आकाश एक बच्चे के नीले ब्लेजर को बड़ी ही हसरत से देख रहा था। “पापा मुझे भी ऐसा ही एक ब्लेजर दिला दो”, आकाश ने पराग के हाथ को धीरे से खींचकर कहा। “अरे क्या करेगा उसे लेकर”, पराग ने कहा, “देख न कैसे ठण्ड से काँप रहे हैं वो सब, ये भी कोई सर्दी की पोशाक हुई भला, पूरी खुली हुई सामने से। अगर छाती में ठंडी हवा समा गई तो निमोनिया हो जाए”। “अगर सर्दी लगती है ब्लेजर में तो फिर क्यों पहनते हैं वो सब”, आकाश ने अविश्वाश और रोष के साथ पराग से नाराजगी व्यक्त करता प्रश्न दाग दिया। पराग ने प्यार से आकाश के बालों में हाथ फ़ेरते हुए कहा कि अरे मेरे प्यारे बेटे वो तो उस स्कूल की यूनिफार्म है। ये तो यहाँ पढ़ने वाले बच्चों के लिए पहनना अनिवार्य है। “मेरे स्कूल में क्यों नहीं है अनिवार्य कोई भी इस तरह की यूनिफार्म”, आकाश ने बाल-सुलभ प्रश्न किया। क्योंकि बेटा तुम्हारे स्कूल में पढ़ाई होती हैं, यहाँ पर पढ़ाई कम चोंचले ज्यादा हैं। चोंचले क्या होता पापा। बेटा इस स्कूल में धन-कुबेरों, रईसजादों के बच्चे पढ़ने आते हैं जिन्हें पढ़ाई से कम फ़ालतू बातों में ज्यादा मन लगता है। पढ़ाई कम दिखावा ज्यादा। चोंचले मतलब दिखावा, है न पापा। पराग के चेहरे पर हँसी की हल्की लहर आकर चली गई। यही समझ ले बेटा। बेटा! वो सब तो यहाँ अपने सिर्फ शौक पूरे करने आते हैं। कभी ब्लेजर, कभी जर्सी, कभी जैकेट, चार-चार तरह की यूनिफार्म। खेलने की अलग, पढने की अलग। उन्हें कौन सा पढ़ाई करके तेरे जैसा अपने पापा-मम्मी का नाम ऊँचा करने की इच्छा है। उनके बाप-दादों की अथाह दौलत है, जिस पर ऐश कर रहे हैं। आकाश मन ही मन अविश्वास के रहते भी पराग की बातों से थोड़ा सा संतुष्ट हुआ। पराग इस कान्वेंट स्कूल में अपने मालिक के किसी काम से आया था। आकाश के स्कूल की छुट्टी का समय हो चुका था इसलिए पहले उसके स्कूल से उसे साथ लेकर आया था। “चल चलते हैं, यहाँ का काम ख़त्म हुआ”, पराग ने आकाश को गोद में उठाकर साइकिल पर बिठाते हुए कहा। साइकिल पर भी आकाश बोलता ही जा रहा था। पापा निमोनिया क्या होता है। एक बहुत ही खतरनाक बीमारी होती है, जिसमें फेफड़े ख़राब हो जाते हैं। फेफड़े ख़राब होने से क्या होता है। तबियत ख़राब हो जाती है बेटा। तो क्या फिर वो मर जाता है। ऐसे नहीं कहते बेटा। क्यों नहीं कहते पापा। नहीं कहते हैं बेटा। “अच्छा ये बताओ आज स्कूल में क्या हुआ था”, पराग ने विषय को बदलने की गरज से आकाश से पूँछ लिया। आज मेरे मार्क्स मिले हैं पापा। मालूम है पापा, आकाश कुछ जल्दी से बता देना चाहता था। मेरे मैथ और साइंस और इंग्लिश में फुल मार्क्स हैं। बहुत अच्छे बेटा, मेरा होशियार बेटा, बहुत प्यारा है। पराग ने आकाश के सिर को हलके से चूम लिया। बदले में आकाश ने पीछे घूमकर प्यार से मुस्कुराकर अपने पापा को देखा। पराग साइकिल पर पैडल मार रहा था, आकाश से बातें भी कर रहा था पर मन से जैसे वहाँ से होते हुए भी अनुपस्थित था। आकाश को दिलासा देते-देते कब उसकी आँखें भर आईं वो जान नहीं पाया। “तुम रो क्यों रहे हो पापा, मुझे ब्लेजर नहीं चाहिये”, नन्हा आकाश बोला। “रो नहीं रहा हूँ बेटा, आँखों में हवा लग रही है न इसलिए पानी आ गया है”, पराग का जबाब था, “अरे! बस मार्क्स ही दिए गए आज सिर्फ, और कुछ नहीं हुआ स्कूल में”। आज प्रधानअध्यापिका ने मुझसे स्वेटर पहन कर आने को कह दिया है। मैनें उनसे बोला भी कि मैंने अन्दर एक स्वेटर पहन रखा है, परन्तु उनका कहना था कि मैं यूनिफार्म के अनुसार एक फुल स्वेटर ले लूँ। सर्दी बहुत जल्दी बढ़ जायेगी तो ठण्ड लगेगी और अन्दर का ये पतला सा हाफ स्वेटर ठण्ड नहीं रोक पायेगा। पापा! मैंने उनको पता नहीं लगने दिया कि स्वेटर फटा हुआ भी है नहीं तो वो और भी कुछ कहतीं। पापा, मेरा स्वेटर फट चुका है, तो एक स्वेटर दिलवा दो न बाजार से, नहीं तो कहीं मुझे भी निमोनिया हो गया तो, कहीं मैं