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अपराध बोध

13 मई 2022

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मैं हवाई जहाज से उतरते ही एक अजीब चिपचिपाहट में घिर गया था। बस बंबई की सबसे खराब चीज़ मुझे यही लगती है। एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही सामने कंपनी की गाड़ी थी। मैं फटाफट उसमें बैठ गया और वह दुम दबाकर भाग खड़ी हुई। बंबई में कुछ नहीं बदला था फिर भी बहुत कुछ बदल गया था। कार कालिमा में लिपटी सड़क को रौंदती हुई, बंबई के लोगों को पीछे ध्केलती हुई भागे जा रही थी। बीच, इमारतें, पेड़, लोग सब पीछे छूटते जा रहे थे।

दोपहर के दो बजे थे। बीच सुस्ता रहा था। सूरज और समुद्र में द्वंद्व युद्ध चल रहा था। लहरें आ-आकर बार-बार झुलसी रेत को लेप कर रही थीं, उसके ज़ख्मों को सहला रही थीं। बंबई की रफ्रतार शाम और रात की बजाय इस समय कुछ कम थी या शायद चिपचिपाहट की नदी ने सबकी रफ्रतार को कुछ कम कर दिया था 

कितनी अजीब बात है.... मेरे लिए बंबई नया नहीं है.... मैं हर महीने यहां आता हूँ...... लेकिन आज बंबई बिल्कुल नया शहर लग रहा है जैसे मैं पहली बार यहां आया हूं या फिर मेरी दृष्टि में कुछ बदल गया है या फिर मुझे बंबई को देखने की फुर्सत ही अब मिली है।

हमेशा तो मैं टैक्सी में बैठते ही कैफ़ी को फोन मिलाने लगता था या फिर होटल तक पहुंचने तक का सारा समय उसे नान-वेज जोक्स भेजने में ही बिताता था जो दोस्तों ने मुझे भेजे होते थे। कब ताज पैलेस आ जाता था पता ही नहीं चलता था। आज सब बदल गया है या फिर मेरी आंखों पर से कैफ़ी का पर्दा हट गया है और उसके नीचे से सब अपने वास्तविक रूप में नज़र आने लगा है। सड़क के दोनों ओर की इमारतें मैंने पहली बार देखी थीं।

दो साल पहले यहीं ताज पैलेस में ही कैफ़ी से मुलाकात हुई थी, मैं अपनी पत्नी से बेहद प्यार करता था। पत्नी के बिना रहना मेरे लिए सचमुच एक प्रताड़ना से कम नहीं होता था। फोन पर बातें करते रहने के बाद भी मैं उसकी कमी बंबई में महसूस करता था। उसकी नौकरी के कारण उसे साथ लाना भी संभव नहीं होता था। आॅफिस के बाद शामें और रातें बड़ी वीरान होती थीं। ऐसे में कैफ़ी का मिलना किसी मूल्यवान तोहफ़े के कम नहीं था। शुरु-शुरु में हम दोनों बस साथ घूमते, चाय पीते, बातें करते। 

सच कहता हूं मैं तब भी पत्नी को बहुत प्यार करता था। कैफ़ी का होना पत्नी के प्रति प्यार को तनिक भी कम नहीं कर पाया था। दिल्ली में रहते हुए मैं अब भी पूरी तरह एक समर्पित पति था। उसकी व्यस्तताओं को कुछ कम करने की कोशिश करता, उसकी हर इच्छा-अनिच्छा का ध्यान रखता। वह भी मुझे बेहद प्यार करती। उसकी क्षमताओं पर कभी-कभी मुझे हैरत होती। मैं उसके साथ एक सुखद गृहस्थ का अनुभव करता था। लेकिन जाने क्यूं कभी-कभी मैं चाहने लगता कि वह कैफ़ी की अदा में बिस्तर पर क्यों नहीं आती पर मैं शीघ्र ही इस ख्याल को मन से निकाल देता। उसकी व्यस्तताओं के बारे में सोचता और शीघ्र ही उसे अर्धांगिनी के शीर्षासन पर बैठा देता। मैं सौगंध खाकर कहता हूं मैंने उसे कभी कैफ़ी से कमतर नहीं आंका। कैफ़ी के मुकाबले उसकी गरिमा के आगे हमेशा नतमस्तक हुआ हूं।

