shabd-logo

अभागा

20 अगस्त 2023

282 बार देखा गया 282


article-image


माँजी ने आवाज़ दी, “तुम्हारा फोन है बबलू”।  “मेरा फोन!, तुम्हारे फोन पर कैसे”, अमोल ने माँ से कहा। फिर याद आया कि पहले ये नंबर उसके मोबाइल में था, बाद में माँ जी के फोन में बी०एस०एन०एल० का ये सिम डालकर अपने मोबाइल में दूसरा सिम डाल लिया था। अमोल अपने इतने पुराने नंबर को हटाना नहीं चाहता था। उसका सोचना था कि पुराना नंबर सभी के पास होगा, किसी दिन भूले भटके कोई पुराना साथी या रिश्तेदार याद करे तो कम से कम संपर्क तो कर सकेगा। ये किसका नंबर है, सेव तो हैं नहीं। बहुत सारे संशय अमोल के मन में फोन को हाथ में लेने से पहले ही उमड़ने-घुमड़ने लग गए थे। फोन को माँजी के हाथों से अपने हाथों में लेकर अमोल ने एक बार नम्बर पर एक दृष्टि डालकर अपने कान से सटा लिया।  हैलो! अनमोल ने संशय भरी आवाज़ में फोन पर बोला।  उधर से आवाज़, “हैलो! कौन बोल रहा है”? फोन आपने मिलाया है तो आप बताएँगे कि आप कौन बोल रहे हैं, मैं क्यों बताऊँ?  आपको किससे बात करनी है? अमोल ने पहले नाराजगी के साथ बोला फिर सोचा कि फोन तो मेरे लिए ही होगा नहीं तो माँजी क्यों कहती कि मेरा फोन आया है। अपनी गलती समझकर अमोल अपना नाम बताने ही वाला था कि उधर से आवाज़ आई कि अरे अमोल बोल रहे हो, बबलू! पहचाना नहीं मुझे आवाज़ से।  अमोल ने अपनी असमर्थता जाहिर की “माफ कीजिएगा ये नंबर सेव नहीं है और मैं आपकी आवाज़ से भी आपको पहचान नहीं पा रहा हूँ, आपकी आवाज़ भी थोड़ी अस्पष्ट सी है”।  “अरे हाँ, कैसे पहचान लोगे मेरी आवाज़ फोन पर जब सामने-सामने लोग नहीं समझ पाते हैं”, उधर से जबाब आया,  “अरे मैं विष्णु बोल रहा हूँ, विष्णु”।  “कौन विष्णु, क्या लखनऊ से विष्णु”, यह अमोल का प्रश्न था।  “हाँ, लखनऊ से, तुम्हें याद हूँ मैं”, उधर से जबाब आया। “अरे यार कैसे भूल सकता हूँ तुम्हें विष्णु मैं, कैसे हो? कहाँ हो आजकल? क्या कर रहे हो?”, अमोल एक सांस में बोल गया। “अरे! अमोल ये तुम हो, बहुत अच्छा हुआ जो तुमसे बात हो गई। मेरी छोड़ो, तुम बताओ, तुम क्या कर रहे हो? उसी नौकरी में हो या कुछ और कर रहे हो? प्रोमोशन हो गया होगा अब तो।  बड़े अफसर बन गए होगे, है न?”, उधर से विष्णु ने भी बिना रुके हालचाल पूछना चालू कर रखा था। अमोल आश्चर्य में भी था और ग्लानि में भी।  आश्चर्य इसलिए कि इतने दिन हो गए और अचानक ही विष्णु ने उसे फोन कर दिया और ग्लानि इसलिए कि उसने तो आजतक भी कभी भी अपने दोस्तों की खोज-खबर नहीं ली। अमोल इस सोच-विचार में थोड़ी देर मौन खड़ा रहा। फोन पर फिर से विष्णु की आवाज़ आई, “कुछ दिन पहले, शायद, दो साल पहले तुम्हारे पापा मिल गए थे, उन्हीं से लिया था तुम्हारा नंबर। तुरंत तो नहीं पर आठ-दस दिन बाद फोन किया था तो ये नंबर बंद था। कहाँ हो, मेरठ में हो ना, अंकल जी बता रहे थे”। उधर से विष्णु की आवाज सुनकर अमोल की विचार-श्रंखला टूटी। “हाँ! एक्चुअली, पहले मेरठ ही था, पर पापा ने तो बताया नहीं कि वो तुमसे मिले थे, शायद! भूल गए होंगे, उनको याद नहीं रहतीं हैं सारी बातें। मैं दो साल पहले ही मेरठ से दिल्ली आया था और चूँकि बी०एस०एन०एल० का नंबर यहाँ काम नहीं कर रहा था तो इसको बदल कर एयरटेल का सिम ले लिया था। दो-तीन महीने ये डीएक्टिवेट ही रहा था। तब कुछ दिनों बाद मम्मी के फोन में ये सिम डाल दिया था। लखनऊ में तो बहुत अच्छे से चल रहा है ये बी०एस०एन०एल० का नंबर।  दोबारा प्रयास करते तो मिल जाता”, अमोल ने कहा। उधर से विष्णु की आवाज़ आई, “तो इसका मतलब तुम लखनऊ में ही हो आज अमोल, हो सके तो मिल लो आकर। मुझे भी तुमसे मिलने कि बहुत इच्छा है”।  “हाँ मैं आता हूँ न, आँटी-अंकल कैसे हैं”, अमोल ने पूछा “और रह कहाँ रहे हो, उसी घर में या बदल कर कहीं और ले लिया है”।  विष्णु का जबाब आया, “अरे उसी घर में हूँ, मिलो तो अच्छा रहेगा”।  अमोल ने विष्णु की आवाज़ में मित्रता के चिर-परिचित अधिकार से ज्यादा अनुनय जैसा अनुभव किया। “अरे क्यों नहीं मिलूंगा, कल ही आता हूँ तुम्हारे पास, फिर बैठ कर बाते करेंगे”, अमोल ने कहा। “ठीक है मैं तुम्हारा इंतज़ार करूंगा, किस समय आओगे, बता दो तो तुम्हारे स्वागत में कुछ तैयारी कर के रखूँगा”, विष्णु की आवाज़ आई।  “कोई तैयारी नहीं रखनी है, मैं किसी भी समय आ जाऊंगा, तुम्हें कहीं जाना तो नहीं है”, अमोल ने पूछा।  “नहीं मैं कहीं भी नहीं जाता हूँ, आ जाना फिर तुम किसी भी समय”, उधर से विष्णु ने उत्तर दिया।

