shabd-logo

बहुत्व में एकत्व

26 अप्रैल 2022

31 बार देखा गया 31

स्वयम्भू ने इन्द्रियों को बहिर्मुख होने का विधान बनाया है, इसीलिए मनुष्य सामने की ओर (विषयों की ओर) देखता है, अन्तरात्मा को नहीं देखता। अमृतत्व-प्राप्ति की इच्छा रखनेवाले किसी किसी ज्ञानी ने विषयों से दृष्टि फेरकर अन्तरस्थ आत्मा का दर्शन किया है”1 हम देख चुके हैं कि वेदों में हमें जगत् के तत्त्व का जो पहला अनुसन्धान मिलता है, वह बाह्य विषयों को लेकर है । उसके बाद इस नवीन विचार का उदय हुआ कि वस्तु का वास्तविक स्वरूप बहिर्जगत् के अनुसन्धान द्वारा नहीं वरन् बाहर की ओर से दृष्टि फिराकर अर्थात् भीतर की ओर दृष्टि डालकर जाना जा सकता है। और यहाँ पर आत्मा का विशेषणस्वरूप जो ‘प्रत्यक्’ शब्द प्रयुक्त हुआ है, वह भी एक विशेष भाव का द्योतक है । प्रत्यक् अर्थात् जो भीतर की ओर गया है – हमारी अन्तरतम वस्तु, हृदय-केन्द्र; वह परम वस्तु जिससे मानो सब कुछ बाहर आया है; वह मध्यवर्ती सूर्य जिसकी बाह्य किरणें हैं मन, शरीर इन्द्रियाँ और हमारा सब कुछ ।

“बालबुद्धि मनुष्य बाहरी काम्य वस्तुओं के पीछे दौड़ते फिरते हैं । इसीलिए सब ओर व्याप्त मृत्यु के पाश में बँध जाते हैं, किन्तु ज्ञानी पुरुष अमृतत्व को जानकर अनित्य वस्तुओं में नित्य वस्तु की खोज नहीं करते।”2 यहाँ पर भी यही भाव प्रकट होता है कि सीमित वस्तुओं से पूर्ण बाह्य जगत् में असीम और अनन्त वस्तु की खोज व्यर्थ है – अनन्त की खोज अनन्त में ही करनी होगी, और हमारी अन्तर्वर्ती आत्मा ही एकमात्र अनन्तवस्तु है । शरीर, मन आदि जो जगत्प्रपंच हम देखते हैं अथवा जो हमारी चिन्ताएँ या विचार हैं, उनमें से कोई भी अनन्त नहीं हो सकता। जो द्रष्टा, साक्षी पुरुष इन सब को देख रहा है, अर्थात् मनुष्य की आत्मा जो सदा जाग्रत् है, वही एकमात्र अनन्त है; इस जगत् के अनन्त आदिकारण की खोज में हमें अनन्त में ही जाना पड़ेगा “जो यहाँ है वही वहाँ भी है; जो वहाँ है, वही यहाँ भी है । जो यहाँ नाना रूप देखते हैं, वे बारम्बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं ।”3 हम देखते हैं कि पहले आर्यों में स्वर्ग जाने की विशेष रूप से इच्छा रहती थी। जब वे जगत्प्रपंच से असन्तुष्ट हुए, तो स्वभावतः ही उनके मन में एक ऐसे स्थान में जाने की इच्छा हुई, जहाँ दुःख बिलकुल न हो – केवल सुख ही सुख हो । ऐसे स्थानों का ही नाम उन्होंने स्वर्ग रखा – जहाँ केवल आनन्द होगा, जहाँ शरीर अजर-अमर हो जाएगा, मन भी वैसा ही हो जाएगा और जहाँ वे पितृगणों के साथ सदा वास करेंगे। किन्तु दार्शनिक विचारों की उत्पत्ति होने के बाद इस प्रकार के स्वर्ग की धारणा असंगत और असम्भव मालूम पड़ने लगी। ‘अनन्त किसी एक देश में है’, यह वाक्य ही स्वविरोधी है । किसी भी स्थानविशेष की उत्पत्ति और नाश काल में ही होते हैं । अतः उन्हें स्वर्गविषयक धारणा का त्याग कर देना पड़ा। वे धीरे धीरे समझ गये कि ये सब स्वर्ग में रहने वाले देवता एक समय इसी जगत् के मनुष्य थे, बाद में किसी सत्कर्म के फलस्वरूप वे देवता बन गये; अतः वह देवत्व विभिन्न पदों का नाम मात्र है । वेद का कोई भी देवता चिरन्तन व्यक्ति नहीं है ।

इन्द्र या वरुण किसी व्यक्ति के नाम नहीं हैं । ये सब शासक के रूप में विभिन्न पदों के नाम हैं । जो पहले इन्द्र था, वह अब इन्द्र नहीं है, उसका इन्द्रत्व अब नहीं है, एक अन्य व्यक्ति यहाँ से जाकर उस पद पर आरूढ हो गया है । सभी देवताओं के सम्बन्ध में इसी प्रकार समझना चाहिए। जो लोग कर्म के बल से देवत्वप्राप्ति के योग्य हो चुके हैं, वे ही इन पदों पर समय समय पर प्रतिष्ठित होते हैं। पर इनका भी विनाश होता है। प्राचीन ऋग्वेद में देवताओं के सम्बन्ध में हम इस ‘अमरत्व’ शब्द का व्यवहार देखते तो हैं, पर बाद में इसका एकदम परित्याग कर दिया गया है; क्योंकि उन्होंने देखा कि यह अमरत्व देश-काल से अतीत होने के कारण किसी भौतिक वस्तु के सम्बन्ध में प्रयुक्त नहीं हो सकता, चाहे वह वस्तु कितनी ही सूक्ष्म क्यों न हो। वह कितनी ही सूक्ष्म क्यों न हो उसकी उत्पत्ति देश- काल में ही है, क्योंकि आकार की उत्पत्ति का प्रधान उपादान है देश। देश को छोड़कर आकार की कल्पना करके देखो यह असम्भव है । देश आकार के निर्माण का एक विशिष्ट उपादान है – इस आकार का निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। देश और काल माया के भीतर हैं। यह भाव उपनिषदों के निम्नलिखित श्लोकाश में व्यक्त किया गया है – ‘यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह’ – ‘जो कुछ यहाँ है वह वहाँ है : जो कुछ वहाँ है, वही यहाँ भी है।’ यदि ये देवता है, तो जो नियम यहाँ है, वही वहाँ भी लागू होगा। और सभी नियमों में विनाश और बाद में फिर नये नये रूप धारण करना निहित है। इस नियम के द्वारा सभी जड़ पदार्थ विभिन्न रूपों में परिवर्तित हो रहे हैं, और टूटकर, चूर चूर होकर फिर उन्हीं जड़ कणों में परिणत हो रहे हैं। जिस किसी वस्तु की उत्पत्ति है, उसका विनाश होता ही है। अतएव यदि स्वर्ग है, तो वह भी इसी नियम के अधीन होगा।

