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बेला!

12 अगस्त 2024

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                        बेला "
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                      © ओंकार नाथ त्रिपाठी 
                    अशोक नगर, बशारतपुर 
                     ‌         गोरखपुर ।
  कभी-कभी अचानक जब विश्वास की चट्टानें दरक उठती हैं तब जीवन में भूकंप जैसी स्थिति आ जाती है‌। सबकुछ अचानक अप्रत्याशित और अविस्मरणीय होने लगता है।जिस तरह से धरातल बनी पृथ्वी के कांपने से सब कुछ भरभराकर गिर जाता है उसी तरह संबंधों के धरातल विश्वास के हिलने से पूरा जीवन ही भरभराकर नेस्तनाबूत हो जाता है।कुछ ऐसा ही हो रहा है इन दिनों सुदेश के साथ। आखिर वह भी हाड़-मांस का पुतला ही है। कर्तव्य पालन में रात दिन एक किये सुदेश हमेशा ही आय से ज्यादा व्यय में रहा,कारण जिम्मेदारियों का अहसास और संवेदनशीलता।इसे सुदेश की कमजोरी कह लें अथवा अच्छाई।हां इसके कारण वह अपनी पत्नी को वह सब कुछ नहीं दे सक रहा है जिसकी उसे इच्छा है अथवा रही हो और उसकी पत्नी भी कभी सुदेश से इसके लिए न ही रोकी और न ही सुदेश को अहसास ही होने दी।शायद इसी के कारण सुदेश अपनी बीवी पर बेहद विश्वसनीयता का गुमान रहता है। हालांकि उसके दिल में भी यह बात कचोटती है कि मैं उसे उसकी इच्छाओं के अनुरूप नहीं कर पा रहा हूं कुछ भी।उसकी इच्छाएं यह कि अपने लिए कुछ भी नहीं।वह भी तो दायित्वों के लिए संवेदनशीलता रही।यह संबल रहा सुदेश के कर्तव्य पथ पर अग्रसर रहने में लेकिन आज सुदेश पर बहुत ही भारी गुजरी।उसे लगा जैसे मेरे हिस से में केवल कर्तव्य पालन है अधिकार नहीं।उसे गीता की पंक्तियां याद आने लगीं -
  "कर्तव्य करते जाओ अधिकार स्वत: मिल जायेंगे।"
  लेकिन यहां ऐसा नहीं।तो क्या मेरे कर्म में खोंट है?या इन पंक्तियों का अर्थ बदलने लगा है?जो भी हो लेकिन इतना तो है कि इसी उधेड़बुन में रात भर सुदेश करवटें बदलता रहा। परिभाषा तलाशता रहा जीवन का। क्या जीवन वास्तव में मरीचिका है? क्या मेरे जीवन में रेगिस्तान ही रहेंगे? जहां देखना मेरी मजबूरी और रेत कणों का मेरी आंखों में पड़ना प्रकृति रहेगी।
   सोचते-सोचते कब नींद आ गयी उसे पता ही नहीं चला। दैनिक क्रियाओं से निवृत होकर चाय पीते हुए अखबार पलटने लगा। अचानक अखबार के एक समाचार "लहूलुहान प्रेमी ने पत्थरों पर प्रेमिका का नाम लिखा" पर सुदेश की निगाह टिक गयी।वह अतीत की खोह में गोता लगाने लगा।जाड़े की सुबह थी।कोहरे के कारण पूरा शहर लग रहा था कि उसे मलमल के सफेद कपड़े से ढ़ंक दिया गया हो।पौ फट गये थे। सुबह का उजियारा फैल चुका था।सुदेश बेला के कमरे से निकलने ही वाला था कि अचानक दरवाजे पर दस्तक सुनकर सुदेश और बेला दोनों सहम गये।
  "खट्....खट्....बेला दरवाजा खोलो"।-बाहर से बेला के भाई की जोरदार रोबीली आवाज आयी।
   बेला दरवाजा खोल दी थी।उसके भाई और पिता तेजी से कमरे में घुसते ही सुदेश पर टूट पड़े थे।बेला एक तरफ सहमी किंकर्तव्यविमूढ़ सी खड़ी रही।उसके भाई और परिवार के लोग सुदेश को घसीटते हुए बाहर खिंच ले गये।चोट के कारण सुदेश के शरीर से। लहू निकल रहे थे।बेला एक किनारे खड़ी देख रही थी।वह न तो कुछ को ने की कोशिश की और न ही सुदेश को बचाने के लिए प्रयास ही की।सुदेश को शरीर पर लघु चोट से ज्यादा पीड़ा बेला के चुपचाप खड़े रहने का हो रहा था।वह केवल यही कह रहा था कि-
 "बेला!बताओ मेरा कसूर क्या था?मैं तुम्हारे ही बुलाने पर आया था।"
 उसे केवल यहीं तक याद रहा कि वह अपने खून से सड़क पर बेला....बेला...
