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बादल राग

11 अप्रैल 2022

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झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर।

राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!

झर झर झर निर्झर-गिरि-सर में,

घर, मरु, तरु-मर्मर, सागर में,

सरित-तड़ित-गति-चकित पवन में,

मन में, विजन-गहन-कानन में,

आनन-आनन में, रव घोर-कठोर

राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!

अरे वर्ष के हर्ष!

बरस तू बरस-बरस रसधार!

पार ले चल तू मुझको,

बहा, दिखा मुझको भी निज

गर्जन-भैरव-संसार!

उथल-पुथल कर हृदय

मचा हलचल-

चल रे चल-

मेरे पागल बादल!

धँसता दलदल

हँसता है नद खल्-खल्

बहता, कहता कुलकुल कलकल कलकल।

देख-देख नाचता हृदय

बहने को महा विकल-बेकल,

इस मरोर से- इसी शोर से-

सघन घोर गुरु गहन रोर से

मुझे गगन का दिखा सघन वह छोर!

राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!

सिन्धु के अश्रु!

धारा के खिन्न दिवस के दाह!

विदाई के अनिमेष नयन!

मौन उर में चिह्नित कर चाह

छोड़ अपना परिचित संसार

सुरभि का कारागार,

चले जाते हो सेवा-पथ पर,

तरु के सुमन!

सफल करके

मरीचिमाली का चारु चयन!

स्वर्ग के अभिलाषी हे वीर,

सव्यसाची-से तुम अध्ययन-अधीर

अपना मुक्त विहार,

छाया में दुःख के अन्तःपुर का उद्घाचित द्वार

छोड़ बन्धुओ के उत्सुक नयनों का सच्चा प्यार,

जाते हो तुम अपने पथ पर,

स्मृति के गृह में रखकर

अपनी सुधि के सज्जित तार।

पूर्ण-मनोरथ! आए

तुम आए;

रथ का घर्घर नाद

तुम्हारे आने का संवाद!

ऐ त्रिलोक जित्! इन्द्र धनुर्धर!

सुरबालाओं के सुख स्वागत।

विजय! विश्व में नवजीवन भर,

उतरो अपने रथ से भारत!

उस अरण्य में बैठी प्रिया अधीर,

कितने पूजित दिन अब तक हैं व्यर्थ,

मौन कुटीर।

आज भेंट होगी

हाँ, होगी निस्संदेह

आज सदा-सुख-छाया होगा कानन-गेह

आज अनिश्चित पूरा होगा श्रमिक प्रवास,

आज मिटेगी व्याकुल श्यामा के अधरों की प्यास।

सिन्धु के अश्रु!

धरा के खिन्न दिवस के दाह!

बिदाई के अनिमेष नयन!

मौन उर में चिन्हित कर चाह

छोड़ अपना परिचित संसार

सुरभि के कारागार,

चले जाते हो सेवा पथ पर,

तरु के सुमन!

सफल करके

मरीचिमाली का चारु चयन।

स्वर्ग के अभिलाषी हे वीर,

सव्यसाची-से तुम अध्ययन-अधीर

अपना मुक्त विहार,

छाया में दुख के

अंतःपुर का उद्घाटित द्वार

छोड़ बन्धुओं के उत्सुक नयनों का सच्चा प्यार,

जाते हो तुम अपने रथ पर,

स्मृति के गृह में रखकर

अपनी सुधि के सज्जित तार।

पूर्ण मनोरथ! आये

तुम आये;

रथ का घर्घर-नाद

तुम्हारे आने का सम्वाद।

ऐ त्रिलोक-जित! इन्द्र-धनुर्धर!

सुर बालाओं के सुख-स्वागत!

विजय विश्व में नव जीवन भर,

उतरो अपने रथ से भारत!

उस अरण्य में बैठी प्रिया अधीर,

कितने पूजित दिन अब तक हैं व्यर्थ,

मौन कुटीर।

आज भेंट होगी

हाँ, होगी निस्सन्देह,

आज सदा सुख-छाया होगा कानन-गेह

आज अनिश्चित पूरा होगा श्रमित प्रवास,

आज मिटेगी व्याकुल श्यामा के अधरों की प्यास।

उमड़ सृष्टि के अन्तहीन अम्बर से,

घर से क्रीड़ारत बालक-से,

ऐ अनन्त के चंचल शिशु सुकुमार!

स्तब्ध गगन को करते हो तुम पार!

