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भाग 8

7 फरवरी 2022

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काले खां के आत्म-समर्पण ने अमरकान्त के जीवन को जैसे कोई आधार प्रदान कर दिया। अब तक उसके जीवन का कोई लक्ष्य न था, कोई आदर्श न था, कोई व्रत न था। इस मृत्यु ने उनकी आत्मा में प्रकाश-सा डाल दिया। काले खां की याद उसे एक क्षण के लिए भी न भूलती और किसी गुप्त शक्ति की भांति उसे शांति और बल देती थी। वह उसकी वसीयत इस तरह पूरी करना चाहता था कि काले खां की आत्मा को स्वर्ग में शांति मिले। घड़ी रात से उठकर कैदियों का हाल-चाल पूछना और उनके घरों पर पत्र लिखकर रोगियों के लिए दवा-दारू का प्रबंध करना, उनकी शिकायतें सुनना और अधिकारियों से मिलकर शिकायतों को दूर करना, यह सब उसके काम थे। और इन कामों को वह इतनी विनय, इतनी नम्रता और सहृदयता से करता कि अमलों को भी उस पर संदेह की जगह विश्वास होता था। वह कैदियों का भी विश्वासपात्र था और अधिकारियों का भी।
अब तक वह एक प्रकार से उपयोगितावाद का उपासक था। इसी सिध्दांत को मन में, यद्यपि अज्ञात रूप से, रखकर वह अपने कर्तव्यस का निश्चय करता था। तत्व -चिंतन का उसके जीवन में कोई स्थान न था। प्रत्यक्ष के नीचे जो अथाह गहराई है, वह उसके लिए कोई महत्तव न रखती थी। उसने समझ रखा था, वहां शून्य के सिवा और कुछ नहीं। काले खां की मृत्यु ने जैसे उसका हाथ पकड़कर बलपूर्वक उसे गहराई में डुबा दिया और उसमें डूबकर उसे अपना सारा जीवन किसी तृण के समान ऊपर तैरता हुआ दीख पड़ा, कभी लहरों के साथ आगे बढ़ता हुआ, कभी हवा के झोंकों से पीछे हटता हुआ कभी भंवर में पड़कर चक्कर खाता हुआ। उसमें स्थिरता न थी, संयम न था, इच्छा न थी। उसकी सेवा में भी दंभ था, प्रमाद था, द्वेष था। उसने दंभ में सुखदा की उपेक्षा की। उस विलासिनी के जीवन में जो सत्य था, उस तक पहुंचने का उद्योग न करके वह उसे त्याग बैठा। उद्योग करता भी क्या- तब उसे इस उद्योग का ज्ञान भी न था। प्रत्यक्ष ने उसी भीतर वाली आंखों पर परदा डालकर रखा था। प्रमाद में उसने सकीना से प्रेम का स्वांग किया। क्या उस उन्माद में लेशमात्र भी प्रेम की भावना थी- उस समय मालूम होता था, वह प्रेम में रत हो गया है, अपना सर्वस्व उस पर अर्पण किए देता है पर आज उस प्रेम में लिप्सा के सिवा और उसे कुछ न दिखाई देता था। लिप्सा ही न थी, नीचता भी थी। उसने उस सरल रमणी की हीनावस्था से अपनी लिप्सा शांत करनी चाही थी। फिर मुन्नी उसके जीवन में आई, निराशाओं से भग्न, कामनाओं से भरी हुई। उस देवी से उसने कितना कपट व्यवहार किया यह सत्य है कि उसके व्यवहार में कामुकता न थी। वह इसी विचार से अपने मन को समझा लिया करता था लेकिन अब आत्म-निरीक्षण करने पर स्पष्ट ज्ञात हो रहा था कि उस विनोद में भी, उस अनुराग में भी कामुकता का समावेश था। तो क्या वह वास्तव में कामुक है- इसका जो उत्तर उसने स्वयं अपने अंत:करण से पाया, वह किसी तरह श्रेयस्कर न था। उसने सुखदा पर विलासिता का दोष लगाया पर वह स्वयं उससे कहीं कुत्सित, कहीं विषय-पूर्ण विलासिता में लिप्त था। उसके मन में प्रबल इच्छा हुई कि दोनों रमणियों के चरणों पर सिर रखकर रोए और कहे-देवियो, मैंने तुम्हारे साथ छल किया है, तुम्हें दगा दी है। मैं नीच हूं, अधम हूं, मुझे जो सजा चाहे दो, यह मस्तक तुम्हारे चरणों पर है।
पिता के प्रति भी अमरकान्त के मन में श्रध्दा का भाव उदय हुआ। जिसे उसने माया का दास और लोभ का कीड़ा समझ लिया था, जिसे यह किसी प्रकार के त्याग के अयोग्य समझता था, वह आज देवत्व के ऊंचे सिंहासन पर बैठा हुआ था। प्रत्यक्ष के नशे में उसने किसी न्यायी, दयालु ईश्वर की सत्ता को कभी स्वीकार न किया था पर इन चमत्कारों को देखकर अब उसमें विश्वास और निष्ठा का जैसे एक सफर-सा उमड़ पड़ा था। उसे अपने छोटे-छोटे व्यवहारों में भी ईश्वरीय इच्छा का आभास होता था। जीवन में अब एक नया उत्साह था। नई जागृति थी। हर्षमय आशा से उसका रोम-रोम स्पंदित होने लगा। भविष्य अब उसके लिए अंधकारमय न था। दैवी इच्छा में अंधकार कहां ।