भी..... । ”चुप कर”, इससे पहले आकाश कुछ और बोलता पराग ने उसे डांटकर चुप करा दिया, साइकिल को ब्रेक लगाकर रोककर उसने प्यार से आकाश को अपने दाहिने हाथ में भरकर कहा, “ऐसा नहीं कहते बेटा, ऐसा कभी मत कहना” । आकाश सहम गया और फिर कुछ समझकर बोला, “सॉरी पापा” । “अरे बाजार से स्वेटर क्यों लेना, वो किस काम का”, पराग ने कहा, “तेरी माँ अपने हाथों से बुन रही है प्योर ऊन का स्वेटर तेरे लिये, वो तो इतना गर्म होता है की सर्दी को भी पसीना आ जाये” । आकाश ने पराग के चेहरे की तरफ देखा तो पाया कि वो मुस्कुरा रहा है, फिर ये समझ कर कि इस बात तो पर तो हँसना चाहिए, आकाश ठठाकर हँस उठा और पराग से पूछा कि क्या हाथ का बुना स्वेटर सचमुच इतना गर्म होता है। “और क्या बेटा, बिलकुल सर्दी नहीं लगेगी”, पराग ने आकाश से बताया। “पर, पापा अभी तो लगती है, जब जब ठंडी हवा चलती है”, आकाश ने कहा “और माँ पता नहीं कब पूरा करेगी वो स्वेटर” । पराग इस बार खामोश ही रहा और तेजी से साइकिल पर पैडल मारने लगा, परन्तु आकाश पूरे रास्ते कुछ न कुछ बोलता ही रहा।
घर पहुँचते ही पराग ने जैसे ही साइकिल रोकी, आकाश झट से साइकिल से कूदकर खाट पर लेटी अपनी माँ के पास पहुँच गया। “माँ मेरा स्वेटर कितना और रह गया है?”, आकाश ने अपनी माँ के सामने प्रश्न उछाल दिया। बस थोड़ी सी बुनाई और रह गई है, पूरा ही होने वाला है। रौशनी ने प्यार से आकाश की ठुड्डी पकड़कर कहा। जा हाथ मुँह धोकर खाना खा ले, रसोई में तेरे आने से पहले ही मैंने गर्म करके रख दिया है। तब तक पराग साइकिल खड़ी करके आकाश का स्कूल बैग लेकर आ चुका था। रौशनी ने पराग पर प्रश्न-सूचक दृष्टि डाली। इंकार में सिर हिलाकर पराग ने अपनी आँखें नींची कर लीं। “आज भी नहीं मिली, बिना ऊन के कैसे बन पायेगा स्वेटर”, रौशनी ने निराशा से भर कर कहा। थोड़े दिनों में भीषण सर्दी पड़ेगी और बेचारे के स्वेटर में तो कई छेद भी हो चुके हैं। पुरानी ऊन है, अब गरम भी नहीं रही। कैसे निभाएगा मेरा बच्चा? बेचारा! कितनी आशा से पूँछता है रोज। रौशनी की आँखों से आँसू छलक पड़े। पराग ने अपना मुंह दूसरी ओर घुमा लिया। आँसू तो पराग की आँखों से भी लुढ़क चुके थे। “सब ठीक हो जायेगा, सब हो जायेगा, सारे दिन एक से नहीं रहते”, पराग ने निराशा में डूबे हुए मन के रहते भी प्रत्यक्ष में रौशनी को सांत्वना देते हुए कहा।
लेफ्ट-राईट-लेफ्ट, लेफ्ट-राईट-लेफ्ट, लेफ्ट-राईट-लेफ्ट, सावधान..... । “मैं तो फौजी बनूँगा। सैल्यूट”, अपने पिता को फौजियों की तरह सैल्यूट मारते हुए बालक पराग ने कहा। पराग के गाँव के पास ही एक छावनी थी। पराग के पिता की थोड़ी सी खेती थी पर उससे गुजारा कहाँ होता है लिहाज़ा पराग के पिता अवधेश ने छावनी और गाँव के बीच में अपना घर बनाकर एक छोटी सी परचून की दुकान खोल ली। दुकान के खरीददार छावनी के फौजी ही होते थे। अवधेश की देखा-देखी कुछ और परिवार भी वहाँ घर बनाकर रहने लगे थे और थोड़े ही दिनों में उस जगह ने दस-बारह घरों के एक छोटे से मोहल्ले का रूप ले लिया था। लोग अपनी क्षमता के अनुसार कुछ न कुछ व्यवसाय भी कर रहे थे। फौजियों की भी दूध, दही, अंडे, सब्जी, फल और रोजमर्रा की अन्य वस्तुओं के लिए छावनी की बाजार का एक विकल्प मिल गया था। फौजियों की बीबियों की संस्था ने एक प्राइमरी स्कूल भी खोल लिया था जिसमें पराग के साथ उस बस्ती के अन्य बच्चे भी शिक्षा ग्रहण करने लगे थे। जय-हिन्द, वंदेमातरम् कह कर छोटा सा पराग आते-जाते फौजियों को सैल्यूट करता। फ़ौजियों को पराग की ये हरकत बहुत अच्छी लगती और वो कभी मुस्कुरा कर और कभी जय-हिन्द, वंदेमातरम् बोलकर जबाब देते या फिर कभी-कभी सैल्यूट भी मार दिया करते थे। जबाब पाकर नन्हा पराग और चहकने लगता। वक़्त बीता और युद्ध के दौर में पराग को फ़ौज में ले लिया गया। पराग को जैसे मन-माँगी मुराद मिल चुकी थी। रौशनी से विवाह हो चुका था और आकाश भी उनकी दुनिया में आ गया था। मैं तो सिर्फ फौजी ही बन पाया पर मेरा बेटा एयरफोर्स पायलट बनेगा, आसमान से बातें करेगा। शायद इसी महत्वाकांक्षा के चलते उसने अपने बेटे का नाम आकाश रखा था।