बेला...लिख रहा था।वह कब बेहोश हो गया।कैसे अस्पताल में आया।कैसे उसके परिजन अपने शहर से आये।कुछ भी याद नहीं।जब उसके परिजन उसे पुकारे-
"सुदेश!....
मैंने आंखें खोली।सामने परिवार जन उपस्थित थे। पुलिस भी मौजूद थीं।
  "पहचान रहे हो?"-मां आंख में आंसू भरकर माथे पर हाथ फेरते हुए पूछी।
 मैंने हां में सिर हिलाया।इसके बाद शुरू हो गयी थी पुलिसिया पूछ तांछ।मैं धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगा और जल्दी ही अपने शहर आ गया था।
  इसके बाद मेरा दिन बंजारों तथा रातें जोगन की तरह कटने लगीं। बेला की बेवफाई मुझे सताने लगी।इस दौरान न तो बेला मिली,न फोन की और नहीं कोई पत्र लिखी जबकि इस घटना के पहले वह अनेक बार लम्बे चौड़े वायदे किया करती थी।हां इस दौरान मुझे बेला की छोटी बहन सुलक्षणा कई बार फोन करके मेरा हाल पूछी थी।कई पत्र लिखकर भेजी थी।वही बतायी भी कि बेला की तबीयत खराब हो गयी थी।उसे डाक्टर को दिखाया गया तब पता चला कि वह गर्भवती है।घर के लोग बेला पर एबार्सन कराने को कहे बेला भी तैयार थी लेकिन डॉक्टर तैयार नहीं हुई। डाक्टर का कहना है कि एबार्सन कराने से बेला की जान जा सकती है।सुलक्षणा ने ही बतायी थी कि अंततः घर के लोग इस बात पर तैयार हो गये कि बेला का जो बच्चा होगा उसे पैदा होने के बाद अनाथालय में डाल दिया जायेगा।यह सब सुनकर सुदेश को बड़ा दुख हुआ था।उसे पता नहीं क्यों बेला पर नहीं लेकिन होने वाले बच्चे पर मोह आ रहा था।
    धीरे-धीरे सुदेश और सुरक्षा के बीच बातचीत का सिलसिला बढ़ता गया। सुदेश और सुलक्षणा में नजदीकियां बढ़ती गयी। सुदेश को लगा कि बेला के बाद सुलक्षणा उसके घायल दिल पर मलहम रख रही है।
  एक दिन सुलक्षणा ही सुदेश को फोन पर बतायी कि बेला के डिलिवरी का दिन नजदीक आ गया है।दो तीन दिन शेष बचा है।एक बात और बतायी कि बेला की शादी तय कर दी गयी है।लड़का अमेरिका में रहता है।मोटी तनख्वाह है।ऐशो आराम है।मेरे यह पूछने पर कि बेला की क्या चाह है?सुलक्षणा बतायी कि वह तैयार है। बहुत खुश है।यह सुनकर सुदेश का दिल जहां कराह उठा था वहीं पर इस बात की भी उसे तसल्ली थी कि चलो बेला वह नहीं है जो मैं जानता था। सुदेश एक नि:स्वास लेकर रह गया।