 

लेकिन यह भी सच है कि कैफ़ी का अध्याय भी बंबई में खुल चुका था। दोनों शहरों में मैं अलग-अलग दो जिं़दगियां जी रहा था और दोनों का लुत्फ़ उठा रहा था।

मेरी पत्नी दिल्ली में अकेली मेरे रिश्तेदारों के साथ निभाती, नौकरी भी करती, घर भी देखती, मेरे मां-बाप का भी ध्यान रखती। मैं कैफ़ी के आगे भी उसकी प्रशंसा करता। उसकी असीम क्षमताओं का बखान करता। मैं आशा करता कि कैफ़ी पत्नी की प्रशंसा से रुष्ट होगी पर ऐसा कभी नहीं हुआ। मैंने सुना था ईष्र्या औरत का दूसरा नाम है पर कैफ़ी में मुझे कोई ईष्र्या नज़र नहीं आई।

एक दिन मैंने मूर्खता की थी जो उससे पूछ लिया था और उसके जवाब से भीतर कहीं खुद ही शर्मिंदा हुआ था। ‘‘मैं क्यों ईष्र्या करूंगी तुम्हारी पत्नी से? हम दोनों औरतें दो अलग-अलग नदियों के समान हैं। हमारे रास्ते अलग-अलग हैं। हमारे रास्ते हमारे चुने हुए रास्ते हैं। हमें अपनी सीमाओं का पता है। अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर नदी अपना स्वरूप खो देती है और विनाश करने वाली बाढ़ बन जाती है। कोई भी औरत बिना वजह बाढ़ नहीं बनती, उसे बाड़ बनने में ही सुख मिलता है।’’ 

पहली बार मुझे कैफ़ी में भी कुछ गहराई नज़र आई थी। मैं समझ गया था हर औरत की महिमा न्यारी है।

बहरहाल मैं बंबई और दिल्ली में दो अलग-अलग जन्म गुज़ार रहा था और खुश था। पत्नी को मैंने कैफ़ी के बारे मेें कुछ नहीं बताया था। अपने मोबाइल में मैंने उसका नाम मोहम्मद कैफ़ के नाम से फीड किया था। ऐसा नहीं कि मेरे फोन में किसी लड़की का नाम फीड नहीं है। आॅफिस की सब लड़कियों के नाम और नंबर फीड हैं और मेरी पत्नी ने कभी इस ओर झांका भी नहीं पर चोर की दाढ़ी में तिनका होता है इसलिए कैफ़ी मेरे मोबाइल में मोहम्मद कैफ़ थी।

दुनिया में शायद मुझ जैसा सुखी इंसान कोई नहीं था। मैं सदा सुख से मदमस्त, लहराता घूमता। दोस्त भी कहने लगे थे, ‘‘तू तो शायद कभी शादी के बाद भी यूं नहीं दमका।’’

 

धीरे-धीरे मेरे सपनों में भी कैफ़ी ने जगह बना ली थी। उसका सौंदर्य मुझे बांधे था। एक बार उसने कहा भी था, ‘मेरे पेश का उसूल है, काम, दाम और बाय-बाय। सिर्फ़ तुम हो जिसके साथ मैं बातें करती हूं वरना यह मेरे पेशे के उसूलों के खिलाफ है।’’

मैं जानता था मेरे न रहने पर वह ग़ैर मर्दों के साथ रात बिताती थी। मैं उसके लिए भावुक होने लगा था। मैं उसके लिए सोच कर परेशान हो उठता। पता नहीं वह कैसे सहती होगी इतनी हिंसा, उसका मन तार-तार रोता होगा।