हम देखते है कि इस संसार में सब प्रकार के सुख के पीछे उसकी छाया के रूप में, दुःख रहता है। जीवन के पीछे उसकी छाया के रूप में, मृत्यु रहती है। वे दोनों सदा एक साथ ही रहते हैं। कारण, वे परस्पर विरोधी नहीं है, वे पृथक् सत्ताएँ नहीं हैं वे एक ही वस्तु के दो विभिन्न रूप हैं, वह एक ही वस्तु जीवन-मृत्यु, सुख-दुःख, अच्छे-बुरे आदि रूप में व्यक्त हो रही है। यह धारणा कि शुभ और अशुभ ये दोनों पृथक् वस्तुएँ हैं और अनन्त काल से चले आ रहे हैं, नितान्त असंगत है। वे वास्तव में एक ही वस्तु के विभिन्न रूप है – वह कभी अच्छे रूप में और कभी बुरे रूप में भासित हो रही है। यह विभिन्नता प्रकारगत नहीं, परिमाणगत है । उनका भेद वास्तव में मात्रा के तारतम्य में है। हम देखते हैं कि एक ही स्नायुप्रणाली अच्छे बुरे दोनों प्रकार के प्रवाह ले जाती है । किन्तु यदि स्नायुमण्डली किसी तरह बिगड़ जाए, तो फिर किसी प्रकार की अनुभूति न होगी। मान लो, एक स्नायु में पक्षाघात हो गया; तब उसमें से होकर जो सुखकर अनुभूति आती थी, वह अब नहीं आएगी, और दुःखकर अनुभूति भी नहीं आएगी। ये कभी भी दो नहीं होते, वे एक ही हैं। फिर एक हुई वस्तु जीवन में कभी सुख, तो कभी दुःख उत्पन्न करती है । एक ही वस्तु किसी को सुख, तो किसी को दुःख देती है। मांसाहारी को मांस खाने से अवश्य सुख मिलता है; पर जिसका मांस खाया जाता है, उसके लिए तो भयानक कष्ट है। ऐसा कोई विषय नहीं, जो सब को समान रूप से सुख देता हो। कुछ लोग सुखी हो रहे हैं और कुछ दुःखी। यह इसी प्रकार चलता रहेगा। अतः यह स्पष्ट है कि यह द्वैतभाव वास्तव में मिथ्या है । इससे क्या निष्कर्ष प्राप्त होता है? मैं पहले व्याख्यान में कह चुका हूँ कि जगत् में ऐसी अवस्था कभी आ नहीं सकती, जब सभी कुछ अच्छा हो जाए और बुरा कुछ भी न रहे । हो सकता है, इससे अनेक व्यक्तियों की चिर-पोषित आशा चूर्ण हो जाए, अनेक भयभीत भी हो उठें पर इसे स्वीकार करने के अतिरिक्त मैं अन्य कोई उपाय नहीं देखता। हाँ, यदि मुझे कोई समझा दे कि वह सत्य है, तो मैं समझने को तैयार हूँ, पर जब तक बात मेरी समझ में नहीं आती तब तक कैसे मान सकता हूँ?

मेरे इस कथन के विरुद्ध ऊपर से युक्तियुक्त मालूम पड़नेवाला एक सामान्य तर्क यह है कि क्रमविकास की प्रक्रिया में अशुभ का क्रमशः निराकरण होता जा रहा है, और यदि यह निराकरण करोड़ों वर्ष तक चलता रहे, तो एक ऐसा समय आएगा, जब वह समस्त नष्ट होकर केवल शुभ ही शुभ शेष रह जाएगा। ऊपर से देखने पर यह युक्ति एकदम अकाट्य मालूम पड़ती है । भगवान् करते, यह बात सत्य होती! पर इस युक्ति में एक दोष है । वह यह कि वह शुभ और अशुभ को चिरन्तन निर्दिष्ट सत्ताओं के रूप में लेती है। वह मान लेती है कि एक निर्दिष्ट परिमाण में अशुभ है – मान लो कि वह १०० है, इसी प्रकार निर्दिष्ट परिमाण में शुभ भी है, और यह अशुभ क्रमशः कम होता जा रहा है और केवल शुभ बचता जा रहा है। किन्तु क्या वास्तव में ऐसा ही है? दुनिया का इतिहास इस बात का साक्षी है कि शुभ के समान अशुभ भी क्रमशः बढ़ ही रहा है । समाज के अत्यन्त निम्न स्तर के व्यक्ति को लो। वह जंगल में रहता है, उसके भोग-सुख अल्प हैं, इसलिए उसके दुःख भी कम हैं । उसके दुःख केवल इन्द्रिय- विषयों तक ही सीमित हैं । यदि उसे पर्याप्त मात्रा में भोजन न मिले, तो वह दुःखी हो जाता है। उसे खूब भोजन दो, उसे स्वच्छन्द होकर घूमने-फिरने और शिकार करने दो, तो वह पूरी तरह सुखी हो जाएगा। उसका सुख-दुःख केवल इन्द्रियों में आबद्ध है। मान लो कि उसका ज्ञान बढ़ने लगा। उसका सुख बढ़ रहा है, उसकी बुद्धि विकसित हो रही है, वह जो सुख पहले इन्द्रियों में पाता था, अब वही सुख वह बुद्धि की वृत्तियों को चलाने में पाता है । अब वह एक सुन्दर कविता पाठ करके अपूर्व सुख का स्वाद लेता है। गणित की कोई समस्या उसे अपूर्व सुख देती है। पर इसके साथ साथ उसकी सूक्ष्मतर नाड़ियाँ उन मानसिक पीड़ाओं के प्रति ग्रहणक्षम होती जाती हैं, जिनकी कल्पना भी जंगली व्यक्ति नहीं कर पाता। एक साधारण सा उदाहरण लो। तिब्बत में विवाह नहीं होता अतः वहाँ प्रेमजनित ईर्ष्या भी नहीं पायी जाती, फिर भी हम जानते है कि विवाह अपेक्षाकृत उन्नत अवस्था है। तिब्बती लोग पवित्रता के अत्युच्य सुख को, पतिव्रता पत्नी, पत्नीव्रती पति के विशुद्ध दाम्पत्य-प्रेम के सुख को नहीं जानते। किन्तु साथ ही सती स्त्री या संयत पुरुष की भयानक ईर्ष्या का भी वे अनुभव नहीं करते अथवा किसी पुरुष या स्त्री के पतन हो जाने से दूसरे के मन में कितना भयानक दुःख, कितना अन्तर्दाह उपस्थित हो जाता है, यह भी वे नहीं जानते। एक ओर वे सुखी तो होते हैं, किन्तु दूसरी ओर दुःखी भी।