    इन सब बातों के बाद भी पता नहीं क्यों सुदेश बेला को नहीं भुला पा रहा था।उसके दिल के कोने में आज भी बेला बैठी पड़ी थी।इधर सुलक्षणा की बातें उसका लगाव,उसका सुदेश में दिलचस्पी सुदेश को आकृष्ट करने लगी थी।अब वह भी सुलक्षणा की आवाज सुनने को लालायित रहने लगा।यदा कदा किसी न किसी कारण से सुलक्षणा तथा सुदेश की मुलाकात भी होती रहती थी।एक दिन सुलक्षणा बतायी कि बेला को बेटी हुई है। बहुत सुन्दर है।उसे पैदा होने के बाद अनाथालय में डाल दिया गया है।यह सुनकर सुदेश मन ही मन कराह उठा। आखिरकार वह सुदेश की ही बेटी है। सुदेश उसे देखने को तड़प उठा। आखिरकार एक दिन सुलक्षणा के सहयोग से वह अनाथालय में जाकर बेला व अपनी बेटी को देख आया।उसे देखने के बाद वह बहुत दुखी हुआ।अब सुदेश अक्सर अपनी बेटी को देखने कभी अकेले तो कभी-कभी सुलक्षणा के साथ अनाथालय हो आता था।
     एक दिन सुदेश को सुलक्षणा बतायी कि परसों बेला की शादी है।लड़के का नाम शशांक है। अमेरिका में इंजीनियर है।सुनते हैं कि बड़ा नोबुल लड़का है।उसे बेला के बारे में नहीं बताया गया है।घर के लोग बेला की विदाई भी कर देंगे।इसी दिन अनाथालय में बेला की बेटी का नाम भी सुदेश जान सका।उसका नाम आकांक्षा रखा था अनाथालय के लोगों ने। आकांक्षा गोरी चिट्टी सुदेश के रंग पर गयी थी जबकि उसका गोल चेहरा नाक व आंख यहां तक कि होंठों की बनावट बेला पर गयी थी। सुदेश कराह उठा।एक टींस उठी उसके मन में। आकांक्षा से सुदेश व सुलक्षणा अंकल आंटी के रुप में मिलते थे। आकांक्षा भी सुदेश को अंकल तथा सुलक्षणा को आंटी कहती थी।
    बेला की शादी शशांक से हो गयी। बेला शशांक के साथ अमेरिका चली गयी।इस दौरान बेला कभी भी सुदेश को नहीं नोटिस में ली।जब सुदेश घायल पंछी की तरह एकांकीपन का दंश झेल रहा था ऐसे में सुलक्षणा जहां उसकी दुखते रंगों पर फाहा रखने का काम की वहीं उसकी बेटी आकांक्षा से मेल जोल का माध्यम भी बनी। धीरे-धीरे सुलक्षणा और सुदेश के बीच की दुरियां सिमटने लगीं।दोनों एक दूसरे को चाहने लगे।अब मेल जोल का दौर तेज हो गया। सुदेश व सुलक्षणा कभी आकांक्षा से मिलने के बहाने तो कभी किसी और बहाने एक दुसरे से मिलने जुलने लगे। आकांक्षा भी खुश रहती थी सुदेश व सुलक्षणा से मिलकर।
   एक दिन सुलक्षणा ने ही बताया कि उसके भाई व पिता तथा माता जी का एक कार दुर्घटना में निधन हो गया।यह सुनकर सुदेश को उनके निधन पर दुःख तो हुआ लेकिन सुदेश की चिंता सुलक्षणा के प्रति बढ़ गयी। आखिर सुदेश ने ही प्रस्ताव रखा-
  "सुलक्षणा अगर तुम ग़लत न समझो तो‌ क्या तुम मेरे साथ शादी करने को तैयार हो?"