फोन कटते ही अमोल विष्णु के साथ जुड़ी पुरानी यादों में चला गया। पुरानी यादों के सागर में डूबते-उतराते दृश्य उसकी आँखों के सामने किसी चलचित्र की तरह गुजरने लगे। अमोल अपनी कक्षा का एक होनहार विध्यार्थी था, लिहाज़ा सभी विषयों के अध्यापकों का प्रिय छात्र था। उस दिन विज्ञान की कक्षा सबसे अंतिम कक्षा थी। कक्षा की पहली पंक्ति में बैठे अमोल की आदत थी कि अध्यापक के किसी भी प्रश्न पर सबसे पहले हाथ उठा देना और इसका कारण था कि वो कक्षा में अपने विषय को समझने के बाद घर पर फिर से पढ़ता और अच्छे से अभ्यास करता। यदि कुछ समझ नहीं आता तो अगले दिन ही उस विषय के अध्यापक से उस टॉपिक को फिर से समझता। शाम को अपने दोस्तों के साथ थोड़ा-बहुत खेलकूद भी करता परंतु तब ही जब उसकी उस दिन की पढ़ाई का कोटा पूरा हो जाता। कक्षा समाप्त होने की घंटी बज चुकी थी। अमोल ने अपनी पुस्तकें बैग में रखी ही थीं कि उसके बगल में विष्णु आकर खड़ा हो गया। “क्या नाम है तुम्हारा, मैं विष्णु”, हाथ बढ़ाते हुए विष्णु ने कहा। अमोल ने प्रत्युत्तर में अपना हाथ बढ़ाया, “मैं अमोल”।  उस दिन हुआ ये परिचय अमोल और विष्णु की दोस्ती का आधार बन गया था।  विष्णु अमोल से आयु में दो-तीन वर्ष अधिक था परन्तु गम्भीरता में पाँच-छह वर्ष से अधिक था। अमोल ने सिर्फ अपनी पढ़ाई पर ही जोर दिया परन्तु विष्णु पढ़ाई के साथ-साथ जीवन की कढ़ाई भी जानता था। वैसे तो अमोल बहुत ही साधारण परिवार से था और उसका परिवार बहुत ही साधारण जीवन व्यतीत कर रहा था परन्तु अमोल के पिताजी ने कह रखा था की पढ़ाई से सम्बंधित या किताबों से सम्बंधित कोई भी आवश्यकता होने पर अमोल अवश्य बताये और उसके पिताजी वो जरुरत अवश्य पूरी करेंगे परन्तु अमोल परिवार की स्थिति से अवगत होने के कारण पिताजी पर अनावश्यक खर्च का दबाब नहीं डालना चाहता था। वो कभी किताबें पुस्तकालय से लेकर अपने नोट्स बनाता तो कभी पुरानी किताबों का जुगाड़ ढूँढता या फिर किसी सहपाठी से मांग कर काम चला लेता था।  अपने पिताजी की आर्थिक स्थिति के कारण उसने कभी भी इंजीनियरिंग या मेडिकल की पढ़ाई की तैयारी के लिए भी नहीं कहा। अमोल अच्छे से जानता था कि वो मेधावी तो है पर इतना नहीं कि किसी भी प्रतियोगी परीक्षा के पास करने की गारन्टी हो, लिहाज़ा उसने बारहवीं के बाद उस दौर के अन्य सहपाठियों की तरह किसी भी प्रतियोगी परीक्षा की कोचिंग में दाखिला नहीं लिया। विष्णु भी पढने में ठीक था। विष्णु के पिताजी की नौकरी, अमोल के पिताजी की तुलना में बेहतर थी और उसके बड़े भाई भी एयर-फ़ोर्स में कॉर्पोरल के पद पर नौकरी कर रहे थे। गाँव में थोड़ी-बहुत कृषि योग्य जमीन भी थी। जिस घर में विष्णु का परिवार रह रहा था वो एक पुराना हाता था जिसका बहुत ही मामूली किराया देना पड़ता था। अमोल किराये के मकान में रहते-रहते अभी हाल-फ़िलहाल ही दो कमरों के एक क्वार्टर में शिफ्ट हुआ था जिसकी पगड़ी देने के लिए उसके पिताजी को जो थोड़ी बहुत खेती की ज़मीन थी, वो बेचनी पड़ गयी थी। किसी तरह खींचतान कर अमोल के पिताजी गृहस्थी की गाड़ी खींच रहे थे। अमोल इस बात को अच्छे से समझता था। इस क्वार्टर को खरीदने से पहले तो और मुश्किल समय था जब कमरे का किराया भी देना पड़ता था। अमोल यादों के महासागर में गोते लगाये ही जा रहा था। बीते वक़्त के पर्दों की परतें-दर-परतें हटती जा रहीं थीं। एक एक कर कठिन समय के चित्र अमोल की आँखों के सामने से गुजरते जा रहे थे। उसे याद आया कि कैसे केवल दाल या केवल सब्जी से ही पूरा परिवार संतुष्टि के साथ काम चला लेता था। अमोल का पूरा परिवार बहुत ही स्वाभिमानी था। क्या मजाल कि किसी पड़ोसी या रिश्तेदार को उनकी तकलीफों की भनक भी पड़ जाए। एक बार किसी रिश्तेदार के घर अमोल को रात में रुक जाना पड़ा। उस रिश्तेदार के यहाँ सभी को रात में दूध पीने की आदत थी। अमोल के लिए भी दूध का एक गिलास भरकर सामने रख दिया गया। “मुझे दूध अच्छा नहीं लगता”, अमोल ने ये कहकर दूध पीने से इंकार कर दिया। अमोल अपने घर पर कभी-कभी ही दूध पी पाता था, वो भी जब जबरदस्ती पिलाया जाता था, जैसे कि बुखार आ जाये या परीक्षा हो। अमोल इसलिए किसी और के घर दूध नहीं पीना चाहता था क्योंकि उसके मन में कहीं एक ये विचार घर कर बैठा हुआ था कि अगर उसने दूध पी लिया तो लोग सोचेंगे कि देखो कैसा लालायित था बेचारा दूध के लिये। इसकी जगह या फिर लोग सोच लें कि उसके घर दूध इसीलिए कम जाता है कि बच्चों को अच्छा ही नहीं लगता। बच्चे जब दूध पीना ही नहीं चाहते तो किसके लिए फ़ालतू में लिया जाये ज्यादा दूध। “किसका फोन था जो इतनी सोच में डूब गए”, पायल ने पूछा “आज ऑफिस नहीं जाना है क्या”? “हाँ हाँ क्यों नहीं जाना है? चाय बन गई क्या, ले आओ”, अमोल ने यादों के भँवर से बाहर आकर कहा। “अरे! कब से सामने तो रखी है, पर तुम पता नहीं कहाँ खोये हुए हो”, पायल ने कहा। “और हाँ पानी गर्म हो गया हो गया होगा अब तक गीजर में, नहा कर, पूजा कर आओ तो पराठे सेंक दूँ”, पायल ने जैसे रोज का रूटीन याद दिलाने की कोशिश की हो अमोल को इस चिंता में कहीं वो ऑफिस जाना तो नहीं भूल गया। अमोल को ऑफिस जाते समय इतना खोया हुआ देखकर उसके मन में सहज ही इस चिंता ने जन्म ले लिया था, उसे अमोल के लेट हो जाने की चिंता थी। अमोल ने चाय का कप होंठों से लगाया ही था कि उसे याद आया कि कैसे जब किताब लेने वो विष्णु के घर जाता था तो उसे उसके घर से बिना चाय पिए आने नहीं दिया जाता था। विष्णु का परिवार उसे अपने परिवार जैसा ही लगता था। विष्णु की बहनें तो अमोल को राखी भी बांधती थीं। पर उसे विष्णु के घर का माहौल थोड़ा अजीब सा लगता था। एक तो पुराना हाता जिसमें  वैसे ही बंद-बंद और घुटन भरे अँधेरे कमरों वाले घर होते हैं ऊपर से उसके घर के पास से गुजरने वाली नाली की अप्रिय गंध, परन्तु विष्णु के लिए अमोल वो सब बर्दाश्त करता था। अमोल का घर चाहे किराये का रहा हो या फिर अभी वाला क्वार्टर, कभी भी दुर्गन्ध-पूर्ण नहीं रहा और वो हमेशा से ही खुले-खुले घरों में ही रहा था। परन्तु क्या करें? अमोल जब कभी भी विष्णु के घर आया तो वो कभी घर पर नहीं मिला। हमेशा ही विष्णु को पास-पड़ोस के उसके अड्डों से बुलाना पड़ता था। पहले-पहल तो अमोल को लगता था कि हाते के दो अँधेरे कमरों और दुर्गन्धयुक्त बरामदे के माहौल से बचने के लिए शायद विष्णु कभी घर पर नहीं रहता परन्तु बाद में पता चला कि विष्णु को कैरम और शतरंज का बहुत शौक था और वो अपनी पढाई के साथ-साथ इन दोनों खेलों का भी माहिर खिलाड़ी था। पहले मोहल्ला स्तर, फिर शहर स्तर और प्रदेश स्तर के बाद शतरंज में उसकी नेशनल ओर फिर इंटरनेशनल रैंकिंग भी हो गई थी। इन सबके आलावा विष्णु आस-पड़ोस के बच्चों को ट्यूशन भी देता था। शुरुआत में अमोल विष्णु के घर चला जाता था तब विष्णु को ढूँढा जाता था परन्तु फिर अमोल को पता चला कि विष्णु लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय है और ट्यूशन के कमाए हुए पैसों से आस-पड़ोस के जरुरतमंदों की मदद भी करता रहता है तो वो विष्णु की गली में पहुँचकर उसे स्वयं ही ढूँढ लेता और फिर वो दोनों वहीँ खड़े होकर घंटों बातें करते रहते। विष्णु और अमोल पढाई और कैरियर की चिंता के साथ-साथ अपनी पारिवारिक समस्याओं की भी चर्चा कर लेते थे। इस तरह धीरे-धीरे अमोल और विष्णु की मित्रता की घनिष्टता बढ़ने लगी थी। विष्णु के भाई के विवाह में अमोल और उसकी बहनों से सगे भाई-बहनों जैसा ही वर्ताव किया गया। अमोल का कोई बड़ा भाई नहीं था और अमोल की हसरत थी कि काश कोई उसका भी बड़ा भाई होता जैसे उसके अन्य मित्रों के बड़े भाई हैं तो कितना अच्छा होता। अमोल को बड़े भाई का रिश्ता बहुत अच्छा लगता था। विष्णु के भाई को पूरे आदर के साथ चरण स्पर्श करता और उनकी शादी में छोटे भाई का रुतवा पाकर तो अमोल फूला नहीं समा रहा था। भाभी के प्रति भी अमोल का वैसा ही आदर था जैसा शायद अमोल अपनी सगी भाभी के लिए भी आदर भाव रखता। उसको बदले में छोटे भाई को मिलने वाला स्नेह भी अवश्य ही मिलता था। विष्णु से किताबों की बहुत मदद हो जाती थी अमोल को। विष्णु से दोस्ती का रिश्ता दिनों-दिन प्रगाढ़ ही होता गया और लगभग एक परिवार जैसा ही रिश्ता था। विष्णु को भी अमोल के घर में, अमोल के भाई जैसे ही वर्ताव मिलता था।