तुम अपने देश की ही बात लो – पृथ्वी पर इसके समान धनी और विलासी देश दूसरा नहीं है, पर दुःख-कष्ट भी यहाँ किस प्रबल रूप में विराजमान है यह भी देखो। अन्यान्य देशों की अपेक्षा यहाँ पागलों की संख्या कितनी अधिक है। इसका कारण यह है कि यहाँ के लोगों की वासनाएँ अत्यन्त तीव्र, अत्यंत प्रबल हैं। यहाँ के लोगों को जीवन का स्तर सर्वदा ऊँचा ही रखना होता है। तुम लोग एक वर्ष में जितना खर्च कर देते हो, वह एक भारतीय के लिए जीवन भर की सम्पत्ति के बराबर है। फिर तुम उसे सादे जीवन का उपदेश भी नहीं दे सकते, क्योंकि यहाँ समाज उससे इतनी अपेक्षा करता है । यह सामाजिक चक्र दिन-रात घूम रहा है – वह विधवा के आंसुओं और अनाथों के आर्तनाद के निमित्त नहीं रुकता। यहाँ सर्वत्र यही अवस्था है। तुम लोगों की भोगसम्बन्धी धारणा काफी विकसित है तुम्हारा समाज भी कुछ अन्यान्य समाजों की अपेक्षा अधिक सुन्दर है । तुम्हारे पास विषय-भोगों के साधन भी अधिक हैं। पर जिनके पास तुम्हारे समान भोगों की सामग्री नहीं है, उनके दुःख भी तुम्हारी अपेक्षा कम हैं। इसी प्रकार तुम सर्वत्र देखोगे। तुम्हारे मन में जितना उच्च आदर्श होगा, तुमको सुख भी उतना ही अधिक मिलेगा, और उसी परिमाण में दुःख भी। एक मानो दूसरे की छाया के समान है। अशुभ कम होता जा रहा है यह बात सत्य हो सकती है, पर उसके साथ ही यह भी कहना पड़ेगा कि शुभ भी कम हो रहा है । किन्तु क्या यह नहीं कहा जा सकता कि वास्तव में शुभ कम हो रहा है, और अशुभ की वृद्धि तीव्रगति से हो रही है? सच तो यह है कि सुख यदि गणितीय क्रम (arithmetical progression) बढ़ रहा है तो दुःख ज्यामितीय क्रम (geometrical progress) से। इसी का नाम माया है! यह न आशावाद है, न निराशावाद। वेदान्त यह नहीं कहता कि संसार केवल दुःखमय है। ऐसा कहना ही भूल है। और जगत् सुख से परिपूर्ण है यह कहना भी ठीक नहीं है। बालकों को यह शिक्षा देना भूल है कि यह जगत् केवल मधुमय है – यहाँ केवल सुख है केवल फूल हैं, केवल सौन्दर्य है । हम सारे जीवन इन्हीं का स्वप्न देखते रहते हैं । फिर किसी व्यक्ति ने दूसरे की अपेक्षा अधिक दुःख भोगा इसीलिए सब का सब दुःखमय है यह कहना भी भूल है । संसार बस इस द्वैतभावपूर्ण अच्छे-बुरे का खेल है। वेदान्त इसके साथ ही कहता है, “यह न सोचो कि अच्छा और बुरा दो सम्पूर्ण पृथक् वस्तुएँ हैं। वास्तव में वे एक ही वस्तु है। वह एक ही वस्तु भिन्न-भिन्न रूप से, भिन्न-भिन्न आकार में आविर्भूत हो एक ही के मन में भिन्न-भिन्न भाव उत्पन्न कर रही है । “अतएव वेदान्त का पहला कार्य है – ऊपर से भिन्न प्रतीत होने वाले इस बाह्य जगत् में एकत्व की खोज करना। ईरानियों के उस स्थूल पुराने मत के अनुसार दो देवताओं ने मिलकर जगत् की सृष्टि की है, शुभ देवता सारा शुभ ही करता है, और अशुभ देवता सारा अशुभ करता है। यह स्पष्ट है कि ऐसा होना असम्भव है; क्योंकि वास्तव में यदि इसी नियम से सभी कार्य होने लगें, तब तो प्रत्येक प्राकृतिक. नियम के दो अंश हो जाएँगे – एक को तो एक देवता चलाएगा और जब वह चला जाएगा, तो उसकी जगह दूसरा आकर दूसरे अंश को चलाएगा। फिर यह मत स्वीकार करने में एक और कठिनाई यह है कि एक ही समय दो देवता कार्य कर रहे हैं । एक स्थान पर एक किसी का उपकार कर रहा है और दूसरे स्थान पर दूसरा किसी का अपकार कर रहा है; फिर भी दोनों के बीच सामंजस्य बना रहता है – यह किस प्रकार सम्भव है? निस्सन्देह, यह मत जगत् के द्वैततत्त्व को प्रकाशित करने की एक बहुत ही अविकसित प्रणाली है। अब इस सिद्धान्त से कुछ अधिक उच्च और उन्नत सिद्धान्त लो : यह जगत् अंशतः शुभ और अंशतः अशुभ है । उसी तर्क से यह भी असंगत है। यह एकत्व का नियम ही है, जो हमें हमारा आहार देता है तथा अनेकों को दुर्घटनाओं आदि से मार डालता है ।

अतएव, हम देखते हैं कि यह जगत् न आशावादी है, न निराशावादी, वह दोनों का मिश्रण है और अन्त में हम देखेंगे कि सभी दोष प्रकृति के कन्धों से हटाकर हमारे अपने ऊपर रख दिया जाता है। साथ ही वेदान्त हमें बाहर निकलने का मार्ग भी दिखलाता है, किन्तु अमंगल को अस्वीकार करके नहीं, क्योंकि वह तथ्य जैसा है, उसका उसी रूप में विश्लेषण करता है – कुछ भी छिपाकर रखना नहीं चाहता। वह मनुष्य को एकदम निराशा के सागर में नहीं डुबा देता। फिर वह अज्ञेयवादी भी नहीं है। उसे इस सुख- दुःख का प्रतिकार मिला है, और यह प्रतिकार वह वज्र के समान दृढ़ नींव पर प्रतिष्ठित रखना चाहता है, किसी ऐसे असत्य के द्वारा बच्चे का मुँह और आँखें बाँधकर नहीं, जिसे वह कुछ दिनों में पकड़ लेगा। मुझे याद है, जब मैं छोटा था, उस समय किसी युवक के पिता मर गये, जिससे वह बड़ा असहाय हो गया और एक बड़े परिवार का भार उसके गले पड़ गया। उसने देखा कि उसके पिता के मित्रगण ही उसके प्रधान शत्रु हैं। एक दिन एक पादरी के साथ साक्षात् होने पर वह उनसे अपने दुःख की कहानी कहने लगा और वे उसको सानना देने के लिए कहने लगे, “जो होता है, अच्छा ही होता है, जो कुछ होता है, अच्छे के लिए ही होता है । “यह तो पुराने घाव को सोने के वरक से ढक देने का पुराना ढंग है। यह हमारी अपनी दुर्बलता और अज्ञान का परिचायक है। छह मास बाद उस पादरी के घर एक सन्तान हुई। उसके उपलक्ष्य में जो उत्सव हुआ, उसमें वह युवक भी निमन्त्रित था। पादरी महोदय भगवान् की पूजा आरम्भ करके बोले, “ईश्वर की कृपा के लिए उसे धन्यवाद।” तब वह युवक खड़ा हो गया और बोला, “यह क्या कह रहे हैं? उसकी कृपा है कहाँ? यह तो घोर अभिशाप है।” पादरी ने पूछा, “सो कैसे?” युवक ने उत्तर दिया, “जब मेरे पिता की मृत्यु हुई तब ऊपर ऊपर अमंगल होने पर भी उसे आपने मंगल कहा था। इस समय आपकी सन्तान का जन्म भी यद्यपि ऊपर-ऊपर आपको मंगल सा लग रहा है, किन्तु वास्तव में मुझे तो यह महान् अमंगलकारी ही मालूम होता है।” इस प्रकार संसार के दुःख-अमंगल को ढक रखना ही क्या संसार का दुःख दूर करने का उपाय है? स्वयं अच्छे बनो और जो कष्ट पा रहे हैं, उनके प्रति दया-सम्पन्न होओ। जोड़-गाँठ करने की चेष्टा मत करो, उससे भवरोग दूर नहीं होगा। वास्तव में हमें जगत् के अतीत जाना पड़ेगा।