संध्यात का समय था। अमरकान्त परेड में खड़ा था, उसने सलीम को आते देखा। सलीम के चरित्र में कायापलट हुआ था, उसकी उसे खबर मिल चुकी थी पर यहां तक नौबत पहुंच चुकी है, इसका उसे गुमान भी न था। वह दौड़कर सलीम के गले से लिपट गया। और बोला- तुम क्वूब आए दोस्त, अब मुझे यकीन आ गया कि ईश्वर हमारे साथ है। सुखदा भी तो यहीं है, जनाने जेल में। मुन्नी भी आ पहुंची। तुम्हारी कसर थी, वह भी पूरी हो गई। मैं दिल में समझ रहा था, तुम भी एक-न-एक दिन आओगे, पर इतनी जल्दी आओगे, यह उम्मीद न थी। वहां की ताजा खबरें सुनाओ। कोई हंगामा तो नहीं हुआ-
सलीम ने व्यंग्य से कहा-जी नहीं, जरा भी नहीं। हंगामे की कोई बात भी हो- लोग मजे से खा रहे हैं और गाग गा रहे हैं। आप यहां आराम से बैठे हुए हैं न-
उसने थोड़े-से शब्दों में वहां की सारी परिस्थिति कह सुनाई-मवेशियों का कुर्क किया जाना, कसाइयों का आना, अहीरों के मुहाल में गोलियों का चलना। घोष को पटककर मारने की कथा उसने विशेष रुचि से कही।
अमरकान्त का मुंह लटक गया-तुमने सरासर नादानी की।
'और आप क्या समझते थे, कोई पंचायत है, जहां शराब और हुक्के के साथ सारा फैसला हो जाएगा?'
'मगर फरियाद तो इस तरह नहीं की जाती?'
'हमने तो कोई रिआयत नहीं चाही थी।'
'रिआयत तो थी ही। जब तुमने एक शर्त पर जमीन ली, तो इंसाफ यह कहता है कि वह शर्त पूरी करो। पैदावार की शर्त पर किसानों ने जमीन नहीं जोती थी बल्कि सालाना लगान की शर्त पर। जमींदार या सरकार को पैदावार की कमी-बेशी से कोई सरोकार नहीं है।'
'जब पैदावार के महंगे हो जाने पर लगान बढ़ा दिया जाता है, तो कोई वजह नहीं कि पैदावार के सस्ते हो जाने पर घटा न दिया जाय। मंदी में तेजी का लगान वसूल करना सरासर बेइंसाफी है।'
'मगर लगान लाठी के जोर से तो नहीं बढ़ाया जाता, उसके लिए भी तो कानून है?'
सलीम को विस्मय हो रहा था, ऐसी भयानक परिस्थिति सुनकर भी अमर इतना शांत कैसे बैठा हुआ है- इसी दशा में उसने यह खबरें सुनी होतीं, तो शायद उसका खून खौल उठता और वह आपे से बाहर हो जाता। अवश्य ही अमर जेल में आकर दब गया है। ऐसी दशा में उसने उन तैयारियों को उससे छिपाना ही उचित समझा, जो आजकल दमन का मुकाबला करने के लिए की जा रही थीं।
अमर उसके जवाब की प्रतीक्षा कर रहा था। जब सलीम ने कोई जवाब न दिया, तो उसने पूछा-तो आजकल वहां कौन है- स्वामीजी हैं-
सलीम ने सकुचाते हुए कहा-स्वामीजी तो शायद पकड़े गए। मेरे बाद ही वहां सकीना पहुंच गई।
'अच्छा सकीना भी परदे से निकल आई- मुझे तो उससे ऐसी उम्मीद न थी।'
'तो क्या तुमने समझा था कि आग लगाकर तुम उसे एक दायरे के अंदर रोक लोगे?'
अमर ने चिंतित होकर कहा-मैंने तो यही समझा था कि हमने हिंसा भाव को लगाम दे दी है और वह काबू से बाहर नहीं हो सकता।
'आप आजादी चाहते हैं मगर उसकी कीमत नहीं देना चाहते।'
'आपने जिस चीज को आजादी की कीमत समझ रखा है, वह उसकी कीमत नहीं है। उसकी कीमत है-हक और सच्चाई पर जमे रहने की ताकत।'
सलीम उत्तोजित हो गया-यह फिजूल की बात है। जिस चीज की बुनियाद सब्र पर है, उस पर हक और इंसाफ का कोई असर नहीं पड़ सकता।
अमर ने पूछा-क्या तुम इसे तस्लीम नहीं करते कि दुनिया का इंतजाम हक और इंसाफ पर कायम है और हरेक इंसान के दिल की गहराइयों के अंदर वह तार मौजूद है, जो कुरबानियों से झंकार उठता है-
सलीम ने कहा-नहीं, मैं इसे तस्लीम नहीं करता। दुनिया का इंतजाम खुदगरजी और जोर पर कायम है और ऐसे बहुत कम इंसान हैं जिनके दिल की गहराइयों के अंदर वह तार मौजूद हो।
अमर ने मुस्कराकर कहा-तुम तो सरकार के खैरख्वाह नौकर थे। तुम जेल में कैसे आ गए-
सलीम हंसा-तुम्हारे इश्क में ।
'दादा को किसका इश्क था?'
'अपने बेटे का।'
'और सुखदा को?'
'अपने शौहर का।'
'और सकीना को- और मुन्नी को- और इन सैकड़ों आदमियों को, जो तरह-तरह की सख्तियां झेल रहे हैं?'
'अच्छा मान लिया कि कुछ लोगों के दिल की गहराइयों के अंदर यह तार है मगर ऐसे आदमी कितने हैं?'
'मैं कहता हूं ऐसा कोई आदमी नहीं जिसके अंदर हमदर्दी का तार न हो। हां, किसी पर जल्द असर होता है, किसी पर देर में और कुछ ऐसे गरज के बंदे भी हैं जिन पर शायद कभी न हो।'