  इस अप्रत्याशित प्रश्न से सुलक्षणा चकित रह गयी।वह बोल पड़ी -
 "क्या आप इसके लिए तैयार हैं?"सुलक्षणा आश्चर्य में डूबी पूछी।
 "हां!क्यों नहीं।"-सुदेश बोला।
  "मैं सोची कि... ।"कहकर सुलक्षणा चुप हो गयी।वह अतीत की खोह में चली गयी।शायद उसी के साथ सुदेश भी।
   अंततः सुदेश व सुलक्षणा की शादी हो गयी।अब दोनों मिलकर आकांक्षा की परवरिश करने लगे लेकिन वह अब भी अनाथालय में रह रही है।सुदेश व सुलक्षणा चाहते हैं कि आकांक्षा को गोंद ले लें और घर लेते आवें लेकिन इसमें कहीं न कहीं बेला आंड़े आ रही थी। क्या बेला इसपर सहमत होगी? क्या बेला आकांक्षा पर अपना दावा कभी नहीं ठोंकेगी? आदि-आदि। हालांकि बेला का आकांक्षा पर दावा ठोंकने का आशंका जरा भी नहीं था लेकिन पता नहीं क्यों सुदेश और सुलक्षणा का दिल इसे मानने को तैयार नहीं हो रहा था कि बेला ऐसा नहीं करेगी।शायद बेला के चंचल स्वभाव से दोनों को डर था। इसीलिए दोनों अनाथालय में ही रखकर आकांक्षा की शिक्षा दीक्षा तथा परवरिश में तल्लीन हैं।
   बेला का चंचल स्वभाव शशांक के लिए सिर दर्द बना हुआ है। अमेरिका में रहते हुए भी शशांक भारतीय संस्कृति का पोषक है, जबकि बेला भारत में रहकर भी भारतीय संस्कृति से कोसों दूर है। शशांक ने तो भारत में शादी इसलिए की थी कि उसकी पत्नी भारतीय होगी लेकिन मिली उसे उलटी। बेला का चंचल स्वभाव शशांक को पसंद नहीं।इसके विपरित बेला पाश्चात्य संस्कृति की नकल में आकंण्ठ डुबने को तत्पर है।चकचक दोनों में आये दिन होती रहती है।नित नये पुरुष दोस्तों के साथ बेला की हा. .......हा.....
ठी...ठी......घुमाना फिरना अब शशांक को बर्दाश्त नहीं हो रहा।वह हिदायत भरे लहजे में बेला से कई बार अपनी आपत्ति दर्ज करा चुके थे लेकिन बेला पर इसका कोई असर नहीं।फलत: दोनों की गृहस्थी अंततः एक दिन टूट गयी। शशांक और बेला में तलाक हो गया। बेला अमेरिका से अपने घर आ गयी।
       सुदेश और सुलक्षणा, आकांक्षा की परवरिश में रात दिन एक किये तल्लीन हो गये थे।अब आकांक्षा को भी अपने आंटी और अंकल के रुप में सुदेश व सुलक्षणा का इंतजार रहने लगा था। आकांक्षा धीरे-धीरे बड़ी होती गयी।अब वह अनाथालय में नहीं बल्कि सुदेश व सुलक्षणा के साथ रहने लगी।दोनों ने आकांक्षा को कानूनी ढंग से गोंद ले लिया था।वह दिन भी आ गया जब आकांक्षा का दाखिला विश्वविद्यालय में हो गया।अब वह हास्टल में रहती है।छुट्टियों में आंटी अंकल के पास आती थी।सुदेश और सुलक्षणा को आकांक्षा का ही इंतजार रहता था।