यह जगत् सदा ही भले और बुरे का मिश्रण है। जहाँ भलाई देखो, समझ लो कि उसके पीछे बुराई भी छिपी है। किन्तु इन सब व्यक्त भावों के पीछे – इन सब विरोधी भावों के पीछे – वेदान्त उस एकत्व को ही देखता है । वेदान्त कहता है – बुराई छोड़ो और भलाई भी छोड़ो। ऐसा होने पर फिर शेष क्या रहा? अच्छे-बुरे के पीछे एक ऐसी वस्तु है, जो वास्तव में तुम्हारी अपनी है, जो वास्तव में तुम्हीं हो, जो सब प्रकार के शुभ और सब प्रकार के अशुभ के अतीत है – और वह वस्तु ही शुभ और अशुभ के रूप से प्रकाशित हो रही है । पहले इसको जान लो, तभी तुम पूर्ण आशावादी हो सकते हो, इसके पूर्व नहीं। ऐसा होने पर ही तुम सब पर विजय प्राप्त कर सकोगे। इन आपात प्रतीयमान व्यक्त भावों को अपने अधीन कर लो, तब तुम उस सत्य वस्तु को अपनी इच्छानुसार व्यक्त कर सकोगे । पर पहले तुम्हें स्वयं अपना ही प्रभु बनना पड़ेगा। उठो, अपने को मुक्त करो समस्त नियमों के राज्य के बाहर चले जाओ, क्योंकि ये नियम निरपेक्ष रूप से तुम पर शासन नहीं करते वे तुम्हारी सत्ता के अंश मात्र हैं। पहले समझ लो कि तुम प्रकृति के दास नहीं हो, न कभी थे और न कभी होंगे – प्रकृति भले ही अनन्त मालूम पड़े पर वास्तव में वह ससीम है। वह समुद्र का एक बिन्दु मात्र है, और तुम्हीं वास्तव में समुद्रस्वरूप हो, तुम चंद्र, सूर्य, तारे – सभी के अतीत हो। तुम्हारे अनन्त स्वरूप की तुलना में वे केवल बुदबुदों के समान हैं । यह जान लेने पर तुम अच्छे और बुरे दोनों पर विजय पा लोगे । तब तुम्हारी सारी दृष्टि एकदम परिवर्तित हो जाएगी । और तुम खड़े होकर कह सकोगे, “मंगल कितना सुन्दर है और अमंगल कितना अद्भुत ।”

यही वेदान्त की शिक्षा है । वेदान्त यह नहीं कहता कि स्वर्णपत्र से घाव को ढके रखो और घाव जितना ही पकता जाए, उसे और भी स्वर्ण पत्रों से मढ़ दो। यह जीवन एक कठोर सत्य है इसमें सन्देह नहीं । यद्यपि यह वज्र के समान दुर्भेद्य प्रतीत होता है, फिर भी प्राणपण से इसके बाहर जाने का प्रयत्न करो; आत्मा इसकी अपेक्षा अनन्तगुनी शक्तिमान् है! वेदान्त तुम्हारे कर्म-फल के लिए क्षुद्र देवताओं को उत्तरदायी नहीं बनाता; वह कहता है तुम स्वयं ही अपने भाग्य के निर्माता हो। तुम अपने ही कर्म से अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के फल भोग रहे हो, तुम अपने ही हाथों से अपनी आँखें मूँदकर कहते हो – अन्धकार है। हाथ हटा लो – प्रकाश दीख पड़ेगा। तुम ज्योतिस्वरूप हो, तुम पहले से ही सिद्ध हो । अब हम समझते हैं कि जो यहाँ नानात्व देखता है वह बारम्बार मृत्यु को प्राप्त होता है’4 इस श्रुतिवाक्य का क्या अर्थ है। उस एक को देखो और मुक्त हो जाओ।

हम किस प्रकार इस तत्त्व को जान सकते हैं? यह मन जो इतना प्रान्त और दुर्बल है जो थोड़े में ही विभिन्न दिशाओं में दौड़ जाता है, इस मन को भी इतना सबल किया जा सकता है, जिससे वह उस ज्ञान का – उस एकत्व का भास पा सके जो पुनः पुनः मृत्यु के हाथों से हमारी रक्षा करता है। – “जल उच्च, दुर्गम भूमि में बरसकर जिस प्रकार पर्वतों में बह जाता है उसी प्रकार जो व्यक्ति गुणों को पृथक् करके देखता है, वह उन्हीं का अनुवर्तन करता है ।”5 वास्तविक शक्ति एक है, केवल माया में पड़कर अनेक हो गयी है । अनेक के पीछे मत दौड़, उसी एक की ओर अनार हो, – “वह वही आत्मा आकाशवासी सूर्य, अन्तरिक्षवासी वायु, वेदिवासी अग्नि और कलशवासी सोमरस है। वही मनुष्य, देवता, यज्ञ और आकाश में है, वही जल में पृथ्वी पर यज्ञ में और पर्वत पर उत्पन्न होता है; वह सत्य है, वह महान् है ।”6 – “जिस प्रकार एक ही अग्नि जगत् में प्रविष्ट होकर बाह्य वस्तु के रूप- भेद से भिन्न-भिन्न रूप धारण करती है, उसी प्रकार सब भूतों की वह एक अन्तरात्मा नाना वस्तुओं के भेद से उस उस वस्तु का रूप धारण किये हुए है, और सब के बाहर भी है । जिस प्रकार एक ही वायु जगत् में प्रविष्ट होकर नाना वस्तुओं के भेद से तत्तद्रुप हो गयी है, उसी प्रकार सब भूतों की वही एक अन्तरात्मा नाना वस्तुओं के भेद से उस उस रूप की हो गयी है और उनके बाहर भी है ।”7 जब तुम इस एकत्व की उपलब्धि करोगे, तभी यह अवस्था आएगी उससे पूर्व नहीं। यही वास्तविक आशावाद है – सभी जगह उसके दर्शन करना। अब प्रश्न यह है कि यदि यह सत्य हो, यदि वह शुद्धस्वरूप, अनन्त आत्मा इन सब के भीतर प्रवेश करके विद्यमान हो, तो फिर वह क्यों सुख-दुःख भोगती है क्यों वह अपवित्र होकर दुःख-भोग करती है? उपनिषद् कहते हैं कि वह दुःख का अनुभव नहीं करती । – “सभी लोगों का चक्षुस्वरूप सूर्य जिस प्रकार चक्षु-ग्राह्य बाह्य अपवित्र वस्तु के साथ लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार सब प्राणियों की एकमात्र अन्तरात्मा जगत्सम्बन्धी दुःख के साथ लिप्त नहीं होती ।”8 क्योंकि वह फिर जगत् के अतीत भी है । पीलिया हो जाने पर हमें सभी कुछ पीले रंग का दिखाई पड़ता है, पर इससे सूर्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। “जो एक है जो सब का नियन्ता और सब प्राणियों की अन्तरात्मा है, जो अपने एक रूप को अनेक प्रकार का कर लेता है, उसका दर्शन जो ज्ञानी पुरुष अपने में करते हैं, वे ही नित्य सुखी हैं, अन्य नहीं ।”9 – “जो अनित्य वस्तुओं में नित्य है जो चेतनावालों में चेतन है, जो अकेले ही अनेकों की काम्य वस्तुओं का विधान करता है, उसका जो ज्ञानी लोग अपने अन्दर दर्शन करते हैं, उन्हीं को नित्य शान्ति मिलती है, औरों को नहीं।”10 बाह्य जगत् में वह कहाँ मिल सकता है? सूर्य, चन्द्र अथवा तारे उसको कैसे पा सकते हैं? – “वहाँ सूर्य प्रकाश नहीं देता, चन्द्र तारे आदि नहीं चमकते, ये बिजलियाँ भी नहीं चमकती, फिर अग्नि की क्या बात? सभी वस्तुएँ उस प्रकाश् मान से ही प्रकाशित होती हैं, उसी की दीप्ति से सब दीप्त होते हैं ।”11 यहाँ पर और एक सुन्दर रूपक है,। तुम लोगों में से जो भारत हो आये है और देखा है कि कैसे अश्वत्थ वृक्ष एक मूल से उद्गत् होता है और काफी दूर तक फैल जाता है, वे इसे समझ सकेंगे। – “ऊपर की ओर जिसका मूल और नीचे की ओर जिसकी शाखाएँ हैं, ऐसा यह चिरन्तन अश्वत्थ वृक्ष (संसार-वृक्ष) है । वही उज्जल है, वही ब्रह्म है, उसी को अमृत कहते हैं। समस्त संसार उसी में आश्रित है । कोई उसका अतिक्रम नहीं कर सकता। यही वह आत्मा है ।”12