अन्धकार-- घन अन्धकार ही

क्रीड़ा का आगार।

चौंक चमक छिप जाती विद्युत

तडिद्दाम अभिराम,

तुम्हारे कुंचित केशों में

अधीर विक्षुब्ध ताल पर

एक इमन का-सा अति मुग्ध विराम।

वर्ण रश्मियों-से कितने ही

छा जाते हैं मुख पर

जग के अंतस्थल से उमड़

नयन पलकों पर छाये सुख पर;

रंग अपार

किरण तूलिकाओं से अंकित

इन्द्रधनुष के सप्तक, तार;

व्योम और जगती के राग उदार

मध्यदेश में, गुडाकेश!

गाते हो वारम्वार।

मुक्त! तुम्हारे मुक्त कण्ठ में

स्वरारोह, अवरोह, विघात,

मधुर मन्द्र, उठ पुनः पुनः ध्वनि

छा लेती है गगन, श्याम कानन,

सुरभित उद्यान,

झर-झर-रव भूधर का मधुर प्रपात।

वधिर विश्व के कानों में

भरते हो अपना राग,

मुक्त शिशु पुनः पुनः एक ही राग अनुराग।

निरंजन बने नयन अंजन!

कभी चपल गति, अस्थिर मति,

जल-कलकल तरल प्रवाह,

वह उत्थान-पतन-हत अविरत

संसृति-गत उत्साह,

कभी दुख -दाह

कभी जलनिधि-जल विपुल अथाह

कभी क्रीड़ारत सात प्रभंजन--

बने नयन-अंजन!

कभी किरण-कर पकड़-पकड़कर

चढ़ते हो तुम मुक्त गगन पर,

झलमल ज्योति अयुत-कर-किंकर,

सीस झुकाते तुम्हे तिमिरहर

अहे कार्य से गत कारण पर!

निराकार, हैं तीनों मिले भुवन

बने नयन-अंजन!

आज श्याम-घन श्याम छवि

मुक्त-कण्ठ है तुम्हे देख कवि,

अहो कुसुम-कोमल कठोर-पवि!

शत-सहस्र-नक्षत्र-चन्द्र रवि संस्तुत

नयन मनोरंजन!

बने नयन अंजन!

तिरती है समीर-सागर पर

अस्थिर सुख पर दुःख की छाया-

जग के दग्ध हृदय पर

निर्दय विप्लव की प्लावित माया-

यह तेरी रण-तरी

भरी आकांक्षाओं से,

घन, भेरी-गर्जन से सजग सुप्त अंकुर

उर में पृथ्वी के, आशाओं से

नवजीवन की, ऊँचा कर सिर,

ताक रहे है, ऐ विप्लव के बादल!

फिर-फिर!

बार-बार गर्जन

वर्षण है मूसलधार,

हृदय थाम लेता संसार,

सुन-सुन घोर वज्र हुँकार।

अशनि-पात से शायित उन्नत शत-शत वीर,

क्षत-विक्षत हत अचल-शरीर,

गगन-स्पर्शी स्पर्द्धा-धीर।

हँसते है छोटे पौधे लघुभार-

शस्य अपार,

हिल-हिल

खिल-खिल,

हाथ मिलाते,

तुझे बुलाते,

विप्लव-रव से छोटे ही है शोभा पाते।

अट्टालिका नही है रे

आतंक-भवन,

सदा पंक पर ही होता

जल-विप्लव प्लावन,

क्षुद्र प्रफुल्ल जलज से

सदा छलकता नीर,

रोग-शोक में भी हँसता है

शैशव का सुकुमार शरीर।

रुद्ध कोष, है क्षुब्ध तोष,

अंगना-अंग से लिपटे भी

आतंक-अंक पर काँप रहे हैं

धनी, वज्र-गर्जन से, बादल!

त्रस्त नयन-मुख ढाँप रहे है।

जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर

तुझे बुलाता कृषक अधीर,

ऐ विप्लव के वीर!

चूस लिया है उसका सार,

हाड़ मात्र ही है आधार,

ऐ जीवन के पारावार!

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रचनाएँ
परिमल
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सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' की कविता 'परिमल' नामक संग्रह से ली गई है जो गंगा पुस्तक माला लखनऊ से 1929 ई. में प्रकाशित हुआ था। पुस्तक की हेडिंग के ठीक नीचे लिखा है: 'सरस कविताओं का संग्रह'।
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प्रेयसी

11 अप्रैल 2022
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घेर अंग-अंग को लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की, ज्योतिर्मयि-लता-सी हुई मैं तत्काल घेर निज तरु-तन। खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के, प्रथम वसन्त में गुच्छ-गुच्छ। दृगों को रँग गयी प्रथम प्रणय-रश्म