वक़्त बीतता गया। अमोल और विष्णु के पहले विद्यालय अलग-अलग हुए और फिर शहर भी। अमोल की एक छोटी सी सरकारी नौकरी लग गई। अमोल के परिवार के लिए तो ये मन मांगी मुराद के पूरी होने जैसा था। माता वैष्णो देवी के मंदिर के दर्शन के लिए पूरे परिवार की यात्रा और जहाँ-जहाँ की भी मान्यताएं थीं, सब पूरी की जाने लगीं।  विष्णु ने भी एयर-फ़ोर्स, नेवी, डिफेन्स की परीक्षाएं दीं और बैंक भर्ती में भी अजमाइश की लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी। एकाध प्रयास के बाद विष्णु ने नौकरी पाने के प्रयास छोड़ दिए। पहले अपनी कोचिंग पर ध्यान दिया और सफलता हाथ लगते ही उसने इस क्षेत्र में ही स्थापित होने का निश्चय किया। विष्णु सामाजिक तो था ही। अपने सम्पर्क-सूत्रों की मदद से थोड़े दिनों में विष्णु ने परिषद् से बारहवीं तक विद्यालय की मान्यता प्राप्त कर एक इंटर कालेज खोल दिया जो धड़ल्ले से चल निकला। विष्णु और अमोल दोनों एक-दूसरे के लिए खुश थे कि चलो अब दोनों के ही कैरियर की फ़िक्र नहीं करनी पड़ेगी। अमोल की नौकरी में स्थानांतरण बहुत होते थे फिर भी यदा-कदा अमोल और विष्णु की मुलाकातें हो ही जाती थीं। आख़िरी बार उनकी मुलाकात विष्णु के विवाह में हुई थी। तब भी अमोल शहर से दूर पदस्थापित था और विष्णु की शादी के लिए खासतौर पर दो-तीन दिन की छुट्टी की अर्जी लगाकर आ सका था। उसके बाद तो अमोल और विष्णु दोनों ही अपने-अपने करियर और परिवार की जिम्मेदारियों की मशरूफ़ियत के चलते मिल नहीं सके थे। और ये वक़्त का फासला दिनों या महीनों का नहीं था बल्कि कई वर्षों की बात थी। यहाँ तक कि उनकी फोन पर भी बात नहीं हो पाई थी। इसीलिए आज विष्णु का फोन अमोल के लिए एक सुखद आश्चर्य का विषय था। पायल ने अमोल के सामने खाना लाकर रख दिया था। अमोल ने घड़ी की ओर दृष्टि डाली और जल्दी-जल्दी भोजन करके ऑफिस के लिए निकल गया। अमोल ने दृढ निश्चय कर लिया था कि अबकी बार लखनऊ की यात्रा में वह विष्णु से अवश्य मुलाकात करेगा।