 

एक बार पूछा तो कहने लगी अब आदत हो गई है। पहली बार कपड़े उतारना बड़ा तकलीफ भरा और कष्टदायक था। उसके बाद झिझक खुल गई। अब तो आदमियों की शक्ल देखते ही उसकी किस्म पता लग जाती है। 

भविष्य के बारे में पूछा था तो टका-सा जवाब दिया था कैफ़ी ने, ‘‘मैं सिर्फ़ वर्तमान में जीती हूं।’’ परिवार के बारे में पूछा था तो चेहरा सख्त हो गया था और बोली थी, ‘‘मैं अकेली हूं, कोई मेरा अपना नहीं है।’’

‘‘मुझे अपना नहीं मानती।’’ मैंने प्रश्न उसकी ओर उछाल दिया था और आंखें उसके चेहरे पर गड़ा दी थीं।

कुछ झिझक कर वह बोली थी, ‘‘तुम तो मेरे कस्टमर हो। हां, बस एक बात है निर्मम नहीं हो।’’

अपनी जितनी प्रशंसा मैं उसके मुंह से सुनना चाहता था उतनी उसने नहीं की मैंने बात को आया-गया कर दिया।

फिर जाने क्या हुआ, एक भयंकर तूफान आया। दिल्ली-बंबई दोनों शहर उसमें समा गए। सब तहस-नहस हो गया। तूफान मुझे बहाए लिए जा रहा था। मेरे पैर उखड़ने लगे थे। तेज़ हवा में मैं आंखें खोलने की कोशिश कर रहा था पर असफल हो रहा था। मैं अपने हाथों से चीज़ों को पकड़ने की नाकाम कोशिश कर रहा था। मैं चाहता था कुछ तो साबुत बच जाए।

 

मैंने अपनी कपड़ों की अलमारी में किसी और के कपड़े टंगे देखे थे। पत्नी ने उन संबंधें को स्वीकार कर लिया। यह एक इत्तेफाक था कि मैं पत्नी को बिना बताए दो दिन पहले घर लौट आया था। मैंने उसे एक थप्पड़ रसीद किया और बंबई चला आया। इस भयंकर तूफान में भी थप्पड़ की वह अनुगूंज खो नहीं पाई थी।

मैं भीतर से बिखरने लगा था।

मैं लगातार कैफ़ी को फोन कर रहा था। इन पलों मंे मुझे एकमात्र उसी का सहारा था। सिर्फ़ वही गोद थी जहां मैं रो सकता था। सिर्फ़ वही वक्ष था जो मुझे आश्रय दे सकता था। पर वह फोन नहीं उठा रही थी। बार-बार एक ही गाना बज रहा था और उस गाने को सुनकर मुझे और बेचैनी हो रही थी।

 

खोलो खोलो दरवाजे़,

परदे करो किनारे।

खूंटे से बंधी है हवा,

मिल के छुड़ाओ सारे।

मुझे लग रहा था कोई मुंह चिढ़ा रहा है।

यह भी ठीक है कि मैंने उसे अपने आने की पूर्व सूचना भी नहीं दी थी। मैं यह भी जानता हूं वह दिन में कहीं आना-जाना पसंद नहीं करती। धूप और चिपचिपाहट उसे बर्दाश्त नहीं।

 

एक दिन कह रही थी तपस्वी और वेश्या दिन में सोते हैं। जब सारी दुनिया सोती है तो ये दोनों जागते हैं। शायद वह सोई हो। 

मैंने उसके फोन पर शीघ्रातिशीघ्र मिलने का मैसेज छोड़ दिया था। पर उसका न फोन आ रहा था न मैसेज। मेरी बेचैनी और घबराहट बढ़ती जा रही थी।