    जब सुदेश व सुलक्षणा को बेला के तलाक का समाचार मिला तब कोई आश्चर्य नहीं हुआ था क्योंकि सुदेश और सुलक्षणा दोनो यह जानते थे कि 'बेला 'है ही इसी के काबिल। शशांक जैसा व्यक्ति बेला के साथ नहीं निभ सकेगा। बेला शशांक से नहीं बल्कि उसके पैसों तथा ऐशो आराम से जैसे शादी की थी, क्योंकि उसे कभी भी शशांक के भावनाओं की चिंता नहीं रही।
      अंततः बेला अपने मां बाप के घर आ गयी।उसके मां बाप के निधन के बाद से घर में ताला बंद रहता था।सुलक्षणा उसकी चाभी बेला पर तरस खा कर दे दी थी तथा सुदेश भी शायद इसीलिए कि दिल के किसी कोने में शायद अब भी बेला के प्रति उसके दिल में प्यार की नमी थी। धीरे-धीरे बेला भी अब सामान्य जीवन व्यतीत करने लगी थी, लेकिन एक नई समस्या यह पैदा हो गयी कि बेला अपनी जिस बेटी को शशांक से शादी के बाद भूल गयी थी अब उसके मन में अपनी बेटी के प्रति ममता के भाव पुन: हरे होने‌ लगे।अब वह भी सुलक्षणा के सहयोग से आकांक्षा सेमिल लेती थी। आकांक्षा से परिचय कराते हुए कही थी कि-
  "आकांक्षा!यह हैं तुम्हारी बड़ी आंटी।"
"नमस्ते आंटी!"-कहती हुई आकांक्षा प्रणाम की थी।
  तब पता नहीं क्यों ऐसा लगा था सुदेश व सुलक्षणा को कि जैसे उसके अनमोल संपत्ति पर कोई अपना अधिकार जमा लिया हो।दोनों थोड़ी देर के लिए हिल गये थे दिल की गहराईयों से। सुदेश पर जो बीत रही थी सो बीत रही थी लेकिन सुलक्षणा के लिए यह क्षण काफी कष्टकारक रहा।सुलक्षणा को‌ लगा कि वह आकांक्षा को जैसे हार बैठी हो।उसके मन में यह बात घर करने लगी कि अब तो बेला अपनी बेटी ले लेगी। सचमुच आकांक्षा बेटी तो बेला और सुदेश की ही है।शायद इसीलिए सुलक्षणा को डर है।सुलक्षणा ने आकांक्षा को पूरी ममता दी।अपने स्वयं मां नहीं बनी।अब ऐसे में यदि आकांक्षा को यह पता चले कि उसकी सगी मां उसके पिस ही यह बड़ी आंटी है तब यह भला मुझे अपनी मां क्यों समझेगी?एक स्त्री सुलभ बातें वात्सल्य सुलक्षणा कौन सताने लगी थीं।वह हिल उठी थी अन्दर तक।
     दुसरी तरफ बेला को भी बड़ी तसल्ली मिली थी अपनी बेटी से मिलकर।बेला कराह उठी थी अन्दर तक।वह सोचने लगी-
 "कैसी विडम्बना है कि मेरी बेटी मेरे सामने खड़ी है और मैं उसे बेटी नहीं कह सकती।यह शायद भगवान ने मुझे सजा दी है सुदेश के प्रति मेरे दुर्व्यवहार का।"
    अब बेला के मन में आकांक्षा को हथियाने की फितरत आने लगी।उसका वात्सल्य, ममता उछाल मारने लगा था।वह अब आकांक्षा से हिलने मिलने की काफी कोशिश करने लगी। हालांकि इसमें आकांक्षा की कोई विशेष दिलचस्पी नहीं होती थी लेकिन जहां इससे बेला को सुकून मिलता था वहीं पर सुलक्षणा को अपना सब कुछ छिन जाने का डर बना रहता था।