“और सुनाओ क्या हालचाल हैं?”, विष्णु ने अमोल से पूछा “कब आये लखनऊ?, तुम्हारे तो बाल भी सफ़ेद हो गए, देखा भी तो बहुत दिनों के बाद है”, विष्णु बोल रहा था। विष्णु बोल रहा था और अमोल ठगा सा खड़ा विष्णु को देख रहा था। बहुत अथक प्रयासों के बाद ही अपने आँखों में ही आँसुओं को रोक पा रहा था। “ये सब क्या है? ये तुम्हें क्या हो गया? और उस दिन फोन पर कुछ क्यों नहीं बताया तुमने? अंकल और आंटी कहाँ हैं”, अब प्रश्नों की बारिश अमोल की तरफ़ से हो रही थी।  विष्णु की पत्नी ने अमोल के सामने एक छोटी सी मेज़ रख कर उस पर दो कप चाय और बिस्कुट रख दिए। अमोल ने एकबारगी विष्णु की पत्नी की ओर देखा तो वह उसे अपनी उम्र से कहीं नज़र आई। अमोल को अपनी ओर देखते पाकर हलके से मुस्करा पड़ी। विष्णु की पत्नी चुपचाप फिर से अन्दर कमरे में चली गई। अमोल ने फिर से विष्णु की ओर एक सवाल उछल दिया, “बताओ विष्णु क्या हुआ है इस बीच तुम्हारे साथ”।  यह पूछते-पूछते अमोल की आँखें पूरे कमरे का मुआयना भी कर रहीं थीं।  घर के हालात बता रहा थे कि विष्णु कठिनाई के दौर से गुज़र रहा था।  “तुम चाय तो पीओ पहले”, विष्णु ने कहा। “तुम भी पिओ”, अमोल ने कहा। विष्णु की पत्नी फिर से बाहर आकर एक स्टूल डालकर उस पर बैठ गई। “भईया आप चाय पीजिये, इन्हें मैं पिलाती हूँ”, विष्णु की पत्नी ने कहा। “मतलब”, अमोल थोड़ा-बहुत भाँप चुका था। अमोल ने विष्णु की ओर देखा। विष्णु मुस्कुरा रहा था परन्तु कोई दर्द था जो उसकी आँखों में छलक आया था।  “दो साल पहले इनको लकवा मार गया था”, दाहिने हाथ और पैर पर उसका असर आज भी है”, अब विष्णु की पत्नी अमोल को बता रही थी। अमोल के दिमाग में एकाएक कुछ कौंध सा गया। लकवा मार गया। दाहिने हाथ और पैर में। तो क्या वो अब कुछ काम कर पाता है। उसका स्कूल, ट्यूशन कैसे करता है, या नहीं कर पाता है। विष्णु की पत्नी कुछ न कुछ बोल रही थी पर अमोल तो सुन ही नहीं रहा था, उसके दिमाग में तो विष्णु के लिए असमंजश के सवाल उमड़-घुमड़ रहे थे। “अब कुछ भी करना मुश्किल हो गया है, स्कूल, ट्यूशन और यहाँ तक कि अपने खुद के रोजमर्रा के काम भी”, विष्णु की आवाज़ थी जैसे उसने अमोल के सवालों को सुन लिया हो।  “आखिर ये सब कुछ हुआ कैसे विष्णु”, अमोल की तन्द्रा भंग हुई तो उसने विष्णु से प्रश्न किया। “सब कुछ गुस्से और कलह की परिणिति है”, विष्णु ने बोलना शुरू किया तो अमोल ने गौर किया कि उसकी जबान भी लड़खड़ा रही है। विष्णु की पत्नी अंकिता फिर से वहां से उठकर अन्दर वाले कमरे में दरवाजे से सटकर कड़ी हो गई थी। “सब ठीक चल रहा था। अच्छी कमाई हो रही थी और उसी हिसाब से खर्च भी”, विष्णु लडखडाती हुई जबान से बोला।  विष्णु के अगले शब्दों में कुछ ऐसा था जिनकी कड़वाहट को अमोल ने विष्णु के बोलने से पहले ही महसूस किया। विष्णु बोलना जारी रखे हुए था, “परन्तु मम्मी और अंकिता की कभी बन नहीं पाई”। मम्मी की छोटी-छोटी बातों पर ऐतराज़ और अंकिता की जबाब-दराजी के चलते घर में बहुत कलह रहा करती थी। पापा मेरे बहुत सीधे-सादे थे, तुम तो जानते ही हो अमोल। वो मम्मी और अंकिता दोनों को समझाते थे परन्तु दोनों अपनी-अपनी आदत से मजबूर थीं। पापा की मृत्यु के बाद मम्मी और अंकिता के बीच की कटुता और ज्यादा बढ़ गई थी। तुम्हें तो मेरी मम्मी की आदत पता ही है। पहले भी मैं मम्मी से नाराज़गी के चलते ही हफ्ते में कई-कई व्रत रखा करता था। अमोल को याद आया कि विष्णु सोमबार, मंगलवार, बृहस्पतिवार और शुक्रवार का व्रत रखा करता था। अमोल के समझाने पर विष्णु कहता कि अपनी तरक्की और मनचाही नौकरी के लिए करता है ये व्रत। “तुम्हें याद होगा”, विष्णु ने कहा कि जब तुम कहते थे की कुछ खा लो तो मैं कहता था कि मैं व्रत की बहुत सारी सामग्री का सेवन करता हूँ, परन्तु मैं झूठ बोलता था, मैं मम्मी से नाराज़गी के चलते जिद में कुछ भी नहीं खाता था। वो व्रत सिर्फ तुम्हें बताने के लिए बहाने होते थे। मम्मी को सब पता था कि व्रत के चलते नहीं बल्कि नाराज़गी के चलते भूखा रहकर अपने शरीर को सजा देता हूँ। वो मेरे सामाजिक सरोकारों को आवारागर्दी समझती थीं। शतरंज और कैरम को भी पसंद नहीं करती थीं। उनको बहुत समझाया कि कोई भी फ़ालतू वक़्त बर्बाद नहीं करता हूँ या फिर आवारागर्दी नहीं करता हूँ, पर मम्मी को कभी भी मेरी बात पर विश्वास नहीं हुआ। इस बात का मुझे बहुत दुःख रहा कि उन्होंने कभी मेरा विश्वास नहीं किया और पढ़ाई में अच्छा करने के बाद भी उन्होंने मुझे आवारा ही कहा। अमोल ने सोचा कि विष्णु बिलकुल सही कह रहा है, उसकी मम्मी का व्यवहार विष्णु के प्रति सदैव अजीब सा लगता था। अमोल हमेशा सोचता था कि उसकी मम्मी हमेशा उसे तंज़ क्यों मारती रहती हैं परन्तु ये सब विष्णु के घर का मामला है सोचकर कभी कोई शक नहीं किया। “फिर क्या हुआ, लकवा कैसे मार गया”, अमोल ने पूछा।  पापा की पेंशन मम्मी के लिए बंध चुकी थी। एकमुश्त पैसा भी काफी मिला था परन्तु मैंने कभी उसके बारे में पूछा नहीं। भईया एयर-फ़ोर्स में थे, अपने परिवार के साथ दूर रहते थे तो परिवार के मसलों से भी दूर थे। दोनों बहनों की शादी मैंने की, पापा को खर्च नहीं करने दिया। ये हाते का मकान अपने साथ-साथ अपनी माँ के नाम से ख़रीदा। परन्तु भईया ने कभी आकर सुध नहीं ली। आते भी थे तो एक मेहमान की तरह। मेरे बच्चों को तो कभी नज़र भर कर देखा भी नहीं।  एयर-फ़ोर्स की शार्ट-सर्विस की अवधि पूरी करने के बाद यहीं पर एक दूसरी अच्छी सरकारी नौकरी लग गई थी उनकी पर इसी शहर में रहने के वावजूद भी साल में एक या दो बार ही आते थे वो। एक दिन मम्मी ने मुझसे कह दिया कि तुम अपनी बीबी और बच्चे लेकर अपना अलग हिसाब-किताब देख लो। लिहाज़ा ये ऊपर के फ्लोर पर हमने अलग अपनी गृहस्थी जमा ली थी। परन्तु झगड़े और कलह से पीछा नहीं छूटा। इन्हीं झगड़ों और कलहों के बीच एक दिन पता नहीं क्या हुआ कि ब्रेन-हेमरेज हो गया। समय से चिकत्सा तो मिल गई पर लकवा मार गया शरीर के पूरे दाहिने भाग में। “पर एक इंजेक्शन के बारे में सुना है कि लग जाये तो लकवा नहीं मारता है, यदि समय से मिल जाये ब्रेन-हेमरेज होते ही, क्या तुम्हारे डॉक्टर को ये पता नहीं था?”, अमोल ने पूछा, “किसने इलाज किया था तुम्हारा?” अब तक रोक लिया था पर अब विष्णु के लिए संभलना बहुत मुश्किल हो रहा था पुरानी कंटीली यादों के नश्तर विष्णु के मन को घायल कर रहे थे, जिनकी पीड़ा अब बाहर निकलकर प्रकट होने ही जा रही थी। विष्णु की आँखों से आँसू छलक आये थे। डॉक्टर ने भईया से कहा था ये इंजेक्शन बहुत जरुरी है नहीं तो लकवा मार सकता है, थोडा मुश्किल से मिलता है। खोजबीन करके जल्दी से जल्दी ले आइये। “तो फिर, भईया नहीं लाये क्या इंजेक्शन”, अमोल ने अत्यधिक अचम्भे और संशय से कहा। विष्णु ने उसकी आँखों से ढुलक आये आँसुओं को गमछे से पोंछा। अमोल ने महसूस किया कि विष्णु के चेहरे पर दर्द और अफ़सोस का मिला-जुला रँग उतर आया था। “अगर भईया के लिए, भगवान न करे, ऐसे किसी इंजेक्शन की जरुरत पड़ी होती तो मैं इस शहर क्या आस-पास के भी किसी शहर से ले आया होता, अपने आप को बेच देता पर इंजेक्शन जरुर खरीद कर लाता”, विष्णु ने कहा। क्या अनिष्ट हुआ होगा इसका अंदाजा अमोल को अब सहज ही हो गया था। अमोल लगातार बोल रहा था, “भईया को पता था कि इंजेक्शन महंगा है, और ये भी कि ये बहुत जरुरी है परन्तु फिर भी उन्होंने वो इंजेक्शन लाकर डॉक्टर को नहीं दिया। अंकिता ने भी कोई प्रयास नहीं किया कि भईया तो गए हैं ढूँढने के लिए। पर डॉक्टर अस्पताल में इंजेक्शन का इंतज़ार ही करते रह गए और भईया अपने घर जाकर सो गए”, विष्णु के इतना कहते ही उसके साथ-साथ उसकी पत्नी के भी आँसू बह चले थे। अमोल ने महसूस किया कि दरवाजे की ओट में खड़े उसके दोनों बच्चों की आँखों में भी आँसू थे। “जब कहीं नहीं मिल रहा था इंजेक्शन तो यहाँ आकर क्या करता? भईया ने अगले दिन ये बताया था आकर। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इंजेक्शन देने का समय बीत चुका था”, विष्णु ने असहनीय दर्द को नियन्त्रित करते हुए बताया। अमोल की आँखें भी आँसुओं से छलछला आईं थीं।  कुछ देर के लिए सभी शांत होकर बैठे रहे। अमोल ही बोला, “क्या इसका इलाज नहीं है कोई”? अमोल के इस प्रश्न का उत्तर न देकर आपबीती जारी रखी। “इस बीच कोविड महामारी आ गई तो ट्यूशन में आने वाले बच्चे भी आने बंद हो गए। कोई देखने वाला नहीं था तो स्कूल के अन्दर भी घपले होने लगे। स्कूल में भी अगले साल के लिए एडमिशन नहीं हुए, स्टाफ की सैलरी देने के बाद घाटा होने पर उसे भी बंद करना पड़ा। कुछ दिनों तक बचे हुए पैसों से इलाज हुआ फिर वो भी चुक गए। मम्मी ने इस विकट स्थिति में भी सहायता देना सही नहीं समझा। कुछ सामाजिक संपर्क काम आ गए और विकलांगता का प्रमाण-पत्र बन गया जिससे विकलांगो को मिलने वाली एक सरकारी पेंशन बंध गई। कुछ मदद एकाध रिश्तेदारों ने यदा-कदा कर दी। पर यह सब इतना ही रहा कि जीवित रहा जा सके, इलाज कैसे करवाता”, विष्णु बोल चुका था। अमोल सोच रहा था कि कोई माँ इतनी निष्ठुर कैसे हो सकती है कि सक्षम होते हुए भी विपरीत स्थितियों में भी अपने बेटे के लिए ममतत्व तो छोड़ो दया-भाव भी नहीं जगा और कैसा निष्ठुर बड़ा भाई है जो घी चुपड़ी रोटियाँ खाते समय ये नहीं सोचता होगा कि उसका छोटा सगा भाई इलाज के बिना और बदतर स्थिति में पहुँच जायेगा, कैसे उस भाई को चैन को नींद आती होगी, कैसे उसने पैसे को अपने भाई की ज़िन्दगी से बड़ा समझा। अमोल को अफ़सोस हुआ कि उसने भी कभी एक बड़े भाई की तरह विष्णु के बड़े भाई को मान दिया था। विष्णु के बड़े भाई के लिये उत्पन्न घृणा से अमोल का मुँह विषाक्त हो चला परन्तु अमोल अभी भी यह यकीन नहीं कर पा रहा था कि विष्णु की माँ ने भी अत्यधिक दुरूह विपरीत समय में अपने पुत्र का भला नहीं सोचा। विष्णु की आवाज से खुद में खोया हुआ अमोल चौंका, “पता नहीं कितना अभागा हूँ मैं”, विष्णु कह रहा था।

