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सन्यासी का गीत

26 अप्रैल 2022

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(1)

छेड़ो संन्यासी, छेड़ते छेड़ो वह तान मनोहर,

गाओ वह गान, जगा जो अत्युच्च हिमाद्रि-शिखर पर 

सुगभीर अरण्य जहाँ है, पार्वत्य प्रदेश जहाँ हैं

भव-पाप-ताप ज्वालामय करते न प्रवेश जहाँ है 

जो संगीत-ध्वनि-लहरी अतिशय प्रशान्त लहराती

जो भेद जगत्-कोलाहल नभ-अवनी में छा जाती

धन-लोभ, यशोलिप्सा या दुर्दान्त काम की माया,

सब विधि असमर्थ हुई हैं छूने में जिसकी छाया

सत्-चित्- आनन्द-त्रिवेणी करती है जिसको पावन,

जिसमें करके अवगाहन होते कृतकृत्य सुधीजन 

छेड़ो, छेड़ो, हाँ छेड़ो वह तान दिव्य लोकोत्तर,

गाओ, गाओ संन्यासी, गाओ वह गायन सुन्दर 

ॐ तत् सत् ॐ


(2)

तोड़ों जंजीरें जिनसे जकड़े हैं पैर तुम्हारे 

वे सोने की हैं तो क्या कसने में तुमकी हारे?

अनुराग-घृणा-संघर्षण, उत्तम वा अधम विवेचन,

इस द्वन्द्व भाव को त्यागो, हैं त्याज्य उभय आलम्बन।

आदर गुलाम पाए या कोड़ो की मारें खाए,

वह सदा गुलाम रहेगा कालिख का तिलक लगाए;

स्वातन्य किसे कहते हैं – वह जान नहीं है पाता,

स्वाधीन सौख्य जीवन का – उसकी न समझ में आता।

त्यागो संन्यासी, त्यागो तुम द्वन्द्व- भाव को सत्वर,

तोड़ो शृंखल को तोड़ों, गाओ वह गान निरन्तर 

ॐ तत् सत् ॐ


(3)

घन अन्धकार हट जाए, मिट जाए घोर महातम,

जो मृगमरीचिका जैसा करता रहता बुद्धि-भ्रम;

मोहक भ्रामक आकर्षण अपनी है चमक. दिखाता,

तम से घनतर तम में वह जीवात्मा जो ले जाता।

जीवन की यह मृग-तृष्णा बढ़ती अनवरत निरन्तर,

मेटो तुम इसे सदा को पीयूष शान का पीकर।

यह तम अपनी डोरी में जीवात्मा-पशु को कसकर,

खींचा करता बलपूर्वक दो जन्म-मरण छोरों पर ।

जिसने अपने को जीता, उसने जय पायी सब पर –

यह तथ्य जान फन्दे में पड़ना मत बुद्धि गवाँकर ।

बोलो संन्यासी, बोलो हे वीर्यवान बलशाली,

सानन्द गीत यह गाओ, छेड़ो यह तान निराली 

ॐ तत् सत् ॐ


(4)


“अपने अपने कर्मों का फल-भोग जगत में निश्चित”

कहते हैं सब, “कारण पर है सभी का। अवलम्बित;

फल अशुभ अशुभ कर्मों के, शुभ कर्मों के है शुभ फल,

किसकी सामर्थ्य बदल दे, यह नियम अटल औ अविचल?

इस मृत्युलोक में जो भी करता है तनु को धारण,

बन्धन उसके अंगों का होता नैसर्गिक भूषण। “

यह सच है, किन्तु, परे जो गुण नाम-रूप से रहता

वह नित्य मुक्त आत्मा है, स्वच्छन्द सदैव विचरता।

‘तत् त्वमतिं – वही तो तुम हो, वह ज्ञान करो हृदयांकित,

फिर क्या चिन्ता संन्यासी सानन्द करो उद्घोषित 

ॐ तत् सत् ॐ


(5)

क्या मर्म सत्य का, इसको वे कुछ भी समझ न पाते,

सुत बन्धु पिता माता के स्वप्नों में जो मदमाते।

आत्मा अतीत नातों से, वह जन्म-मरण से विरहित,

वह लिंग-भेद से ऊपर, सुख-दुख-भावों से अविजित।

वह पिता कहाँ किसका है, किसका सुत, किसकी माता?