वक़्त बीता और कश्मीर की तैनाती के दौरान एक आतंकी घटना में बम धमाके के स्प्लिन्टर पराग के आकर लगे। सेप्टिक के चलते पराग को अपना बायाँ हाथ कोहनी से खोना पड़ा और साथ-साथ फ़ौज की नौकरी भी। पराग अपने गाँव लौट आया। गाँव के प्रधान का आढ़त का काम था। पराग को आढ़त पर मुनीम की नौकरी मिल गई। इस नौकरी और फ़ौज की पेंशन से पराग का परिवार पूरी संतुष्टि से गुजर-बसर कर रहा था। परन्तु होनी को कुछ और ही मंजूर था। अवधेश और उसकी पत्नी की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई। माँ-बाप को खोकर पराग बहुत असुरक्षित महसूस करने लगा परन्तु किसी तरह अपने पिता के बनाये उसी मकान में गुजारा कर रहा था। लेकिन जैसे समय को अभी और एक बार करवट लेनी थी, काल को अपनी निगाहें थोड़ी और भी वक्री करनी थीं।
आकाश की निश्छल हँसी पूरे पार्क में गूँज रही थी। “और तेज मम्मा, और तेज मम्मा”, आकाश बार-बार बोल रहा था। रौशनी उसके बाद और जोर से झूले को झोंका देती। झूला जितनी तेज और जितना ऊपर जाता, नन्हा आकाश उतनी जोर से ठठाकर हँसने लगता और झूले को और तेज झुलाने को कहता। “और तेज मम्मा, और तेज मम्मा”, आकाश फिर से बार-बार बोल रहा था परन्तु इस बार रौशनी ने आकाश के झूले की पेंग बढ़ाने के लिए झोंका नहीं दिया। “मम्मा प्लीज, और तेज”, आकाश ने अनुनय और रोष के साथ कहा लेकिन जब रौशनी ने झोंका नहीं दिया तो वो थीमे पड़ गए झूले से कूद कर नाराजगी के साथ अपनी माँ की तरफ दौड़ा। “मम्मा अभी मुझे अभी और झूलना है, तुमने मेरे झूले को झोंका क्यों नहीं दिया?”, आकाश गुस्से से भरा हुआ था। “मम्मा जबाब दो। मम्मा, मम्मा, मम्मा”, आकाश ने कई बार पुकारा परन्तु रौशनी कुछ नहीं बोल रही थी। रौशनी वहीँ पार्क की घास पर औंधी होकर पड़ी हुई थी। जब कई बार पुकारने पर भी रौशनी ने कोई जबाब नहीं दिया तो आकाश को लगा कि कोई गड़बड़ है। आकाश अपनी माँ को हिलाकर पुकारने के साथ जोर-जोर से रोने लगा। बच्चे की हँसी बंद होने के बाद रुदन से पार्क में मौजूद लोगों का ध्यान उस ओर गया। उन लोगों ने रौशनी के समीप आकर देखा तो वह बेहोश पड़ी थी। पानी के छींटे मारकर होश में लाकर रौशनी को बिठाया गया। नन्हा आकाश तो एकदम सहम गया था। पड़ोसियों ने रौशनी और आकाश को उनके घर तक छोड़ दिया लाकर। शाम को पराग के आते ही आकाश ने अपने पापा को पूरी बात बता दी। डॉक्टर के पास जाने के लिए कितना कहा पराग ने पर रौशनी ने यह कहकर मना कर दिया कि घर की सफाई के चक्कर में मेहनत ज्यादा हो गई थी इसलिए हल्का सा चक्कर आ गया था लेकिन अब बिलकुल ठीक हूँ। बात आई गई हो गई। लेकिन अगले रविवार को रौशनी फिर बेहोश हो गई। पराग उसे लेकर डॉक्टर के पास भागा। कुछ दवायें और टेस्ट लिखकर डॉक्टर ने पराग को दिलासा देते हुए कहा कि चिन्ता मत कीजिये रिपोर्ट आ जाने दीजिये। ईश्वर की अनुकम्पा होगी तो सब ठीक होगा। परन्तु शायद ईश्वर की अनुकम्पा पराग और उसके परिवार पर नहीं थी। उस टेस्ट के बाद और टेस्ट कराये गए परन्तु सभी टेस्ट एक ओर ही इशारा कर रहे थे। सिर्फ एक टेस्ट के परिणाम आने बाकी थे। सारा दारोमदार सिर्फ इस रिपोर्ट पर ही शेष था।
पैथोलोजी लैब में घुसते हुए पराग के कदम अनिष्ट की आशँका से लड़खड़ा रहे थे। बिल का भुगतान करने के बाद लैब से मिली रिपोर्ट को अपने हाथ में लेते हुए उसके दिल की अनियंत्रित धड़कने इतनी तेज थीं कि पराग को लगा कि लैब के अंदर उपस्थित लोगों को वो सुनाई दे रहीं होंगी। हमेशा लैब में ही रिपोर्ट को देखकर डॉक्टर के पास ले जाने वाले पराग का इस रिपोर्ट को देखने का साहस नहीं था। रिपोर्ट लेकर वो रौशनी के साथ डॉक्टर के पास पहुँचा। रिपोर्ट पढ़ते समय डॉक्टर के चेहरे का रँग उड़ सा गया था परन्तु उसने प्रत्यक्ष में मुस्कान बिखेरते हुए कहा कि आप लोग बाहर बैठिये, मैं जरा अस्पताल के कुछ और विशेषज्ञों की इस पर राय लेकर आप से बात करता हूँ। “सब ठीक तो है रिपोर्ट में डॉक्टर साहब”, रौशनी का प्रश्न था परन्तु डॉक्टर उसे अनसुना कर चैम्बर से बाहर निकल गया। नर्स ने उन दोनों से बाहर बैठकर प्रतीक्षा करने को कहा। रौशनी ने गौर किया कि हमेशा झल्ला कर उत्तर देने वाली नर्स का व्यवहार आज बहुत ही मृदु था। रौशनी को ये बड़ा ही सुखमय लगा। रौशनी और पराग डॉक्टर के चैम्बर से बाहर आकर वेटिंग रूम में बैठ गए। इक्का-दुक्का मरीजों को छोड़कर सभी जा चुके थे। थोड़ी देर में बचे-खुचे मरीज भी जा चुके थे। रौशनी ने पराग से डॉक्टर का पता करने को कहा। घर पर आकाश परेशान हो रहा होगा, हो सकता है उसे भूख भी लगी हो। पराग के पता करने से पहले ही नर्स नें उन्हें डॉक्टर का सन्देश दिया। आपको डॉक्टर साहब बुला रहे हैं। नर्स ने पराग की ओर इशारा किया। पराग उठकर डॉक्टर के चैम्बर की ओर चला तो रौशनी बोली कि मैं भी चलूंगी। पराग ने रोकने की कोशिश की पर रौशनी ने दलील दी कि अच्छी या बुरी जो भी खबर है तुम्हारे साथ मैं भी सुनूंगी। ऐसे समय मैं तुम्हें अकेले नहीं जाने दूँगी। पराग क्या मना करता लिहाज़ा दोनों डॉक्टर के चैम्बर में एक-साथ पहुँचे। डॉक्टर अपनी कुर्सी से उठकर पराग के समीप आकर उसके कन्धों को अपने हाथों से पकड़ कर रौशनी की ओर देखने लगा। “डॉक्टर आपको जो भी कहना है कह दीजिये, मैं सब कुछ सुनने के लिए तैयार हूँ, अच्छा या बुरा, कुछ भी”, रौशनी ने डॉक्टर को असमंजस में जानकार कहा। डॉक्टर ने बोलना चालू किया। देखिये पराग जी, आपकी पत्नी को एक ऐसी बीमारी है जिसका नाम सुनना कोई पसंद नहीं करता, परन्तु शायद यही हरि-इच्क्षा है। “कैंसर तो अब ठीक हो जाता है......”, डॉक्टर सिर्फ यही कह पाया था कि पराग धड़ाम से वहाँ पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। डॉक्टर ने उसे पानी का गिलास दिया। वो देख ही नहीं पाए कि रौशनी बेहोश होकर गिर पड़ी थी। रौशनी का सिर दरवाजे से टकराया था। उससे उत्पन्न हुई आवाज से उनका ध्यान उस ओर गया। तब तक नर्स रौशनी को सम्भाल चुकी थी। रौशनी को कुर्सी पर सहारा देकर बिठाने के साथ नर्स ने उसे अपने हाथों से पानी पिलाने की चेष्टा की। एक घूँट पानी पिया होगा शायद रौशनी ने। “मेरा आकाश”, सिर्फ इतना कह सकी रौशनी और उसकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। पराग रौशनी को सँभालने दौड़ा। अब दोनों की आँखों से अश्रु की अविरल धारा बह रही थी। सदैव सख्त व्यव्हार करने वाली नर्स भी अपनी आँखें पोंछ कर रौशनी को सहारा देकर डॉक्टर के चैम्बर से बाहर ले जाने की चेष्टा करने लगी। डॉक्टर पराग को आगे की दवाइयों और चिकित्सा के साथ आवश्यक सावधानियों की जानकारी दे रहा था परन्तु रौशनी को सिर्फ अपने आकाश की ही चिन्ता सता रही थी।
रौशनी के महंगे इलाज में पराग को खेती और गाँव में बना घर सब-कुछ बेचना पड़ गया। अब ज़िन्दगी पराग और रौशनी की घड़ी-घड़ी परीक्षा ले रही थी। रौशनी को पता था कि वह अब ज्यादा दिनों की मेहमान नहीं है। दिन बहुत कठिनाई से गुजर रहे थे। पराग की पेंशन और मुनीम की नौकरी की तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा रौशनी की बीमारी में खर्च हो रहा था। बचा-खुचा बस किसी तरह पर्याप्त हो पाता था। पराग तो हँसना ही भूल गया था। रौशनी जबरदस्ती हँसती थी तो वो इतनी खोखली हँसी होती थी कि कोई भी उस हँसी की आड़ में छिपे दर्द को ढूंढ सकता था। किसी तरह कहीं कोई उम्मीद की किरण नहीं थी। डॉक्टरों ने रौशनी के शेष बचे हुए दिनों की जानकारी दे दी थी। पर बेचारा आकाश इन सब बातों से बेखबर था। इसीलिए तो वह अपनी बाल-सुलभ जिदों और फ़रमाइशों की फेहरिस्तें जारी करता