं हो। तुम्हें अपने जन्मसिद्ध अधिकार का ही दावा करना है। यह भाव एक प्रसिद्ध वेदान्ताचार्य ने अपने एक ग्रन्थ के नाम में ही बड़े सुन्दर भाव से प्रकट किया है । ग्रन्थ का नाम है ‘स्वाराज्यसिद्धि’ अर्थात् हमारे अपने खोये हुए राज्य की पुनः प्राप्ति। वह राज्य हमारा है हमने उसे खो दिया है, फिर से हमें उसे प्राप्त करना होगा। पर मायावादी कहते हैं – राज्य का यह खोना केवल भ्रम था, तुमने कभी उसे खोया नहीं। बस यही अन्तर है।

यद्यपि इस विषय में सभी धर्म-प्रणालियाँ एकमत हैं कि हमारा जो राज्य था, उसे हमने खो दिया है, पर वे उसे फिर से पाने के विविध उपाय बतलाती है। कोई कहती है – कुछ विशिष्ट क्रिया-कलाप एवं प्रतिमा आदि की पूजा-अर्चना करने से और स्वयं कुछ विशेष नियमानुसार जीवनयापन करने से यह साम्राज्य पुनः मिल सकता है। अन्य कोई कहती है – यदि तुम प्रकृति से अतीत पुरुष के सम्मुख अपने को नत कर रोते रोते उससे क्षमा चाहो, तो पुनः उस राज्य को प्राप्त कर लोगे। दूसरी कोई कहती है – यदि तुम इस पुरुष से पूरे हृदय से प्रेम कर सको, तो तुम फिर से इस राज्य को प्राप्त कर लोगे। उपनिषदों में ये सभी उपदेश पाये जाते हैं। क्रमशः हम यह देखेंगे। किन्तु अन्तिम और सर्वश्रेष्ठ उपदेश तो यह है कि तुम्हें रोने की कोई आवश्यकता नहीं। तुम्हें इन सब क्रिया-कलापों और बाह्य अनुष्ठानों की किंचिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं। क्या क्या करने से राज्य की पुनः प्राप्ति होगी, इस सोच-विचार की तुम्हें कोई जरूरत नहीं, क्योंकि तुमने राज्य कभी खोया ही नहीं। जिसे तुमने कभी खोया नहीं, उसे पाने के लिए इस प्रकार की चेष्टा की आवश्यकता ही क्या? तुम स्वभावतः मुक्त हो, तुम स्वभावतः शुद्धस्वभाव हो। यदि तुम अपने को मुक्त समझ सको, तो तुम इसी क्षण मुक्त हो जाओगे, और यदि तुम अपने को बद्ध समझो, तो तुम बद्ध ही रहोगे। यह बड़ी निर्भीक उक्ति है, और जैसा मैंने तुमसे पहले कहा ही है कि मुझे तुमसे बड़ी निर्भयतापूर्वक कहना होगा। यह अभी तुमको शायद भयभीत कर दे, पर तुम जब इस पर चिन्तन करोगे और अपने हृदय में इसे अनुभव करोगे, तब तुम देखोगे कि मेरी बात सत्य है। कारण, यदि मुक्त भाव तुम्हारा स्वभाव-सिद्ध न हो, तब तो किसी प्रकार तुम मुक्त न हो सकोगे। यदि तुम मुक्त थे और इसी समय किसी कारण से उस मुक्त स्वभाव को खोकर बद्ध हो गये हो, तो इससे प्रमाणित होता है कि तुम आरम्भ में ही मुक्त नहीं थे। यदि मुक्त थे, तो किसने तुमको बद्ध किया? जो स्वतन्त्र है, वह कभी भी परतन्त्र नहीं हो सकता; और यदि वह परतन्त्र था, तो उसकी स्वतन्त्रता भ्रम थी ।