वह शत्रु मित्र किसका है, उसका किससे क्या नाता?

जो एक सर्वमय शाश्वत, जिसका जोड़ा न कहीं है,

जिसके अभाव में कोई सम्भव अस्तित्व नहीं है,

‘तत् त्वमस्ति – वही तो तुम हो, समझो हे संन्यासीवर,

अतएव उठो गाओ तुम गाओ यह गान निरन्तर 

ॐ तत् सत् ॐ


(6)

चिर मुक्त विज्ञ आत्मा है, वह अद्वितीय, वह अतुलित,

अक्लेद अशोध्य निरामय, वह नाम-रूप-गुण-विरहित,

उसके आश्रय में बैठी संसार-मोहिनी माया

देखा करती है अपने मादक स्वप्नों की छाया;

साक्षीस्वरूप माया का आत्मा सदैव है सुविदित,

जीवात्मा और प्रकृति के रूपों में वही प्रकाशित;

‘तत् त्वमति – वही तो तुम हो, समझो हे संन्यासीवर,

 उच्च स्वर से यह गाओ यह तान अलापो सुन्दर –

ॐ तत् सत् ॐ


(7)

हे बन्धु, मुक्ति पाने को तुम फिरते कहाँ भटकते?

इस जग या लोकान्तर में तुम मुक्ति नहीं पा सकते;

अन्वेषण व्यर्थ तुम्हारा शास्त्रों, मन्दिर मन्दर में;

जो तुमको खींचा करती वह रज्जु तुम्हारे कर में।

दुख शोक त्याग दो सारा, तुम वीतशोक बस हो लो,

वह रज्जु हाथ से छोड़ो, बोलो संन्यासी बोलो 

ॐ तत् सत् ॐ


(8)

दो अभय-दान सब को तुम – ‘हों सभी शान्तिमय सुखमय,

है प्राणिमात्र को मुझसे कुछ भी न कहीं कोई भय,

पृथ्वी पाताल गगन में मैं ही आत्मा चिर-संस्थित,

आशा भय स्वर्ग नरक को मैंने तज दिया अशंकित। ‘

काटो काटो काटो तुम इस विधि माया के बन्धन,

निःशंक प्राणपण से तुम गाओ गाओ यह गायन –

ॐ तत् सत् ॐ


(9)

चिन्ता मत करो तनिक भी नश्वर शरीर की गति पर,

यह देह रहे या जाए, छोड़ो तुम इसे नियति पर ।

जब कार्य शेष है इसका, तब जाता है तो जाए

प्रारब्ध कर्म फिर इसको अब चाहे जहाँ बहाए;

कोई आदर से इसको मालाएँ पहनाएगा,

कोई निज पूणा जताकर पैरों से ठुकराका,

तुम चित्त-शान्ति मत तजना, आनन्द-निरत नित रहना;

यश कहाँ, कहाँ अपयश है – इस धारा में मत बहना ।

जब निन्दक और प्रशंसक, जब निन्दित और प्रशंसित,

एकात्म एक ही हैं सब, तब कौन प्रशंसित, निन्दित?

