जी करे कभी ख़त बन जाऊँ
मन के गर्भ की बात बताँऊ,
औरों को तो बहुत बताया,
आज खुद को खुद की बात सुनाऊँ,
मोह की सुई बाधुंँ प्रेम की डोर से,
शब्द शब्द के मोती पीरोंऊँ,
गुथूं सपनो की एक माला,
और उससे खुद ही सज जांऊँ,
बाधुँ ख्यालों की पायल पैरों में,
लपेटू चादर यादों वाली ,
खो जाऊँ पुराने सवालों की झुरमुट में,
टटोलू कुछ नए जवाबों की डाली,
चलूं अतीत की पगडंडि़यो पर
जिसमे महके बीते बातों की धूल ,
कुछ खिलखिलाते पन्ने सिकुडे़ से,
और उसमें वो सुखा सा एक फूल।
काश ,होती जो मै बूदँ शहद की
लफ़्ज़ों की प्याली में घुल जाती,
कल्पनाओं के पंख बाधँकर
उड़ती जाती .......बस उड़ती जाती.....
नंदिता माजी शर्मा ©®