सलीम ने हारकर कहा-तो आखिर का तुम चाहते क्या हो- लगान हम दे नहीं सकते। वह लोग कहते हैं हम लेकर छोड़ेंगे। तो क्या करें- अपना सब कुछ कुर्क हो जाने दें- अगर हम कुछ कहते हैं, तो हमारे ऊपर गोलियां चलती हैं। नहीं बोलते, तो तबाह हो जाते हैं। फिर दूसरा कौन-सा रास्ता है- हम जितना ही दबते जाते हैं, उतना ही वह लोग शेर होते हैं। मरने वाला बेशक दिलों में रहम पैदा कर सकता है लेकिन मारने वाला खौफ पैदा कर सकता है, जो रहम से कहीं ज्यादा असर डालने वाली चीज है।
अमर ने इस प्रश्न पर महीनों विचार किया था। वह मानता था, संसार में पशुबल का प्रभुत्व है किंतु पशुबल को भी न्याय बल की शरण लेनी पड़ती है। आज बलवान-से-बलवान राष्ट' में भी यह साहस नहीं है कि वह किसी निर्बल राष्ट' पर खुल्लम-खुल्ला यह कहकर हमला करे कि 'हम तुम्हारे ऊपर राज करना चाहते हैं इसलिए तुम हमारे अधीन हो जाओ'। उसे अपने पक्ष को न्याय-संगत दिखाने के लिए कोई-न-कोई बहाना तलाश करना पड़ता है। बोला-अगर तुम्हारा खयाल है कि खून और कत्ल से किसी कौम की नजात हो सकती है, तो तुम सख्त गलती पर हो। मैं इसे नजात नहीं कहता कि एक जमाअत के हाथों से ताकत निकालकर दूसरे जमाअत के हाथों में आ जाय और वह भी तलवार के जोर से राज करे। मैं नजात उसे कहता हूं कि इंसान में इंसानियत आ जाय और इंसानियत की सब्र बेइंसाफी और खुदगरजी से दुश्मनी है।
सलीम को यह कथन तत्व हीन मालूम हुआ। मुंह बनाकर बोला-हुजूर को मालूम रहे कि दुनिया में फरिश्ते नहीं बसते, आदमी बसते हैं।
अमर ने शांत-शीतल हृदय से जवाब दिया-लेकिन क्या तुम देख नहीं रहे हो कि हमारी इंसानियत सदियों तक खून और कत्ल में डूबे रहने के बाद अब सच्चे रास्ते पर आ रही है- उसमें यह ताकत कहां से आई- उसमें खुद वह दैवी शक्ति मौजूद है। उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता। बड़ी-से-बड़ी फौजी ताकत भी उसे कुचल नहीं सकती, जैसे सूखी जमीन में घास की जडे। पड़ी रहती हैं और ऐसा मालूम होता है कि जमीन साफ हो गई, लेकिन पानी के छींटे पड़ते ही वह जड़ें पनप उठती हैं, हरियाली से सारा मैदान लहराने लगता है, उसी तरह इस कलों और हथियारों और खुदगरजियों के जमाने में भी हममें वह दैवी शक्ति छिपी हुई अपना काम कर रही है। अब वह जमाना आ गया है, जब हक की आवाज तलवार की झंकार या तोप की गरज से भी ज्यादा कारगर होगी। बड़ी-बड़ी कौमें अपनी-अपनी फौजी और जहाजी ताकतें घटा रही हैं। क्या तुम्हें इससे आने वाले जमाने का कुछ अंदाज नहीं होता- हम इसलिए गुलाम हैं कि हमने खुद गुलामी की बेड़ियां अपने पैरों में डाल ली हैं। जानते हो कि यह बेड़ी क्या है- आपस का भेद। जब तक हम इस बेड़ी को काटकर प्रेम न करना सीखेंगे, सेवा में ईश्वर का रूप न देखेंगे, हम गुलामी में पड़े रहेंगे। मैं यह नहीं कहता कि जब तक भारत का हरेक व्यक्ति इतना बेदार न हो जाएगा, तब तक हमारी नजात न होगी। ऐसा तो शायद कभी न हो पर कम-से-कम उन लोगों के अंदर तो यह रोशनी आनी ही चाहिए, जो कौम के सिपाही बनते हैं। पर हममें कितने ऐसे हैं, जिन्होंने अपने दिल को प्रेम से रोशन किया हो- हममें अब भी वही ऊंच-नीच का भाव है, वही स्वार्थ-लिप्सा है, वही अहंकार है।
बाहर ठंड पड़ने लगी थी। दोनों मित्र अपनी-अपनी कोठरियों में गए। सलीम जवाब देने के लिए उतावला हो रहा था पर वार्डन ने जल्दी की और उन्हें उठना पड़ा।
दरवाजा बंद हो गया, तो अमरकान्त ने एक लंबी सांस ली और फरियादी आंखों से छत की तरफ देखा। उसके सिर कितनी बड़ी जिम्मेदारी है। उसके हाथ कितने बेगुनाहों के खून से रंगे हुए हैं कितने यतीम बच्चे और अबला विधवाएं उसका दामन पकड़कर खींच रही हैं। उसने क्यों इतनी जल्दबाजी से काम किया- क्या किसानों की फरियाद के लिए यही एक साधन रह गया था- और किसी तरह फरियाद की आवाज नहीं उठाई जा सकती थी- क्या यह इलाज बीमारी से ज्यादा असाध्य- नहीं है- इन प्रश्नों ने अमरकान्त को पथभ्रष्ट-सा कर दिया। इस मानसिक संकट में काले खां की प्रतिमा उसके सम्मुख आ खड़ी हुई। उसे आभास हुआ कि वह उससे कह रही है-ईश्वर की शरण में जा। वहीं तुझे प्रकाश मिलेगा।
अमरकान्त ने वहीं भूमि पर मस्तक रखकर शुद्ध अंत:करण से अपने कर्तव्यम की जिज्ञासा की-भगवन्, मैं अंधकार में पड़ा हुआ हूं मुझे सीधा मार्ग दिखाइए।
और इस शांत, दीन प्रार्थना में उसको ऐसी शांति मिली, मानो उसके सामने कोई प्रकाश आ गया है और उसकी फैली हुई रोशनी में चिकना रास्ता साफ नजर आ रहा है। 