   अब तक आकांक्षा बड़ी हो गयी थी। सुदेश और सुलक्षणा को उसकी शादी की चिंता सताने लगी थीं। सुदेश इधर-उधर कई शादीयां देखते और सुलक्षणा से जिक्र करते।किसी पर मन जमता था किसी पर नहीं जमता था। जहां मन जमता था वहां पर लड़के वाले नहीं तैयार होते थे आदि अनेक कठिनाइयों के बाद अंतत: आकांक्षा की शादी तय हो गयी थी।पूरे घर में धूमधाम का माहौल था। शादी की तैयारी होने लगी थी। बेला भी आकांक्षा की शादी के लिए तरह-तरह के सामान खरीद रही है।वह अपने जीवनयापन के लिए शशांक से प्राप्त होने वाले धन से जो कि सुदेश की आय से कहीं ज्यादा है आकांक्षा के लिए शादी का सामना खरीद रही है।
    सुदेश व सुलक्षणा आकांक्षा की शादी में जी जान से जुटे हैं।एक तरफ जहां सुलक्षणा तथा सुदेश को आकांक्षा की शादी की खुशी है वहीं दुसरी तरफ आकांक्षा के जुदाई का दु:ख भी है। अंततः वह दिन भी नजदीक आ गया जब शादी होगी।आज हल्दी की रश्म हो रही है।पूरे घर में हंसी खुशी का माहौल है। सुदेश जहां पर बाहर के कार्यों में तल्लीन हैं वहीं पर सुलक्षणा घर की व्यवस्था में व्यस्त हैं। बेला भी सुदेश के ही घर आयी हुई है।उसे करना कुछ नहीं है।वह आकांक्षा के ईर्द-गिर्द मंडराती उसके मन में यह टींस रह रह कर उठ रही है कि बेटी आकांक्षा को आज तक वह अपना नहीं बना सकी जबकि वह उसकी अपनी सगी बेटी है।उसका दिल कराह उठता है।सहसुआज बेला के दिमाग में एक बात उठी‌। यहां के रीती-रिवाज के अनुसार जब बेटी विदा होती है तब घर से निकलने से पहले सबसे पहले अपनी सगी मां को भेंटती है‌।बेला सोचने लगी-
   "क्यों नहीं आकांक्षा को आज बता दूं कि उसकी असली मां मैं हूं।"
  बेला सोची कि "ऐसा अगर बता दूंगी तब कोई कोहराम भी नहीं मचेगा तथा कल विदाई के समय जब वह मुझे भेंटेगी तब सबके सामने वह मुझे अपनी सगी मां स्वीकार कर लेगी।"
  यह सोचकर उसके होठ पर कुटिल मुस्कान खिल गयी।एक तरफ जहां सुदेश और सुलक्षणा सहित सभी लोग सगे संबंधी शादी की रश्मों में व्यस्त थे वहीं बेला इस फिराक में लग गयी कियह सब आकांक्षा कै कब व कैसे जल्द से जल्द बता दी जाय। अचानक एक अवसर बेला के हाथ लग गया था।रात गहरा रही थी। आकांक्षा अकेली कुछ कर रही थी।कमरे में तभी बेला मौका पाकर घुसी-
   "क्या कर रही हो आकांक्षा बेटी?"-बेला कमरे में घुसते हुए बोली।
  "अरे बड़ी आंटी!आइये।कुछ नहीं।वैसे ही सोने की जुगत में हूं।आइये बैठी ये।"-आकांक्षा बेला को बुलाते हुई कही।
  "क्या बात है बड़ी आंटी!आप अभी तक सोई नहीं?क्या जगह नहीं मिली?"