रहता था। हालाँकि बहुत ज्यादा जिद्दी बच्चा नहीं था। पराग या रौशनी के समझाने पर समझ जाता था और जिद्द छोड़ देता। आकाश पाँच-छह वर्ष का होगा उस समय। अब वह एक एनजीओ के द्वारा चलाये जाने वाले स्कूल में पढता था जोकि गाँव के बाहर हाईवे के किनारे चल रहा था। आकाश के स्कूल से थोड़ी ही दूरी पर एक कान्वेंट स्कूल भी खुल गया था। इस स्कूल की यूनिफार्म में नीला ब्लेजर था। शहर के नजदीक होने के कारण स्कूल खूब चल रहा था। बच्चे स्कूल बसों से आते और दिनभर स्कूल में पढाई करने के बाद अपने घरों को लौट जाते।
एक दिन रौशनी ने देखा कि आकाश का स्वेटर फट चुका था। रौशनी ने आकाश के लिए जाने से पहले एक स्वेटर बुनने का निर्णय लिया। आकाश के स्कूल की यूनिफार्म से मिलते जुलते ऊन का जुगाड़ भी हो गया था। थोड़ी-बहुत ऊन पराग भी ले आया था। बस इसी स्वेटर के पूरे होने की प्रतीक्षा आकाश बहुत उत्सुकता से कर रहा था और रोज ही पूछता कि कितना बढ़ गया, कितना बाकी है। स्वेटर के लिए ऊन थोड़ी कम पड़ गई थी और पराग से किसी ने कह दिया था कि उसके पास उसी रंग की ऊन बची पड़ी है परन्तु रोज ही वह व्यक्ति उसे लाना भूल जाता था और पराग बिना ऊन के घर आ जाता था। यही कारण है कि रौशनी पराग से ऊन के प्रबंध होने के बारे में पूँछ रही थी। गृहस्थी इतनी मुश्किल से चल रही थी कि आकाश के लिए महीने के राशन-पानी इत्यादि के अलावा किसी भी अन्य वस्तु की खरीदारी के बारे में सोचना भी असंभव था। रौशनी की तबियत दिनों-दिन ख़राब होती जा रही थी परन्तु उसने किसी तरह आकाश का स्वेटर बुनकर पूरा कर दिया था। आकाश के हाथों में स्वेटर थमाकर रौशनी ने आकाश से पहनकर देखने को कहा। रौशनी स्वेटर पूरा कर बहुत खुश थी। उसे ख़ुशी थी कि वह समय रहते स्वेटर पूरा कर सकी। कहीं उसकी अंतिम यात्रा तक स्वेटर पूरा न होता तो क्या वह तर पाती। रौशनी स्वेटर की ऊन के गोलों पर निगाह डालती और सोचती कि शायद उसके प्राण इसी स्वेटर के गोलों में अटक जायेंगे और वो जबतक इन गोलों की ऊन को ख़त्म करके स्वेटर नहीं बुन देगी तबतक उसकी आत्मा इन्हीं गोलों में फँसी रहेगी और वह शायद मुक्ति नहीं पा सकेगी। अपने आकाश को ढेर सारा प्यार करती परन्तु यह सोचकर उसकी आँखें अश्रुपूरित हो जातीं कि वह अपने बच्चे की पूरी लीला नहीं देख पायेगी। ज़िन्दगी के सफर में उसे पढ़ते-बढ़ते नहीं देख पायेगी और उसका सफ़र बीच में ही समाप्त हो जायेगा। जब कभी भी उसे अकेले में ये सब याद आता तो वह फूट-फूटकर रोती। आकाश के सामने संयमित रहती और पराग से अपने आँसू छुपाती। आकाश स्वेटर पहन चुका था। “मैं अभी दर्पण में देखकर आता हूँ”, आकाश ख़ुशी के मारे फूला नहीं समा रहा था। थोड़ी देर में आकाश वापस आया तो उसका मुँह उतरा हुआ था और स्वेटर भी। आकाश ने स्वेटर एक तरफ फेंक दिया। “तुमने स्वेटर में हल्के और गहरे रंगों को क्यों मिला दिया? मेरे स्कूल की यूनिफार्म में तो सिर्फ एक रंग है ये वाला गहरा वाला”, आकाश ने स्वेटर के एक हिस्से की ओर इशारा करके रौशनी से कहा। पहन ले बेटा, बहुत कम फर्क है किसी को पता नहीं चलेगा। तुम्हे कैसे पता कि किसी को पता नहीं चलेगा, आकाश अभी भी रुष्ट था। पराग ने समझाया कि ऊन बड़ी मुश्किल से मिली है, तेरी माँ ने कितनी मेहनत से स्वेटर बुना है पर आकाश पर न पराग के समझाने का असर हुआ और न ही रौशनी के समझाने का। वो स्वेटर तो आकाश की आँखों से उतर चुका था। आकाश स्वेटर को वहीँ छोड़कर रोता हुआ बिस्तर पर जाकर बहुत देर तक रोता रहा और फिर बिना खाना खाए ही सो गया। पराग को अपनी विवशता पर बहुत क्रोध आया उस दिन और फिर एक दर्द के सैलाब की बाढ़ उसकी आँखों से उफनकर बाहर झरने लगी। तुम ठीक हो जाओ रौशनी प्लीज, अपने बेटे के लिए, मेरे लिए। कैसे रहेगा आकाश तुम्हारे बिना और मैं भी कैसे रह सकूँगा तुम्हारे बिना। इतनी सी नन्ही जान को कैसे दिलासा दूँगा, कैसे दे सकूँगा उसे एक माँ का प्यार। रौशनी की आँखों से आँसुओं की नदी बह चली। क्यों-क्यों? मेरे साथ क्यों? मैं क्यों नहीं और जी सकती दूसरी औरतों की तरह, उन माँओं की तरह जो पूरे मन से अपने बच्चों को दुलारती हैं, पालती हैं। मैं क्यों उस दिन के भय से ही घुलती रहती हूँ जिस दिन मेरा आकाश अपनी माँ को ढूंढेगा परन्तु उसे वो नहीं मिलेगी। क्यों उस डर से आज भी अधूरे मन से ही उसे ममता की गोद में बिठा पाती हूँ। क्या पाप है मेरा और क्या अपराध किया है उस नन्हीं सी जान ने जो उसे ये सजा मिलेगी। इतनी छोटी सी उम्र, कैसे रहेगा बेचारा अपनी माँ के बिना। उस दिन रौशनी पराग के सीने पर सिर रखकर घंटों रोती रही।
सुबह उठकर आकाश स्कूल जाने को हुआ तो अच्छी खासी सर्द हवायें चल रही थीं। रौशनी आकाश को पहनाने के लिए नया बुना स्वेटर लेकर आई। “आज बहुत सर्दी है बेटा, ले इसे पहन ले, ठण्ड नहीं लगेगी”, रौशनी ने स्वेटर को आकाश के गले में डालते हुए कहा। आकाश ने झट से गले से निकालकर स्वेटर को वहाँ से दूर फेंक दिया। “मैंने कहा न, ये स्वेटर मैं हरगिज नहीं पहनूँगा”, आकाश ने चीखते हुए कहा। पराग ने कहा कि बेटा पहन ले स्वेटर, आज बहुत सर्दी है, ठण्डी लग सकती है। “लग जाये ठण्डी, हो जाये निमोनिया”, आकाश रोते हुए बोला “ये बहुत घटिया स्वेटर है, मैं कभी नहीं पहनूँगा”। पराग और रौशनी आकाश के लिए परेशान हो रहे थे पर वो था कि किसी भी कीमत पर स्वेटर पहनने को तैयार ही नहीं था। पराग अपनी मजबूरी पर मन ही मन रो रहा था बस आँसू किसी तरह आँखों के तहखाने से बाहर नहीं आने दे रहा था। ये सब मेरी वजह से हो रहा है। न मेरी ये नामुराद बीमारी होती, न हम इतने मजबूर होते। इससे तो अच्छा था कि मैं मर जाती, कितने सारे पैसे बच गए होते। कम से कम मेरे बच्चे का दिल तो नहीं टूटता। बेचारे का बचपन कितने अभाव में बीता जा रहा है। रौशनी बुदबुदा रही थी। ख़बरदार रौशनी, अपने मन में आलतू-फ़ालतू बिचार मत लाना, ठीक नहीं होगा। देख लेना तुम एकदम ठीक हो जाओगी। फिर हम तीनों मिलकर खूब मजे करेंगे, एम्यूजमेंट पार्क जायेंगे, हर हफ्ते आकाश को आइसक्रीम खिलाएंगे, खूब घुमाएंगे। और हाँ, तुम्हारा बहुत मन था न मैहर देवी माता, वैष्णो देवी माता, खाटूश्यामजी के दर्शन के। सब जगह चलेंगे। और गोवा भी चलेंगे बस तुम ठीक हो जाओ एक बार। रौशनी ने कुछ नहीं बोला परन्तु उसकी आँखों से ढ़लते अश्रुओं ने जैसे कहा कि अब उसके पास इतना वक़्त कहाँ। पापा चलो जल्दी, क्या कर रहे हो? स्कूल की देर हो रही है। आकाश की आवाज पर पराग चौंका और जल्दी से अपनी साइकिल उठाने के लिये चल दिया। रौशनी उन्हें ऐसे देखने लगी जैसे आख़िरी बार देख रही हो। पता नहीं दोबारा उन्हें देख भी पायेगी या नहीं। रौशनी को जब से बीमारी का पता चला, वह रोज ही इस तरह पराग और आकाश को जाते देखती थी, जैसे आख़िरी बार देख रही हो। जब वह दोनों वापस आते तो उन्हें ऐसे देखती जैसे उनकी छवि को अपनी आँखों के रास्ते हृदय-पटल पर पूर्णतया अंकित कर लेती हो जिससे अगर उसका अन्त समय आये और कहीं वह उसकी आँखों के सामने न हो, तो भी वह दोनों उसे दिखते रहें। वह चाहती थी कि जब वो इस दुनिया से विदा ले तो पराग और आकाश उसकी आँखों के सामने हों। परन्तु रौशनी की यह इच्छा भी विधना को स्वीकार नहीं थी।
अपनी आदत के अनुसार पराग की साइकिल से कूदकर रौशनी के पास जाकर खड़ा हो गया। बहुत तेज भूख लगी है माँ, जल्दी से खाना दे दो। क्या बना है आज माँ? मालूम है माँ आज स्कूल में क्या हुआ? आज मेरे स्कूल में स्पोर्ट्स थे। देखो एक मैडल मुझे भी मिला है। आकाश सुबह की नाराजगी भूल चुका था। पराग भी अन्दर आ चुका था। उसने आकाश के सिर पर हल्की सी चपत लगाते हुए कहा, “चल पहले हाथ-मुँह धोकर खाना खा ले, फिर दिखाता रहना अपने मैडल”। आकाश नल की ओर चला गया। पराग ने रौशनी को जैसे सुनाते हुए कहा, “अरे हाँ! एक बात बतानी थी