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रचनाएँ
कर्मभूमि
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। कर्मभूमि का कथासार ‘कर्मभूमि’ यथार्थ और आदर्श के अद्भुत समन्वय की एक ऐसी कृति है जो मानव मन के विविध रूपों को कुशलता से चित्रित करती है। महात्मा गांधी के नेतृत्व में लड़े गए स्वाधीनता आंदोलन की झांकी प्रस्तुत करने वाली यह कृति मनुष्य के देववत्व की विजय का उद्घोष है। ‘कर्मभूमि ‘ में यह संदेश दिया गया है। प्रेमचन्द का कर्मभूमि उपन्यास एक राजनीतिक उपन्यास है जिसमें विभिन्न राजनीतिक समस्याओं को कुछ परिवारों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। ये परिवार यद्यपि अपनी पारिवारिक समस्याओं से जूझ रहे हैं तथापि तत्कालीन राजनीतिक आन्दोलन में भाग ले रहे हैं। उपन्यास का कथानक काशी और उसके आस-पास के गाँवों से संबंधित है। कर्मभूमि उपन्यास की विषय निर्धनों के मकान की समस्या, अछूतोद्धार की समस्या, अछूतों के मन्दिर में प्रवेश की समस्या, भारतीय नारियों की मर्यादा और सतीत्व की रक्षा की समस्या, ब्रिटिश साम्राज्य के दमन चक्र से उत्पन्न समस्याएँ, भारतीय समाज में व्याप्त धार्मिक पाखण्ड की समस्या पुनर्जागरण और नवीन चेतना के समाज में संचरण की समस्या, राष्ट्र के लिए .है।
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कर्मभूमि अध्याय 1

