एक ऐसे समय में जब न्यायपालिका पर सरकार के भारी पड़ने की ख़बरें आती रहती हैं, एक फिल्म न्यायपालिका की तरफ से जनता में अपनी गवाही देने आई है। फिल्म की कहानी आख़िरी सीन से शुरू होती है। कैमरा जब उठने के अंदाज़ में ज़ूम आउट होता हुआ कोर्ट रूम से बाहर आने लगता है, जाते-जाते जज साहब 3 करोड़ लंबित मुकदमों और इक्कीस हज़ार जजों की संख्या का हाल बताते हुए कहते हैं कि कभी-कभी तो ऐसे केस आते हैं जब लगता है कि बदबूदार कोर्ट रूम में अपने होने का मकसद सार्थक हो रहा है।आमतौर पर फिल्मी जज निर्जीव प्राणी की तरह होते हैं। सिस्टम में उस ईंट की तरह होते हैं जिसे कई साल पहले रामरस से रंग कर चला गया होता है।इस फिल्म में जज का स्वाभामिमान जागता है,इक़बाल पुकारता है,वो बड़े वकील के रूतबे के आगे झुकता है मगर छोटे वकील को मौका देता चलता है और आर्डर आर्डर करने के बजाय एक जज का हाल बताता है।हम इस फिल्म को देखते हुए एक ऐसी अदालत में होने की कल्पना कर रहे थे जिसके बाहर वकीलों का झुंड पत्रकारों को मार रहा है,अदालत के अंदर मीडिया के बनाए राष्ट्रवाद का उन्माद पसरा नज़र आ रहा है,और अनिर्बन,उमर और कन्हैया अपनी गिरफ्तारी के ख़िलाफ़ ज़मानत के लिए खड़े हैं। वो उस फरवरी की बात थी, ये इस फरवरी की फिल्म है जिसका नाम जॉली एल एल बी-2 है।
Film is a dramatic interpretation of history and the filmmaker is the bearer of historical truth- olive stone. इसका हिन्दी तर्जुमा यह हुआ कि एक फिल्म इतिहास का नाटकीय रूपांतरण होती है और फिल्म बनाने वाला ऐतिहासिक सच का वाहक होता है। सुभाष कपूर ने फिल्म के शुरू में इस कथन को क्यों डाला होगा। कितने तो लेख छपे होंगे कि बालीवुड के फिल्ममेकर अपने समय की राजनीति पर ख़ामोश रहते हैं। सरकार से भयभीत रहते हैं। जवाब नहीं देते हैं।जॉली एल एल बी-2 देखकर निकलेंगे तो पता चलेगा कि एक फिल्म निर्माता ने अपने तरीके से जवाब दे दिया है। वो न्यायपालिका में लंबित मुकदमों पर फिल्म बनाने नहीं चला था, पिछले वर्षों की राजनीति और उसके वाहक मीडिया को जवाब देने के लिए निकला था। निर्देशक फ़िल्म के बाहर बोल कर करोड़ों का नुकसान उठाने के डर से समझौता नहीं करता है बल्कि वही जवाब देने के लिए करोड़ों लगाकर फिल्म ही बना देता है और फिल्म चुपचाप चल पड़ती है।
बुर्का इलेवन बनाम घूंघट इलेवन और दाढ़ी इलेवन बनाम तिलक इलेवन के मैच में सट्टा का प्रसंग फालतू नहीं था।इस सट्टे के बहाने संजय मिश्रा का किरदार उस राजनीति को एक्सपोज़ करता है। उन तमाम बहसों को निर्रथक बना देता है,जो इन दिनों तलाक और बुर्का के बहाने न्यूज़ चैनलों पर चल रहे हैं। फिल्म सांप्रदायिक राजनीति के प्रचलित प्रतीकों को इस तरह से पकड़ के छोड़ देती है जैसे अब इनका इस्तमाल हो चुका है जितना होना था। चलो अब इनसे मनोरंजन किया जाए और सट्टा लगाया जाए।बनारस के घाट पर संजय मिश्रा का किरदार यूं नहीं कहता है कि बुर्का हो या घूंघट,भुगतना औरतों को ही होता है।
दर्शक किस तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त करता है,यह उसके भौगोलिक और मनौवै ज्ञान िक लोकेशन पर निर्भर करता है। किसी को यह फिल्म देश की कचहरियों के बाहर की दुर्दशा को एक्सपोज़ करने वाली लगती होगी तो किसी को फिल्म में बिहार और मध्यप्रदेश के व्यापम जैसे घोटाले की झलक दिखेगी। मैं इस फिल्म को देखते हुए पिछले एक साल की राजनीति से गुज़रने लगा,अलिव स्टोन के कथन के सहारे कि फिल्मकार अपने समय के ऐतिहासिक सत्य का वाहक होता है भले ही वह उस सत्य का नाट्य रूपांतरण करता है। इस फिल्म में सुभाष कपूर ने यही किया है। राजनीति में बंटे तमाम दर्शकों को एक कोर्ट रूम में बिठाकर उन्हें भावनात्मक उफ़ानों और सत्य के बीच फर्क करना सीखा रहा है। इस फिल्म में निर्देशक एक प्रोफेसर की भूमिका में है और दर्शक छात्र की। कहानी, स्क्रीन प्ले और निर्देशन का काम सुभाष कपूर ने ही किया है।
कोर्ट रूम में जब जगदीश्वर मिश्रा और प्रमोद माथुर टकराते हैं तो वहां के तमाम प्रसंग और संवाद हमारी धारणाओं को तोड़ने लगते हैं जिन्हें रोज़ मीडिया हमारे भीतर गढ़ रहा होता है।कोर्ट रूम में न्यूज़ चैनलों के ही प्रसंग हैं। प्रमोद माथुर अपने कमज़ोर क्षणों में राष्ट्रवाद, आतंकवाद और युद्ध का सहारा लेकर ताली बजवा लेते हैं। ठीक वैसे ही जैसे जे एन यू विवाद के समय एंकरों ने उन्माद फैलाने के लिए आतंकवाद के शिकार परिवारों और सैनिकों की शहादत का सहारा लिया था। कानपुर से लखनऊ आया अनगढ़ वकील जगदीश्वर चतुर्वेदी निहत्था हो जाता है। वो जिसका केस लड़ रहा है उस पर आतंकवादी होने का आरोप है,वह मुसलमान है, प्रमोद माथुर आतंकवाद के शिकार अपने परिवार के मुखिया यानी बाप को कोर्ट में लाकर अंतिम तर्क पेश कर देते हैं। टिपिकल न्यूज़ चैनल स्टाइल में। प्रमोद माथुर का वह संवाद कचहरी से नहीं आया है,जेनएयू वाले प्रसंग से आया है जब वह जज से कहता है कि आज देश देख रहा है कि आप किसके साथ खड़े हैं। आतंकवाद के साथ या इंसाफ के साथ।
मगर बाज़ी पलटती है। जगदीश्वर को तर्क मिलने लगते हैं। वो देख पाता है कि कादरी आतंकवादी है, कासिम नहीं। कासिम को कादरी बताकर एनकाउंटर में मारने के खेल में सिपाही भदौरिया की भी जान गई है। बाप की जानकी कीमत बेटे को मिले मुआवज़े का हिसाब गिना कर वसूला जा रहा है। प्रमोद माथुर की व्यक्तिगत त्रासदी और देश के ख़िलाफ़ युद्ध जैसे अकाट्य भावुक तर्कों के आगे धीरे धीरे संभलने लगता है। आख़िरी ओवर में संतुलित खिलाड़ी की तरह मोर्चा संभालता है और प्रमोद माथुर के उन्मादी तर्कों को ढेर करने लगता है। जब जॉली कहता है कि हमें न तो एनकाउंटर के नाम पर निर्दोष लोगों की हत्या करने वाला सूर्यवीर सिंह जैसा पुलिस अफसर चाहिए और बेकसूर लोगों को मारने वाला इक़बाल कादरी चाहिए। युद्ध और प्रेम में सब जायज़ नहीं हो सकता है।
अक्षय कुमार के अभिनय को पसंद करता हूं। उनकी ईमानदारी और साहस का कायल हो गया कि उन्होंने इस फिल्म में अभिनय किया। मीडिया की ख़बरों से पता चलता है कि कई बार राष्ट्रवाद के नाम पर अक्षय कुमार मीडिया और राजनीति की भावुकता के साथ खड़े नज़र आते हैं। इस फिल्म में वे उसी उन्माद के ख़िलाफ़ अपना सब कुछ दांव पर लगाते हैं और असली ज़िंदगी के अपने ही तर्कों पर सिनेमा की कहानी में जीत हासिल करते हैं। अक्षय संजीदा कलाकार हैं। कल्पना कर सकता हूं कि इस फिल्म को करने और देखने के बाद उनके कलाकार मन के चिथड़े उड़ गए होंगे। यह ऐसी फिल्म है जो अपने ही नायक को कटघरे में खड़ा कर देती है। आईना दिखा देती है। किसी भी नायक को अपनी फिल्म में जीतते हुए देखना ही अच्छा लगता होगा। मुझे नहीं मालूम कि फिल्म में जीत कर असली ज़िंदगी में हार को अक्षय ने कैसे देखा होगा। मैंने अक्षय कुमार के कलाकार मन के लिए ताली बजाई है।
जॉली एल एल बी-2 एक अच्छी फिल्म है। यह फिल्म आम लोगों से बातें करने आई है। आम लोगों को भी फिल्म से बातें करनी चाहिए। हुमा क़ुरैशी का अभियन अच्छा लगा। हुमा के अभिनय की एक खासियत है। वो अभिनय नहीं करती हैं। कहानी में इस तरह होती है जैसे कहानी ख़ुद उनको ढूंढती हो। कोर्ट रूम में उनका अकेले ताली बजाना एक संभावना की तरह लगा। वो उस उन्मादी भीड़ के सामने खड़ी होकर ताली बजाती है जिसे सिर्फ राष्ट्रवाद के नाम पर कोरी भावुकता पसंद आती है। तथ्यों और इंसाफ़ से बड़ा कुछ नहीं होता। प्रेम और युद्ध में सबकुछ जायज़ नहीं होता है। सुभाष कपूर ने इस फिल्म में ब्रांड के लिए लखनऊ वालों की सनक को बहुत सलीके से पेश किया है। मेरी निर्देशक से एक गुज़ारिश है कि वे हुमा क़ुरैशी को गुच्ची का एक ड्रेस तोहफे में दे ही दें। यह फिल्म असली ज़िंदगी के पर्दे पर सही होने की कहानी है, इसलिए असली ज़िंदगी में कहानी भी सच हो जाए तो मज़ा आ जाए। गुच्ची का ड्रेस मिलना ही चाहिए!