यह ऐक्य शान हृदयंगम करके हे सन्यासीवर,

निर्भर आनन्दित उर से गाओ यह गान मनोहर –

ॐ तत् सत् ॐ


(10)

करते निवास जिस उर में मद काम लोभ औ’ मत्सर,

उनमें न कभी हो सकता आलोकित सत्य-प्रभाकर;

भार्यत्व कामिनी में जो देखा करता कामुक बन,

वह पूर्ण नहीं हो सकता, उसका न छूटता बन्धन;

लोलुपता है जिस नर की स्वल्पातिस्वल्पं भी धन में

वह मुक्त नहीं हो सकता, रहता अपार बन्धन में;

जंजीर क्रोध की जिसको रखती है सदा जकड़कर,

वह पार नहीं कर सकता दुस्तर माया .का सागर।

इन सगी वासनाओं का अतएव त्याग तुम कर दो,

सानन्द वायुमण्डल को बस एक गूँज से भर दो –

ॐ तत् सत्र ॐ


(11)

सुख हेतु न ग्रेह बानाओ, किस घर में अमा सकोगे?

तुम हो महान्, फिर कैसे पिंजड़े के विहग बनोगे?

आकाश अनन्त चँदोया, शय्या धरती तृण-शोभित

रहने के लिए तुम्हारे यह विश्वगेह है निर्मित;

जैसा भोजन मिल जाए, सन्तोष उसी पर करना;

सुस्वादु स्वाद-विरहित में कुछ भी मत भेद समझना;

शुद्धात्मरूप का जिसमें सद् ज्ञानालोक चमकता,

कुछ खाद्य गेय क्या उसको अपवित्र कहीं कर सकता?

अमुक्त स्वतन्त्र प्रवाहित तुम नदी-तुल्य बन जाओ,

छेड़ो यह तान अनूठी, सानन्द गीत यह गाओ –

ॐ तत् सत् ॐ


(12)

ज्ञानी विरले, अज्ञानी कर घृणा हँसेंगे तुम पर;

हे है महान्, तुम उनको मत लखना आँख उठाकर।

स्वाधीन मुक्त तुम, जाओ, पर्यटन करो पृथ्वी पर,

अज्ञान-गर्त-पतितों का उद्धार करो तुम सत्त्वर;

माया-आवरण-तिमिर में जो पड़े वेदना सहते,

-तुम उन्हें उबारो जाकर, जो मोह-नदी में बहते।

विचरो जन-हित-साधन को स्वच्छन्द मुक्त तुम अविजित

दुख की पीड़ा से निर्भय, सुख-अन्वेषण से विरहित;

सुख-दुख के द्वन्द्व-स्थल के तुम परे महात्मन् जाओ;

गाओ गाओ संन्यासी, उच्च स्वर से तुम गाओ –

ॐ तत् सत् ॐ


(13)

इस विधि से छीज दिनोंदिन, है कर्म स्वीय बल खोता

बन्धन छुटता आत्मा का फिर उसका जन्म न होता;

फिर कहीं रह गया मैं तू, मेरा तेरा, नर ईश्वर?

में हूँ सब में, मुझमें सब आनन्द परम लोकोत्तर।

आनन्द परम वह हो तुम, आनन्दसहित अब गाओ,

हे बन्धुवर्य संन्यासी, यह तान पुनीत उठाओ –

ॐ तत् सत् ॐ

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रचनाएँ
ज्ञान योग
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एक रूप में ज्ञानयोगी व्यक्ति ज्ञान द्वारा ईश्वरप्राप्ति मार्ग में प्रेरित होता है। स्वामी विवेकानंद द्वारा रचित ज्ञानयोग में मायावाद,मनुष्य का यथार्थ व प्रकृत स्वरूप,माया और मुक्ति,ब्रह्म और जगत, अंतर्जगत, बहिर्जगत, बहुतत्व में एकत्व, ब्रह्म दर्शन,आत्मा का मुक्त स्वभाव आदि नामों से उनके द्वारा दिये भाषणों का संकलन है।
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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

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माया और भ्रम

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आत्मा उसके बंधन तथा मुक्ति

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अद्वैत दर्शन के अनुसार विश्व में केवल एक ही वस्तु सत्य है, और वह है ब्रह्म। ब्रह्मेतर समस्त वस्तुएँ मिथ्या है, ब्रह्म ही उन्हें माया के योग से बनाता एवं अभिव्यक्त करता है। उस ब्रह्म की पुनःप्राप्ति ही

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