अब तुम इन दो पक्षों में से कौन-सा पक्ष ग्रहण करोगे? दोनों पक्षों की युक्ति-परम्परा को स्पष्ट करने पर निम्नलिखित बातें दिखाई देती हैं । यदि कहो कि आत्मा स्वभावतः शुद्धस्वरूप एवं मुक्त है तो अवश्यमेव यह मानना होगा कि जगत् में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो उसे बद्ध या सीमित कर सके । किन्तु जगत् में यदि इस प्रकार की कोई वस्तु हो, जिससे उसे बद्ध किया जा सके, तो फिर निश्चय ही आत्मा मुक्त नहीं थी और तुम जो उसे मुक्त कह रहे हो, वह तुम्हारा भ्रम मात्र है । अतः यदि हमारी मुक्ति सम्भव हो, तो फिर यह स्वीकार करना अपरिहार्य होगा कि आत्मा स्वभाव से ही मुक्त है, इसके विपरीत हो ही नहीं सकती । मुक्ति का अर्थ है – किसी बाह्य वस्तु के अधीन न होना, अर्थात् उस पर किसी दूसरी वस्तु का कार्य न होना। आत्मा कार्य-कारण-सम्बन्ध से अतीत है, और इसी से आत्मा के सम्बन्ध में हमारी ये उच्च उच्च धारणाएँ उत्पन्न हुई हैं। यदि यह अस्वीकार किया जाए कि आत्मा स्वभावतः मुक्त है, अर्थात् बाहर की कोई भी वस्तु उस पर कार्य नहीं कर सकती, तो आत्मा के अमरत्व की कोई धारणा प्रस्थापित नहीं की जा सकती; क्योंकि मृत्यु हमारे बाहर की किसी वस्तु के द्वारा किया हुआ कार्य है । इससे ज्ञात होता है कि हमारे शरीर पर बाहरी कोई दूसरा पदार्थ कार्य कर सकता है । मान लो, मैंने विष खाया और मेरी मृत्यु हो गयी – तो इससे प्रमाणित होता है कि हमारे शरीर पर विष नामक एक बाहरी पदार्थ कार्य कर सकता है। यदि आत्मा के सम्बन्ध में यह सत्य हो, कि वह मुक्त है, तो यह भी स्वभावतः ज्ञात होता है कि बाहरी कोई भी पदार्थ उस पर कार्य नहीं कर सकता। अतः आत्मा कभी मर नहीं सकती। आत्मा का मुक्तस्वभाव, उसका अमरत्व एवं उसका आनन्द-स्वभाव, सभी इस बात पर निर्भर है कि आत्मा कार्य-कारण-सम्बन्ध अर्थात् इस माया से अतीत है । अब इन दो पक्षों में से कौन-सा पक्ष लोगे? या तो आत्मा के मुक्तस्वभाव को भ्रान्ति कहो या फिर उसके बद्ध भाव को भ्रान्ति कहकर स्वीकार करो। मैं तो निश्चय ही उसके बद्ध भाव को भ्रान्ति कहूँगा। यही मेरी समस्त भावनाओं और महत्त्वाकांक्षाओं के साथ मेल खाता है। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि मैं स्वभावतः मुक्त हूँ। मैं यह कभी नहीं मान सकता कि यह बद्ध भाव सत्य है, और मेरा मुक्त भाव मिथ्या।