अमोल की सरकारी नौकरी जरुर थी पर उसकी तनख्वाह से जैसे-तैसे गुज़ारा हो जाता था। इस नौकरी से न तो किसी भी प्रकार की संपत्ति जुटा पाया था अमोल और न ही किसी भी प्रकार की भारी-भरकम बचत कर पाया था। बच्चों की स्कूल फीस, मकान का किराया और माँ के अनवरत इलाज के चलते वेतन के आने से पहले ही उसके निकलने की राहें बन जाती थीं। कभी भी उपरी कमाई का न उसके मन में ख्याल आया और न ही प्रयास किया। अमोल सोच रहा था कि आज अगर उसने भी ज़माने के दस्तूर के तहत उपरी कमाई से मजबूत स्थिति कर ली होती तो अपने दोस्त की मदद में कितना सक्षम होता। अमोल को पहली बार उपरी कमाई न कर पाने का नुकसान पता लगा परन्तु अगले ही क्षण उसने ऐसे विचारों को झटके से दूर किया “ये पाप मुझसे नहीं होगा”, अमोल बुदबुदाया। उसने कुछ निश्चय किया और विष्णु से बोला कि जिस डॉक्टर के इलाज की तुम बात कर रहे थे कि उसने बहुत से लकवाग्रस्त मरीजों को सही किया है, उससे अपना इलाज करवाओ और मुझे बता दो कि क्या खर्च आएगा, मैं देखता हूँ, कुछ करता हूँ। निराशा के गहरे सागर में इतने दिनों से गोते खा रहे विष्णु को तो सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि अमोल ने ऐसा कुछ कहा है परन्तु उसे ऐसा लगने पर कि उसने जो सुना है वही अमोल ने कहा है तो विष्णु ने कहा कि वो डॉक्टर बहुत खर्चीला है। तुम उसकी फ़िक्र मत करो दोस्त बस मुझे खर्चा बता दो कितना हो सकता है और अपना इलाज शुरू करने के लिए वैध से बात कर लो। “तुम सच कह रहे हो अमोल”, विष्णु ने कहा। “बिलकुल यार”, अमोल का जबाब था।

