बचपन
वो मुझको वापस बुलाता मेरा गांव
वो पीपल की छइयां
वो इमली की फलियां
वो आमों से लदी पेड़ों की डालियां
वो ताऊ की चौपाल
वो गऊएं चराते गोपाल
वो दिन ढलते सब का नहर पर मिलना
वो गिल्ली और डंडा ,वो कंचे की गोटियां
वो गुड़िया की शादी
वो बजे की धुन पर नाचते बाराती
वो अम्मा के हाथों की रसोई
हर निवाले में जैसे मिसरी हो घोली
वो मिटटी की सोंधी महक
वो गांव की गोरियों की खनक
वो बड़ों को देख अदब से झुकना
उनकी डांट को भी आशीष समझना
वो पड़ोस की दादी, नानी और चाची
सबने लुटाई प्यार की बरखा सदा ही
हर रिश्ते में पगी हुयी थी इतनी मिठास
सब का था एक दूजे पर विश्वास
वो टेसू और गुलाल की होली
वो हर जगह गूंजती हंसी और ठिठोली
वो गुजिया की मिठास
वो मन में सब के प्रति अनुराग
वो दशहरा की धूम ,वो दिवाली की रौनक
वो मेले ,वो किस्से
न रहे अब वो दिन ,न रही अब वो बातें
कितना भोला था ,कितना नादान था हमारा बचपन
आज समय से पहले ही बूढा हो गया बचपन