सभी दर्शनों में किसी न किसी रूप से यह विवाद चल रहा है, यहाँ तक कि बिलकुल आधुनिक दर्शनों में भी उसने स्थान पा लिया है । दो दल हैं । एक दल कहता है कि आत्मा नामक कोई वस्तु नहीं है, वह केवल भ्रान्ति है । इस भ्रान्ति का कारण है जड़-कणों का बारम्बार स्थान-परिवर्तन, जिससे यह समवाय, जिसे तुम शरीर मस्तिष्क आदि नामों से पुकारते हो उत्पन्न होता है । इन जड़-कणों के ही स्पन्दन से, उनकी गतिविशेष और उनके लगातार स्थान-परिवर्तन से यह मुक्तस्वभाव की धारणा आती है । कुछ बौद्ध सम्प्रदाय भी इसका अनुमोदन करते थे; वे उदाहरण देते थे कि एक जलती मशाल लो, और उसे जोर से गोल गोल घुमाओ, तो एक वर्तुलाकार प्रकाश दिखाई पड़ेगा। वस्तुतः प्रकाश के इस चक्र का कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि यह मशाल प्रत्येक क्षण स्थान-परिवर्तन कर रही है । उसी तरह हम भी छोटे छोटे परमाणुओं की समष्टि मात्र हैं, इन परमाणुओं के जोर से घूमने से यह ‘अहं’ भ्रान्ति उत्पन्न होती है । अतएव एक मत यह हुआ कि शरीर सत्य है, आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है । दूसरा दल कहता है कि विचारशक्ति के द्रुत स्पन्दन से जड़-रूप भ्रान्ति की उत्पत्ति होती है, वस्तुतः जड़ का कोई अस्तित्व नहीं है। यह तर्क आज तक चल रहा है – एक दल कहता है, आत्मा भ्रम है और दूसरा जड़ को भ्रम कहता है । तुम कौन-सा मत अपनाओगे हम तो निश्चय ही आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार कर जड़ को भ्रमात्मक कहेंगे । युक्ति दोनों ओर बराबर है । केवल आत्मा के निरपेक्ष अस्तित्व को प्रमाणित करनेवाली युक्ति अपेक्षाकृत प्रबल है; क्योंकि जड़ क्या है, यह किसी ने देखा नहीं । हम केवल स्वयं को अनुभव कर सकते हैं । मैंने ऐसा मनुष्य नहीं देखा, जिसने स्वयं के बाहर जाकर जड़ का अनुभव किया हो। अभी तक कोई भी कूदकर अपनी आत्मा के बाहर नहीं जा सका। अतएव आत्मा के पक्ष में युक्ति कुछ दृढ़तर हुई। द्वितीयत: आत्मवाद जगत् की सुन्दर व्याख्या कर सकता है, पर जड़वाद नहीं। अतएव जड़वाद के द्वारा जगत् की व्याख्या अयौक्तिक है। पहले आत्मा के स्वाभाविक मुक्त और बद्ध भाव-सम्बन्धी जो विचार का प्रसंग उठा था, जड़वाद और आत्मवाद का तर्क उसी का स्थूल रूप है। दर्शनों का सूक्ष्म रूप से विश्लेषण करने पर तुम देखोगे कि उनको भी इन दो मतों में से किसी न किसी में परिणत किया जा सकता है। अतएव यहाँ भी एक दार्शनिक तथा जटिल रूप में हमें स्वाभाविक पवित्रता और मुक्ति का वही प्रश्न मिलता है। एक दल कहता है कि मनुष्य का तथाकथित पवित्र और मुक्त स्वभाव भ्रम है, और दूसरा बद्ध-भाव को भ्रमात्मक मानता है। यहाँ भी हम दूसरे दल से सहमत हैं – हमारा बद्ध-भाव ही भ्रमात्मक है।

वेदान्त का उत्तर यह है कि हम बद्ध नहीं वरन् नित्यमुक्त हैं। यही नहीं, बल्कि अपने को बद्ध सोचना भी अनिष्टकर है; वह तो भ्रम है – आत्मसम्मोहन है। ज्योंही तुमने कहा कि मैं बद्ध हूँ, दुर्बल हूँ, असहाय हूँ, त्योंही तुम्हारा दुर्भाग्य आरम्भ हो गया, तुमने अपने पैरों में एक और बेड़ी डाल ली। इसलिए ऐसी बात कभी न कहना और न इस प्रकार कभी सोचना ही। मैंने एक व्यक्ति की बात सुनी है, वे वन में रहते थे और उनके अधरों पर दिन-रात ‘शिवोऽहं, शिवोऽहं’ की वाणी रहा करती थी। एक दिन एक बाघ ने उन पर आक्रमण किया और उन्हें पकड़कर ले चला। नदी के दूसरे तट पर कुछ लोग यह दृश्य देख रहे थे और उनके मुख से लगातार निकलती हुई ‘शिवोऽहं’, ‘शिवोग्ह’ की ध्वनि सुन रहे थे। जब तक उनमें बोलने की शक्ति रही, बाघ के मुँह में पड़कर भी वे ‘शिवोऽहं’, ‘शिवोऽहं’ कहते रहे। इसी प्रकार और भी अनेक व्यक्तियों की बात सुनी गयी है। कुछ ऐसे व्यक्ति हो गये है, जिनके शत्रुओं ने उनके टुकड़े टुकड़े कर डाले, पर वे उन्हें आशीर्वाद ही देते रहे। सोऽहं, सोऽहं – मैं ही वह हूँ, मैं ही वह हूँ, और तुम भी वही हो। मैं पूर्णस्वरूप हूँ, और मेरे शत्रु भी पूर्णस्वरूप हैं। तुम भी वही हो, और मैं भी वही हूँ। यही वीर की अवस्था है।