घर पहुँचकर अमोल ने अपनी पत्नी को यह बात बताई। अमोल के किसी भी दोस्त को बहुत कम जानती थी उसकी पत्नी। इसका कारण शायद विवाह तय होते ही अमोल का स्थानान्तरण हो जाना रहा हो। अमोल की पत्नी बहुत संतोषी प्रवृत्ति की थी। बिलकुल साधारण जीवन-यापन होते हुए भी कभी कोई शिकायत नहीं। ज़िन्दगी की आपाधापी में फुर्सत के पल भी नहीं मिलते थे। हमेशा कोई न कोई समस्या बनी ही रहती थी फिर भी कोई ग़म नहीं। अमोल की हमेशा थोड़ी-बहुत मदद करने की आदत के चलते अक्सर तंगी के बाद भी थोडा-बहुत यदा-कदा अतिरिक्त ख़र्च कर देने पर भी कोई शिकायत नहीं करती थी परन्तु यह रक़म बहुत बड़ी थी लिहाज़ा पहले से बात करनी ही होगी, अमोल ने सोचा। मन में आशंका के साथ उसने ये बात अपनी पत्नी को बताई। डरते-डरते कहा कि उसके इलाज़ के लिए प्रबंध करने का आश्वासन देकर आया है। “हाँ, कर दीजिये मदद अगर कर सकते हैं तो”, उसकी पत्नी ने कहा परन्तु रकम सुनकर उसकी त्योरियां चढ़ गईं। इतनी बड़ी रकम चाहिए, ये तो बहुत ज्यादा है। “अगर उधार ले लूँ तो”, अमोल ने डरते-डरते कहा। नहीं कभी नहीं। इतना बोलकर अमोल की पत्नी वहां से चली गई। ओह्ह! लगता है बताकर गलत किया। अमोल ने निश्चय किया कि वो विष्णु की मदद तो जरुर करेगा चाहे उसे यह बात अपनी पत्नी से छुपानी ही क्यों न पड़े। विष्णु अपनी डायरी में लोन वाले कारिंदे का नम्बर ढूँढने लग गया।

