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अच्छे दिन?

22 अगस्त 2023

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लेफ्टिनेंट कर्नल दीपक दीक्षित (से. नि.) की अन्य किताबें

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रचनाएँ
चक्रव्यूह
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अपने कालेज के दिनों में मैं अपनी सनक, हालात और घटनाओं का शिकार होकर एक चक्रव्यूह में फंस गया था जिससे निकालना उस समय असंभव सा लगता था। पर परिस्थितियों की समीक्षा और विश्लेषण करके, दृढ़ताऔर आत्मविश्वास के सहारे छोटे-छोटे कदम बढ़ कर मैं ऐसी स्थिति से उबर सका। अपने अनुभवों को मैंने एक कहानी का रूप देकर इस पुस्तक के रूप में प्रस्तुत किया है जिसमें पात्रों और घटनाओं को नाटकीय और रोमांचकारी बनाने के लिए छेड़-छाड़ कर संवार दिया है। यदि कोई और व्यक्ति मेरे इस अनुभव से प्रेरणा पता है या लाभान्वित होता है तो मैं अपने आप को धन्य मानूँगा और मेरे इस पुस्तक को लिखने का प्रयोजन पूरा हो जाएगा। पुस्तक का कथानक उत्तर भारत के एक इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ रहे छात्रों के इर्द-गिर्द घूमता है। यह आज से लगभग चालीस वर्ष पुराने कालखंड की घटनाओं पर आधारित है। परंतु किसी भी कालेज में पढ़ रहे छात्र इस पुस्तक का आनंद ले सकेंगे। मेरा प्रयास रहा है कि कालेज की शिक्षा पूरी कर चुके व्यक्ति भी इसे पढ़ कर अपने पुराने दिनों की याद ताजा कर इससे आनंदित हो सकें।
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अस्वीकरण

22 अगस्त 2023
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लेखक अथवा प्रकाशक की अनुमति के बिना इस पुस्तक के किसी भी भाग की न तो प्रतिलिपि बनाई जा सकती है, न पुनरोत्पादन किया जा सकता है और न ही फोटोकॉपी और रिकॉर्डिंग सहित किसी भी माध्यम से अथवा किसी भी माध्यम

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समर्पण

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उन सभी विद्यार्थियों को जो विद्या-अर्जन के लिए विद्यालय जाकर किसी ओर ही चक्कर में पड़ जाते हैं।

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मैंने यह पुस्तक क्यों लिखी ?

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अपने कालेज के दिनों में मैं अपनी सनक, हालात और घटनाओं का शिकार होकर एक चक्रव्यूह में फंस गया था जिससे निकालना उस समय असंभव सा लगता था। पर परिस्थितियों की समीक्षा और विश्लेषण करके, दृढ़ताऔर आत्मविश्वास

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यह पुस्तक किसके लिए है

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पुस्तक का कथानक उत्तर भारत के एक इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ रहे छात्रों के इर्द-गिर्द घूमता है। यह आज से लगभग चालीस वर्ष पुराने कालखंड की घटनाओं पर आधारित है। किसी भी कालेज में पढ़ रहे छात्र इस पुस्तक का

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रैगिंग

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"दीपक, तो फिर मैं चलता हूँ।", राकेश भाई साहब ने कहा और वे उठ कर चलने लगे। मैंने उन्हें दरवाजे तक छोड़ा और फिर कमरे की चटखनी अंदर से बंद करके अपने बिस्तर पर लेट गया। राकेश भाई साहब मेरे चचेरे भाई (कज़िन)

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भाई जी

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लंच से पहले हमारी पांच क्लास होनी थी पर सिर्फ दो ही लेक्चर हुए। बाकी तीन के प्रोफेसर आये ही नही। हम सब इस समय एक दूसरे से बतियाते रहे और नए-नए लोगों से मिल कर अपने टाइप के लोगों को ढूंढने की कवायद में

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पहले कदम

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अगले कुछ दिन बहुत से खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ गुजरे। इस प्रसिद्ध कालेज का प्रांगण भव्य और विशाल था। बड़े-बड़े लॉन और ऊंची इमारतें देख कर मैं हैरान था। ओलम्पिक-साइज का स्विमिंग-पूल,  क्लब में बिलियर्ड औ

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ये है बम्बई नगरिया तू देख बबुआ

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सिगरेट और शराब के अलावा जो एक और लत मुझे लग गयी थी वह थी उधार की। हॉस्टल के कैफ़े में और कैंपस के बाहर चाय की दो-तीन दुकानों पर उधार-खाता रखने का चलन था। मेरा ज्यादातर वक्त यही गुजरता था और ये दुकाने प

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सत्ता का पिरामिड

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मारपीट की घटना में हमारे बैच के भी दो लोग शामिल थे। उनमें से एक तो था राजीव, जिससे मैं अपने यहाँ आने के पहले ही दिन मिल चुका था और दूसरा था पंकज गुप्ता जिसको मैंने देखा तो था, पर उससे अभी तक कोई बातची

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नशेड़ी

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कारण बताओ नोटिस पर सब ने अपने-अपने ढंग से अलग-अलग प्रतिक्रिया दी। कई ने तो कोई जवाब ही नहीं दिया, क्योंकि उन्हें विश्वास ही नहीं था कि उनकी बात सुनी जाएगी या सच मानी जाएगी। इस नोटिस का जवाब जिन्होंने

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भांग

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होली का त्यौहार आने वाला था। सर्दियों के जाने और गर्मियों के आने के बीच का मौसम बड़ा सुहाना हो गया था। हर कोई मस्ती के रंग में डूबा था। कहीं रंग और गुलाल के छींटे उड़ते थे, तो कहीं व्यंग्य और कटाक्ष क

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गुटबाजी

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पढ़ने का शौक मुझे बचपन से ही रहा है। कालेज में आकर हर तरह के विषय पर किताबें आसानी से मिल जाती थीं, इसलिए मैं खूब पढ़ता था। उन दिनों मेरे पसंदीदा विषय में से एक था शेरो-शायरी। इसकी मैंने ढेरों किताबें

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विरोध

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रे दादा और अग्रवाल जी के अलावा एक और लेक्चरर थे जिनसे मेरी अक्सर बात होती रहती थी। ये महाशय थे हमारे कालेज के इलेक्ट्रिकल डिपार्टमेंट के सीनियर लेक्चरर श्री सुरेंद्र पंत जी। पंत जी का व्यक्तित्व बेहद

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‘पंच पांडव’

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पंत जी की कृपा से मैंने ‘नेहरू इंस्टीट्यूट आफ माउंटेनियरिंग’, उत्तरकाशी में जाकर माउंटेनियरिंग की बेसिक ट्रेनिंग भी कर ली और फिर मुझे हिमालय-क्लब की माउंटेनियरिंग विंग का सेक्रेटरी भी बना दिया गया। अब

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ग्रे लिस्ट

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एक साल और गुजरा तो हम सब फाइनल-ईयर में आ गए। हमें अब तक ठीक से ये अहसास भी नहीं था कि धुर ग्रुप के पिरामिड के अब हम सबसे सबसे ऊंचे हिस्से में पहुँच चुके हैं, क्योंकि हमसे सीनियर लोग सब कॉलेज से जा चुक

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जश्न

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इंजीनियरिंग कॉलेज में फाइनल-ईयर में पढ़ रहे लोगों की एक अलग ही जमात या वर्ग हो जाता है जो और  लोगों से अलग होता है। बाकी क्लासों में जहां लोग या तो पढ़ाई, सैर सपाटा, या लड़कियों की (लड़कियां लड़कों की ब

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मनहूस रात

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कोई व्यक्ति कितना ही संस्कारी या पढ़ा-लिखा क्यों न हो, जब वह एक भीड़ का हिस्सा बन कर अपनी पहचान खो देता है तो आवेश में आकर ऐसी-ऐसी हरकतें कर बैठता है कि जिसको लेकर बाद में उसे भी विश्वास नहीं होता कि वह

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अगले दिन

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अगले दिन जब सुबह उठकर आंख खुली, तो हर जगह रात वाले कांड की चर्चा हो रही थी। होस्टल के रूम के अंदर, चाय की दुकान पर, कैंटीन में, कैंपस की हर जगह और कैंपस के बाहर भी उस घटना की कमेंट्री सुनने को मिल रही

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साहिबाबाद

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साहिबाबाद में मैं जितने भी दिन रहा वह बड़े अच्छे गुजरे। सुबह राजीव तो अपने काम पर चला जाता था और मैं आराम से सो कर उठता, फिर राजीव के कलेक्शन से कोई किताब उठाकर पढ़ता या उसका ट्रांजिस्टर सुनता। जब भूख

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चक्रव्यूह

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मौसा जी को धन्यवाद देकर हमने मुजफ्फरनगर से बस ली और उस अदालत में पहुंच गए जहां हमारे खिलाफ केस दर्ज था। वहां जाकर हम सोच ही रहे थे कि किस वकील के पास जाएं तभी विजय अपने पिताजी के साथ वहां पर दिखाई दिय

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सही सलाह?