फिर भी द्वैतवादियों के धर्म में अनेक उत्तम उत्तम भाव हैं। प्रकृति से पृथक हमारे एक उपास्य और प्रेमास्पद ईश्वर हैं – ऐसा सगुण ईश्वरवाद अपूर्व है। इससे प्राणों में शीतलता आती है । पर वेदान्त कहता है, प्राणों की यह शीतलता अफीम खानेवालों के नशे के समान अस्वाभाविक है । इससे दुर्बलता आती है, और आज संसार में बल-संचार की जितनी आवश्यकता है, उतनी और कभी नहीं थी। वेदान्त कहता है – दुर्बलता ही संसार में समस्त दुःख का कारण है, इसी से सारे दुख-कष्ट पैदा होते हैं। हम दुर्बल हैं, इसीलिए इतना दुःख भोगते हैं । हम दुर्बलता के कारण ही चोरी-डकैती, झूठ-ठगी तथा इसी प्रकार के अनेकानेक दुष्कर्म करते हैं । दुर्बल होने के कारण ही हम मृत्यु के मुख में गिरते हैं। जहाँ हमें दुर्बल बनानेवाला कोई नहीं है, वहीं न मृत्यु है, न दुःख। हम लोग केवल भ्रान्तिवश दुःख भोगते हैं। इस भ्रान्ति को दूर कर दो, सभी दुःख चले जाएंगे। यह तो बहुत सरल बात है । इन सब दार्शनिक विचारों और कठोर मानसिक व्यायाम में से होकर अब हम संसार के सब से सहज और सरल आध्यात्मिक सिद्धान्त पर आते हैं।

अद्वैत-वेदान्त ही आध्यात्मिक सत्य का सब से सहज और सरल रूप है । भारत और अन्य सभी स्थानों में द्वैतवाद की शिक्षा देना एक बहुत बड़ी भूल थी, क्योंकि उससे लोग चरम तत्त्वों की ओर ध्यान न देकर केवल प्रणाली से ही उलझे रहे और वह प्रणाली सचमुच बड़ी जटिल थी। अधिकांश लोगों के लिये ये प्रकाण्ड दार्शनिक एवं नैयायिक प्रक्रियाएँ भयावह थीं। उनकी समझ में इन सब को सार्वजनिक नहीं बनाया जा् सकता और न उनका पालन ही प्रतिदिन के जीवन में सम्भव है। उनको यह भी भय था कि इस प्रकार के दर्शन की आड़ में जीवन में बड़ी शिथिलता आ जाएगी।

पर मैं तो यह बिलकुल नहीं मानता कि संसार में अद्वैत-तत्त्व के प्रचार से दुर्नीति या दुर्बलता बढ़ेगी। बल्कि मुझे इस बात पर अधिक विश्वास है कि दुर्नीति और दुर्बलता के निवारण की वही एकमात्र औषधि है । यही यदि सत्य है, तो लोगों को गँदला पानी क्यों पीने दिया जाए, जब पास ही अमृत-स्रोत बह रहा है? यदि यही सत्य है कि सभी शुद्ध स्वरूप हैं, तो इसी क्षण सारे संसार को इसकी शिक्षा क्यों न दी जाए? साधु-असाधु, स्त्री-पुरुष, बालक-बालिका, छोटे-बड़े, सिंहासनासीन राजा और रास्ते में झाडू लगानेवाले भंगी – सभी को डंके की चोट पर यह शिक्षा क्यों न दी जाए?