थोड़ी देर में पत्नी लौटी तो उसके हाथ में एक छोटी सी अटैची और एक पीले रंग का बड़ा सा लिफाफा था। अमोल ने सोचा पत्नी क्या इतनी नाराज हो गई है की अटैची लेकर जा रही है, क्या पहली बार नाराज होकर घर छोड़कर जा रही है। “यह सब क्या है? कहाँ जा रही हो”, अमोल ने शंका प्रकट की। “घबड़ा क्यों रहे हो? घर छोड़कर नहीं जा रही हूँ। इतनी जल्दी तुम्हारा पीछा नहीं छूटेगा”, यह कहकर अमोल की पत्नी ने लिफाफा और अटैची अमोल के हाथों में थमा दिये। “ये वो पालिसी है जिसे हमने अपने छोटू के लिए आज से पन्द्रह साल पहले लिया था कि जब उसकी पढ़ाई का बड़ा खर्च आएगा तो काम आएगी, आप इसे अपने दोस्त के इलाज के लिए कैश करा लीजिये। बैंक से फोन आया था, ये अभी दो दिन बाद मैच्योर हो जायेगी। बच्चों की जो फीस जमा करनी थी उसके लिए मैंने कोचिंग से बात कर ली है, जीरो इंटरेस्ट पर लोन हो जायेगा और इस तरह रकम किश्तों में दी जा सकेगी। इस अटैची में मेरे जमा किये हुए कुछ पैसे भी हैं और थोड़े जेवरात जो पड़े-पड़े सड़ रहे हैं। मैंने हिसाब किया है, पर्याप्त हैं आपके दोस्त के इलाज के लिए। और हाँ केवल एकमात्र विष्णु ही नहीं है आपका दोस्त, जिस तरह आपके दोस्त विष्णु ने आपसे अपनी बात बता दी, उसी तरह आप भी अपने दोस्त को अपनी बात बताते समय कोई संकोच मत किया करिए। विष्णु के अलावा दोस्त, क्या उसकी पत्नी ने उसे अपना दोस्त कहा? इस नजरिये से तो कभी देखा ही नहीं उसने अपनी पत्नी को। उसकी नजर में अपनी पत्नी के लिए सहसा आदर और प्रेम एक साथ उमड़ आये। “दोस्त”, उसके होंठ यूँही बुदबुदा उठे।