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अगले दिन हम सब ने वकील साहब के साथ जाकर कोर्ट में सरेंडर कर दिया और फिर हमारे माँ-बाप की दौड़-भाग के चलते सेशन कोर्ट से हम सब को जमानत भी मिल गई और हम लोग जेल जाने से बच गए। अदालत की कार्यवाही पूरी होन

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मुजरिम या पीड़ित

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जब हम अदालत में अपने केस की तारीख पर पहुंचे तो अंदर से डरे हुए थे कि ना जाने वहाँ क्या होगा। अदालत के उस छोटे से कमरे के एक कोने में खड़े होकर अपने केस की बारी का इंतजार करने लगे। जब इसका नंबर आया तो द

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अर्श से फर्श पर

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हमारे वकील साहब ने कुछ कहना चाहा पर जज साहब ने उन्हें लगभग डांटते से अंदाज में चुप कराते हुए बोला, “आप इस देश में कालेज ओर यूनिवर्सिटी को चलते देना चाहते हैं या नहीं?” वकील साहब सिर खुजाते रहे और जज स

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भूत-बंगला

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एक हफ्ते बाद जब मकान का सारा काम पूरा हो गया तो भी मेरा वहाँ से जाने का मन नहीं हुआ। ये सही था कि वह जगह सूनसान और शहर से अलग थी और वहाँ खाने पीने की भी परेशानी थी पर फिर भी उन हालातों में मुझे वह पसं

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दिल्ली

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वहां से घर आकर मैंने अपनी सबसे अच्छी पैंट और शर्ट निकाली और उन्हें रगड़-रगड़ कर धोया, फिर सूख जाने के बाद धोबी के पास प्रेस कराने के लिए लेकर गया। फिर दूसरा काम यह किया कि शांति से बैठ कर अपना सीवी (C

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सुप्रीम कोर्ट

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शाम को जब मैं अरविन्द के साथ पंकज से मिलने उसके घर गया तो वह हमें देख कर बहुत खुश हुआ और उसने हमारी खूब आवभगत की। औपचारिकताओं के बाद मैंने समय बर्बाद न करते हुए मुद्दे की बात पर आते हुए पंकज से कहा, “

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कछुआ चाल

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जब हम दुबारा कालरा जी के पास गए तो उन्होंने हमसे अगले दिन शाम को अपने चेम्बर में आने के लिए कहा, जिससे वह कोर्ट के बाद इत्मीनान से केस के बारे में बात कर सकें। जब उनके बताए हुए समय पर हम वहाँ पहुंचे त

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अच्छे दिन?

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कोर्ट में बतायी गई तारीख पर जाकर हाजिरी लगाना और फिर बिना कुछ फैसला सुने लौट कर वापस आने की अब हमें आदत सी पड़ गई थी। समय का चक्र अपनी गति से चल रहा था और हम इंसाफ के मंदिर की चौखट पर हल्की सी आस की डो

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आटे दाल का भाव

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इधर मैं अपने केस में उलझकर दो-दो कोर्ट के चक्कर लगा कर अपनी एड़ियाँ घिस रहा था और उधर इस सब से अलग घर में कुछ और ही खिचड़ी पक रही थी। जब कभी भी मेरा घर जाना होता, तो पापा मम्मी और सब रिश्तेदारों का एक ह

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खुशबू –‘मेरे घर आई एक नन्ही परी’

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हमारा होने वाला बच्चा लड़का है या लड़की, इस बारे में भी और कई बातों की ही तरह मेरी और मेरी जीवन संगिनी कृष्णा की कल्पना बिल्कुल अलग-अलग थी। कृष्णा ने जहां उसे लड़का मान कर ‘प्रत्यूष’ नाम दिया वहीं मैं उस

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हाय नौकरी

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घर में क्योंकि अधिकतर लोग सरकारी नौकरी में थे इसलिए मेरा झुकाव भी सरकारी नौकरी की तरफ ही अधिक था और तब यही मेरी पहली पसंद थी। उन दिनों मोटी तनखा और अच्छी सुविधाओं वाली प्राइवेट नौकरियां वैसे भी बहुत क

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गुरु मंत्र

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अजय के घर में फोन था इसलिए मैंने उसे ऑफिस से फोन करके बता दिया कि अगले रविवार को मैं सुबह 10:00 बजे मेरठ पहुंच रहा हूं। उसने मुझसे बस-स्टैंड के पास ही ‘क्वीन रेस्टोरेंट’ में मिलने को कहा। रविवार को जब

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एसएसबी

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‘क्वीन रेस्टोरेंट’ में ही हमने लंच किया और फिर अजय मुझे बस स्टैन्ड तक छोड़ने आया। बस में बैठते समय अजय ने मुझसे पूछा कि अगर उसकी दी हुयी शिक्षा से मेरा सिलेक्शन एसएसबी में हो जाता है तो उसे क्या गुरु द

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सही चुनाव?

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जब आपके पास किसी बात के  दो विकल्प हों और उन दोनों में से एक के साथ आपका दिल और दूसरे के साथ आपका ही दिमाग खड़ा  हो तो इस द्वंद से जूझना बड़ी मुश्किल का काम होता है। मेरे साथ भी उस वक्त ऐसा ही हो रहा था

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अग्निपथ

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“नाना जी, आप सो रहे हो या टीवी देख रहे हो?”, नन्ही अद्विका नें अपने छोटे-छोटे हाथों से मुझे झिंझोड़ते हुए पूछा।  मैं जैसे एकदम से किसी दूसरी दुनिया से वापस लौट आया। अपने कालेज के दिनों की यादें जो मेर

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