अब, यह एक बहुत कठिन कार्य मालूम पड़ता हैं, बहुतों के लिए तो यह कहा विस्मयजनक है, पर अन्धविश्वास के सिवा इसका और दूसरा कोई कारण नहीं। सभी प्रकार के कुखाद्य और दुष्पाच्य अन्न खाकर अथवा निरन्तर उपवास करके हमने अपने को सुखाद्य के अनुपयुक्त बना रखा है । हमने बचपन से ही दुर्बलता की बातें सुनी हैं । लोग कहते है कि मैं भूत- वूत नहीं मानता, पर ऐसे बहुत कम लोग मिलेंगे, जिनका शरीर अँधेरे में थोड़ा सिहर न उठे । यह केवल अन्धविश्वास है। इसी प्रकार सभी धार्मिक अन्धविश्वासों के सम्बन्ध में है । इस देश (इंग्लैंड) में ऐसे अनेक व्यक्ति हैं, जिनसे मैं यदि कहूँ कि ‘शैतान’ नामक कुछ भी नहीं है, तो वे समझेंगे कि धर्म का सत्यानाश हो गया। मुझसे कई लोगों ने कहा है, ‘शैतान के न रहने से धर्म किस तरह कायम रह सकता है?’ हम पर अकुंश लगानेवाला कोई न रहे, तो धर्म कैसा? बिना किसी के द्वारा शासित हुए हम कैसे रह सकते हैं? सच बात तो यह है कि हम इसके अभ्यस्त हो गये हैं । हमें जब तक यह अनुभव नहीं होता कि कोई हम पर रोज हुकमत चला रहा है, हमें चैन नहीं पड़ता। वही अन्धविश्वास है! वही कुसंस्कार है! पर इस समय यह कितना भी भीषण क्यों न प्रतीत होता हो, एक समय ऐसा अवश्य आएगा, जब हममें से प्रत्येक अतीत की ओर नजर डालेगा और उन अन्धविश्वासों पर हंसेगा, जो शुद्ध और नित्य आत्मा को ढाँके हुए थे एवं मुदित मन से सत्यता और दृढ़ता के साथ बारम्बार कहेगा, “मैं ‘वही’ हूँ, चिरकाल ‘वही’ था और सदैव ‘वही’ रहूँगा। “यह अद्वैत-भाव हमें वेदान्त से मिलेगा और यही एक भाव है, जो टिकने के योग्य है। शास्त्रग्रन्थ चाहे तो कल ही नष्ट हो जा सकते हैं, यह तत्त्व सब से पहले चाहे हिंब्रूओं के मस्तिष्क में उदित हुआ हो, चाहे उत्तरी- ध्रुववासियों के मस्तिष्क में, पर इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं । कारण, यही सत्य है, और जो सत्य है, वह सनातन है, तथा सत्य ही यह शिक्षा देता है कि वह किसी व्यक्ति विशेष की सम्पत्ति नहीं है । मनुष्य, पशु, देवता सभी इस सत्य के अधिकारी है । उन्हें यही सिखाओ। जीवन को दुःखमय बनाने की क्या आवश्यकता? लोगों को अनेक प्रकार के अन्धविश्वासों में क्यों पड़ने दो? केवल यहीं (इंग्लैंड में) नहीं, वरन् इस तत्त्व की जन्मभूमि में भी यदि तुम इस तत्व का उपदेश करो, तो वहां के लोग भी भयभीत हो उठेंगे। कहेंगे – “ये बातें तो संन्यासियों के लिए हैं, जो संसार को त्यागकर जंगल में रहते हैं । पर हम लोग तो सामान्य गृहस्थ हैं, धर्मकार्य के लिए हमें किसी न किसी प्रकार के भय या क्रियाकाण्ड की आवश्यकता रहती ही है” इत्यादि।

द्वैतवाद ने संसार पर बहुत दिनों तक शासन किया है, और यह उसी का फल है । तो आज हम नया प्रयोग क्यों न आरम्भ करें? सम्भव है, सभी मनुष्यों को इस अद्वैत-तत्त्व की धारणा करने में लाखों वर्ष लग जाएँ, पर इसी समय से क्यों न आरम्भ कर दें? यदि हम अपने जीवन में बीस मनुष्यों को भी यह बात बतला सकें, तो समझो कि हमने बहुत बड़ा काम किया।

इसके विरुद्ध जो एक बात उठायी जाती है वह यह है “मैं शुद्ध हूँ आनन्द स्वरूप हूँ, इस प्रकार मौखिक कहना तो ठीक है, पर जीवन में तो मैं इसे सर्वदा नहीं दिखला सकता। “हम इस बात को स्वीकार करते हैं । आदर्श सदैव अत्यन्त कठिन होता है । प्रत्येक बालक आकाश को अपने सिर से बहुत ऊँचाई पर देखता है, पर इस कारण क्या हम आकाश की ओर देखने की चेष्टा भी न करें? अन्धविश्वास की ओर जाने से ही क्या सब अच्छा हो जाएगा? यदि हम अमृत न पा सकें तो, क्या विष पौन करने से ही कल्याण होगा? हम यदि अभी सत्य का अनुभव न कर सकते हों, ने क्या अन्धकार, दुर्बलता और अन्धविश्वास की ओर जाने से ही कल्याण होगा?

द्वैतवाद के कई प्रकारों के सम्बन्ध में मुझे कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु जो कोई उपदेश दुर्बलता की शिक्षा देता है, उस पर मुझे विशेष आपत्ति है । स्त्री-पुरुष, बालक-बालिका जिस समय दैहिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक शिक्षा पाते हैं, उस समय मैं उनसे यही एक प्रश्न करता हूँ – “क्या तुम्हें इससे बल प्राप्त होता है?” क्योंकि मैं जानता हूँ, एकमात्र सत्य ही बल प्रदान करता है । मैं जानता हूँ, एकमात्र सत्य ही प्राणप्रद है । सत्य की ओर गये बिना हम अन्य किसी भी उपाय से वीर्यवान् नहीं हो सकते, और वीर्यवान् हुए बिना हम सत्य के समीप नहीं पहुँच सकते । इसीलिए जो मत, जो शिक्षाप्रणाली मन और मस्तिष्क को

