अरे ओ नदी ! –(निबंध) - ।।
पंकज त्रिवेदी ।।
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अरे ओ नदी ! तुम क्यूं बहाना ढूँढती हो मुझे मिलने
के लिए ! इतने पत्थर, कंकरों
से
अपनेआप को घसीटती हुई । इठलाती, बलखाती हो, यही
बहाने से दुनिया के लोगों से आँखें चुराती हुई ! नीकल पड़ी हो तुम मन की दृढ़ता और
दिल में प्यार का उमंग लिए । फिर भी क्यूं हिम्मत से नहीं कह पाती कि मैं तो चली
अपने पिया को मिलने...!
तुम नदी हो । तुम्हारी पवित्रता की लोग मिसाल देते
हैं । दुनिया की भीड़ से तुम गंदकी को घसीटकर इसी ज़मीं में इस कदर मिला देती हो
जैसे कुछ मैला है ही नहीं ! तुम्हारे मार्ग पर अनगिनत लोगों के मुंह से निकलते
तानों के कांटो से लहुलुहान होती हुई आगे बढ़ती रहती हो और फिर भी तुम्हारी
निर्मलता पर ऊंगली उठाने वाले ही तुमसे पवित्रता की अपेक्षा रखते है और कभी-कभी
दुहाई देते हैं ।
अरे ओ नदी ! ये वही लोग है जिनके लिए तुम जीवन हो, माँ हो ! सबकुछ होते हुए भी यही लोग
तुम पर कीचड़ उछालने का मौका गँवाते नहीं । मगर एक बात ध्यान सुन लो । तुम ही माँ
हो ! तुम्हें ही माफ़ करना होगा उन लोगों को जो सबकुछ समझते हुए अपने गिरबां को
झांकते नहीं और दूसरों पर अंगूलिनिर्देश करने में पीछे भी नहीं रहते ।
सच यही है, ऋषि भगीरथ ने तुम्हें इन्हीं लोगों के लिए धरती पर अवतरित बहने के लिए
तपस्या की थी मगर वो भी तुम्हारी पवित्रता को, तुम्हारी
आत्मिक शक्ति को झेलने के लिए असमर्थ थे और देवाधिदेव शिव ने तुम्हारी अखंडित धारा
प्रवाह को अपनी जटा में समेटकर जो सम्मान दिया था, वो भला
यह मनुष्य के बस में कैसे होगा?
तुम माँ हो ! माफ़ करती रही हो आजतक और आगे भी करोगी
मगर इन्हीं लोगों के कल्याण के लिए तुम्हें बहना होगा । मेरी क्या विसात है, क्या पात्रता है मगर तुमने भी मुझे
सम्मान देते हुए, मेरे समंदर होने का गर्व अखंडित रखा है
और तुम ही हो जो विनम्रता से बहती हुई आकर मुझमें समाती हुई मुझे कह रही हो जैसे –
'धैर्य रखना अब तुम्हारा काम है !' – और
मैं तुम्हारे आदेश के लिए सबकुछ सहता हुआ धीर-गंभीर समाधिस्थ हूँ । क्यूंकि
कल्याणकारी देव शिव के आदेश के लिए इस धरती के लोगों के लिए तुम ही कल्याणकारी हो
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