मैं होटल के कमरे में अकेला था। वेटर भी पहचानने लगा था। मेरे चेहरे की व्यग्रता को समझकर वह भी तमाचा मार गया था, ‘‘कैफ़ी मैडम आती ही होंगी। बंबई की सड़कों पर ट्रैफि़क भी बहुत है कहीं जाम में फंसी होंगी।’’ जी में आया उसका मुंह तोड़ दूं। उसकी हिम्मत कैसे हुई पर एक और बवाल खड़ा करने की हिम्मत नहीं हुई।

मेज़ पर पानी का जग था और खाली दो गिलास उल्टे रखे थे। मैं बार-बार अपने जीवन को उन खाली उल्टे गिलास से जोड़ने लगा। मुझे दोनों में अद्भुत साम्य नज़र आया।

खिड़कियों पर सज्जित परदों से छनकर आती रोशनी से पता लग रहा था कि अभी भी सूरज देवता ठंडे नहीं हुए हैं। अभी भी कैफ़ी सोई होगी या कहीं पार्लर में बैठी होगी।

 

होटल का कमरा गुनगुना उठा। मैंने जल्दी से भागकर फोन उठाया, पत्नी का फोन था, मैंने फोन काट दिया। मैं उसकी शक्ल भी देखना नहीं चाहता था।

‘‘मैं बहुत अकेली हो गई थी। कब सब हो गया मुझे पता ही नहीं चला पर अब ऐसा नहीं होगा। प्लीज़ एक बार मुझे माफ कर दो।’’ पत्नी का मैसेज आया था।

मैं अपने आपको अपमानित महसूस कर रहा था। अपमान के इस दंश को सहना मेरे लिए दुष्कर था। मुझे लग रहा था अगर इस समय मेरी पत्नी सामने होती तो शायद मैं उसका गला दबा देता।

मैंने फिर फोन मिलाने की कोशिश की। वही गाना मुझे मुंह चिढ़ा रहा था।

‘‘हैलो।’’ उसने फोन उठा लिया।

 

‘‘मैं कब से फोन मिला रहा हूं तुम फोन उठाती क्यों नहीं।’’ मैं लगभग गुस्से से चिल्ला पड़ा।

‘‘मैं तुम्हारी बीवी नहीं हूं, ठीक से बात करो।’

मैं सकपका गया था।

कैफ़ी से इस व्यवहार की उम्मीद नहीं थी।

‘‘फोन तो उठा सकती थीं।’’ मैंने स्वर को कुछ कोमल बनाया।

‘‘तुम्हें पता है मैं दिन में कहीं आती-जाती नहीं।’’

‘‘कभी इमरजेंसी में तो अपना व्रत तोड़ सकती हो।’’

कुछ बोली नहीं थी कैफ़ी।

‘‘कितने बजे पहुंचना है?’’

‘‘अभी, जितनी जल्दी हो सके।’’

वह कुछ नहीं बोली।

 

‘‘मैं इंतज़ार कर रहा हूं।’’ मैंने कहा और मोबाइल बंद कर दिया। मुझे सारे कमरे में सिर्फ़ अपनी पत्नी का चेहरा नज़र आ रहा था और मेरी कपड़ों की अलमारी में टंगे उस आदमी के कपड़े... जो मेरी गैरहाजि़री में मेरी पत्नी के साथ मेरे ही बिस्तर पर .... मैं आपे में नहीं था। मैंने होटल के कमरे में बैड पर बिछी चादर ही नोच डाली।

मेरा सिर गुस्से से भन्नाने लगा था। मैं गुस्से में एक गिलास तोड़ चुका था।

मैने व्हिस्की मंगा ली। मैं पूरी तरह उसमेें डूब जाना चाहता था।

अब मैं निराशा के समुंदर में गहरे कहीं डूबता जा रहा था। कैफ़ी आ गई थी। वह चुप थी। उसने आकर न कुछ पूछा न कुछ कहा। वह ज्यादातर चुप ही रहती थी। उसे बुलवाना पड़ता था।

 

मैं बालकनी में खड़ा था। बंबई शहर बहुत छोटा हो गया था। तेइसवीं मंजि़ल से नीचे चलते लोग चींटे चींटियां लग रहे थे और कारें भागते हुए कुछ बिंदु। कैफ़ी भी मेरे पास बालकनी में आ खड़ी हुई थी। कुछ देर पहले मैं उसे बहुत कुछ कहना चाहता था पर अब एकदम खामोश हो गया। मेरे हाथ में अब भी शराब थी। मैं सोच रहा था जब ईश्वर ने हमें अकेले पैदा किया है तो हम क्यों रिश्तों के बंधनों में बंधते हैं। रिश्ते हैं तो आशा और उम्मीद है। उम्मीदें हैं तो कष्ट हैं, दुःख हैं।

गिलास में जितनी शराब थी मैंने एक घूंट में पी ली।

कैफ़ी मुझे बालकनी से अंदर ले आई थी।

उसने दरवाज़ा बंद करके परदा खींच दिया। कमरे में मद्धिम रोशनी थी। वह मेरे चेहरे की ओर लगातार देख रही थी। जैसे वह जानना चाहती हो कि इतना हड़कंप क्यों मचा रखा था।

 

कैफ़ी, तुम जानती हो मैं अपनी पत्नी से कितना प्यार करता हूं लेकिन वह किसी और के साथ ....

मेरी मुट्ठियां कस गई थीं, कैफ़ी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। मैं उससे प्रतिक्रिया चाहता था। मैं चाहता था वह मेरी पत्नी के कुकृत्य पर उसे लताड़े पर वह चुप थी। यह सब मेरे लिए असहनीय था।

‘‘उसे क्या ज़रूरत थी मुझे ज़लील करने की, उसने एक बार भी नहीं सोचा।’’

‘‘तुमने एक बार भी सोचा था?’’ उसने सवाल दागा।

गुस्से में मैं हकलाने लगा था।

‘‘ये औरतज़ात ....’’ मैंने अभी वाक्य पूरा भी नहीं किया था कि शेरनी की तरह लपककर कैफ़ी मेरे सामने आ खड़ी हुई। उसने अपने पेशे के उसूलों को ताक पर रख दिया था।

 

‘‘तुम बीबी को थाली में सजाकर ज़लालत पेश करो, कोई बात नहीं। अगर वह भी उसी थाली में वही ज़लालत वापिस परोस दे तो लगे औरतज़ात को गाली देने। औरतज़ात को तब कोसते जब तुम यहां मेरे साथ न होते।’’

मेरा मुंह खुला का खुला रह गया।

कैफ़ी ने उसी बिस्तर पर थूक दिया। उसने आगे बढ़कर पर्स उठाया और कमरे से बाहर चली गई।

मैं आंखे फाड़े उसकी गर्वोन्नत चाल को देखता रहा।

कैफ़ी का अध्याय जहां से शुरू हुआ था वहीं खत्म हो गया।

 

वह अब मेरे फोन काट देती है।

मैं और पत्नी साथ रह रहे हैं पर हमारे भीतर बहुत कुछ पहले जैसा नहीं रहा। पत्नी की आंखों में गहरा अपराधबोध देखकर मुझे भीतर कहीं खुशी मिलती है।

मैंने अपने और कैफ़ी के संबंध में उसे कुछ नहीं बताया है। मुझे कोई अपराधबोध नहीं सालता।

मैं बंबई अब भी आता हूं। अब भी ताज पैलेस में ठहरता हूं पर अब फोन करने के बावजूद कैफ़ी नहीं आती।

ताज की वीथियों में अब भी हमारी चर्चा है। 


Monika Garg

Monika Garg

बहुत सुंदर रचना आशीष जी आपने मेरी दूसरी रचना पर समीक्षा दी है आप ये लिंक वाली रचना के भाग पर कमेंट करें https://shabd.in/books/10080388

14 मई 2022

आशीष जैन

आशीष जैन

14 मई 2022

Mujhe is link se copy nahi ho paa raha so sabhi par kar diya

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