 दुर्बल कर दे और मनुष्य को कुसंस्कार से भर दे, जिससे वह अन्धकार में टटोलता रहे, खयाली पुलाव पकाता रहे और सब प्रकार की अजीबोगरीब तथा अन्धविश्वासपूर्ण बातों की तह छानता रहे, उस मत या प्रणाली को मैं पसन्द नहीं करता, क्योंकि मनुष्य पर इसका परिणाम बड़ा भयानक होता है । ऐसी प्रणालियों से कभी कोई उपकार नहीं होता; प्रत्युत वे तो मन में विकृति ला देती हैं, उसे दुर्बल बना देती हैं – इतना दुर्बल कि कालान्तर में मन सत्य को ग्रहण करने और उसके अनुसार जीवन-गठन करने में सर्वथा असमर्थ हो जाता है। अतः बल ही एक आवश्यक बात है। बल ही भवरोग की दवा है। धनिकों द्वारा रौंदे जाने वाले निर्धनों के लिए बल ही एकमात्र दवा है । विद्वानों द्वारा दबाये जानेवाले अशिक्षितों के लिए बल ही एक मात्र दवा है, और अन्य पापियों द्वारा सताये जाने वाले पापियों के लिये भी वही एकमात्र दवा है । और अद्वैतवाद हमें जैसा बल देता है, वैसा और कोई नहीं देता। अद्वैतवाद हमें जिस प्रकार नीतिपरायण बनाता है, वैसा और कोई भी नहीं बनाता। जब सारा दायित्व हमारे अपने कन्धों पर डाल दिया जाता है, उस समय हम जितनी अच्छी तरह से कार्य करते हैं, उतनी और किसी भी अवस्था में नहीं करते । मैं तुम लोगों से पूछता हूँ? यदि एक नन्हे बच्चे को तुम्हारे हाथ सौंप दूँ? तो तुम उसके प्रति कैसा व्यवहार करोगे? उस क्षण के लिए तुम्हारा सारा जीवन बदल जाएगा। तुम्हारा स्वभाव कैसा भी क्यों न हो, कम से कम उन क्षणों के लिए तुम सम्पूर्णतः निःस्वार्थ बन जाओगे। यदि तुम पर उत्तरदायित्व डाल दिया जाए, तो तुम्हारी सारी पापवृत्तियाँ दूर हो जाएँगी, तुम्हारा सारा चरित्र बदल जाएगा। इसी प्रकार जब सारे उत्तरदायित्व का बोझ हम पर डाल दिया जाता है, तब हम अपने सर्वोच्च भाव में आरोहण करते हैं। जब हमारे सारे दोष और किसी के मत्थे नहीं मड़े जाते, जब शैतान या भगवान् किसी को भी हम अपने दोषों के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराते, तभी हम सर्वोच्च भाव में पहुँचते हैं । अपने भाग्य के लिए मैं स्वयं उत्तरदायी हूँ। मैं स्वयं अपने शुभाशुभ दोनों का कर्ता हूँ, पर मेरा स्वरूप शुद्ध और आनन्द-मात्र है । इससे विपरीत जो विचार है, उनको त्याग देना चाहिए।

‘मेरी मृत्यु नहीं है शंका भी नहीं; मेरी कोई जाति नहीं है, न कोई मत ही; मेरे पिता या माता या भ्राता या मित्र या शत्रु भी नहीं है, क्योंकि मैं सच्चिदानन्द-स्वरूप शिव हूँ। मैं पाप से या पुण्य से, सुख से या दुःख से बद्ध नहीं हूँ। तीर्थ ग्रन्थ और नियमादि मुझे बन्धन में नहीं डाल सकते। मैं सुधा-पिपासा से रहित हूँ। यह देह मेरी नहीं है, न मैं देह के अन्तर्गत विकार और अन्धविश्वासों के अधीन ही हूँ । मैं तो सच्चिदानन्द-स्वरूप हूँ मैं शिव हूँ मैं शिव हूँ। ‘1

