इस लेख की शुरुआत उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्य्मंत्री मायावती के उस बयान से करना चाहूंगा, जिसमें उन्होंने कैराना मुद्दे को साम्प्रदायिक रंग देने के लिए भाजपा की कड़ी निंदा करते हुए खोजी पत्रकारों की तारीफ़ की. हालाँकि, प्रदेश की कानून-व्यवस्था के लिए उन्होंने अखिलेश यादव को भी जरूर घेरा लेकिन भारतीय जनता पार्टी के नेता उनके मुख्य निशाने पर रहे. मायावती ने अपने इस बयान में स्पष्ट कहा कि बीजेपी 'कैराना' मुद्दे को लेकर दंगे कराने में असफल रही और इसके लिए वह 'मीडिया की आभारी' हैं. अब चूंकि, बसपा और सपा की राजनीतिक प्रतिद्वंदिता जगजाहिर है, इसलिए अखिलेश सरकार की मायावती द्वारा की गयी आलोचना को एक औपचारिकता माना जा सकता है, लेकिन भाजपा पर उन्होंने जिस तरह से संगीन आरोप लगाई हैं, संयोगवश कई हलकों में यह बात गूँज रही है. अखिलेश सरकार को हम बेशक क्लीन-चीट नहीं दें, लेकिन यह बात मान लेनी चाहिए कि अखिलेश की विकास पुरुष छवि से परेशान होकर राजनीतिक विरोधी सिर्फ और सिर्फ 'साम्प्रदायिक कार्ड' का सहारा ले रहे हैं. खुद भाजपा की प्रदेश राजनीति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की केंद्रीय राजनीति से मेल नहीं खा रही है. एक तरह प्रधानमंत्री देश से विदेश तक विकास-विकास चिल्ला रहे हैं, वहीं यूपी में इस पार्टी के स्थानीय नेता 'कैराना' मुद्दे को ज़ोर शोर से उठाते हैं. कहाँ तक भाजपा के बड़े नेता इन आरोपों-प्रत्यारोपों की जांच की मांग करते और अखिलेश सरकार से इसकी जवाबदेही मांगते, लेकिन इसकी बजाय वह राजनीति करने में कुछ इस प्रकार जुट जाते हैं, मानो उनके हाथ 2017 का विधानसभा चुनाव जीत जाने का कोई 'अलादिनी चिराग' हाथ लग गया हो! ऐसी बातों से तो यही प्रतीत होता है कि अखिलेश की विकास पुरुष की छवि का मुकाबला करने में विपक्षी सीधी और साफ़ राजनीति से सक्षम नहीं हो पा रहे हैं, इसलिए वह कभी अंदरखाने तो कभी खुलकर 'साम्प्रदायिक कार्ड' खेलने का प्रयत्न करते हैं.
राजधानी दिल्ली से मात्र 100 किलोमीटर दूर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली जिले के गांव कैराना में 346 हिंदू परिवारों के घर छोड़ने का मामला खूब ज़ोर शोर से उठाया गया. सबसे पहले बीजेपी के शामली से सांसद हुकुम सिंह ने दावा किया था कि कैराना में रंगदारी, बढ़ते अपराध और अपराधियों को सत्ता के संरक्षण के कारण एक वर्ग के लोगों को कैराना से पलायन करना पड़ रहा है. इसके दो दिनों के बाद ही उन्होंने 346 हिन्दू परिवारों की सूची जारी की, जिसमें उन्होंने दावा किया कि इन लोगों ने 'समुदाय विशेष' द्वारा उत्पीड़न के चलते अपना घर छोड़ा है. इसके तुरंत बाद अखिलेश सरकार ने लगातार इन दावों को खोखला बताया, लेकिन जिन्हें राजनीति करनी थी वह तो करते ही हैं. इस मामले की राजनीतिक अहमियत भाजपा के लिए कितनी है, इसे हम कुछ यूं समझ सकते हैं कि खुद गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कैराना का दौरा करने का विचार बनाया तो, भाजपा ने मौके को लपकते हुए 15 लोगों की एक टीम का गठन करने की बात कह डाली, जो विवादित गांव का जायजा लेने पहुंचेगी. कैराना की सूची को लेकर भाजपा उत्साह में आ गई थी, जिसके कारण उसे आलोचना झेलनी पड़ी है. पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने इलाहाबाद में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भी इसे उठाया, जो किसी लिहाज से 'विकास की राजनीति' नहीं कही जा सकती है. अब जब सब बहती गंगा में हाथ धो ही रहे हैं, तो भला देश की कभी सबसे बड़ी पार्टी रही कांग्रेस कैसे पीछे रहती! अतः कांग्रेस ने भी राज्य सरकार को निशाने पर लिया और साथ ही साथ बीजेपी पर भी 2017 के चुनाव को लेकर हिन्दुओं के वोट का ध्रुवीकरण का आरोप भी लगा डाला. मतलब, मामला क्या है, लोगों की समस्याएं क्या हैं इस बात का किसी को पता नहीं, अगर पता है तो सिर्फ राजनीति करना. चूंकि, सपा सरकार में है इसलिए वह मामले पर सफाई देती रही लेकिन बसपा, भाजपा और कांग्रेस मुद्दे का राजनीतिकरण करने में लगे रहे. इस कड़ी में सबसे अहम बात ये है कि क्या कैराना का मामला सच में ऐसा ही है जैसा ये पार्टियां बता रही हैं?. क्योंकि कुछ न्यूज चैनलों की रिपोर्ट में स्थिति इतनी गम्भीर नहीं दिखाई गयी और दूसरी बात ये कि हिन्दू परिवारों के पलायन के मामले को तो तूल दिया जा रहा है, मगर 40 मुस्लिम परिवारों ने भी गांव छोड़ा है जिसे कोई हाईलाइट नहीं कर रहा है!
साफ़ जाहिर है कि प्रदेश सरकार को बदनाम करने के लिए राजनीति का 'गन्दा खेल' खेलने की कोशिश की गयी, जिसमें बिसात पर थी 'लोगों की जानें' और विभिन्न वर्गों के बीच का 'प्रेम'! खूब प्रचार किया गया कि कैराना दूसरा कश्मीर बनने जा रहा है, ताकि इससे आम आदमी के मन में क्रोध और खौफ का माहौल बन जाये. चूंकि उत्तरप्रदेश में सपा की छवि ऐसी रही है कि वह मुस्लिम समुदाय के कल्याण के लिए प्रयत्न करती है और उसकी इसी छवि को नकारात्मक रूप में पेश करने की खूब कोशिश की गयी. लोगों और राजनेताओं को इस बात के प्रति कृत संकल्प होना चाहिए कि किसी भी हाल में वह एक-दुसरे के खिलाफ न भड़कें, बल्कि अगर कहीं कानून-व्यवस्था की स्थिति कमजोर नज़र आती है तो वह कानून के लिहाज से ही आगे बढ़ें. गौर करने वाली बात यह भी है कि जितनी पार्टियां शोर मचा रही हैं, उनके बड़े नेता अगर चाहें तो ऐसी घटनाओं और अफवाहों की एक-एक परतें खुलकर सामने आ जाएँ, किन्तु वह ऐसा न करके 'राजनीति' करने को तरजीह देते हैं. आखिर, कोई नेता लोगों के बीच नफरत फैलाकर अगर चुनाव जीत भी जाता है तो वह प्रदेश में खुशहाली किस प्रकार ला सकेगा, इस बात में बड़ा संशय है. हालाँकि, अखिलेश यादव को भी इन मामलों पर बेहद कड़ा रूख अपनाना चाहिए, ताकि न केवल कानून-व्यवथा की स्थिति सुधरे बल्कि किसी को भी नकारात्मक राजनीति करने का अवसर ही न मिले! हालाँकि, समाज में एकता और कानून-व्यवस्था सबके सहयोग से ही चलता है और इस बात को सबको समझना होगा. इस कड़ी में सपा सरकार से मानवाधिकार आयोग ने भी इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए चार सप्ताह के अंदर राज्य सरकार से कैराना मामले में रिपोर्ट मांगी है. ऐसे में जो लब्बो-लुआब सामने आया है उससे इतना तो स्पष्ट है कि कैराना के लोग अवैध वसूली और गुंडागर्दी से परेशान हैं, जिसके कारण लोग पलायन को मजबूर हुए हैं, जिससे घरों में ताले लटक गए तो दुकानों के शटर बंद हो गए. लाखों के कारोबार करने वाले एक झटके में सड़क पर आ गए हैं, क्योंकि कुछ अपराधियों ने जबरदस्ती रंगदारी को अपना धंधा बना लिया है. जो प्रदेश सरकार की मंशा पर शक कर रहे हैं तो यहाँ बताना आवश्यक है कि जिन गुंडों और अपराधियों के आदेश पर ये वसूली की जाती है, वो बन्दे तो जेल में बंद हैं. ऐसे में साफ़ है कि 'अंदरखाने' यहाँ के हालात ठीक नहीं हैं, जिसमें एक पार्टी ही नहीं बल्कि दूसरी पार्टी के नेता भी छुपकर अपराध को बढ़ावा देने वाले हो सकते हैं. यह भी बहुत संभव है कि अखिलेश यादव की लोकप्रियता से परेशान होकर यह षड्यंत्र किया गया हो. अगर मामला वाकई इतना गम्भीर था, तो अब तक हुकुम सिंह सहित बाकी लोग कहाँ थे? इस मामले में अगर प्रदेश सरकार पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया जा रहा है तो बाकी कैसे पाक-साफ़ हैं?
हालांकि पलायन की सूची को जारी करने वाले क्षेत्र के भाजपा सांसद हुकुम सिंह ने गलतबयानी के लिए खेद जताया है, लेकिन पास के ही क़स्बे कांधला के 68 लोगों की नयी सूची भी जारी की है. पर नई सूची में 'हिन्दू' शब्द का प्रयोग नहीं है. हुकुम सिंह के इस बार हिंदू शब्द न इस्तेमाल करने को कुछ लोग उनके यू-टर्न के तौर पर देख रहे हैं और इसे लेकर पार्टी के अंदर बहस छिड़ गई है. कुछ न्यूज-रिपोर्ट में कैराना के स्थानीय लोगों का दावा है कि 6 व्यापरियों का कत्ल रंगदारी नहीं देने की वजह से हुआ है. अगर सच में यह सब उन्हीं कारणों से हुआ है तो मामला बेहद गम्भीर है और इसके लिए सब एक तरफ से दोषी हैं. जरूरत है कि सपा की प्रदेश सरकार के साथ मानवाधिकार और जरूरत पड़ने पर केंद्र सरकार सही रिपोर्ट लोगों के सामने लाये, क्योंकि सिर्फ यही एक रास्ता है, जिससे लोगों के मन में फैलते नफ़रत को रोका जा सकता है. सपा सरकार भी अपने चाटुकारों और उन 'नौकरशाहों' से सावधान रहे, जो गलतबयानी करके मुख्य्मंत्री अखिलेश यादव को गुमराह करते हैं, अन्यथा अखिलेश यादव ने बेशक कई विकास कार्य किये हों, किन्तु इस प्रकार की बातें नकारात्मक सन्देश देती हैं. हालाँकि, अखिलेश यादव को जितना देखा गया है, उसके अनुसार वह ऐसे मामलों में संजीदगी से कार्य लेते हैं और दुसरे नेताओं की तरह शोर मचाने की बजाय मामले की तह तक जाते हैं. साम्प्रदायिक राजनीति और गुंडागर्दी एंगल के अतिरिक्त, इस मामले में एक परत 'आर्थिक समस्याओं' की भी सामने आयी है, जिसके अनुसार कई लोग कैराना इसे इसलिए भी पलायन करने को मजबूर हुए क्योंकि उन्हें 'कारोबार में घाटा' हुआ.
कुछ न्यूज चैनल और अख़बारों की रिपोर्ट में इस बात का भी खुलासा हुआ कि जो सूची भाजपा के हुकुम सिंह ने जारी की थी, उनमें से कई इसी वजह से पलायन को विवश हुए हैं. अब यह समस्या तो भारत के कई क्या, लगभग सभी गाँवों की है. शहरीकरण के बढ़ते जोर ने लोगों को विवश किया है कि वह भी शहरों की ओर भागें, क्योंकि गाँव में अब रोजी-रोजगार कमाना मुश्किल हो चूका है. तमाम प्रदेशों की सरकारें तो इस बाबत जो ध्यान देंगी सो देंगी, लेकिन केंद्र में विराजमान भाजपा सरकार की जिम्मेदारी सर्वाधिक बनती है. अगर केंद्र इस मामले में सही कानून बनाएगा और राज्य उसे लागू करेंगे तो फिर भारत के गाँवों से पलायन का सिलसिला जरूर थमेगा. हालाँकि, इस पॉइंट के आधार पर किसी को भी 'गुंडागर्दी' करने की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए तो राजनीतिक पार्टियों को 'संप्रदायीक राजनीति का पत्ता फेंटने से पहले 'सवा सौ करोड़' बार सोचना चाहिए. आखिर, किसी भी तरह का सौहार्द बिगड़ता है तो वह कुछ सौ या कुछ हज़ार भर का मामला नहीं होगा, बल्कि वह सवा सौ करोड़ देशवासियों की सेहत पर फर्क डालेगा. अखिलेश यादव को विपक्षियों द्वारा अवश्य ही घेरा जाना चाहिए, लेकिन उनके विकास कार्यों पर और अगर 'कैराना' जैसा कोई सामाजिक मुद्दा सामने आता भी है तो उस पर राजनीति करने की बजाय प्रदेश सरकार के साथ मिलकर कार्य करना चाहिए. दुर्भाग्य से अखिलेश यादव को 'विकास के मोर्चे' पर कोई नहीं घेर रहा है, यहाँ विपक्ष को इस बात पर अवश्य ही विचार करना चाहिए. इसी में सबकी भलाई है, तो सबका हित भी इसी में है.