-आकांक्षा बेला से पूछी‌।
  "कैसी बात कर रही हो बेटी!बेटी की शादी में भला मां सो कर समय गंवा देगी।"-बेला आकांक्षा से कही।
 "तब कोई जरूरत है?"-आकांक्षा पूछी‌
  "हां...बेटी... जरुरत तो है।"-बेला कुछ सकुचाते हुए बोली।
  "कहिये बड़ी आंटी!"-आकांक्षा बोली।
  "बेटी!पहले बैठ जाओ और मुझसे वादा करो कि तुम इसे न तो अन्यथा लोगी और न ही मुझेक्षगलत समझोगी।"-बेला आकांक्षा से बोली‌।
  "कहिये बड़ी आंटी!"-आकांक्षा बेला से बोली तथा बेला को अपने पास बैठा ली।
  "बेटी पहले दरवाजा बंद कर लें"-कहकर बेला कमरे का दरवाजा बंद कर दी।
 इसी दौरान किसी काम से सुरक्षा आकांक्षा के कमरे में आ रही थी।बाहर से किवाड़ बंद होने तथा लाइट जलने और अंदर से फुसफुसाहट को सुन कर सुलक्षणा कमरे के पास रुक कर सुनने लगी थी-
  "बेटी!आज तुम्हें मैं एक सच बताने जा रही हूं।सुनकर तुम्हें अजीब लग सकता है।गुस्सा भी आ सकता है। लेकिन यह सच है।और यह सच अब तक तुमसे सिर्फ परिस्थितियों वंश छिपा रहा।"
  -बेला आकांक्षा से कह रही थी।
  "...."आकांक्षा शांत थी।
  बेला बोले जा रही थी-"बेटी!तुम मेरी अपनी सगी बेटी हो।"यह कह कर बेला आकांक्षा को सारी बातें बताने लगी थी‌।
  यह सब सुनते ही सुलक्षणा के पांव के नीचे से जमीन खिसकने लगी थी।उसको स्पष्ट हो गया था कि उसकी सबसे अमूल्य निधि उसकी बेटी उससे छिन ली गयी।उसे जहां इससे अपार कष्ट हो रहा था वहीं वह फूट-फूट कर रोना चा रही थी।उसके दिल में अजीब हो रहा है।वह वहां से चलकर सीधे सुदेश के पास गयी और रो रो कर बेला की सारी बातें सुदेश को बता दी।यह सब सुनकर सुदेश भी स्तब्ध रह गये‌।एक तरफ आकांक्षा की विदाई दुसरी तरफ बेला द्वारा आकांक्षा को बतायी गयी सच की बातों का डर सुलक्षणा को सताने लगा।
   आकांक्षा बेला की बातों को सुनकर कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की।केवल चुपचाप सुनती रही।उसके मन में क्या प्रतिक्रिया आयी यह बेला को नहीं ज्ञात हो सका।अन्य लोगो को ज्ञात होने का समय ही नहीं रहा।सुबह हो गयी थी। विदाई की रश्म सूर्योदय से एक घंटे के भीतर तक ही थी।
  आनन फानन होने लगा। आकांक्षा दुल्हन के रूप में सज-धजकर घर से निकलने वाली है।उसके दिमाग में बेला की बताई गयी बातें रह रहकर उमड़ घुमड़ रही है।एक तरफ उसकी असली मां बेला है तो दुसरी तरफ उसका पालन पोषण करने वाली सुलक्षणा।वह इसी उहापोह में है कि रिती रिवाज के अनुसार सबसे पहले वह किसे भेंटे।किसे भेंटना चाहिए।एक जहां उसे अपने घर से बिछड़ने का दुःख है वहीं पर यह बातें भी उसे परेशान कर रही हैं कि वह बड़ी आंटी और आंटी में किसे सबसे पहले भेंटे।
   इधर बेला पूरी आशा के साथ आकांक्षा के ईर्द-गिर्द गमगीन मंड़रा रही है।उसे जहां पूरा विश्वास है कि आकांक्षा उसे अभी आकर सबसे पहले भेंटेगी। वहीं सुलक्षणा का दिल तेजी से धड़क रहा था।सुदेश बगल में खड़े आवश्यक निर्देश दे रहे थे।अन्य लड़कियां तथा स्त्रीयां आकांक्षा को लेकर कमरे से बाहर निकलीं।सुलक्षणा का दिल धक् से धड़क उठा।बेला का वात्सल्य उमड़ पड़ा। आकांक्षा तेजी से चलती हुई सुलक्षणा से लिपट कर रो पड़ी-
   "मां!......।"
   आकांक्षा के धैर्य का बांध टुट गया।वह हिंचकियां ले ले कर रोने लगी।उसकी आंखों से आंसुओ के सैलाब सा आ पड़ा था।यह सब देख कर बेला अवाक हो कर आकांक्षा को निहारे जा रही थी।
   आकांक्षा जा चुकी थी। आकांक्षा जा चुकी थी।लोग बाग भी जा चुके थे लेकिन जो नहीं गया था वह था आकांक्षा की यादों के पल तथा सुलक्षणा के आंखों के आंसू।
  एक गहरी सांस लेकर सुदेश अपने दोनों हथेलयों को सिर के पीछे ले जाकर जोड़ लिये।हथेली से सिर को तथा सिर से हथेली के धक्का दे कर एक लम्बी जम्हाई लिये।वह अतीत से वापस आ चुके हैं।उन्हें चाय की तलब महसूस हो रही है।वह सुलक्षणा को आवाज देने ही जा रहे हैं कि-
  "लिजिए चाय पीजिए।कभी से बुला रही हूं।जैसे सुनाई ही नहीं दे रहा हो।"-सुदेश के सामने चाय रखती हुई सुरक्षा बोली।
  "कहां खो गये थे?"-सुलक्षणा शरारती नज़रों से पूछी।
  "अतीत की खोह में जिसे बेला ने बनियी थी।"-एक लंबी उछ्वासी लेकर सुदेश बोले और चाय पीने लगे।
  सुलक्षणा यह सुनकर चुप रही।शायद वह भी कुछ सोचने लगी।शायद बेला के बारे में....शायद आकांक्षा के बारे में।
  "बाबुल की दुआएं लेती जा..... अचानक मोबाइल फोन पर यह धुन सुनकर सुदेश ने फोन रिसीव किया -
  "हैलो बेटी!कैसी हो?"
  "मैं ठीक हूं अंकल।आंटी कैसी हैं?आप कैसे हैं?"-दुसरी तरफ से आकांक्षा बोल रही थी।
   "बेटी!हम लोग भी ठीक हैं।लो सुलक्षणा से बात करो"-कहकर सुदेश फोन सुलक्षणा को दे दिये।सुलक्षणा और आकांक्षा बात करने लगीं।
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                          ओंकार नाथ त्रिपाठी 
                     अशोक नगर बशारतपुर 
                           ‌  गोरखपुर।
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यादों के पन्ने
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"यादों के पन्ने"मेरी यह दुसरी कहानी संग्रह है जो शब्द इन पर प्रकाशित हो रही है।इसके पहले "समय की खिड़की" में मेरी पंद्रह लघु कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ है।शब्द इन पर प्रकाशित होने वाली मेरी यह तेरहवीं पुस्तक है। इसके अतिरिक्त एक पुस्तक योर कोट्स पर प्रकाशित हुई है। मेरी इस कहानी संग्रह की कहानियां सामाजिक ताना-बाना के आधार पर शब्दों द्वारा ऐसी बुनी गयी है ताकि उनमें फंतासी महसूस हो। समाज में घटित हो रही घटनाएं लेखन को प्रभावित करती हैं ऐसे में लेखक का भी प्रभावित होना सामान्य सा होता है लेकिन कहानी अगर कहीं किसी घटना से मेल खाती हो तो वह महज एक संयोग ही होगा। कहानी के पात्र अगर कहीं किसी से मेल खा रहे हैं तो वह भी महज एक संयोग ही होगा। कहानी की विषम वस्तु अगर किसी स्थान,चरित्र, पात्र या व्यक्ति विशेष से मिलती जुलती है तो यह भी महज एक संयोग होगा। इस संग्रह में कहानी की विषय वस्तु से किसी व्यक्ति,समाज या संस्था को ठेस पहुंचाते की कोई मंशा नहीं है।अगर कहीं ऐसा लगता है तब वह एक संयोग ही है। आशा है कि पाठक गण कहानियों को इस संग्रह में पढ़कर अपने सुझाव देकर मुझे अपना अमूल्य योगदान देंगे। © ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर ।

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