तुम्हें। आकाश की स्वेटर की समस्या हल हो गई है। अरे वो अपने शुक्ल जी हैं न। उन्होंने बहुत सारी ऊन दी है मुझे आज। कह रहे थे कि वह अपने बेटे के लिए लाये थे पर उसने तो आसमान सिर पर उठा लिया कि ओल्ड-फैशन हाथ का बुना स्वेटर वह नहीं पहनेगा लिहाज़ा ऊन वापस करके आओ। दुकानदार ने वापस नहीं ली तो उन्होंने वो मुझे दे दी ये कह कर कि भाभीजी तो बहुत अच्छा स्वेटर बुनती हैं, इस ऊन से स्वेटर बनवा लेना। मैंने इसकी कीमत देनी चाही तो वह बोले कि अरे वाह! आकाश मेरा कुछ नहीं लगता क्या? क्यों शर्मिंदा कर रहे हो? जबरदस्ती मुझे दे दी वो ऊन। आकाश बहुत खुश हो जायेगा, देखो कितना चमकदार रँग है, बिलकुल जैसा आकाश को पसंद आता है। देखो है न बढ़िया। मुझे तो लगता है कि ये ऊन बहुत कीमती होगी। है न रौशनी। इतनी देर में रौशनी ने एक बार भी हाँ या न नहीं बोला था। पराग ने रौशनी के पास जाकर आवाज दी परन्तु कोई जबाब नहीं आया। पराग ने सहसा कुछ अनुमान लगाया। उसकी हाथों की शक्ति यकायक क्षीण हो गई। ऊन के गोले पराग के हाथों से छूटकर इधर-उधर गेंदों की तरह लुढ़क गए। पराग का पूरा शरीर निढाल होकर वो धम्म से वहीँ बैठ गया। नहीं रौशनी, इतनी जल्दी नहीं। अभी तो डॉक्टर के दिए समय में छह महीने बाकी हैं। तुम इतनी जल्दी मुझे और आकाश को छोड़कर नहीं जा सकती रौशनी। पराग बुदबुदा रहा था। रौशनी के चेहरे को हाथों में लेकर बार-बार अपने हाथों से उसके बालों की लटों को अपने स्थान पर पहुँचाता। रौशनी को अब कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था पर उसके चेहरे पर अभी भी शांति का निरा अभाव था और उसके चेहरे को देखकर अभी भी यही लग रहा था जैसे उसे कोई बहुत बड़ी फ़िक्र है। ये फ़िक्र उसके चेहरे पर चिपक गई थी जो उसकी मृत्यु के बाद भी उसके चेहरे का साथ नहीं छोड़ रही थी। आकाश खाना खाकर वापस आ चुका था। अरे मम्मा! आज तो तुमने सबकुछ मेरा फेवरिट बनाया था। एक टॉफ़ी को रौशनी की तरफ करके उसने पूछा कि ये कौन लाया मम्मा? फिर पराग को देखकर बोला, “पापा मम्मा का चेहरा क्यों पकड़े हो? वह कुछ भी जबाब नहीं दे पा रही है”। पराग ने रौशनी का चेहरा धीरे से छोड़ दिया और आकाश को अपनी ओर खींचकर कसकर गले लगा लिया। आकाश का दिल किसी अनिष्ट की आशँका को भाँप गया। उसने पराग से पूछा कि क्या हुआ माँ को, वह कुछ बोलती क्यों नहीं। पराग की आँखों से एक आँसू लुढ़ककर आकाश के गाल पर गिरा। तुम रो रहे हो पापा, तुम रो क्यों रहे हो पापा? पराग खामोश रहा। मम्मा भी कुछ नहीं बोल रही। “बेटा, तेरी मम्मा अब कभी कुछ नहीं बोलेगी”, पराग ने कहा। क्यों पापा, क्या वो नाराज है मुझसे। “सॉरी मम्मा, अब मैं तुम्हें और दुखी नहीं करूँगा”, इतना कहकर आकाश वहाँ से भागकर गया और एक मिनट से भी पहले वापस आ गया। “देखो मम्मा, मैंने स्वेटर पहन लिया है, अब तो तुम खुश हो न, अब तो बोलो मम्मा, प्लीज मम्मा बोलो न। मम्मा ये बहुत सुंदर स्वेटर है, मैं तो मज़ाक कर रहा था माँ। देखो माँ, बोलो न माँ”, ये कहते-कहते आकाश फूट-फूटकर रोने लगा। वो समझ गया था कि उसकी माँ अब किसी बात का उत्तर नहीं देगी। पापा मम्मा क्यों नहीं बोल रही है, क्या हुआ है उसे, आकाश का सवाल अब पराग से था। बेटा, उस खतरनाक बीमारी ने उसे खा लिया। बेटा, बहुत इलाज किया गया है तेरी माँ का पर उसका कैंसर अंतिम स्टेज पर था जो सही नहीं हो सकता था, पराग लाचारी के साथ बोल रहा था। मुझे क्यों नहीं बताया पापा, कितना तंग करता था मैं माँ को। अगर मुझे पता होता तो मैं कभी भी मम्मा को तंग नहीं करता। मैं कैंसर को भी मार डालता। बेटा, तेरी माँ ने मना किया था। वो नहीं चाहती थी कि उसकी बीमारी का राक्षस उसके कान्हा के बचपन का क़त्ल कर दे। वह तो माता यशोदा की तरह तेरी बाल-लीला का आनंद लेना चाहती थी। कहती थी कि भगवान कृष्ण भी तो अपनी मैय्या के पास कुछ वर्षों तक ही रहे थे लेकिन वह समय भी ऐसा था कि युगों-युगों तक माँ और बेटे के सम्बन्धों के लिए उससे उत्कृष्ट कोई और उदाहरण नहीं मिलता। उसे भी अपने कान्हा के सारे हाथ, सारी शैतानियाँ देखनी थीं पूरा निर्दोष बचपन देखना करना था। वो तुझे बहुत चाहती थी बेटा और तेरे लिए भगवान से अपने लिए कुछ और साँसें माँगती रहती थी। पर बेटा होता तो वही है जो होना होता है। आकाश अभी इतना बड़ा नहीं हुआ था कि अपनी माँ की इतनी गम्भीर मंशाओं के आशय समझ पाता। ये पराग को भी पता था पर पता नहीं क्यों वह यह सब नन्हें आकाश को बता रहा था। नहीं, शायद इस तरह पराग अपने आप को भी समझा रहा था। पराग का गम बहुत बड़ा था पर वो जानता था कि आकाश का गम उसके गम से भी बड़ा था। कुछ घंटों पहले तक का चंचल, उत्सुक और हठी बालमन अचानक ही बचपन की दहलीज़ पर आकर खड़ा हो गया था। पराग ने निश्चय किया कि आकाश के जीवन से माँ ममता की रौशनी चली गई तो क्या उसको अपने पापा से उसे ममता के पराग की सुगन्धि सदैव प्राप्त होती रहेगी।
अपने ख्यालों में खोया हुआ आकाश किसी औरत की आवाज से चौंक उठता है। अपनी दोनों आँखों को दोनों हथेलियों से दबाकर जैसे वर्तमान में लौट आने की प्रक्रिया पूरी कर रहा हो । वो औरत उसके हाथों में एक पैकेट थमा देती है। जैसे ही आकाश उस पैकेट को हाथ में पकड़ता है एक समवेत स्वर में गाने की आवाज आती है। हैप्पी बर्थडे टू यू ...... हैप्पी बर्थडे टू यू........ । हैप्पी बर्थडे सर, आकाश को स्वेटर थमाकर उस औरत ने भी कहा । आकाश के सामने खड़ी औरत रौशनी सुपर स्पेशियालिटी हॉस्पिटल की मेडिकल सुपरिन्टेन्डेन्ट डॉक्टर अरोरा थीं। सर, ये स्वेटर अपने हॉस्पिटल की नर्स मनसा ने अपने हाथों से बुना है। जब उसे पता चला कि आपको हाथ का बुना स्वेटर बहुत पसंद है तो उसने आपके जन्मदिन के लिए ये उपहार चुना है, हम सब की तरफ से। डॉक्टर आकाश तब तक उस पैकेट को खोल चुके थे। आकाश ने देखा कि स्वेटर के बार्डर अपेक्षाकृत ज्यादा गहरे रंग के थे। आकाश ने अपने दोनों हाथों में स्वेटर को कस लिया जैसे की वो अपनी माँ को कस लिया करता था। कैसा लगा सर आपको? आकाश सचमुच कैंसर नमक दैत्य को मारने का प्रण ले चुका था। डॉक्टर आकाश देश के सबसे सफल और नामीगिरामी आन्कोलोजिस्ट में से था। इस अस्पताल के साथ आकाश एक एन०जी०ओ० भी चलाता है जिसमें निर्धनों एवं अल्प-आय वाले कैंसर रोगियों के लिए मुफ्त इलाज और उनके रहने-ठहरने का प्रबंध किया जाता है। अनेकों असाध्य रोगियों को ठीक करने के कारण डॉक्टर आकाश का बहुत नाम हो गया है। डॉक्टर आकाश की आँखें सजल हो आईं और वो धीरे से बुदबुदाये, माँ। आपको पसंद आया न सर, ये स्वेटर। नर्स मनसा ने थोड़ा सशंकित होकर डॉक्टर आकाश से पूँछा। थैंक्यू मनसा, थैंक्स टू एवरीवन। बहुत सुन्दर स्वेटर है ये। इससे अच्छा उपहार मेरे लिए और कुछ हो ही नहीं सकता था। ये हाथ का बुना स्वेटर बिलकुल वैसा ही है जैसा मेरी माँ ने बनाया था। आकाश ने अलमारी खोलकर करीने से तह किये हुए स्वेटर को देखा और अपने हाथ से उसे स्पर्श कर कुछ महसूस करने की कोशिश करने लगा। नर्स मनसा के उपहार को उस स्वेटर के साथ ही रखकर उसने अलमारी के कपाट बंद कर दिये। अपनी छड़ी के सहारे दूर खड़े पराग को अच्छे से पता था कि आकाश के लिए इससे बढ़कर कोई अन्य उपहार नहीं हो सकता था। तभी तो जब मनसा ने आकाश की पसंद पूँछी और हाथ के स्वेटर बनाने का प्रस्ताव रखा तो उसने वर्षों से संभालकर रखे वो ऊन के गोले मनसा को देते हुए कहा था कि बॉर्डर के लिए गहरे रंग की थोड़ी ऊन खरीद लेना पर स्वेटर इसी ऊन से बनाना। पराग दूर से ही आकाश को आशीर्वाद देकर घर की ओर वापस चल दिया क्योंकि अभी उसके अन्दर आकाश के सामने जाने का साहस नहीं था। “अपने पापा-मम्मी का नाम कौन ऊँचा करेगा”, सहसा रौशनी की ये आवाज पराग के कानों में गूंजने लगी थी।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”