आँगन में पेड़ से गिरने लगे हैं पत्ते आजकल । कड़ी धूप खिलती है गर्मजोशी से और चलती है, बेतहाशा गर्म हवा जिस्म को जलाती हुई । शाम होते होते आँगन के झूले पर बैठ जाती है, मेरे अंदर तक मदहोशी की ठंडी हवा लिए । रात नशे का जाम बनकर पिघलती है । दिनभर की थकान लिये अधलेटा सा तख़्त पे । आँखें मूंद कर मैं सोचता हूँ सिर्फ तुम्हारे लिए । तुम पास न होकर भी कितनी करीब होती हो । तुम्हारी बातों में प्यार की मस्ती जाम लिए, मेरी थकान को उतारती मीठी बातों से… प्रियतमा से कब माँ बन जाती हो तुम !
तुम औरत हो और धरती का छोर होता है घर । प्रियतमा का प्यारभरा जाम न जाने कब वात्सल्य का अमृत बनकर मेरे अंतस तक पहुँच जाता है । मैं दिनभर का बोझ उतार देता हूँ एक ही पल में, रखकर तुम्हारी गोद में सर अपना । और मैं सुख की रियासत का राजा बनकर तुम्हारे प्यार में डूब जाता हूँ बेख्याली में ।
तुम औरत हो । न जाने कितने रूप है तेरे । ऐसा लगता है कि इस दुनिया को चलाने के लिए ईश्वर भी चाहकर खुद को बाँट नहीं पाता । हर किसी के लिए वो भी तरसता है, तेरे मेरे दिल में खुद को स्थापित करने को । कहीं ऐसा तो नहीं कि वो औरत के रूप में करुणासागर साक्षात् हो !
तुम्हारे प्यार का अहसास ही मुझे पलपल दिव्यता और निर्मल प्रेम देता है । जीवन को स्पंदन और प्राणों को धड़कन देता है निरंतर । मैं तुम्हारी आभा से चकित होता हुआ अपनी सम्पूर्ण चेतना और
पावनता लिए, पिघलकर समर्पित हो जाता हूँ तेरे प्रेम में !
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