वेदान्त कहता है कि केवल यही स्तवन हमारी प्रार्थना हो सकता है । उस अन्तिम लक्ष्य पर पहुँचने का यही एकमात्र उपाय है – अपने से और सब से यही कहना कि हम ब्रह्मस्वरूप हैं। हम ज्यों ज्यों इसकी आवृत्ति करते है, त्यों त्यों हममें बल आता जाता है । शिवोग्हं रूपी यह अभयवाणी क्रमशः अधिकाधिक गम्भीर हो हमारे हृदय में हमारे सभी भावों में भिदती जाती है और अन्त में हमारी नस नस में हमारे शरीर के प्रत्येक भाग में समा जाती है । शान सूर्य की किरणें जितनी उज्ज्वल होने लगती हैं, मोह उतना ही दूर भागता जाता है, अज्ञानराशि ध्वंस होती जाती है, और अन्त में एक समय आता है, जब सारा अज्ञान बिलकुल लुप्त हो जाता है और केवल ज्ञान सूर्य ही अवशिष्ट रह जाता है

1. न मृत्यु ने शंका न में जातिभेदः पिता

नैव मे नैव माता न जन्म ।

न बन्दुर्न मित्र गुरुनैंव शिष्यश्चिदानन्दरूप: शिवोऽहं शिवोऽहम्॥

न पुण्य न पापं न सौख्यं न दुःख न मन्त्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञा: ।

अहं भोजनं नैव भोज्य न भोक्ता चिदानन्दरूप: शिवोऽहं शिवोऽहम्। निर्वाणशट्कम् ॥५ ,४॥

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रचनाएँ
ज्ञान योग
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एक रूप में ज्ञानयोगी व्यक्ति ज्ञान द्वारा ईश्वरप्राप्ति मार्ग में प्रेरित होता है। स्वामी विवेकानंद द्वारा रचित ज्ञानयोग में मायावाद,मनुष्य का यथार्थ व प्रकृत स्वरूप,माया और मुक्ति,ब्रह्म और जगत, अंतर्जगत, बहिर्जगत, बहुतत्व में एकत्व, ब्रह्म दर्शन,आत्मा का मुक्त स्वभाव आदि नामों से उनके द्वारा दिये भाषणों का संकलन है।
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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

25 अप्रैल 2022
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“मनुष्य का यथार्थ स्वरूप” नामक यह भाषण स्वामी विवेकानंद ने लंदन में दिया था। यह उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ज्ञान योग का प्रथम अध्याय है। इसमें स्वामी जी ने आत्मा के यथार्थ स्वरूप का निरूपण किया है कि किस तर

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मनुष्य का वास्तविक और प्राति भासिक स्वरूप

26 अप्रैल 2022
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हम यहाँ खड़े है, परन्तु हमारी दृष्टि दूर बहुत दूर, और कभी-कभी तो, कोसों दूर चली जाती है। जब से मनुष्य ने विचार करना आरम्भ किया, तभी से वह ऐसा करता आ रहा है। मनुष्य सदैव आगे और दूर देखने का प्रयत्न करता

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माया और भ्रम

26 अप्रैल 2022
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माया शब्द प्रायः तुम सभी ने सुना होगा। इसका व्यवहार साधारणतः भ्रम, भ्रान्ति अथवा इसी प्रकार के अर्थ में किया जाता है, किन्तु यह उसका वास्तविक अर्थ नहीं है। मायावाद उन स्तम्भों में से एक है, जिन पर वेद

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माया और ईश्वर-धारणा का क्रमविकास

26 अप्रैल 2022
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हमने देखा कि अद्वैत वेदान्त का एक आधारभूत सिद्धान्त मायावाद बीज रूप से संहिताओं में भी देखा जाता है, और जिन विचारों का विकास उपनिषदों में हुआ है वे वस्तुतः किसी न किसी रूप में संहिताओं में विद्यमान है

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माया और मुक्ति

26 अप्रैल 2022
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कवि कहता है “हम जगत् में अपने पीछे मानो एक हिरण्मय मेघजाल लेकर प्रवेश करते हैं ।” पर सच पूछो तो हममें से सभी इस प्रकार महिमामण्डित होकर संसार में प्रवेश नहीं करते; हममें से बहुत से तो अपने पीछे कुहरे

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ब्रह्म एवं जगत

26 अप्रैल 2022
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अद्वैत वेदान्त की इस एक बात की धारणा करना अत्यन्त कठिन है कि जो ब्रह्म अनन्त है, वह सान्त अथवा ससीम किस प्रकार हुआ। यह प्रश्न मनुष्य सर्वदा करता रहेगा, पर जीवन भर इस प्रश्न पर विचार करते रहने पर भी उस

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विश्व बृहत ब्रह्मांड

26 अप्रैल 2022
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सर्वत्र विद्यमान फूल सुन्दर है, प्रभात के सूर्य का उदय सुन्दर है, प्रकृति के विविध रंग और वर्णावली सुन्दर है। समस्त जगत् सुन्दर है और मनुष्य जब से पृथ्वी पर आया है, तभी से इस सौन्दर्य का उपभोग कर रहा