वेद के ब्राह्मण भाग में नाना प्रकार के स्वर्गों की बातें है। किन्तु उपनिषद् स्वर्ग जाने की इस वासना को निराकृत कर देते हैं । सुख इस या उस स्वर्ग में नहीं है, वरन् इस आत्मा में है, स्थानों का कोई अर्थ नहीं है । – “जिस प्रकार दर्पण में लोग अपना प्रतिबिम्ब स्पष्ट रूप से देखते हैं, उसी प्रकार आत्मा में ब्रह्म का दर्शन होता है । जिस प्रकार स्वप्न में हम अपने को अस्पष्ट रूप से अनुभव करते हैं, उसी प्रकार पितृलोक में ब्रह्मदर्शन होता है। जिस प्रकार जल में लोग अपना रूप देखते हैं, उसी प्रकार गन्धर्वलोक में ब्रह्मदर्शन होता है । जिस प्रकार प्रकाश और छाया परस्पर पृथक् हैं, उसी प्रकार ब्रह्मलोक में ब्रह्म और जगत् स्पष्ट रूप से पृथक् मालूम पड़ते हैं।”13 किन्तु फिर भी पूर्ण रूप से ब्रह्मदर्शन नहीं होता। अतएव वेदान्त कहता है कि हमारी अपनी आत्मा ही सर्वोच्च स्वर्ग है, मानवात्मा ही पूजा के लिए सर्वश्रेष्ठ मन्दिर है, वह सभी स्वर्गों से श्रेष्ठ है। कारण, इस आत्मा में उस सत्य का जैसा स्पष्ट अनुभव होता है, वैसा और कहीं भी नहीं होता। एक स्थान से अन्य स्थान में जाने से ही आत्मदर्शन में कुछ विशेष सहायता नहीं मिलती। मैं जब भारतवर्ष में था तो सोचता था कि किसी गुफा में बैठने पर शायद खूब स्पष्ट रूप से ब्रह्म की अनुभूति होती होगी, परन्तु उसके बाद देखा कि बात वैसी नहीं है । फिर सोचा जंगल में जाकर बैठने से शायद सुविधा होगी । काशी की बात भी मन में आयी। असल बात यह है कि सभी स्थान एक प्रकार के हैं क्योंकि हम स्वयं अपना जगत् रच लेते हैं। यदि मैं बुरा हूँ तो सारा जगत् मुझे बुरा दीख पड़ेगा। उपनिषद् यही कहते हैं । सर्वत्र एक ही नियम लागू होता है । यदि मेरी यहाँ मृत्यु हो जाए और मैं स्वर्ग चला जाऊँ तो वहाँ भी मैं सब कुछ यही के समान देखूँगा। जब तक तुम पवित्र नहीं हो जाते तब तक गुफा, जंगल, काशी अथवा स्वर्ग जाने से कोई विशेष लाभ नहीं । और यदि तुम अपने चितरूपी दर्पण को निर्मल कर सको, तब तुम चाहे कहीं भी रहो, तुम यथार्थ सत्य का अनुभव करोगे। अतएव इधर-उधर भटकना शक्ति का व्यर्थ ही क्षय करना मात्र है। उसी शक्ति को यदि चित्त-दर्पण को निर्मल बनाने में लगाया जाए, तो कितना अच्छा हो! निम्नलिखित मन्त्र में इसी भाव का वर्णन है –

“उसका रूप देखने की वस्तु नहीं। कोई उसको आँख से नहीं देख सकता। हृदय संशयरहित बुद्धि एवं मनन के द्वारा वह प्रकाशित होता है । जो इस आत्मा को जानते? हैं वे अमर हो जाते हैं ।”14

जिन लोगों ने राजयोग सम्बन्धी मेरे व्याख्यान पिछली गरमियों में सुने हैं, उनसे मैं कहता हूँ कि वह योग ज्ञानयोग से कुछ भिन्न प्रकार का है । जिस योग पर हम अब विचार कर रहे हैं, वह मुख्यतया इन्द्रिय-नियन्त्रण का है।

“जब सारी इन्द्रियाँ संयत हो जाती हैं, जब मनुष्य उनको अपना दास बनाकर रखता है, जब वे मन को चंचल नहीं कर सकती, तभी योगी चरम गति को प्राप्त होता है ।”“जो सब कामनाएँ मर्त्य जीव के हृदय का आश्रय लेकर रहती हैं, वे जब नष्ट हो जाती हैं, तब मनुष्य अमर हो जाता और यहीं ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है । जब इस संसार में हृदय की सारी ग्रंथियां कट जाती हैं, तब मनुष्य अमर हो जाता है । यही उपदेश है।”16 यहीं, इसी पृथ्वी पर कही अन्यत्र नहीं।

यहाँ कुछ और कहना आवश्यक है । साधारणतः लोग कहते हैं कि वेदान्त, दर्शन और धर्म इस जगत् और उसके सारे सुखों एवं संघर्षों को छोड़कर इसके बाहर जाने का उपदेश देते हैं। पर यह धारणा एकदम गलत है । केवल ऐसे अज्ञानी व्यक्ति ही, जो प्राच्य चिन्तन के विषय में कुछ नहीं जानते, और जिसमें उसकी यथार्थ शिक्षा समझने योग्य बुद्धि ही नहीं है इस प्रकार की बातें कहते हैं। प्रत्युत हम अपने शास्त्रों में पढ़ते हैं कि वे अन्य किसी लोक में जाना नहीं चाहते। वे उन लोकों की यह कहकर निन्दा करते हैं कि कुछ क्षणों तक वहाँ रो और हँसकर लोग मर जाते हैं । जब तक हम दुर्बल रहेंगे, तब तक हमें स्वर्ग-नरक आदि में घूमना पड़ेगा। जो कुछ सत्य है, यहीं है और वह है मनुष्य की आत्मा। वे यह भी कहते हैं कि आत्महत्या द्वारा जन्म-मृत्यु के इस अपरिहार्य प्रवाह को पार नहीं किया जा सकता। हाँ सच्चा मार्ग पाना अत्यन्त कठिन अवश्य है । पाश्चात्य लोगों के समान हिन्दू भी कार्यकुशल हैं, पर दोनों की जीवनदृष्टि भिन्न है । पश्चिमी लोग कहते हैं एक अच्छा सा मकान बनाओ उत्तम भोजन करो, उत्तम वस्त्र पहनो, विज्ञान की चर्चा करो बुद्धि की उन्नति करो। इन सब में वे बड़े व्यावहारिक हैं। किन्तु हिन्दू लोग कहते हैं, आत्मज्ञान ही जगत् का ज्ञान है । वे उसी आत्मज्ञान के आनन्द में विभोर होकर रहना चाहते हैं । अमेरिका मैं एक प्रसिद्ध अज्ञेयवादी वक्ता (इंगरसोल) है – वे एक अत्यन्त सज्जन पुरुष हैं और एक बड़े सुन्दर वक्ता भी। उन्होंने धर्म के सम्बन्ध में एक व्याख्यान दिया। उन्होंने उसमें कहा कि धर्म की कोई आवश्यकता नहीं, परलोक को लेकर अपना मस्तिष्क खराब करने की हमें तनिक भी आवश्यकता नहीं। अपने मत को समझाने के लिए उन्होंने एक उदाहरण देते हुए कहा – “संसार मानो एक सन्तरा है और हम उसका सब रस बाहर निकाल लेना चाहते हैं ।” मेरी एक बार उनसे भेंट हुई । मैंने उनसे कहा, “मैं आपके साथ सहमत हूँ, मेरे पास भी फल है, मैं भी इसका सब रस निकाल लेना चाहता हूँ। पर आपसे मेरा मतभेद है, केवल इस फल को लेकर। आप चाहते है, सन्तरा और मैं चाहता हूँ आम। आप समझते हैं कि संसार में आकर खूब खा-पी लेने और कुछ वैज्ञानिक तथ्य जान लेने से ही बस पर्याप्त हो गया; पर आपको यह कहने का कोई अधिकार नहीं है कि इसे छोड़कर मनुष्य का और कोई कर्तव्य ही नहीं है। मेरे लिए तो यह धारणा बिलकुल तुच्छ है । यदि जीवन का एकमात्र कार्य यह जानना ही हो कि सेब किस प्रकार भूमि पर गिरता है अथवा विद्युत् का प्रवाह किस प्रकार स्नायुओं को उत्तेजित करता है, तब तो मैं इसी क्षण आत्महत्या कर लूँ! मेरा संकल्प है कि मैं सभी वस्तुओं के मर्म की खोज करूँगा – जीवन का वास्तविक रहस्य क्या है, यह जानूँगा। आप केवल प्राण की विभिन्न अभिव्यक्तियों की चर्चा करते हैं, पर मैं तो प्राण का स्वरूप ही जान लेना चाहता हूँ। मैं इस जीवन में ही समस्त रस सोख लेना चाहता हूँ। मेरा दर्शन कहता है कि जगत् और जीवन का समस्त रहस्य जान लेना होगा, स्वर्ग- नरक आदि का सारा अन्धविश्वास छोड़ देना होगा, यद्यपि उनका अस्तित्व उसी अर्थ में है, जिस अर्थ में इस पृथ्वी का अस्तित्व है । मैं इस जीवन की अन्तरात्मा को जाएंगा – उसका वास्तविक स्वरूप जानूंगा, वह क्या है यह जाएगा, वह किस प्रकार कार्य करती है, और उसका प्रकाश क्या है, केवल इतना जानकर मेरी तृप्ति नहीं होगी। मैं सभी वस्तुओं का ‘क्यों’ जानना चाहता हूँ – ‘कैसे होता है’ यह खोज बालक करते रहें । विज्ञान और है क्या? आपके ही किसी बड़े आदमी ने कहा है ‘सिगरेट पीते समय जो जो होता है, वह सब यदि मैं लिखकर रखूँ, तो वही सिगरेट का विज्ञान हो जाएगा। ‘ वैज्ञानिक होना अवश्य अच्छा है और गौरव की बात है – ईश्वर उनके अनुसन्धान में सहायता करें, उन्हें आशीर्वाद दे; पर जब कोई कहता है कि यह विज्ञान-चर्चा ही सर्वस्व है, इसके अतिरिक्त जीवन का और कोई उद्देश्य नहीं, तब समझ लेना चाहिए कि वह मूर्खोचित बात कर रहा है। उसने जीवन के मूल रहस्य को जानने की कभी चेष्टा नहीं की; प्रकृत वस्तु क्या है, इस सम्बन्ध में उसने कभी आलोचना नहीं की। मैं सहज ही तर्क द्वारा यह समझा दे सकता हूँ, कि आपका सारा ज्ञान अर्थहीन और आधारहीन है। आप प्राण की विभिन्न अभिव्यक्तियों को लेकर चर्चा कर रहे हैं, पर जब मैं आपसे पूछता हूँ कि प्राण क्या है, तो आप कहते हैं, ‘मैं नहीं जानता’। ठीक है, आपको जो अच्छा लगे, करें, मुझे अपने ही भाव में रहने दे ।“

मैं अपने ढंग से पूर्णरूपेण व्यवहार-कुशल हूँ। अतएव तुम्हारी इस बात में कोई अर्थ नहीं कि केवल पश्चिम ही व्यवहार-कुशल है । तुम एक ढंग से व्यवहार-कुशल हो, तो मैं दूसरे ढंग से। इस संसार में विभिन्न प्रकार की प्रकृतिवाले मनुष्य हैं। यदि प्राच्य देश के किसी व्यक्ति से कहा जाए कि सारा जीवन एक पैर पर खड़ा रहने से वह सत्य को पा सकेगा, तो वह सारा जीवन एक पैर पर ही खड़ा रहेगा। यदि पाश्चात्य देशों में लोग सुनें कि किसी बर्बर देश में कहीं पर सोने की खदान है तो हजारों लोग सोना पाने की आशा में अपने प्राणों की बाजी लगा देंगे – और शायद उनमें से एक ही कृतकार्य होगा । इस दूसरे प्रकार के मनुष्यों ने भी सुना है कि आत्मा नाम की कोई चीज है, पर वे उसकी मीमांसा का भार चर्च पर डालकर निश्चिन्त हो जाते हैं । पर पहले प्रकार का मनुष्य सोना पाने के लिए बर्बरों के देश में जाने को राजी न होगा; कहेगा, ‘नहीं, उसमें खतरे की आशंका है।‘ पर यदि उससे कहा जाए कि एक ऊँचे पर्वत के शिखर पर एक असुत साधु रहते हैं, जो उसे आत्मज्ञान दे सकते हैं, तो वह तुरन्त उस शिखर पर चढ़ने  उद्यत हो जाएगा – फिर इस प्रयत्न में उसके प्राण ही क्यों न चले जाएं । दोनों ही प्रकार के व्यक्ति व्यवहार- कुशल हैं, पर भूल यहाँ पर है कि तुम लोग इस परिदृश्यमान संसार को ही सब कुछ समझ बैठते हो। तुम्हारा जीवन क्षणस्थायी इन्द्रिय-भोग मात्र है – उसमें कुछ भी नित्यता नहीं है प्रत्युत उससे दुःख क्रमशः बढ़ता ही जाता है। हमारे मार्ग में अनन्त शान्ति है, और तुम्हारे मार्ग में अनन्त दुःख।

मैं यह नहीं करता कि तुम्हारा दृष्टिकोण गलत है। तुमने जैसा समझा है, वैसा करो। उससे परम मंगल होगा – लोगों का बड़ा हित होगा, पर इसी कारण मेरे दृष्टिकोण पर दोषारोपण मत करों । मेरा मार्ग ‘भी अपने ढंग से मेरे लिए व्यावहारिक है । आओ, हम सब अपने अपने ढंग से कार्य करें । भगवान् करते, हम दोनों ही ओर समान रूप से कार्य-कुशल हो सकते। मैंने ऐसे अनेक वैज्ञानिक देखे हैं, जो विज्ञान और अध्यात्म-तत्त्व दोनों में समान रूप से व्यावहारिक हैं, और मैं आशा करता हूँ कि एक समय आएगा’, जब समस्त मानवजाति इसी प्रकार व्यवहार-कुशल हो जाएगी। मान लो, एक पतीली में जल गरम होकर उबलने आ रहा है – उस समय क्या होता है, इस बात की ओर यदि तुम ध्यान दो तो देखोगे कि एक कोने में एक बुदबुद उठ रहा है, दूसरे कोने में एक और उठ रहा है। ये बुदबुद क्रमशः बढ़ते जाते हैं और अन्त में सब मिलकर एक प्रबल हलचल उत्पन्न कर देते हैं। यह संसार भी ऐसा ही है । प्रत्येक व्यक्ति मानो एक बुदबुद है, और विभिन्न राष्ट्र मानो कुछ बुद्बुदों की समष्टि है। क्रमशः राष्ट्रों में परस्पर मेल होता जा रहा है, और मेरी यह दृढ़ धारणा है कि एक दिन ऐसा आएगा, जब राष्ट्र नामक कोई वस्तु नहीं रह जाएगी – राष्ट्र राष्ट्र का भेद दूर हो जाएगा। हम चाहे इच्छा करें या न करें हम जिस एकत्व की ओर अग्रसर हो जा रहे हैं, वह एक दिन प्रकट होगा ही। वास्तव में हम सब के बीच भ्रातृसम्बन्ध स्वाभाविक ही है, पर हम सब इस समय पृथक् हो गये हैं। ऐसा समय अवश्य आएगा, जब ये सब भेदभाव लुप्त हो जाएँगे – प्रत्येक व्यक्ति वैज्ञानिक विषय के ही समान आध्यात्मिक विषय में भी तीव्र रूप से व्यवहार-कुशल हो जाएगा, और तब वह एकत्व, वह समन्वय समस्त जगत् में व्याप्त हो जाएगा। तब सारी मानवता जीवमुक्त हो जाएगी। अपनी ईर्ष्या, घृणा, मेल और विरोध में से होते हुए हम उसी एक की ओर संघर्ष कर रहे हैं। हम सब को लेती हुई एक वेगवती नदी समुद्र की ओर बही जा रही है। छोटे छोटे कागज के टुकड़े, तिनके आदि की भाँति हम इसमें बहे जा रहे हैं। हम भले ही इधर-उधर जाने की चेष्टा करें, पर अन्त में हम भी जीवन और आनन्द के उस अनन्त समुद्र में अवश्य पहुँच जाएँगे।

1.  पराझि खानि व्यतृणत् स्वयम्पू: तस्मात् पराड- पश्यति नान्तरात्मन्।

 कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृतचक्षुरमृतत्वमिच्छन्। । (कठोपनिषद २ । १ । १)

2.  पराच: कामाननुयनि। बालास्ते मृत्योर्यन्ति विततस्य पागर।

अथ धीरा अमृतत्व विदित्वा ध्रुवमधुवेष्यिह न प्रार्थयन्ते। । (कठोपनिषद् २ । १ । २)

3.  यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह। मृत्यो: स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति।

(कठोपनिषद २ । १ । १०)

4.  मृत्यो: स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति।

(कठोपनिषद् २ । १ । १०)

5.  यथक्खें दुगें वृष्टै पर्वतेषु विधावति। एवं धर्मान् पृथक् पश्यंस्तानेवानुविधावति।

(कठोपनिषद् २ । १ । १४) ई हंस:

6. शुचिषद्वसुरनारिक्षसर्द्धोता वेदिषदतिथिर्दुरावसत्र। नृषद्वरसदृतसद्वथोमसदब्बा  गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत्।

(कठोपनिषद् २ । २ । २)

7.  अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूप रूप प्रतिरूपो बभूव। एकस्तथा सर्वभूतानारात्मा रूप रूप प्रतिरूपो बहिश । वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूप रूप प्रतिरूपो बभूव। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूप रूप प्रतिरूपो बहिझ। (कठोपनिषद् २ । २ । १ – १०)

8. सूर्यों यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषै: । एकस्तथा सर्वभूतानारात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्य: । (कठोपनिषद्, २ । २ । ११) 

9. एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एक रूप बहुधा य: करोति। तमात्मस्थं येउनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुख शाश्वतं नेतरेषाम्। (कठोपनिषद् २ । २ । १२)

10.  नित्यो नित्यानां चेतनशेतनानामेको बहुनां यो विदधाति कामान्।तमात्मास्य येपुनुपश्यनिा धीरास्तेषां शान्ति: शाश्वती नेतरेषाम्। कठोपनिषद, २ । २ । १३)

11.  न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारक, नेमा विसुतो भान्ति कुतोग्यमग्निः । तमेव भान्तमनुमाति सर्व, तस्य भासा सर्वमिदं विभाति। (कठोपनिषद् २। २। १५)

12. ऊर्ध्वमूलोउवाक्शाख एषोपृश्रत्थ: सनातन: । तदेव शुक्र तद् ब्रह्म तदेवामृतमुव्यते। तस्मिल्लोका: श्रिता: सवें तदु नात्येति कसन। एतद्वै तत्। (कठोपनिषद् २ । ३ । १)

13.  यथादशें तथात्मनि यथा स्वप्ने तथा पितृलोके। अवाप्त परीव ददृशे तथा गन्धर्वलोकेछायातपयोरिव ब्रह्मलोके। (कठोपनिषद् २ । ३ । ५)

14.  न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कक्षनैनम्। हदा मनीषा मनसाभिक्ट्रप्तो य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति। । (कठोपनिषद् २ । ३ । ९)

15.  यदा पझावतिशन्ते ज्ञानानि मनसा सह। बुद्धिश न विचेष्टति तामाहूः परमां गतिम्। ।   कठोपनिषद, २ । ३ । १०)

16 .  यदा सवें प्रमुच्चनो कामा येम्स्य हदि श्रिता: । अथ मत्योंउमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते। । खप सवें प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्यय: । अथ मत्योंग्मृतो भवत्येतावद्धबनुशासनम्। ।

(कठोपनिषद् २ । ३ । १ ४- १५)





17
रचनाएँ
ज्ञान योग
0.0
एक रूप में ज्ञानयोगी व्यक्ति ज्ञान द्वारा ईश्वरप्राप्ति मार्ग में प्रेरित होता है। स्वामी विवेकानंद द्वारा रचित ज्ञानयोग में मायावाद,मनुष्य का यथार्थ व प्रकृत स्वरूप,माया और मुक्ति,ब्रह्म और जगत, अंतर्जगत, बहिर्जगत, बहुतत्व में एकत्व, ब्रह्म दर्शन,आत्मा का मुक्त स्वभाव आदि नामों से उनके द्वारा दिये भाषणों का संकलन है।
1

मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

25 अप्रैल 2022
34
1
0

“मनुष्य का यथार्थ स्वरूप” नामक यह भाषण स्वामी विवेकानंद ने लंदन में दिया था। यह उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ज्ञान योग का प्रथम अध्याय है। इसमें स्वामी जी ने आत्मा के यथार्थ स्वरूप का निरूपण किया है कि किस तर

2

मनुष्य का वास्तविक और प्राति भासिक स्वरूप

26 अप्रैल 2022
6
0
0

हम यहाँ खड़े है, परन्तु हमारी दृष्टि दूर बहुत दूर, और कभी-कभी तो, कोसों दूर चली जाती है। जब से मनुष्य ने विचार करना आरम्भ किया, तभी से वह ऐसा करता आ रहा है। मनुष्य सदैव आगे और दूर देखने का प्रयत्न करता

3

माया और भ्रम

26 अप्रैल 2022
3
0
0

माया शब्द प्रायः तुम सभी ने सुना होगा। इसका व्यवहार साधारणतः भ्रम, भ्रान्ति अथवा इसी प्रकार के अर्थ में किया जाता है, किन्तु यह उसका वास्तविक अर्थ नहीं है। मायावाद उन स्तम्भों में से एक है, जिन पर वेद

4

माया और ईश्वर-धारणा का क्रमविकास

26 अप्रैल 2022
3
0
0

हमने देखा कि अद्वैत वेदान्त का एक आधारभूत सिद्धान्त मायावाद बीज रूप से संहिताओं में भी देखा जाता है, और जिन विचारों का विकास उपनिषदों में हुआ है वे वस्तुतः किसी न किसी रूप में संहिताओं में विद्यमान है

5

माया और मुक्ति

26 अप्रैल 2022
3
0
0

कवि कहता है “हम जगत् में अपने पीछे मानो एक हिरण्मय मेघजाल लेकर प्रवेश करते हैं ।” पर सच पूछो तो हममें से सभी इस प्रकार महिमामण्डित होकर संसार में प्रवेश नहीं करते; हममें से बहुत से तो अपने पीछे कुहरे

6

ब्रह्म एवं जगत

26 अप्रैल 2022
1
0
0

अद्वैत वेदान्त की इस एक बात की धारणा करना अत्यन्त कठिन है कि जो ब्रह्म अनन्त है, वह सान्त अथवा ससीम किस प्रकार हुआ। यह प्रश्न मनुष्य सर्वदा करता रहेगा, पर जीवन भर इस प्रश्न पर विचार करते रहने पर भी उस

7

विश्व बृहत ब्रह्मांड

26 अप्रैल 2022
1
0
0

सर्वत्र विद्यमान फूल सुन्दर है, प्रभात के सूर्य का उदय सुन्दर है, प्रकृति के विविध रंग और वर्णावली सुन्दर है। समस्त जगत् सुन्दर है और मनुष्य जब से पृथ्वी पर आया है, तभी से इस सौन्दर्य का उपभोग कर रहा

8

विश्व सूक्ष्म ब्रह्माण्ड

26 अप्रैल 2022
1
0
0

स्वभाव से ही मनुष्य का मन बाहर की ओर प्रवृत्त होता है, मानो वह इन्द्रियों के द्वारा शरीर के बाहर झाँकना चाहता हो। आँखें अवश्य देखेंगी, कान अवश्य सुनेंगे, इन्द्रियाँ अवश्य बाहरी जगत् को प्रत्यक्ष करेंग

9

अमरत्व

26 अप्रैल 2022
1
0
0

जीवात्मा के अमरत्व के प्रश्न के सिवा अन्य कौन-सा प्रश्न अधिक बार पूछा गया है, अन्य किस तत्त्व के रहस्य का उद्घाटन करने के लिए मनुष्य ने सारे जगत् की इतनी अधिक खोज की है, अन्य कौन-सा प्रश्न मानव-हृदय क

10

बहुत्व में एकत्व

26 अप्रैल 2022
1
0
0

स्वयम्भू ने इन्द्रियों को बहिर्मुख होने का विधान बनाया है, इसीलिए मनुष्य सामने की ओर (विषयों की ओर) देखता है, अन्तरात्मा को नहीं देखता। अमृतत्व-प्राप्ति की इच्छा रखनेवाले किसी किसी ज्ञानी ने विषयों से

11

सभी वस्तुओं में ब्रह्मदर्शन

26 अप्रैल 2022
1
0
0

हमने देखा कि हम अपने दुःखों को दूर करने की कितनी ही चेष्टा क्यों न करें, परन्तु फिर भी हमारे जीवन का अधिकांश भाग अवश्यमेव दुःखपूर्ण रहेगा। और यह दुःखराशि वास्तव में हमारे लिए एक प्रकार से अनन्त है। हम

12

अपरोक्षानुभूति

26 अप्रैल 2022
0
0
0

मैं तुम लोगों को एक दूसरी उपनिषद् से कुछ अंश पढ़कर सुनाऊंगा! यह अत्यन्त सरल एवं अतिशय कवित्वपूर्ण है । इसका नाम है कठोपनिषद! सर एडविन अर्नाल्ड कृत इसका अनुवादक1 शायद तुममें से कुछ ने पड़ा होगा। हम लोगों

13

आत्मा का मुक्त स्वभाव

26 अप्रैल 2022
0
0
0

हम जिस कठोपनिषद् की चर्चा कर रहे थे, वह छान्दोग्योपनिषद् के, जिसकी हम अब चर्चा करेंगे बहुत समय बाद रचा गया था। कठोपनिषद् की भाषा अपेक्षाकृत आधुनिक है, उसकी चिन्तन-शैली भी सब से अधिक प्रणालीबद्ध है। प्

14

धर्म की आवश्यकता

26 अप्रैल 2022
3
0
0

मानव-जाति के भाग-निर्माण में जितनी शक्तियों ने योगदान दिया है और दे रही हैं उन सब में धर्म के रूप में प्रगट होनेवाली शक्ति से अधिक महत्त्वपूर्ण कोई नहीं है। सभी सामाजिक संगठनों के मूल में कहीं न कहीं

15

आत्मा

26 अप्रैल 2022
1
0
0

तुममें से बहुतों ने मैक्समूलर की सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘वेदान्त दर्शन पर तीन व्याख्यान’को पड़ा होगा और शायद कुछ लोगों ने इसी विषय पर प्रोफेसर डॉयसन की जर्मन भाषा में लिखित पुस्तक पढ़ी हो। ऐसा लगता है कि पश्

16

आत्मा उसके बंधन तथा मुक्ति

26 अप्रैल 2022
2
0
1

अद्वैत दर्शन के अनुसार विश्व में केवल एक ही वस्तु सत्य है, और वह है ब्रह्म। ब्रह्मेतर समस्त वस्तुएँ मिथ्या है, ब्रह्म ही उन्हें माया के योग से बनाता एवं अभिव्यक्त करता है। उस ब्रह्म की पुनःप्राप्ति ही

17

सन्यासी का गीत

26 अप्रैल 2022
12
0
0

(1) छेड़ो संन्यासी, छेड़ते छेड़ो वह तान मनोहर, गाओ वह गान, जगा जो अत्युच्च हिमाद्रि-शिखर पर  सुगभीर अरण्य जहाँ है, पार्वत्य प्रदेश जहाँ हैं भव-पाप-ताप ज्वालामय करते न प्रवेश जहाँ है  जो संगीत-ध्वनि-

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए