कहते हैं जो बाजी हारकर जीत जाए, वही सिकंदर कहलाता है. पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की सत्ता पर विराजमान समाजवादी पार्टी में जो कलह खुलकर सड़कों पर सामने आयी, उसने इस पार्टी के सामने विपक्ष की चुनौतियों के अतिरिक्त नयी चुनौतियां भी पैदा कर डाला. अगर आप राजनीति के इतिहास को देखें तो इस तरह के आपसी विवाद, लड़ाइयां कोई नयी बात नहीं है और खासकर ऐसी लड़ाइयां तभी सामने आती हैं जब सत्ता का हस्तांतरण नयी पीढ़ी को देने का समय आता है. महाभारत काल में ही देख लीजिये, जब पाण्डु और धृतराष्ट्र के बाद अगली पीढ़ी को सत्ता दी जाती है तब ही विवाद प्रारम्भ होता है और अंततः जो योग्य था उसे ही सत्ता मिली. आज़ाद भारत में भी तमाम ऐसी राजनीतिक पार्टियां हैं जो पीढ़ियों को सत्ता हस्तांतरण के दौरान तमाम विवादों से घिर जाती हैं. थोड़ा ईमानदारी से आंकलन किया जाए तो सपा -कुनबे में इस पूरे विवाद से (Akhilesh Yadav and Samajwadi Party, Political Image, Hindi Article) पार्टी को नुक्सान कम और फायदे ज्यादा हुए हैं. राहुल गाँधी की 'खाट सभा' से लेकर मायावती और अमित शाह के राजनीतिक जुमले तक सभी परदे के पीछे चले गए और हफ़्तों तक सिर्फ समाजवादी पार्टी ही चर्चा में बनी रही. लोगों का ध्यान इस बीच अखिलेश यादव की परफॉरमेंस पर कहीं ज्यादा टिका रहा और कहीं न कहीं यूपी की जनता के बीच यह सन्देश भी गया कि काश! इस नए लड़के को पूरी पावर मिलती तो यह उत्तर प्रदेश को हर तरह से आगे बढ़ाता! अखिलेश यादव के बारे में यह बात काफी हद तक सच भी है. कानून-व्यवस्था को लेकर सपा सरकार पर उंगलियां उठती रही हैं, किन्तु जनता के मन में यह बात बैठ चुकी है कि अगर अखिलेश राजनीतिक रूप से मजबूत हों तो वह न केवल विकास के मुद्दे पर बल्कि कानून-व्यवस्था जैसे प्रशासनिक मुद्दों सहित तमाम राजनीतिक मुद्दों पर भी ठोस पहल कर सकते हैं.
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इस पूरे मामले पर मुझे एक राजनीतिक वाकया याद आता है, जो मनमोहन सरकार के पहले कार्यकाल से सम्बंधित रहा है. यह बात सबको ही पता थी कि मनमोहन सिंह की नियुक्ति सोनिया गाँधी ने की थी और इसलिए पीएम होने के बावजूद उनकी सरकार में कांग्रेस के दूसरे नेताओं सहित गठबंधन नेताओं का काफी हस्तक्षेप भी रहा. मनमोहन सिंह परेशान रहे, किन्तु अपने पहले कार्यकाल के अंतिम दिनों में उन्होंने अमेरिका से परमाणु-समझौते पर दबंग रूख अपनाया, सरकार जाने की परवाह किये वगैर! खैर, सपा के सहयोग से उनकी सरकार भी बच गयी और अगले चुनाव में न केवल कांग्रेस पार्टी को ज्यादा सीटें मिलीं, बल्कि मनमोहन सिंह और भी मजबूत होकर उभरे! हालाँकि, अखिलेश यादव राजनीतिक रूप से मनमोहन सिंह से ज्यादा सक्रीय हैं किन्तु इस कार्यकाल में कहीं न कहीं अपनी सरकार में इधर-उधर के हस्तक्षेप से वह परेशान जरूर रहे हैं. चूंकि सौम्य और सभ्य हैं वह, इसलिए परिवार और पार्टी के बड़ों ने उन पर उचित अनुचित दबाव बनाये रखा. हालाँकि, पानी जब सर से ऊपर जाने लगा तो अखिलेश ने 'राजधर्म' निभाने में ज़रा भी कोताही नहीं की और वोट बैंक की चिंता किये वगैर न केवल आपराधिक छवि के मुख़्तार अंसारी से सम्बंधित पार्टी कौमी एकता दल के विलय को रद्द कर दिया बल्कि अपनी राजनीतिक हैसियत की खातिर शिवपाल यादव जैसे बड़े नेता के पर कतरने में भी विलम्ब नहीं किया. हालाँकि, बाद में सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव के फैसलों के आगे उन्होंने ज़िद्द भी नहीं की और उनकी यही खूबी उन्हें पार्टी और जनता में लोकप्रिय भी बनाती है. इस बात में कोई शक नहीं है कि 2012 में सत्ता हासिल करने में अखिलेश यादव का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, किन्तु नए होने के कारण उन्हें पूरा श्रेय नहीं दिया जाना चाहिए. हाँ, अब 2017 में अखिलेश ने जनता के सामने अपने कार्य और तेवर दिखला दिए हैं और अगर अब जनता उनमें भरोसा दिखलाती है तो निश्चित रूप से वह और भी ताकतवर होकर फैसले ले सकेंगे.
वैसे इस पूरे विवाद के बाद अखिलेश की लोकप्रियता बढ़ी ही है और इसे साबित करता है सी-वोटर द्वारा किया गया हालिया सर्वे! प्रदेश की 403 सीटों पर लगभग 11 हज़ार वोटर्स के बीच किये गए इस सर्वे में सपा के मजबूत वोट बैंक माने जाने वाले यादव और मुस्लिम वोटर्स के बीच अखिलेश क्रमशः 70.03 और 75.6 % तक लोकप्रिय हैं. सपा कार्यकर्ताओं में तो अखिलेश की लोकप्रियता 88.1 फीसदी तक है. इस सर्वे में 60 फीसदी से ज्यादा लोगों ने यह भी माना कि अखिलेश अपराध नियंत्रण की भरपूर कोशिश कर रहे हैं, किन्तु विभिन्न कारणों से वह आंशिक रूप से ही सफल हो पा रहे हैं. इस पूरे विवाद में अगर कहा जाए कि अखिलेश ने मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी समझने की कोशिश करते हुए एक्शन (Akhilesh Yadav and Samajwadi Party, Political Image, Hindi Article, Real Politics) लिया है तो कुछ गलत नहीं होगा. हालाँकि, खुले हाथ से डिसीजन लेने के लिए बड़ी राजनीतिक ताकत की जरूरत भी होती है. अगर मनमोहन सिंह की तरह अखिलेश यादव को दूसरा कार्यकाल जनता देती है तो यह समझना और देखना दिलचस्प होगा कि अखिलेश उन कार्यों पर क्या रवैया अख्तियार करते हैं, जो विभिन्न दबावों से इस बार वह नहीं कर सके! हालाँकि, उनके तेवर देखकर तो यही लगा है कि अगर उन्हें ठीक ताकत मिलती है तो वह 'राजधर्म' निभाने से चूकेंगे नहीं, बेशक उनके सामने कोई भी खड़ा हो! खुद सपा नेताओं को भी समझना चाहिए कि अखिलेश यादव के रूप में उनके पास तुरुप का इक्का है जिसकी सौम्य छवि न केवल पार्टी में बल्कि पार्टी से बाहर तक लोकप्रिय है.
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कांग्रेस, बसपा और भाजपा तक में प्रदेश स्तर पर अखिलेश जैसा कोई नेता नहीं है और यह बात खुद सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव, शिवपाल यादव, अमर सिंह और आज़म खान जैसे वरिष्ठ सपाई नेता बखूबी समझते हैं. भारी दबावों के बीच जिस प्रकार अखिलेश ने साढ़े चार साल बिना किसी बड़े विवाद के शासन किया है, वह अपने आप में एक बड़ी खूबी है. उम्मीद की जानी चाहिए कि अखिलेश की लोकप्रियता और जनता में उनकी साख को ध्यान में रखकर उनके अधिकार सुरक्षित रखे जायेंगे, खासकर टिकट बंटवारे में, जिसका यूपी सीएम ने खुले तौर पर ज़िक्र भी किया है. इस बात में दो राय नहीं है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में सपा के पास एक मजबूत, युवा और सौम्य चेहरा है, जिससे दूसरी पार्टियां प्रदेश स्तर पर अब तक महरूम ही हैं. ऐसे में उसका भरपूर उपयोग सपा के भविष्य के लिए सर्वाधिक फायदेमंद साबित हो सकता है, इस बात में ज़रा भी शक नहीं होना चाहिए.