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विश्व सूक्ष्म ब्रह्माण्ड

26 अप्रैल 2022
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स्वभाव से ही मनुष्य का मन बाहर की ओर प्रवृत्त होता है, मानो वह इन्द्रियों के द्वारा शरीर के बाहर झाँकना चाहता हो। आँखें अवश्य देखेंगी, कान अवश्य सुनेंगे, इन्द्रियाँ अवश्य बाहरी जगत् को प्रत्यक्ष करेंग

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अमरत्व

26 अप्रैल 2022
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जीवात्मा के अमरत्व के प्रश्न के सिवा अन्य कौन-सा प्रश्न अधिक बार पूछा गया है, अन्य किस तत्त्व के रहस्य का उद्घाटन करने के लिए मनुष्य ने सारे जगत् की इतनी अधिक खोज की है, अन्य कौन-सा प्रश्न मानव-हृदय क

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बहुत्व में एकत्व

26 अप्रैल 2022
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स्वयम्भू ने इन्द्रियों को बहिर्मुख होने का विधान बनाया है, इसीलिए मनुष्य सामने की ओर (विषयों की ओर) देखता है, अन्तरात्मा को नहीं देखता। अमृतत्व-प्राप्ति की इच्छा रखनेवाले किसी किसी ज्ञानी ने विषयों से

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सभी वस्तुओं में ब्रह्मदर्शन

26 अप्रैल 2022
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हमने देखा कि हम अपने दुःखों को दूर करने की कितनी ही चेष्टा क्यों न करें, परन्तु फिर भी हमारे जीवन का अधिकांश भाग अवश्यमेव दुःखपूर्ण रहेगा। और यह दुःखराशि वास्तव में हमारे लिए एक प्रकार से अनन्त है। हम

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अपरोक्षानुभूति

26 अप्रैल 2022
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मैं तुम लोगों को एक दूसरी उपनिषद् से कुछ अंश पढ़कर सुनाऊंगा! यह अत्यन्त सरल एवं अतिशय कवित्वपूर्ण है । इसका नाम है कठोपनिषद! सर एडविन अर्नाल्ड कृत इसका अनुवादक1 शायद तुममें से कुछ ने पड़ा होगा। हम लोगों

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आत्मा का मुक्त स्वभाव

26 अप्रैल 2022
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हम जिस कठोपनिषद् की चर्चा कर रहे थे, वह छान्दोग्योपनिषद् के, जिसकी हम अब चर्चा करेंगे बहुत समय बाद रचा गया था। कठोपनिषद् की भाषा अपेक्षाकृत आधुनिक है, उसकी चिन्तन-शैली भी सब से अधिक प्रणालीबद्ध है। प्

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धर्म की आवश्यकता

26 अप्रैल 2022
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मानव-जाति के भाग-निर्माण में जितनी शक्तियों ने योगदान दिया है और दे रही हैं उन सब में धर्म के रूप में प्रगट होनेवाली शक्ति से अधिक महत्त्वपूर्ण कोई नहीं है। सभी सामाजिक संगठनों के मूल में कहीं न कहीं

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आत्मा

26 अप्रैल 2022
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तुममें से बहुतों ने मैक्समूलर की सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘वेदान्त दर्शन पर तीन व्याख्यान’को पड़ा होगा और शायद कुछ लोगों ने इसी विषय पर प्रोफेसर डॉयसन की जर्मन भाषा में लिखित पुस्तक पढ़ी हो। ऐसा लगता है कि पश्

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आत्मा उसके बंधन तथा मुक्ति

26 अप्रैल 2022
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अद्वैत दर्शन के अनुसार विश्व में केवल एक ही वस्तु सत्य है, और वह है ब्रह्म। ब्रह्मेतर समस्त वस्तुएँ मिथ्या है, ब्रह्म ही उन्हें माया के योग से बनाता एवं अभिव्यक्त करता है। उस ब्रह्म की पुनःप्राप्ति ही

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सन्यासी का गीत

26 अप्रैल 2022
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(1) छेड़ो संन्यासी, छेड़ते छेड़ो वह तान मनोहर, गाओ वह गान, जगा जो अत्युच्च हिमाद्रि-शिखर पर  सुगभीर अरण्य जहाँ है, पार्वत्य प्रदेश जहाँ हैं भव-पाप-ताप ज्वालामय करते न प्रवेश जहाँ है  जो संगीत-ध्वनि-

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