अमोल ने विष्णु को फोन मिलाया, “अपने इलाज की तैयारी करो विष्णु, बिना किसी फ़िक्र के और मुझे बता दो कि पैसा कब और कैसे भेजना है”। उधर से विष्णु की रुंधे गले से आवाज आई, “मैं तो बेकार में अपने को अभागा कहता फिर रहा था। अरे जिसका तुम्हारे जैसा दोस्त हो वो अभागा कैसे हो सकता है? जब अपने सगे भाई और माँ ने भी ....”। विष्णु अपनी बात पूरी न कर सका। अमोल ने बात काटते हुए कहा, “अब ज्यादा समय व्यर्थ मत करो और डॉक्टर से बात कर लो और अपोइन्टमेंट फिक्स कर लो”।  अमोल को फोन पर विष्णु की बेटी की उत्साहपूर्ण आवाज सुनाई दे रही थी, “पापा मैं डॉक्टर से बात करती हूँ”। विष्णु शायद स्पीकर पर बात कर रहा था। अमोल का नया दोस्त दूर से नम हो आईं आँखों के साथ अमोल को मुस्कुराहट और उसके दोस्त पर अभिमान एवं सम्मान के साथ देख रहा था।

(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”

Dr.Vijay Laxmi

Dr.Vijay Laxmi

अभागा कहानी बहुत ही भावपूर्ण है पता नहीं क्यों आज अपनों की भावसंवेदनायें शून्य होती जा रही हैं ।मेरी भी रचनाओं पर अपने विचार व्यक्त करें ।

23 जनवरी 2024

दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"

दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"

मेरी छोड़ो, तुम बताओ, तुम क्या कर रहे हो? उसी नौकरी में हो या कुछ और कर रहे हो? प्रोमोशन हो गया होगा अब तो। बड़े अफसर बन गए होगे, है न? .................................................... इसी कहानी से

15 नवम्बर 2023

राजलक्ष्मी

राजलक्ष्मी

सचमुच दोस्ती ऐसे ही होनी चाहिए

4 नवम्बर 2023

दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"

दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"

4 नवम्बर 2023

धन्यवाद , कृपया और कहानियों पर भी अपने विचार व्यक्त करें

दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"

दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"

कृपया अपनी अमूल्य टिप्पणियों से मार्गदर्शन कर प्रोत्साहित करें 🙏

20 अगस्त 2023

7
रचनाएँ
नील पदम् की कहानियाँ
5.0
अभागा, निशानी, हाथ का बुना स्वेटर, लूट का माल एवं नील पदम् लिखित अन्य कहानियाँ
1

अभागा

20 अगस्त 2023
7
2
4

माँजी ने आवाज़ दी, “तुम्हारा फोन है बबलू”।  “मेरा फोन!, तुम्हारे फोन पर कैसे”, अमोल ने माँ से कहा। फिर याद आया कि पहले ये नंबर उसके मोबाइल में था, बाद में माँ जी के फोन में बी०एस०एन०एल० का ये सिम

2

हाथ का बुना स्वेटर

10 सितम्बर 2023
8
3
4

आकाश एक बच्चे के नीले ब्लेजर को बड़ी ही हसरत से देख रहा था।  “पापा मुझे भी ऐसा ही एक ब्लेजर दिला दो”, आकाश ने पराग के हाथ को धीरे से खींचकर कहा। “अरे क्या करेगा उसे लेकर”, पराग ने कहा, “देख न कैसे ठण

3

एक हैसियत

21 सितम्बर 2023
1
2
1

एक हैसियत सागर किसी तरह अपने कपड़े झाड़कर खड़ा हुआ। उसने महसूस किया कि उसके घुटने मोड़ने या सीधे करने पर दर्द का चनका उठता था। पास में ही एक चक्की के टूटे हुए दो पाट एक के ऊपर एक रखकर बैठने लायक ऊंचाई

4

लूट का माल

6 अक्टूबर 2023
3
4
4

लूट का माल (1) सर्द मौसम था परन्तु एक ख़ुशगवार शाम थी वो। लेकिन शहर में गर्म अफवाहों ने फिज़ा में इतना तनाव भर दिया था कि किसी का ध्यान मौसम की ओर नहीं था। साइकिल के पैडल पर जोर-जोर से पैर मारकर वो

5

निशानी

24 सितम्बर 2023
2
3
6

“सुना है तुम छुआछूत की समस्या पर कटाक्ष करता हुआ कोई नाटक करने वाले हो इस बार अपने स्कूल में”, संतोष भईया ने मुझसे शाम को खेलते समय पूछा, “और उस नाटक की स्क्रिप्ट भी तुमने ही लिखी है, बहुत बढ़िया”।

6

मनी-प्लांट

20 अक्टूबर 2023
3
2
2

मनी-प्लांट (1) क्या कर रही हो दादी? इस पौधे को क्यों तोड़ रही हो? क्या दिक्कत हो रही है इनसे तुमको? बोलती क्यों नहीं दादी? अपने पोते के एक के बाद एक प्रश्नों को अनसुना कर मिथलेश कुमारी अपने काम में

7

समर की अमर दोस्ती

24 सितम्बर 2023
2
3
2

डोरबेल की कर्कश आवाज से उन दोनों की नींद खुल गई। हड़बड़ाते हुए मिश्रा जी और उनकी पत्नी उठे। मिश्रा जी ने तुरंत लाइट जलाकर घड़ी पर नज़र डाली। “अरे! बाप रे बाप, पाँच बज गए, तुमने उठाया क्यों नहीं”, मिश्रा

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए