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भाग 12

7 फरवरी 2022

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अब भी मूसलाधार वर्षा हो रही थी। संध्यां से पहले संध्या हो गई थी। और सुखदा ठाकुरद्वारे में बैठी हुई ऐसी हड़ताल का प्रबंध कर रही थी, जो म्युनिसिपल बोर्ड और उसके कर्ण-धारों का सिर हमेशा के लिए नीचा कर दे, उन्हें हमेशा के लिए सबक मिल जाय कि जिन्हें वे नीच समझते हैं, उन्हीं की दया और सेवा पर उनके जीवन का आधार है। सारे नगर में एक सनसनी-सी छाई हुई है, मानो किसी शत्रु ने नगर को घेर लिया हो। कहीं धोंबियों का जमाव हो रहा है, कहीं चमारों का, कहीं मेहतरों का। नाई-कहारों की पंचायत अलग हो रही है। सुखदादेवी की आज्ञा कौन टाल सकता था- सारे शहर में इतनी जल्द संवाद फैल गया कि यकीन न आता था। ऐसे अवसरों पर न जाने कहां से दौड़ने वाले निकल आते हैं, जैसे
हवा में भी हलचल होने लगती है। महीनों से जनता को आशा हो रही थी कि नए-नए घरों में रहेंगे, साफ-सुथरे हवादार घरों में, जहां धूप होगी, हवा होगी, प्रकाश होगा। सभी एक नए जीवन का स्वप्न देख रहे थे। आज नगर के अधिकारियों ने उनकी सारी आशाएं धूल में मिला दीं।
नगर की जनता अब उस दशा में न थी कि उस पर कितना ही अन्याय हो और वह चुपचाप सहती जाय। उसे अपने स्वत्व का ज्ञान हो चुका था उन्हें मालूम हो गया था कि उन्हें भी आराम से रहने का उतना ही अधिकार है, जितना धनियों को। एक बार संगठित आग्रह की सफलता देख चुके थे। अधिकारियों की यह निरंकुशता, यह स्वार्थपरता उन्हें असह्य हो गई। और यह कोई सिध्दांत की राजनैतिक लड़ाई न थी, जिसका प्रत्यक्ष स्वरूप जनता की समझ में मुश्किल से आता है। इस आंदोलन का तत्काल फल उनके सामने था। भावना या कल्पना पर जोर देने की जरूरत न थी। शाम होते-होते ठाकुरद्वारे में अच्छा-खासा बाजार लग गया।
धोंबियों का चौधरी मैकू अपनी बकरे-की-सी दाढ़ी हिलाता हुआ बोला, नशे से आंखें लाल थीं-कपड़े बना रहा था कि खबर मिली। भागा आ रहा हूं। घर में कहीं कपड़े रखने की जगह नहीं है। गीले कपड़े कहां सूखें-
इस पर जगन्नाथ मेहरा ने डांटा-झूठ न बोलो मैकू, तुम कपड़े बना रहे थे अभी- सीधो ताड़ीखाने से चले आ रहे हो। कितना समझाया गया पर तुमने अपनी टेब न छोड़ी।
मैकू ने तीखे होकर कहा-लो, अब चुप रहो चौधरी, नहीं अभी सारी कलई खोल दूंगा। घर में बैठकर बोतल-के-बोतल उड़ा जाते हो और यहां आकर सेखी बघारते हो।
मेहतरों का जमादार मतई खड़े होकर अपनी जमादारी की शान दिखाकर बोला-पंचो, यह बखत बदहवाई बातें करने का नहीं है। जिस काम के लिए देवीजी ने बुलाया है, उसको देखो और फैसला करो कि अब हमें क्या करना है- उन्हीं बिलों में पड़े सड़ते रहें, या चलकर हाकिमों से फरियाद करें।
सुखदा ने विद्रोह-भरे स्वर में कहा-हाकिमों से जो कुछ कहना-सुनना था, कह-सुन चुके, किसी ने भी कान न दिया। छ: महीने से यही कहा-सुनी हो रही है। लेकिन अब तक उसका कोई फल न निकला, तो अब क्या निकलेगा- हमने आरजू-मिन्नत से काम निकालना चाहा था पर मालूम हुआ, सीधी उंगली से घी नहीं निकलता। हम जितना दबेंगे, यह बड़े आदमी हमें उतना ही दबाएंगे, आज तुम्हें तय करना है कि तुम अपने हक के लिए लड़ने को तैयार हो या नहीं।
चमारों का मुखिया सुमेर लाठी टेकता हुआ, मोटे चश्मे लगाए पोपले मुंह से बोला-अरज-माईद करने के सिवा और हम कर ही क्या सकते हैं- हमारा क्या बस है-
मुरली खटीक ने बड़ी-बड़ी मूंछों पर हाथ फेरकर कहा-बस कैसे नहीं है- हम आदमी नहीं हैं कि हमारे बाल-बच्चे नहीं हैं- किसी को तो महल और बंगला चाहिए, हमें कच्चा घर भी न मिले। मेरे घर में पांच जने हैं उनमें से चार आदमी महीने भर से बीमार हैं। उस कालकोठरी में बीमार न हों, तो क्या हो- सामने से फंदा नाला बहता है। सांस लेते नाक फटती है।
ईदू कुंजडा अपनी झुकी हुई कमर को सीधी करने की चेष्टा करते हुए बोला-अगर मुझपर में आराम करना लिखा होता, तो हम भी किसी बड़े आदमी के घर न पैदा होते- हाफिज हलीम आज बड़े आदमी हो गए हैं, नहीं मेरे सामने जूते बेचते थे। लड़ाई में बन गए। अब रईसों के ठाठ हैं। सामने चला जाऊं तो पहचानेंगे नहीं। नहीं तो पैसे-धोले की मूली-तुरई उधार ले जाते थे। अल्लाह बड़ा कारसाज है। अब तो लड़का भी हाकिम हो गया है। क्या पूछना है-
जंगली घोसी पूरा काला देव था। शहर का मशहूर पहलवान। बोला-मैं तो पहले ही जानता था, कुछ होना-हवाना नहीं है। अमीरों के सामने हमें कौन पूछता है-
अमीर बेग पतली, लंबी गरदन निकालकर बोला-बोर्ड के फैसले की अपील तो कहीं होती होगी- हाईकोर्ट में अपील करनी चाहिए। हाईकोर्ट न सुने, तो बादशाह से फरियाद की जाय।
सुखदा ने मुस्कराकर कहा-बोर्ड के फैसले की अपील वही है, जो इस वक्त तुम्हारे सामने हो रही है। आप ही लोग हाईकोर्ट हैं, आप ही लोग जज हैं। बोर्ड अमीरों का मुंह देखता है। गरीबों के मुहल्ले खोद-खोदकर फेंक दिए जाते हैं, इसलिए कि अमीरों के महल बनें। गरीबों को दस-पांच रुपये मुआवजा देकर उसी जमीन के हजारों वसूल किए जाते हैं। उन रुपयों से अफसरों को बड़ी-बड़ी तनख्वाह दी जाती हैं। जिस जमीन पर हमारा दावा था, वह लाला धनीराम को दे दी गई। वहां उनके बंगले बनेंगे। बोर्ड को रुपये से प्यार है, तुम्हारी जान की उनकी निगाह में कोई कीमत नहीं। इन स्वार्थियों से इंसाफ की आशा छोड़ दो। तुम्हारे पास इतनी शक्ति है, उसका उन्हें खयाल नहीं है। वे समझते हैं, यह गरीब लोग हमारा कर ही क्या सकते हैं- मैं कहती हूं, तुम्हारे ही हाथों में सब कुछ है। हमें लड़ाई नहीं करनी है, फसाद नहीं करना है। सिर्फ हड़ताल करना है, यह दिखाने के लिए कि तुमने बोर्ड के फैसले को मजूंर नहीं किया और यह हड़ताल एक-दो दिन की नहीं होगी। यह उस वक्त तक रहेगी जब तक बोर्ड अपना फैसला रप्र करके हमें जमीन न दे दे। मैं जानती हूं, ऐसी हड़ताल करना आसान नहीं है। आप लोगों में बहुत ऐसे हैं, जिनके घर में एक दिन का भी भोजन नहीं है मगर वह भी जानती हूं कि बिना तकलीफ उठाए आराम नहीं मिलता।
सुमेर की जूते की दूकान थी। तीन-चार चमार नौकर थे। खुद जूते काट दिया करता था। मजूर से पूंजीपति बन गया था। घास वालों और साईसों को सूद पर रुपये भी उधार दिया करता था। मोटी ऐनकों के पीछे से बिज्जू की भांति ताकता हुआ बोला-हड़ताल होना तो हमारी बिरादरी में मुश्किल है, बहूजी यों आपका गुलाम हूं और जानता हूं कि आप जो कुछ करेंगी, हमारी ही भलाई के लिए करेंगी पर हमारी बिरादरी में हड़ताल होना मुश्किल है। बेचारे दिन-भर घास काटते हैं, सांझ को बेचकर आटा-दाल जुटाते हैं, तब कहीं चूल्हा जलता है। कोई सहीस है, कोई कोचवान, बेचारों की नौकरी जाती रहेगी। अब तो सभी जाति वाले सहीसी, कोचवानी करते हैं। उनकी नौकरी दूसरे उठा लें, तो बेचारे कहां जाएंगे-
सुखदा विरोध सहन न कर सकती थी। इन कठिनाइयों का उसकी निगाह में कोई मूल्य न था। तिनककर बोली-तो क्या तुमने समझा था कि बिना कुछ किए-धरे अच्छे मकान रहने को मिल जाएंगे- संसार में जो अधिक से अधिक कष्ट सह सकता है, उसी की विजय होती है।
मतई जमादार ने कहा-हड़ताल से नुकसान तो सभी का होगा, क्या तुम हुए, क्या हम हुए लेकिन बिना धुएं के आग नहीं जलती। बहूजी के सामने हम लोगों ने कुछ न किया, तो समझ लो, जन्म-भर ठोकर खानी पड़ेगी। फिर ऐसा कौन है, जो हम गरीबों का दुख-दर्द समझेगा। जो कहो नौकरी चली जाएगी, तो नौकर तो हम सभी हैं। कोई सरकार का नौकर है, कोई रईस का नौकर है। हमको यहां कौल-कसम भी कर लेनी होगी कि जब तक हड़ताल रहे, कोई किसी की जगह पर न जाय, चाहे भूखों मर भले ही जाएं।
सुमेर ने मतई को झिड़क दिया-तुम जमादार, बात समझते नहीं, बीच में कूद पड़ते हो। तुम्हारी और बात है, हमारी और बात है। हमारा काम सभी करते हैं, तुम्हारा काम और कोई नहीं कर सकता।
मैकू ने सुमेर का समर्थन किया-यह तुमने बहुत ठीक कहा, सुमेर चौधरी हमीं को देखो। अब पढ़े-लिखे आदमी धुलाई का काम करने लगे हैं। जगह-जगह कंपनी खुल गई हैं। ग्रा‍हक के यहां पहुंचने में एक दिन की भी देर हो जाती है, तो वह कपड़े कंपनी भेज देता है। हमारे हाथ से ग्रा‍हक निकल जाता है। हड़ताल दस-पांच दिन चली, तो हमारा रोजगार मिट्टी में मिल जाएगा। अभी पेट की रोटियां तो मिल जाती हैं। तब तो रोटियों के लाले पड़ जाएंगे।
मुरली खटीक ने ललकारकर कहा-जब कुछ करने का बूता नहीं तो लड़ने किस बिरते पर चले थे- क्या समझते थे, रो देने से दूध मिल जाएगा- वह जमाना अब नहीं है। अगर अपना और बाल-बच्चों का सुख देखना चाहते हो, तो सब तरह की आफत-बला सिर पर लेनी पड़ेगी। नहीं जाकर घर में आराम से बैठो और मक्खियों की तरह मरो।
ईदू ने धार्मिक गंभीरता से कहा-होगा, वही जो मुझ पर में है। हाय-हाय करने से कुछ होने को नहीं। हाफिज हलीम तकदीर ही से बड़े आदमी हो गए। अल्लाह की रजा होगी, तो मकान बनते देर न लगेगी।
जंगली ने इसका समर्थन किया-बस, तुमने लाख रुपये की बात कह दी, ईदू मियां हमारा दूध का सौदा ठहरा। एक दिन दूध न पहुंचे या देर हो जाय, तो लोग घुड़कियां जमाने लगते हैं-हम डेरी से दूध लेंगे, तुम बहुत देर करते हो। हड़ताल दस-पांच दिन चल गई, तो हमारा तो दिवाला निकल जाएगा। दूध तो ऐसी चीज नहीं कि आज न बिके, कल बिक जाय।
ईदू बोला-वही हाल तो साफ-पात का भी है भाई, फिर बरसात के दिन हैं, सुबू की चीज शाम को सड़ जाती है, और कोई सेंत में भी नहीं पूछता।
अमीरबेग ने अपनी सारस की-सी गर्दन उठाई-बहूजी, मैं तो कोई कायदा-कानून नहीं जानता मगर इतना जानता हूं, कि बादशाह रैयत के साथ इंसाफ जरूर करते हैं। रातों को भेस बदलकर रैयत का हाल-चाल जानने के लिए निकलते हैं, अगर ऐसी अरजी तैयार की जाय जिस पर हम सबके दसखत हों और बादशाह के सामने पेश की जाय, तो उस पर जरूर लिहाज किया जाएगा।
सुखदा ने जगन्नाथ की ओर आशा-भरी आंखों से देखकर कहा-तुम क्या कहते हो जगन्नाथ, इन लोगों ने तो जवाब दे दिया-
जगन्नाथ ने बगलें झांकते हुए कहा-तो बहूजी, अकेला चना तो भाड़ नहीं फोड़ सकता। अगर सब भाई साथ दें तो मैं तैयार हूं। हमारी बिरादरी का आधार नौकरी है। कुछ लोग खोंचे लगाते हैं, कोई डोली ढोता है पर बहुत करके लोग बड़े आदमियों की सेवा-टहल करते हैं। दो-चार दिन बड़े घरों की औरतें भी घर का काम-काज कर लेंगी। हम लोगों का तो सत्यानाश ही हो जाएगा।
सुखदा ने उसकी ओर से मुंह फेर लिया और मतई से बोली-तुम क्या कहते हो, क्या तुमने भी हिम्मत छोड़ दी-
मतई ने छाती ठोकर कहा-बात कहकर निकल जाना पाजियों का काम है, सरकार आपका जो हुक्म होगा, उससे बाहर नहीं जा सकता। चाहे जान रहे या जाए। बिरादरी पर भगवान् की दया से इतनी धाक है कि जो बात मैं कहूंगा, उसे कोई दुलक नहीं सकता।
सुखदा ने निश्चय-भाव से कहा-अच्छी बात है, कल से तुम अपनी बिरादरी की हड़ताल करवा दो। और चौधरी लोग जाएं। मैं खुद घर-घर घूमूंगी, द्वार-द्वार जाऊंगी, एक-एक के पैर पड़ूंगी और हड़ताल कराके छोड़ूंगी और हड़ताल न हुई, तो मुंह में कालिख लगाकर डूब मरूंगी। मुझे तुम लोगों से बड़ी आशा थी, तुम्हारा बड़ा जोर था, अभिमान था। तुमने मेरा अभिमान तोड़ दिया।
यह कहती हुई वह ठाकुरद्वारे से निकलकर पानी में भीगती हुई चली गई। मतई भी उसके पीछे-पीछे चला गया। और चौधरी लोग अपनी अपराधी सूरतें लिए बैठे रहे।
एक क्षण के बाद जगन्नाथ बोला-बहूजी ने शेर कलेजा पाया है।
सुमेर ने पोपला मुंह चबलाकर कहा-लक्ष्मी की औतार है। लेकिन भाई, रोजगार तो नहीं छोड़ा जाता। हाकिमों की कौन चलाए, दस दिन, पंद्रह दिन न सुनें तो यहां तो मर मिटेंगे।
ईदू को दूर की सूझी-मर नहीं मिटेंगे पंचो, चौधरियों को जेहल में ठूंस दिया जाएगा। हो किस फेर में- हाकिमों से लड़ना ठट्ठा नहीं।
जंगली ने हामी भरी-हम क्या खाकर रईसों से लड़ेंगे- बहूजी के पास धन है, इलम है, वह अफसरों से दो-दो बातें कर सकती हैं। हर तरह का नुकसान सह सकती हैं। हमार तो बधिया बैठ जाएगी।
किंतु सभी मन में लज्जित थे, जैसे मैदान से भागा सिपाही। उसे अपने प्राणों के बचाने का जितना आनंद होता है, उससे कहीं ज्यादा भागने की लज्जा होती है। वह अपनी नीति का समर्थन मुंह से चाहे कर ले, हृदय से नहीं कर सकता।
जरा देर में पानी रूक गया और यह लोग भी यहां से चले लेकिन उनके उदास चेहरों में, उनकी मंद चाल में, उनके झुके हुए सिरों में, उनके चिंतामय मौन में, उनके मन के भाव साफ झलक रहे थे।
सुखदा घर पहुंची, तो बहुत उदास थी। सार्वजनिक जीवन में हार उसे यह पहला अनुभव था और उसका मन किसी चाबुक खाए हुए अल्हड़ बछेड़े की तरह सारा साज और बम और बंधन तोड़-ताड़कर भाग जाने के लिए व्यग्र हो रहा था। ऐसे कायरों से क्या आशा की जा सकती है जो लोग स्थायी लाभ के लिए थोड़े-से कष्ट नहीं उठा सकते, उनके लिए संसार में अपमान और दु:ख के सिवा और क्या है-
नैना मन में इस हार पर खुश थी। अपने घर में उसकी कुछ पूछ न थी, उसे अब तक अपमान-ही-अपमान मिला था, फिर भी उसका भविष्य उसी घर से संब' हो गया था। अपनी आंखें दुखती हैं, तो फोड़ नहीं दी जातीं। सेठ धनीराम ने जमीन हजारों में खरीदी थी, थोड़े ही दिनों में उनके लाखों में बिकने की आशा थी। वह सुखदा से कुछ कह तो न सकती थी पर यह आंदोलन उसे बुरा मालूम होता था। सुखदा के प्रति अब उसको वह भक्ति न रही थी। अपनी द्वेष-त्ष्णा शांत करने ही के लिए तो वह आग लगा रही है इन तुच्छ भावनाओं से दबकर सुखदा उसकी आंखों में कुछ संकुचित हो गई थी।
नैना ने आलोचक बनकर कहा-अगर यहां के आदमियों को संगठित कर लेना इतना आसान होता, तो आज यह दुर्दशा ही क्यों होती-
सुखदा आवेश में बोली-हड़ताल तो होगी, चाहे चौधरी लोग मानें या न मानें। चौधरी मोटे हो गए हैं और मोटे आदमी स्वार्थी हो जाते हैं।
नैना ने आपत्ति की-डरना मनुष्य के लिए स्वाभाविक है। जिसमें पुरुषार्थ है, ज्ञान है, बल है, वह बाधाओं को तुच्छ समझ सकता है। जिसके पास व्यंजनों से भरा हुआ थाल है, वह एक टुकड़ा कुत्तो के सामने फेंक सकता है, जिसके पास एक ही टुकड़ा हो वह उसी से चिमटेगा ।
सुखदा ने मानो इस कथन को सुना ही नहीं-मंदिर वाले झगड़े में न जाने सभी में कैसे साहस आ गया था। मैं एक बार वही कांड दिखा देना चाहती हूं।
नैना ने कांपकर कहा-नहीं भाभी, इतना बड़ा भार सिर पर मत लो। समय आ जाने पर सब-कुछ आप ही हो जाता है। देखो, हम लोगों के देखते-देखते बाल-विवाह, छूत-छात का रिवाज कम हो गया। शिक्षा का प्रचार कितना बढ़ गया। समय आ जाने पर गरीबों के घर भी बन जाएंगे।
'यह तो कायरों की नीति है। पुरुषार्थ वह है, जो समय को अपने अनुकूल बनाए।'
'इसके लिए प्रचार करना चाहिए।'
'छ: महीने वाली राह है।'
'लेकिन जोखिम तो नहीं है।'
'जनता को मुझ पर विश्वास नहीं है ।'
एक क्षण बाद उसने फिर कहा-अभी मैंने ऐसी कौन-सी सेवा की है कि लोगों को मुझ पर विश्वास हो। दो-चार घंटे गलियों में चक्कर लगा लेना कोई सेवा नहीं है।
'मैं तो समझती हूं, इस समय हड़ताल कराने से जनता की थोड़ी बहुत सहानुभूति जो है, वह भी गायब हो जाएगी।'
सुखदा ने अपनी जांघ पर हाथ पटककर कहा-सहानुभूति से काम चलता, तो फिर रोना किस बात का था- लोग स्वेच्छा से नीति पर चलते, तो कानून क्यों बनाने पड़ते- मैं इस घर में रहकर और अमीर का ठाट रखकर जनता के दिलों पर काबू नहीं पा सकती। मुझे त्याग करना पड़ेगा। इतने दिनों से सोचती ही रह गई।
दूसरे दिन शहर में अच्छी-खासी हड़ताल थी। मेहतर तो एक भी काम करता न नजर आता था। कहारों और इक्के-गाड़ी वालों ने भी काम बंद कर दिया था। साफ-भाजी की दूकानें भी आधी से ज्यादा बंद थीं। कितने ही घरों में दूध के लिए हाय-हाय मची हुई थी। पुलिस दूकानें खुलवा रही थी और मेहतरों को काम पर लाने की चेष्टा कर रही थी। उधर जिले के अधिकारी मंडल में इस समस्या को हल करने का विचार हो रहा था। शहर के रईस और अमीर भी उसमें शामिल थे।
दोपहर का समय था। घटा उमड़ी चली आती थी, जैसे आकाश पर पीला लेप किया जा रहा हो। सड़कों और गलियों में जगह-जगह पानी जमा था। उसी कीचड़ में जनता इधर-उधर दौड़ती फिरती थी। सुखदा के द्वार पर एक भीड़ लगी हुई थी कि सहसा शान्तिकुमार घुटने तक कीचड़ लपेटे आकर बरामदे में खड़े हो गए। कल की बातों के बाद आज वहां आते उन्हें संकोच हो रहा था। नैना ने उन्हें देखा पर अंदर न बुलाया सुखदा अपनी माता से बातें कर रही थी। शान्तिकुमार एक क्षण खड़े रहे, फिर हताश होकर चलने को तैयार हुए।
सुखदा ने उनकी रोनी सूरत देखी, फिर भी उन पर व्यंग्य-प्रहार करने से न चूकी- किसी ने आपको यहां आते देख तो नहीं लिया, डॉक्टर साहब-
शान्तिकुमार ने इस व्यंग्य की चोट को विनोद से रोका-खूब देख-भालकर आया हूं। कोई यहां देख भी लेगा, तो कह दूंगा, रुपये उधार लेने आया हूं।
रेणुका ने डॉक्टर साहब से देवर का नाता जोड़ लिया था। आज सुखदा ने कल का वृत्तांत सुनाकर उसे डॉक्टर साहब को आड़े हाथों लेने की सामग्री दे दी थी, हालांकि अदृश्य रूप से डॉक्टर साहब के नीति-भेद का कारण वह खुद थीं। उन्हीं ने ट्रस्टं का भार उनके सिर पर रखकर उन्हें सचिंत कर दिया था।
उसने डॉक्टर का हाथ पकड़कर कुर्सी पर बैठाते हुए कहा-तो चूड़ियां पहनकर बैठो ना, यह मूंछें क्यों बढ़ा ली हैं-
शान्तिकुमार ने हंसते हुए कहा-मैं तैयार हूं, लेकिन मुझसे शादी करने के लिए तैयार रहिएगा। आपको मर्द बनना पड़ेगा।
रेणुका ताली बजाकर बोली-मैं तो बूढ़ी हुई लेकिन तुम्हारा खसम ऐसा ढूंढूंगी जो तुम्हें सात परदों के अंदर रखे और गालियों से बात करे। गहने मैं बनवा दूंगी। सिर में सिंदूर डालकर घूंघट निकाले रहना। पहले खसम खा लेगा, तो उसका जूठन मिलेगा, समझ गए, और उसे देवता का प्रसाद समझ कर खाना पड़ेगा। जरा भी नाक-भौं सिकोड़ी, तो कुलच्छनी कहलाओगे। उसके पांव दबाने पड़ेंगे, उसकी धोती छांटनी पड़ेगी। वह बाहर से आएगा तो उसके पांव धोने पड़ेंगे, और बच्चे भी जनने पड़ेंगे। बच्चे न हुए, तो वह दूसरा ब्याह कर लेगा फिर घर में लौंडी बनकर रहना पड़ेगा।
शान्तिकुमार पर लगातार इतनी चोटें पड़ीं कि हंसी भूल गई। मुंह जरा-सा निकल आया। मुर्दनी ऐसी छा गई जैसे मुंह बंध गया। जबड़े फैलाने से भी न फैलते थे। रेणुका ने उनकी दो-चार बार पहले भी हंसी की थी पर आज तो उन्हें रूलाकर छोड़ा। परिहास में औरत अजेय होती है, खासकर जब वह बूढ़ी हो।
उन्होंने घड़ी देखकर कहा-एक बज रहा है। आज तो हड़ताल अच्छी तरह रही।
रेणुका ने फिर चुटकी ली-आप तो घर में लेटे थे, आपको क्या खबर-
शान्तिकुमार ने अपनी कारगुजारी जताई-उन आराम से लेटने वालों में मैं नहीं हूं। हरेक आंदोलन में ऐसे आदमियों की भी जरूरत होती है, जो गुप्त रूप से उसकी मदद करते रहें। मैंने अपनी नीति बदल दी है और मुझे अनुभव हो रहा है कि इस तरह कुछ कम सेवा नहीं कर सकता। आज नौजवान-सभा के दस-बारह युवकों को तैनात कर आया हूं, नहीं इसकी चौथाई हड़ताल भी न होती।
रेणुका ने बेटी की पीठ पर एक थपकी देकर कहा-जब तू इन्हें क्यों बदनाम कर रही थी- बेचारे ने इतनी जान खपाई, फिर भी बदनाम हुए। मेरी समझ में भी यह नीति आ रही है। सबका आग में कूदना अच्छा नहीं।
शान्तिकुमार कल के कार्यक्रम का निश्चय करके और सुखदा को अपनी ओर से आश्वस्त करके चले गए।
संध्याल हो गई थी। बादल खुल गए थे और चांद की सुनहरी जोत पृथ्वी के आंसुओं से भीगे हुए मुख पर मात्-स्नेह की वर्षा कर रही थी। सुखदा संध्याप करने बैठी हुई थी। उस गहरे आत्म-चिंतन में उसके मन की दुर्बलता किसी हठीले बालक की भांति रोती हुई मालूम हुई। मनीराम ने उसका वह अपमान न किया होता, तो वह हड़ताल के लिए क्या इतना जोर लगाती-
उसके अभिमान ने कहा-हां-हां, जरूर लगाती। यह विचार बहुत पहले उसके मन में आया था। धनीराम को हानि होती है, तो हो, इस भय से वहर् कर्तव्यच का त्याग क्यों करे- जब वह अपना सर्वस्व इस उद्योग के लिए होम करने को तुली हुई है, तो दूसरों के हानि-लाभ की क्या चिंता हो सकती है-
इस तरह मन को समझाकर उसने ंसधया समाप्त की और नीचे उतरी ही थी कि लाला समरकान्त आकर खडे। हो गए। उनके मुख पर विषाद की रेखा झलक रही थी और होंठ इस तरह गड़क रहे थे, मानो मन का आवेश बाहर निकलने के लिए विकल हो रहा हो।
सुखदा ने पूछा-आप कुछ घबराए हुए हैं दादाजी, क्या बात है-
समरकान्त की सारी देह कांप उठी। आंसुओं के वेग को बलपूर्वक रोकने की चेष्टा करके बोले-एक पुलिस कर्मचारी अभी दूकान पर ऐसी सूचना दे गया है कि क्या कहूं।
यह कहते-कहते उनका कंठ-स्वर जैसे गहरे जल में डुबकियां खाने लगा।
सुखदा ने आशंकित होकर पूछा-तो कहिए न, क्या कह गया है- हरिद्वार में तो सब कुशल है-
समरकान्त ने उसकी आशंकाओं को दूसरी ओर बहकते देख जल्दी से कहा-नहीं-नहीं, उधर की कोई बात नहीं है। तुम्हारे विषय में था। तुम्हारी गिरफ्तारी का वारंट निकल गया है।
सुखदा ने हंसकर कहा-अच्छा मेरी गिरफ्तारी का वारंट है तो उसके लिए आप इतना क्यों घबरा रहे हैं- मगर आखिर मेरा अपराध क्या है-
समरकान्त ने मन को संभालकर कहा-यही हड़ताल है। आज अफसरों में सलाह हुई हैं। और वहां यही निश्चय हुआ कि तुम्हें और चौधरियों को पकड़ लिया जाय। इनके पास दमन ही एक दवा है। असंतोष के कारणों को दूर न करेंगे, बस, पकड़-धकड़ से काम लेंगे, जैसे कोई माता भूख से रोते बालक को पीटकर चुप कराना चाहे।
सुखदा शांत भाव से बोली-जिस समाज का आधार ही अन्याय पर हो, उसकी सरकार के पास दमन के सिवा और क्या दवा हो सकती है- लेकिन इससे कोई यह न समझे कि यह आंदोलन दब जाएगा, उसी तरह, जैसे कोई गेंद टक्कर खाकर और जोर से उछलती है, जितने ही जोर की टक्कर होगी, उतने ही जोर की प्रतिक्रिया भी होगी।
एक क्षण के बाद उसने उत्तोजित होकर कहा-मुझे गिरफ्तार कर लें। उन लाखों गरीबों को कहां ले जाएंगे, जिनकी आहें आसमान तक पहुंच रही हैं। यही आहें एक दिन किसी ज्वालामुखी की भांति फटकर सारे समाज और समाज के साथ सरकार को भी विधवंस कर देंगी अगर किसी की आंखें नहीं खुलतीं, तो न खुलें। मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया। एक दिन आएगा, जब आज के देवता कल कंकर-पत्थर की तरह उठा-उठाकर गलियों में फेंक दिए जाएंगे और पैरों से ठुकराए जाएंगे। मेरे गिरफ्तार हो जाने से चाहे कुछ दिनों के लिए
अधिकारियों के कानों में हाहाकार की आवाजें न पहुंचें लेकिन वह दिन दूर नहीं है, जब यही आंसू चिंगारी बनकर अन्याय को भस्म कर देंगे। इसी राख से वह अग्नि प्रज्वलित होगी, जिसकी आंदोलन शाखाएं आकाश तक को हिला देंगी।
समरकान्त पर इस प्रलाप का कोई असर न हुआ। वह इस संकट को टालने का उपाय सोच रहे थे। डरते-डरते बोले-एक बात कहूं, बुरा न मानो। जमानत...।
सुखदा ने त्योरियां बदलकर कहा-नहीं, कदापि नहीं। मैं क्यों जमानत दूं- क्या इसलिए कि अब मैं कभी जबान न खोलूंगी, अपनी आंखों पर पट्टी बंध लूंगी, अपने मुंह पर जाली लगा लूंगी- इससे तो यह कहीं अच्छा है कि अपनी आंखें फोड़ लूं, जबान कटवा दूं।
समरकान्त की सहिष्णुता अब सीमा तक पहुंच चुकी थी गरजकर बोले-अगर तुम्हारी जबान काबू में नहीं है, तो कटवा लो। मैं अपने जीते-जी यह नहीं देख सकता कि मेरी बहू गिरफ्तार की जाए और मैं बैठा देखूं। तुमने हड़ताल करने के लिए मुझसे पूछ क्यों न लिया- तुम्हें अपने नाम की लाज न हो, मुझे तो है। मैंने जिस मर्यादा-रक्षा के लिए अपने बेटे को त्याग दिया, उस मर्यादा को मैं तुम्हारे हाथों न मिटने दूंगा।
बाहर से मोटर का हार्न सुनाई दिया। सुखदा के कान खड़े हो गए। वह आवेश में द्वार की ओर चली। फिर दौड़कर मुन्ने को नैना की गोद से लेकर उसे हृदय से लगाए हुए अपने कमरे में जाकर अपने आभूषण उतारने लगी। समरकान्त का सारा क्रोध कच्चे रंग की भांति पानी पड़ते ही उड़ गया। लपककर बाहर गए और आकर घबराए हुए बोले-बहू, डिप्टी आ गया। मैं जमानत देने जा रहा हूं। मेरी इतनी याचना स्वीकार करो। थोड़े दिनों का मेहमान हूं। मुझे मर जाने दो फिर जो कुछ जी में आए करना।
सुखदा कमरे के द्वार पर आकर दृढ़ता से बोली-मैं जमानत न दूंगी, न इस मुआमले की पैरवी करूंगी। मैंने कोई अपराध नहीं किया है।
समरकान्त ने जीवन भर में कभी हार न मानी थी पर आज वह इस अभिमानिनी रमणी के सामने परास्त खड़े थे। उसके शब्दों ने जैसे उनके मुंह पर जाली लगा दी। उन्होंने सोचा-स्त्रियों को संसार अबला कहता है। कितनी बड़ी मूर्खता है। मनुष्य जिस वस्तु को प्राणों से भी प्रिय समझता है, वह स्त्री की मुट्ठी में है।
उन्होंने विनय के साथ कहा-लेकिन अभी तुमने भोजन भी तो नहीं किया। खड़ी मुंह क्या ताकती है नैना, क्या भंग खा गई है जा, बहू को खाना खिला दे। अरे ओ महराज। महरा। यह ससुरा न जाने कहां मर रहा- समय पर एक भी आदमी नजर नहीं आता। तू बहू को ले जा रसोई में नैना, मैं कुछ मिठाई लेता आऊं। साथ-साथ कुछ खाने को तो ले जाना ही पड़ेगा।
कहार ऊपर बिछावन लगा रहा था। दौड़ा हुआ आकर खड़ा हो गया। समरकान्त ने उसे जोर से एक धौल मारकर कहा-कहां था तू- इतनी देर से पुकार रहा हूं, सुनता नहीं किसके लिए बिछावन लगा रहा है, ससुर बहू जा रही है। जा दौड़कर बाजार से मिठाई ला। चौक वाली दुकान से लाना।
सुखदा आग्रह के साथ बोली-मिठाई की मुझे बिलकुल जरूरत नहीं है और न कुछ खाने की ही इच्छा है। कुछ कपड़े लिए जाती हूं, वही मेरे लिए काफी हैं।
बाहर से आवाज आई-सेठजी, देवीजी को जल्दी भेजिए, देर हो रही है।
समरकान्त बाहर आए और अपराधी की भांति खड़े गए।
डिप्टी दुहरे बदन का, रोबदार, पर हंसमुख आदमी था, जो और किसी विभाग में अच्छी जगह न पाने के कारण पुलिस में चला आया था। अनावश्यक अशिष्टता से उसे घृणा थी और यथासाध्ये रिश्वत न लेता था। पूछा-कहिए क्या राय हुई-
समरकान्त ने हाथ बंधकर कहा-कुछ नहीं सुनती हुजूर, समझाकर हार गया। और मैं उसे क्या समझाऊं- मुझे वह समझती ही क्या है- अब तो आप लोगों की दया का भरोसा है। मुझसे जो खिदमत कहिए, उसके लिए हाजिर हूं। जेलर साहब से तो आपका रब्त-जब्त होगा ही, उन्हें भी समझा दीजिएगा। कोई तकलीफ न होने पावे। मैं किसी तरह भी बाहर नहीं हूं। नाजुक मिजाज औरत है, हुजूर ।
डिप्टी ने सेठजी को बराबर की कुर्सी पर बैठाकर कहा-सेठजी, यह बातें उन मुआमलों में चलती हैं जहां कोई काम बुरी नीयत से किया जाता है। देवीजी अपने लिए कुछ नहीं कर रही हैं। उनका इरादा नेक है वह हमारे गरीब भाइयों के हक के लिए लड़ रही हैं। उन्हें किसी तरह की तकलीफ न होगी। नौकरी से मजबूर हूं वरना यह देवियां तो इस लायक हैं कि इनके कदमों पर सिर रखें। खुदा ने सारी दुनिया की नेमतें दे रखी हैं मगर उन सब पर लात मार दी और हक के लिए सब कुछ झेलने को तैयार हैं। इसके लिए गुर्दा चाहिए साहब, मामूली बात नहीं है।
सेठजी ने संदूक से दस अशर्फियां निकालीं और चुपके से डिप्टी की जेब में डालते हुए बोले-यह बच्चों के मिठाई खाने के लिए है।
डिप्टी ने अशर्फियां जेब से निकालकर मेज पर रख दीं और बोला-आप पुलिस वालों को बिलकुल जानवर ही समझते हैं क्या, सेठजी- क्या लाल पगड़ी सिर पर रखना ही इंसानियत का खून करना है- मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि देवीजी को तकलीफ न होने पाएगी। तकलीफ उन्हें दी जाती है जो दूसरों को तकलीफ देते हैं। जो गरीबों के हक के लिए अपनी जिंदगी कुरबान कर दे, उसे अगर कोई सताए, तो वह इंसान नहीं, हैवान भी नहीं, शैतान है। हमारे सीगे में ऐसे आदमी हैं और कसरत से हैं। मैं खुद फरिश्ता नहीं हूं लेकिन ऐसे मुआमले में मैं पान तक खाना हराम समझता हूं। मंदिर वाले मुआमले में देवीजी जिस दिलेरी से मैदान में आकर गोलियों के सामने खड़ी हो गई थीं, वह उन्हीं का काम था।
सामने सड़क पर जनता का समूह प्रतिक्षण बढ़ता जाता था। बार-बार जय-जयकार की ध्वननि उठ रही थी। स्त्री और पुरुष देवीजी के दर्शन को भागे चले आते थे।
भीतर नैना और सुखदा में समर छिड़ा हुआ था।
सुखदा ने थाली सामने से हटाकर कहा-मैंने कह दिया, मैं कुछ न खाऊंगी।
नैना ने उसका हाथ पकड़कर कहा-दो-चार कौर ही खा लो भाभी, तुम्हारे पैरों पड़ती हूं। फिर न जाने यह दिन कब आए-
उसकी आंखें सजल हो गईं।
सुखदा निष्ठुरता से बोली-तुम मुझे व्यर्थ में दिक कर रही हो बीबी, मुझे अभी बहुत- सी तैयारियां करनी हैं और उधर डिप्टी जल्दी मचा रहा है। देखती नहीं हो, द्वार पर डोली खड़ी है। इस वक्त खाने की किसे सूझती है-
नैना प्रेम-विह्नल कंठ से बोली-तुम अपना काम करती रहो, मैं तुम्हें कौर बनाकर खिलाती जाऊंगी।
जैसे माता खेलते बच्चे के पीछे दौड़-दौड़कर उसे खिलाती है, उसी तरह नैना भाभी को खिलाने लगी। सुखदा कभी इस अलमारी के पास जाती, कभी उस संदूक के पास। किसी संदूक से सिंदूर की डिबिया निकालती, किसी से साड़ियां। नैना एक कौर खिलाकर फिर थाल के पास जाती और दूसरा कौर लेकर दौड़ती।
सुखदा ने पांच-छ: कौर खाकर कहा-बस, अब पानी पिला दो।
नैना ने उसके मुंह के पास कौर ले जाकर कहा-बस यही कौर ले लो, मेरी अच्छी भाभी।
सुखदा ने मुंह खोल दिया और ग्रास के साथ आंसू भी पी गई।
'बस एक और।'
'अब एक कौर भी नहीं।'
'मेरी खातिर से।'
सुखदा ने ग्रास ले लिया।
'पानी भी दोगी या खिलाती ही जाओगी।'
'बस, एक ग्रास भैया के नाम का और ले लो।'
'ना। किसी तरह नहीं।'
नैना की आंखों में आंसू थे प्रत्यक्ष, सुखदा की आंखों में भी आंसू थे मगर छिपे हुए। नैना शोक से विह्नल थी, सुखदा उसे मनोबल से दबाए हुए थी। वह एक बार निष्ठुर बनकर चलते-चलते नैना के मोह-बंधन को तोड़ देना चाहती थी, पैने शब्दों से हृदय के चारों ओर खाई खोद देना चाहती थी, मोह और शोक और वियोग-व्यथा के आक्रमणों से उसकी रक्षा करने के लिए पर नैना की छलछलाती हुई आंखें, वह कांपते हुए होंठ, वह विनय-दीन मुखश्री उसे नि:शस्त्र किए देती थी।
नैना ने जल्दी-जल्दी पान के बीड़े लगाए और भाभी को खिलाने लगी, तो उसके दबे हुए आंसू गव्वारे की तरह उबल पड़े। मुंह ढांपकर रोने लगी। सिसकियां और गहरी होकर कंठ तक जा पहुंचीं।
सुखदा ने उसे गले से लगाकर सजल शब्दों में कहा-क्यों रोती हो बीबी, बीच-बीच में मुलाकात तो होती ही रहेगी। जेल में मुझसे मिलने आना, तो खूब अच्छी-अच्छी चीजें बनाकर लाना। दो-चार महीने में तो मैं फिर आ जाऊंगी।
नैना ने जैसे डूबती हुई नाव पर से कहा-मैं ऐसी अभागिन हूं कि आप तो डूबी ही थीं, तुम्हें भी ले डूबी।
ये शब्द फोडे। की तरह उसी समय से उसके हृदय में टीस रहे थे, जब से उसने सुखदा की गिरफ्तारी की खबर सुनी थी, और यह टीस उसकी मोह-वेदना को और भी दुदाऊत बना रही थी।
सुखदा ने आश्चर्य से उसके मुंह की ओर देखकर कहा-यह तुम क्या कह रही हो बीबी, क्या तुमने पुलिस बुलाई है-
नैना ने ग्लानि से भरे कंठ से कहा-यह पत्थर की हवेली वालों का कुचक्र है (सेठ धनीराम शहर में इसी नाम से प्रसि' थेध्द मैं किसी को गालियां नहीं देती पर उनका किया उनके आगे आएगा। जिस आदमी के लिए एक मुंह से भी आशीर्वाद न निकलता हो, उसका जीना वृथा है।
सुखदा ने उदास होकर कहा-उनका इसमें क्या दोष है, बीबी- यह सब हमारे समाज का, हम सबों का दोष है। अच्छा आओ, अब विदा हो जाएं। वादा करो, मेरे जाने पर रोओगी नहीं।
नैना ने उसके गले से लिपटकर सूजी हुई आंखों से मुस्कराकर कहा-नहीं रोऊंगी, भाभी।
'अगर मैंने सुना कि तुम रो रही हो, तो मैं अपनी सजा बढ़वा लूंगी।'
'भैया को यह समाचार देना ही होगा।'
'तुम्हारी जैसी इच्छा हो करना। अम्मां को समझाती रहना।'
'उनके पास कोई आदमी भेजा गया या नहीं?'
'उन्हें बुलाने से और देर ही तो होती। घंटों न छोड़तीं।'
'सुनकर दौड़ी आएंगी।'
'हां, आएंगी तो पर रोएंगी नहीं। उनका प्रेम आंखों में है। हृदय तक उसकी जड़ नहीं पहुंचती।'
दोनों द्वार की ओर चलीं। नैना ने मुन्ने को मां की गोद से उतारकर प्यार करना चाहा पर वह न उतरा। नैना से बहुत हिला था पर आज वह अबोध आंखों से देख रहा था-माता कहीं जा रही है। उसकी गोद से कैसे उतरे- उसे छोड़कर वह चली जाए, तो बेचारा क्या कर लेगा-
नैना ने उसका चुंबन लेकर कहा-बालक बड़े निर्र्दयी होते हैं।
सुखदा ने मुस्कराकर कहा-लड़का किसका है ।
द्वार पर पहुंचकर फिर दोनों गले मिलीं। समरकान्त भी डयोढ़ी पर खड़े थे। सुखदा ने उसके चरणों पर सिर झुकाया। उन्होंने कांपते हुए हाथों से उसे उठाकर आशीर्वाद दिया। फिर मुन्ने को कलेजे से लगाकर ठ्ठक-ठ्ठटकर रोने लगे। यह सारे घर को रोने का सिग्नयल था। आंसू तो पहले ही से निकल रहे थे। वह मूक रूदन अब जैसे बंधनो से मुक्त हो गया। शीतल, धीर, गंभीर बुढ़ापा जब विह्नल हो जाता है, तो मानो पिंजरे के द्वार खुल जाते हैं और पक्षियों को रोकना असंभव हो जाता है। जब सत्तर वर्ष तक संसार के समर में जमा रहने वाला नायक हथियार डाल दे, तो रंगईटों को कौन रोक सकता है-
सुखदा मोटर में बैठी। जय-जयकार की ध्वंनि हुई। फूलों की वर्षा की गई।
मोटर चल दी।
हजारों आदमी मोटर के पीछे दौड़ रहे थे और सुखदा हाथ उठाकर उन्हें प्रणाम करती जाती थी। यह श्रध्दा, यह प्रेम, यह सम्मान क्या धन से मिल सकता है- या विद्या से- इसका केवल एक ही साधन है, और वह सेवा है, और सुखदा को अभी इस क्षेत्र में आए हुए ही कितने दिन हुए थे-
सड़क के दोनों ओर नर-नारियों की दीवार खड़ी थी और मोटर मानो उनके हृदय को कुचलती-मसलती चली जा रही थी।
सुखदा के हृदय में गर्व न था, उल्लास न था, द्वेष न था, केवल वेदना थी। जनता की इस दयनीय दशा पर, इस अधोगति पर, जो डूबती हुई दशा में तिनके का सहारा पाकर भी कृतार्थ हो जाती है।
कुछ देर के बाद सड़क पर सन्नाटा था, सावन की निद्रा-सी काली रात संसार को अपने अंचल में सुला रही थी और मोटर अनंत में स्वप्न की भांति उड़ी चली जाती थी। केवल देह में ठंडी हवा लगने से गति का ज्ञान होता था। इस अंधकार में सुखदा के अंतस्तल में एक प्रकाश-सा उदय हुआ था। कुछ वैसा ही प्रकाश, जो हमारे जीवन की अंतिम घड़ियों में उदय होता है, जिसमें मन की सारी कालिमाएं, सारी ग्रंथियां, सारी विषमताएं अपने यथार्थ रूप में नजर आने लगती हैं। तब हमें मालूम होता है कि जिसे हमने अंधकार में काला देव समझा था, वह केवल तृण का ढेर था। जिसे काला नाग समझा था, वह रस्सी का एक टुकड़ा था। आज उसे अपनी पराजय का ज्ञान हुआ, अन्याय के सामने नहीं असत्य के सामने नहीं, बल्कि त्याग के सामने और सेवा के सामने। इसी सेवा और त्याग के पीछे तो उसका पति से मतभेद हुआ था, जो अंत में इस वियोग का कारण हुआ। उन सिध्दांतों से अभक्ति रखते हुए भी वह उनकी ओर खिंचती चली आती थी और आज वह अपने पति की अनुगामिनी थी। उसे अमर के उस पत्र की याद आई, जो उसने शान्तिकुमार के पास भेजा था और पहली बार पति के प्रति क्षमा का भाव उसके मन में प्रस्फुटित हुआ। इस क्षमा में दया नहीं, सहानुभूति थी, सहयोगिता थी। अब दोनों एक ही मार्ग के पथिक हैं, एक ही आदर्श के उपासक हैं। उनमें कोई भेद नहीं है, कोई वैषम्य नहीं है। आज पहली बार उसका अपने पति से आत्मिक सामंजस्य हुआ। जिस देवता को अमंगलकारी समझ रखा था, उसी की आज धूप-दीप से पूजा कर रही थी।
सहसा मोटर रूकी और डिप्टी ने उतरकर कहा-देवीजी, जेल आ गया। मुझे क्षमा कीजिएगा।

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रचनाएँ
कर्मभूमि
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। कर्मभूमि का कथासार ‘कर्मभूमि’ यथार्थ और आदर्श के अद्भुत समन्वय की एक ऐसी कृति है जो मानव मन के विविध रूपों को कुशलता से चित्रित करती है। महात्मा गांधी के नेतृत्व में लड़े गए स्वाधीनता आंदोलन की झांकी प्रस्तुत करने वाली यह कृति मनुष्य के देववत्व की विजय का उद्घोष है। ‘कर्मभूमि ‘ में यह संदेश दिया गया है। प्रेमचन्द का कर्मभूमि उपन्यास एक राजनीतिक उपन्यास है जिसमें विभिन्न राजनीतिक समस्याओं को कुछ परिवारों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। ये परिवार यद्यपि अपनी पारिवारिक समस्याओं से जूझ रहे हैं तथापि तत्कालीन राजनीतिक आन्दोलन में भाग ले रहे हैं। उपन्यास का कथानक काशी और उसके आस-पास के गाँवों से संबंधित है। कर्मभूमि उपन्यास की विषय निर्धनों के मकान की समस्या, अछूतोद्धार की समस्या, अछूतों के मन्दिर में प्रवेश की समस्या, भारतीय नारियों की मर्यादा और सतीत्व की रक्षा की समस्या, ब्रिटिश साम्राज्य के दमन चक्र से उत्पन्न समस्याएँ, भारतीय समाज में व्याप्त धार्मिक पाखण्ड की समस्या पुनर्जागरण और नवीन चेतना के समाज में संचरण की समस्या, राष्ट्र के लिए .है।
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कर्मभूमि अध्याय 1

7 फरवरी 2022
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भाग 1 हमारे स्कूलों और कॉलेजों में जिस तत्परता से फीस वसूल की जाती है, शायद मालगुजारी भी उतनी सख्ती से नहीं वसूल की जाती। महीने में एक दिन नियत कर दिया जाता है। उस दिन फीस का दाखिला होना अनिवार्य है।

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भाग 2

7 फरवरी 2022
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अमरकान्त के पिता लाला समरकान्त बड़े उद्योगी पुरुष थे। उनके पिता केवल एक झोंपडी छोड़कर मरे थे मगर समरकान्त ने अपने बाहुबल से लाखों की संपत्ति जमा कर ली थी। पहले उनकी एक छोटी-सी हल्दी की आढ़त थी। हल्दी

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भाग 3

7 फरवरी 2022
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स्कूल से लौटकर अमरकान्त नियमानुसार अपनी छोटी कोठरी में जाकर चरखे पर बैठ गया। उस विशाल भवन में, जहां बारात ठहर सकती थी, उसने अपने लिए यही छोटी-सी कोठरी पसंद की थी। इधर कई महीने से उसने दो घंटे रोज सूत

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भाग 4

7 फरवरी 2022
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अमरकान्त मैटि'कुलेशन की परीक्षा में प्रांत में सर्वप्रथम आया पर अवस्था अधिक होने के कारण छात्रवृत्ति न पा सका। इससे उसे निराशा की जगह एक तरह का संतोष हुआ क्योंकि वह अपने मनोविकारों को कोई टिकौना न देन

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भाग 5

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अमरकान्त ने अपने जीवन में माता के स्नेह का सुख न जाना था। जब उसकी माता का अवसान हुआ, तब वह बहुत छोटा था। उस दूर अतीत की कुछ धुंधली-सी और इसीलिए अत्यंत मनोहर और सुखद स्मृतियां शेष थीं। उसका वेदनामय बाल

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भाग 6

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डॉ. शान्तिकुमार एक महीने तक अस्पताल में रहकर अच्छे हो गए। तीनों सैनिकों पर क्या बीती, नहीं कहा जा सकता पर अच्छे होते ही पहला काम जो डॉक्टर साहब ने किया, वह तांगे पर बैठकर छावनी में जाना और उन सैनिकों

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भाग 7

7 फरवरी 2022
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अमरकान्त ने आम जलसों में बोलना तो दूर रहा, शरीक होना भी छोड़ दिया पर उसकी आत्मा इस बंधन से छटपटाती रहती थी और वह कभी-कभी सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में अपने मनोविकारों को प्रकट करके संतोष लाभ करता था। अब व

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भाग 8

7 फरवरी 2022
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अमरकान्त नौ बजते-बजते लौटा तो लाला समरकान्त ने पूछा-तुम दूकान बंद करके कहां चले गए थे- इसी तरह दूकान पर बैठा जाता है- अमर ने सफाई दी-बुढ़िया पठानिन रुपये लेने आई थी। बहुत अंधोरा हो गया था। मैंने समझा

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भाग 9

7 फरवरी 2022
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जीवन में कुछ सार है, अमरकान्त को इसका अनुभव हो रहा है। वह एक शब्द भी मुंह से ऐसा नहीं निकालना चाहता, जिससे सुखदा को दुख हो क्योंकि वह गर्भवती है। उसकी इच्छा के विरूद्वद्व' वह छोटी-से-छोटी बात भी नहीं

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भाग 10

7 फरवरी 2022
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तीन महीने तक सारे शहर में हलचल रही। रोज आदमी सब काम-धंधों छोड़कर कचहरी जाते। भिखारिन को एक नजर देख लेने की अभिलाषा सभी को खींच ले जाती। महिलाओं की भी खासी संख्या हो जाती थी। भिखारिन ज्योंही लारी से उत

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भाग 11

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सारे शहर में कल के लिए दोनों तरह की तैयारियां होने लगीं-हाय-हाय की भी और वाह-वाह की भी। काली झंडियां भी बनीं और फलों की डालियां भी जमा की गईं, पर आशावादी कम थे, निराशावादी ज्यादा। गोरों का खून हुआ है।

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भाग 12

7 फरवरी 2022
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सलीम ने सोचा अमरकान्त रुपये लिए आता होगा पर आठ बजे, नौ का अमल हुआ और अमर का कहीं पता नहीं। आया क्यों नहीं- कहीं बीमार तो नहीं पड़ गया। ठीक है, रुपये का इंतजाम कर रहा होगा। बाप तो टका न देंगे। सास से ज

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भाग 13

7 फरवरी 2022
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मुन्नी के बरी होने का समाचार आनन-फानन सारे शहर में फैल गया। इस फैसले की आशा बहुत कम आदमियों को थी। कोई कहता था-जज साहब की स्त्री ने पति से लड़कर फैसला लिखाया। रूठकर मैके चली जा रही थीं। स्त्री जब किसी

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भाग 15

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अमरकान्त के जीवन में एक नई स्फूनर्ति का संचार होने लगा। अब तक घरवालों ने उसके हरेक काम की अवहेलना ही की थी। सभी उसकी लगाम खींचते रहते थे। घोड़े में न वह दम रहा, न वह उत्साह लेकिन अब एक प्राणी बढ़ावा द

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भाग 16

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इधर कुछ दिनों से अमरकान्त म्युनिसिपल बोर्ड का मेंबर हो गया था। लाला समरकान्त का नगर में इतना प्रभाव था और जनता अमरकान्त को इतना चाहती थी कि उसे धोला भी नहीं खर्च करना पड़ा और वह चुन लिया गया। उसके मुक

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भाग 17

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अमरकान्त खादी बेच रहा है। तीन बजे होंगे, लू चल रही है, बगूले उठ रहे हैं। दूकानदार दूकानों पर सो रहे हैं, रईस महलों में सो रहे हैं मजूर पेड़ों के नीचे सो रहे हैं और अमर खादी का गट्ठा लादे, पसीने में तर

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भाग 18

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अमरकान्त गली के बाहर निकलकर सड़क पर आया। कहां जाए- पठानिन इसी वक्त दादा के पास जाएगी। जरूर जाएगी। कितनी भंयकर स्थिति होगी कैसा कुहराम मचेगा- कोई धर्म के नाम को रोएगा, कोई मर्यादा के नाम को रोएगा। दगा,

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कर्मभूमि अध्याय 2

7 फरवरी 2022
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भाग 1 उत्तर की पर्वत-श्रेणियों के बीच एक छोटा-सा रमणीक गांव है। सामने गंगा किसी बालिका की भांति हंसती, उछलती, नाचती, गाती, दौड़ती चली जाती है। पीछे ऊंचा पहाड़ किसी वृध्द योगी की भांति जटा बढ़ाए शांत,

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भाग 2

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अमरकान्त सवेरे उठा, मुंह-हाथ धोकर गंगा-स्नान किया और चौधरी से मिलने चला। चौधरी का नाम गूदड़ था। इस गांव में कोई-जमींदार न रहता था। गूदड़ का द्वार ही चौपाल का काम देता था। अमर ने देखा, नीम के पेड़ के न

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भाग 3

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दो महीने बीत गए। पूस की ठंडी रात काली कमली ओढ़े पड़ी हुई थी। ऊंचा पर्वत किसी विशाल महत्तवाकांक्षी की भांति, तारिकाओं का मुकुट पहने खड़ा था। झोंपड़ियां जैसे उसकी वह छोटी-छोटी अभिलाषाएं थीं, जिन्हें वह

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भाग 4

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तीन महीने तक अमर ने किसी को खत न लिखा। कहीं बैठने की मुहलत ही न मिली। सकीना का हाल जानने के लिए हृदय तड़प-तड़पकर रह जाता था। नैना की भी याद आ जाती थी। बेचारी रो-रोकर मरी जाती होगी। बच्चे का हंसता हुआ

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भाग 5

7 फरवरी 2022
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गांव में एक आदमी सगाई लाया है। उस उत्सव में नाच, गाना, भोज हो रहा है। उसके द्वार पर नगड़ियां बज रही है गांव भर के स्त्री, पुरुष, बालक जमा हैं और नाच शुरू हो गया है। अमरकान्त की पाठशाला आज बंद है। लोग

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भाग 6

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सलोनी काकी ने अपने घर की जगह पाठशाले के लिए दे दी है। लड़के बहुत आने लगे हैं। उस छोटी-सी कोठरी में जगह नहीं है। सलोनी से किसी ने जगह मांगी नहीं, कोई दबाव भी नहीं डाला गया। बस, एक दिन अमर और चौधरी बैठे

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भाग 7

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कई महीने गुजर गए। गांव में फिर मुरदा मांस न आया। आश्चर्य की बात तो यह थी कि दूसरे गांव के चमारों ने भी मुरदा मांस खाना छोड़ दिया। शुभ उद्योग कुछ संक्रामक होता है। अमर की शाला अब नई इमारत में आ गई थी।

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कर्मभूमि अध्याय 3

7 फरवरी 2022
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भाग 1 लाला समरकान्त की जिंदगी के सारे मंसूबे धूल में मिल गए। उन्होंने कल्पना की थी कि जीवन-संध्यि में अपना सर्वस्व बेटे को सौंपकर और बेटी का विवाह करके किसी एकांत में बैठकर भगवत्-भजन में विश्राम लेंग

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भाग 2

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अमरकान्त का पत्र लिए हुए नैना अंदर आई, तो सुखदा ने पूछा-किसका पत्र है- नैना ने खत पाते ही पढ़ डाला था। बोली-भैया का। सुखदा ने पूछा-अच्छा उनका खत है- कहां हैं- 'हरिद्वार के पास किसी गांव में हैं।'

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भाग 3

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एक महीने से ठाकुरद्वारे में कथा हो रही है। पृं मधुसुदनजी इस कला में प्रवीण हैं। उनकी कथा में श्रव्य और दृश्य, दोनों ही काव्यों का आनंद आता है। जितनी आसानी से वह जनता को हंसा सकते हैं, उतनी ही आसानी से

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भाग 4

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उस दिन फिर कथा न हुई। कुछ लोगों ने ब्रह्मचारी ही पर आक्षेप करना शुरू किया। बैठे तो थे बेचारे एक कोने में, उन्हें उठाने की जरूरत ही क्या थी- और उठाया भी, तो नम्रता से उठाते। मार-पीट से क्या फायदा- दूस

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भाग 5

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नैना बार-बार द्वार पर आती है और समरकान्त को बैठे देखकर लौट जाती है। आठ बज गए और लालाजी अभी तक गंगा-स्नान करने नहीं गए। नैना रात-भर करवटें बदलती रही। उस भीषण घटना के बाद क्या वह सो सकती थी- उसने शातिंक

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भाग 6

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दूसरे दिन मंदिर में कितना समारोह हुआ, शहर में कितनी हलचल मची, कितने उत्सव मनाए गए, इसकी चर्चा करने की जरूरत नहीं। सारे दिन मंदिर में भक्तों का तांता लगा रहा। ब्रह्मचारी आज फिर विराजमान हो गए थे और जित

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भाग 7

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उसी रात को शान्तिकुमार ने अमर के नाम खत लिखा। वह उन आदमियों में थे जिन्हें और सभी कामों के लिए समय मिलता है, खत लिखने के लिए नहीं मिलता। जितनी अधिक घनिष्ठता, उतनी ही बेफिक्री। उनकी मैत्री खतों से कहीं

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सुखदा सड़क पर मोटर से उतरकर सकीना का घर खोजने लगी पर इधर से उधर तक दो-तीन चक्कर लगा आई, कहीं वह घर न मिला। जहां वह मकान होना चाहिए था, वहां अब एक नया कमरा था, जिस पर कलई पुती हुई थी। वह कच्ची दीवार और

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भाग 10

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सुखदा सेठ धनीराम के घर पहुंची, तो नौ बज रहे थे। बड़ा विशाल, आसमान से बातें करने वाला भवन था, जिसके द्वार पर एक तेज बिजली की बत्ती जल रही थी और दो दरबान खड़े थे। सुखदा को देखते ही भीतर-बाहर हलचल मच गई।

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भाग 11

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सावन में नैना मैके आई। ससुराल चार कदम पर थी, पर छ: महीने से पहले आने का अवसर न मिला। मनीराम का बस होता तो अब भी न आने देता लेकिन सारा घर नैना की तरफ था। सावन में सभी बहुएं मैके जाती हैं। नैना पर इतना

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भाग 12

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अब भी मूसलाधार वर्षा हो रही थी। संध्यां से पहले संध्या हो गई थी। और सुखदा ठाकुरद्वारे में बैठी हुई ऐसी हड़ताल का प्रबंध कर रही थी, जो म्युनिसिपल बोर्ड और उसके कर्ण-धारों का सिर हमेशा के लिए नीचा कर दे

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कर्मभूमि अध्याय 4

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भाग 1 अमरकान्त को ज्योंही मालूम हुआ कि सलीम यहां का अफसर होकर आया है, वह उससे मिलने चला। समझा, खूब गप-शप होगी। यह खयाल तो आया, कहीं उसमें अफसरी की बू न आ गई हो लेकिन पुराने दोस्त से मिलने की उत्कंठा

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भाग 2

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अमरकान्त के जीवन में एक नया उत्साह चमक उठा है। ऐसा जान पड़ता है कि अपनी यात्रा में वह अब एक घोड़े पर सवार हो गया है। पहले पुराने घोड़े को ऐड़ और चाबुक लगाने की जरूरत पड़ती थी। यह नया घोड़ा कनौतियां खड

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भाग 3

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इस इलाके के जमींदार एक महन्तजी थे। कारकून और मुख्तार उन्हीं के चेले-चापड़ थे। इसलिए लगान बराबर वसूल होता जाता था। ठाकुरद्वारे में कोई-न-कोई उत्सव होता ही रहता था। कभी ठाकुरजी का जन्म है, कभी ब्याह है,

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भाग 4

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अमर घर लौटा, तो बहुत हताश था। अगर जनता को शांत करने का उपाय न किया गया, अवश्य उपद्रव हो जाएगा। उसने महन्तजी से मिलने का निश्चय किया। इस समय उसका चित्त इतना उदास था कि एक बार जी में आया, यहां से सब छोड

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भाग 5

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अमर गूदड़ चौधरी के साथ महन्त आशाराम गिरि के पास पहुंचा। संध्यात का समय था। महन्तजी एक सोने की कुर्सी पर बैठे हुए थे, जिस पर मखमली गद्दा था। उनके इर्द-गिर्द भक्तों की भीड़ लगी हुई थी, जिसमें महिलाओं की

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भाग 6

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सलीम यहां से कोई सात-आठ मील पर डाकबंगले में पड़ा हुआ था। हलके के थानेदार ने रात ही को उसे इस सभा की खबर दी और अमरकान्त का भाषण भी पढ़ सुनाया। उसे इन सभाओं की रिपोर्ट करते रहने की ताकीद दी गई थी । सली

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भाग 7

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आज कई दिन के बाद तीसरे पहर सूर्यदेव ने पृथ्वी की पुकार सुनी और जैसे समाधि से निकलकर उसे आशीर्वाद दे रहे थे। पृथ्वी मानो अंचल फैलाए उनका आशीर्वाद बटोर रही थी। इसी वक्त स्वामी आत्मानन्द और अमरकान्त दोन

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भाग 8

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साथ के पढ़े, साथ के खेले, दो अभिन्न मित्र, जिनमें धौल-धप्पा, हंसी-मजाक सब कुछ होता रहता था, परिस्थितियों के चक्कर में पड़कर दो अलग रास्तों पर जा रहे थे। लक्ष्य दोनों का एक था, उद्देश्य एक दोनों ही देश

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कर्मभूमि अध्याय 5

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भाग 1 यह हमारा लखनऊ का सेंटल जेल शहर से बाहर खुली हुई जगह में है। सुखदा उसी जेल के जनाने वार्ड में एक वृक्ष के नीचे खड़ी बादलों की घुड़दौड़ देख रही है। बरसात बीत गई है। आकाश में बड़ी धूम से घेर-घार ह

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भाग 2

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सुखदा अपने कमरे में पहुंची, तो देखा-एक युवती कैदियों के कपड़े पहने उसके कमरे की सफाई कर रही है। एक चौकीदारिन बीच-बीच में उसे डांटती जाती है। चौकीदारिन ने कैदिन की पीठ पर लात मारकर कहा-रांड, तुझे झाड़

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भाग 3

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पुलिस ने उस पहाड़ी इलाके का घेरा डाल रखा था। सिपाही और सवार चौबीसों घंटे घूमते रहते थे। पांच आदमियों से ज्यादा एक जगह जमा न हो सकते थे। शाम को आठ बजे के बाद कोई घर से निकल न सकता था। पुलिस को इत्तिला

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भाग 4

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प्रात:काल समरकान्त और सलीम डाकबंगले से गांव की ओर चले। पहाड़ियों से नीली भाप उठ रही थी और प्रकाश का हृदय जैसे किसी अव्यक्त वेदना से भारी हो रहा था। चारों ओर सन्नाटा था। पृथ्वी किसी रोगी की भांति कोहरे

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भाग 5

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अमरकान्त को जेल में रोज-रोज का समाचार किसी-न-किसी तरह मिल जाता था। जिस दिन मार-पीट और अग्निकांड की खबर मिली, उसके क्रोध का वारापार न रहा और जैसे आग बुझकर राख हो जाती है, थोड़ी देर के बाद क्रोध की जगह

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भाग 6

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अमरकान्त को लखनऊ जेल में आए आज तीसरा दिन है। यहां उसे चक्की का काम दिया गया है। जेल के अधिकारियों को मालूम है, वह धनी का पुत्र है, इसलिए उसे कठिन परिश्रम देकर भी उसके साथ कुछ रिआयत की जाती है। एक छप्

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भाग 7

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लाला समरकान्त के चले जाने के बाद सलीम ने हर एक गांव का दौरा करके असामियों की आर्थिक दशा की जांच करनी शुरू की। अब उसे मालूम हुआ कि उनकी दशा उससे कहीं हीन है, जितनी वह समझे बैठा था। पैदावर का मूल्य लागत

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भाग 8

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काले खां के आत्म-समर्पण ने अमरकान्त के जीवन को जैसे कोई आधार प्रदान कर दिया। अब तक उसके जीवन का कोई लक्ष्य न था, कोई आदर्श न था, कोई व्रत न था। इस मृत्यु ने उनकी आत्मा में प्रकाश-सा डाल दिया। काले खां

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भाग 9

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पठानिन की गिरफ्तारी ने शहर में ऐसी हलचल मचा दी, जैसी किसी को आशा न थी। जीर्ण वृध्दावस्था में इस कठोर तपस्या ने मृतकों में भी जीवन डाल दिया, भीई और स्वार्थ-सेवियों को भी कर्मक्षेत्र में ला खड़ा किया। ल

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भाग 10

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इधर सकीना जनाने जेल में पहुंची, उधर सुखदा, पठानिन और रेणुका की रिहाई का परवाना भी आ गया। उसके साथ ही नैना की हत्या का संवाद भी पहुंचा। सुखदा सिर झुकाए मूर्तिवत् बैठी रह गई, मानो अचेत हो गई हो। कितनी म

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