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मित्र के प्रति

11 अप्रैल 2022
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(1) कहते हो, ‘‘नीरस यह बन्द करो गान- कहाँ छन्द, कहाँ भाव, कहाँ यहाँ प्राण ? था सर प्राचीन सरस, सारस-हँसों से हँस; वारिज-वारिज में बस रहा विवश प्यार; जल-तरंग ध्वनि; कलकल बजा तट-मृदंग सदल;

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हताश

11 अप्रैल 2022
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जीवन चिरकालिक क्रन्दन । मेरा अन्तर वज्रकठोर, देना जी भरसक झकझोर, मेरे दुख की गहन अन्ध तम-निशि न कभी हो भोर, क्या होगी इतनी उज्वलता इतना वन्दन अभिनन्दन ? हो मेरी प्रार्थना विफल, हृदय-कमल-के

4

स्वप्न-स्मृति

11 अप्रैल 2022
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आँख लगी थी पल-भर, देखा, नेत्र छलछलाए दो आए आगे किसी अजाने दूर देश से चलकर। मौन भाषा थी उनकी, किन्तु व्यक्त था भाव, एक अव्यक्त प्रभाव छोड़ते थे करुणा का अन्तस्थल में क्षीण, सुकुमार लता के वाताहत

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अध्यात्म फल (जब कड़ी मारें पड़ीं)

11 अप्रैल 2022
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जब कड़ी मारें पड़ीं, दिल हिल गया पर न कर चूँ भी, कभी पाया यहाँ; मुक्ति की तब युक्ति से मिल खिल गया भाव, जिसका चाव है छाया यहाँ। खेत में पड़ भाव की जड़ गड़ गयी, धीर ने दुख-नीर से सींचा सदा, सफल

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दीन

11 अप्रैल 2022
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सह जाते हो उत्पीड़न की क्रीड़ा सदा निरंकुश नग्न, हृदय तुम्हारा दुबला होता नग्न, अन्तिम आशा के कानों में स्पन्दित हम - सबके प्राणों में अपने उर की तप्त व्यथाएँ, क्षीण कण्ठ की करुण कथाएँ कह जाते

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ध्वनि

11 अप्रैल 2022
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अभी न होगा मेरा अन्त अभी-अभी ही तो आया है मेरे वन में मृदुल वसन्त अभी न होगा मेरा अन्त हरे-हरे ये पात, डालियाँ, कलियाँ कोमल गात! मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर फेरूँगा निद्रित कलियों पर जगा

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मौन

11 अप्रैल 2022
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बैठ लें कुछ देर, आओ,एक पथ के पथिक-से प्रिय, अंत और अनन्त के, तम-गहन-जीवन घेर। मौन मधु हो जाए भाषा मूकता की आड़ में, मन सरलता की बाढ़ में, जल-बिन्दु सा बह जाए। सरल अति स्वच्छ्न्द जीवन, प्रात क

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भिक्षुक

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दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता। पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक, मुट्ठी भर दाने को-- भूख मिटाने को मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता-- दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

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तुम और मैं

11 अप्रैल 2022
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तुम तुंग - हिमालय - शृंग और मैं चंचल-गति सुर-सरिता। तुम विमल हृदय उच्छवास और मैं कांत-कामिनी-कविता। तुम प्रेम और मैं शांति, तुम सुरा - पान - घन अंधकार, मैं हूँ मतवाली भ्रांति। तुम दिनकर के खर

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संध्या सुन्दरी

11 अप्रैल 2022
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दिवसावसान का समय मेघमय आसमान से उतर रही है वह संध्या-सुन्दरी, परी सी, धीरे, धीरे, धीरे तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास, मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर, किंतु ज़रा गंभीर, नहीं है उसमें हास-व

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जूही की कली

11 अप्रैल 2022
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विजन-वन-वल्लरी पर सोती थी सुहाग-भरी--स्नेह-स्वप्न-मग्न-- अमल- कोमल -तनु तरुणी--जुही की कली, दृग बन्द किये, शिथिल--पत्रांक में, वासन्ती निशा थी; विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़ किसी दूर देश में था पवन

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बादल राग

11 अप्रैल 2022
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झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर। राग अमर! अम्बर में भर निज रोर! झर झर झर निर्झर-गिरि-सर में, घर, मरु, तरु-मर्मर, सागर में, सरित-तड़ित-गति-चकित पवन में, मन में, विजन-गहन-कानन में, आनन-आनन में, रव घ

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जागो फिर एक बार

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जागो फिर एक बार! प्यार जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें अरुण-पंख तरुण-किरण खड़ी खोलती है द्वार- जागो फिर एक बार! आँखे अलियों-सी किस मधु की गलियों में फँसी, बन्द कर पाँखें पी रही हैं मधु मौन अ

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