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भाग 1 हमारे स्कूलों और कॉलेजों में जिस तत्परता से फीस वसूल की जाती है, शायद मालगुजारी भी उतनी सख्ती से नहीं वसूल की जाती। महीने में एक दिन नियत कर दिया जाता है। उस दिन फीस का दाखिला होना अनिवार्य है।

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भाग 2

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अमरकान्त के पिता लाला समरकान्त बड़े उद्योगी पुरुष थे। उनके पिता केवल एक झोंपडी छोड़कर मरे थे मगर समरकान्त ने अपने बाहुबल से लाखों की संपत्ति जमा कर ली थी। पहले उनकी एक छोटी-सी हल्दी की आढ़त थी। हल्दी

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भाग 3

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स्कूल से लौटकर अमरकान्त नियमानुसार अपनी छोटी कोठरी में जाकर चरखे पर बैठ गया। उस विशाल भवन में, जहां बारात ठहर सकती थी, उसने अपने लिए यही छोटी-सी कोठरी पसंद की थी। इधर कई महीने से उसने दो घंटे रोज सूत

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भाग 4

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अमरकान्त मैटि'कुलेशन की परीक्षा में प्रांत में सर्वप्रथम आया पर अवस्था अधिक होने के कारण छात्रवृत्ति न पा सका। इससे उसे निराशा की जगह एक तरह का संतोष हुआ क्योंकि वह अपने मनोविकारों को कोई टिकौना न देन

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भाग 5

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अमरकान्त ने अपने जीवन में माता के स्नेह का सुख न जाना था। जब उसकी माता का अवसान हुआ, तब वह बहुत छोटा था। उस दूर अतीत की कुछ धुंधली-सी और इसीलिए अत्यंत मनोहर और सुखद स्मृतियां शेष थीं। उसका वेदनामय बाल

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भाग 6

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डॉ. शान्तिकुमार एक महीने तक अस्पताल में रहकर अच्छे हो गए। तीनों सैनिकों पर क्या बीती, नहीं कहा जा सकता पर अच्छे होते ही पहला काम जो डॉक्टर साहब ने किया, वह तांगे पर बैठकर छावनी में जाना और उन सैनिकों

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भाग 7

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अमरकान्त ने आम जलसों में बोलना तो दूर रहा, शरीक होना भी छोड़ दिया पर उसकी आत्मा इस बंधन से छटपटाती रहती थी और वह कभी-कभी सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में अपने मनोविकारों को प्रकट करके संतोष लाभ करता था। अब व

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भाग 8

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अमरकान्त नौ बजते-बजते लौटा तो लाला समरकान्त ने पूछा-तुम दूकान बंद करके कहां चले गए थे- इसी तरह दूकान पर बैठा जाता है- अमर ने सफाई दी-बुढ़िया पठानिन रुपये लेने आई थी। बहुत अंधोरा हो गया था। मैंने समझा

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जीवन में कुछ सार है, अमरकान्त को इसका अनुभव हो रहा है। वह एक शब्द भी मुंह से ऐसा नहीं निकालना चाहता, जिससे सुखदा को दुख हो क्योंकि वह गर्भवती है। उसकी इच्छा के विरूद्वद्व' वह छोटी-से-छोटी बात भी नहीं

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भाग 10

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तीन महीने तक सारे शहर में हलचल रही। रोज आदमी सब काम-धंधों छोड़कर कचहरी जाते। भिखारिन को एक नजर देख लेने की अभिलाषा सभी को खींच ले जाती। महिलाओं की भी खासी संख्या हो जाती थी। भिखारिन ज्योंही लारी से उत

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भाग 11

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सारे शहर में कल के लिए दोनों तरह की तैयारियां होने लगीं-हाय-हाय की भी और वाह-वाह की भी। काली झंडियां भी बनीं और फलों की डालियां भी जमा की गईं, पर आशावादी कम थे, निराशावादी ज्यादा। गोरों का खून हुआ है।

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भाग 12

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सलीम ने सोचा अमरकान्त रुपये लिए आता होगा पर आठ बजे, नौ का अमल हुआ और अमर का कहीं पता नहीं। आया क्यों नहीं- कहीं बीमार तो नहीं पड़ गया। ठीक है, रुपये का इंतजाम कर रहा होगा। बाप तो टका न देंगे। सास से ज

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भाग 13

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मुन्नी के बरी होने का समाचार आनन-फानन सारे शहर में फैल गया। इस फैसले की आशा बहुत कम आदमियों को थी। कोई कहता था-जज साहब की स्त्री ने पति से लड़कर फैसला लिखाया। रूठकर मैके चली जा रही थीं। स्त्री जब किसी

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भाग 15

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अमरकान्त के जीवन में एक नई स्फूनर्ति का संचार होने लगा। अब तक घरवालों ने उसके हरेक काम की अवहेलना ही की थी। सभी उसकी लगाम खींचते रहते थे। घोड़े में न वह दम रहा, न वह उत्साह लेकिन अब एक प्राणी बढ़ावा द

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भाग 16

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इधर कुछ दिनों से अमरकान्त म्युनिसिपल बोर्ड का मेंबर हो गया था। लाला समरकान्त का नगर में इतना प्रभाव था और जनता अमरकान्त को इतना चाहती थी कि उसे धोला भी नहीं खर्च करना पड़ा और वह चुन लिया गया। उसके मुक

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भाग 17

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अमरकान्त खादी बेच रहा है। तीन बजे होंगे, लू चल रही है, बगूले उठ रहे हैं। दूकानदार दूकानों पर सो रहे हैं, रईस महलों में सो रहे हैं मजूर पेड़ों के नीचे सो रहे हैं और अमर खादी का गट्ठा लादे, पसीने में तर

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भाग 18

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अमरकान्त गली के बाहर निकलकर सड़क पर आया। कहां जाए- पठानिन इसी वक्त दादा के पास जाएगी। जरूर जाएगी। कितनी भंयकर स्थिति होगी कैसा कुहराम मचेगा- कोई धर्म के नाम को रोएगा, कोई मर्यादा के नाम को रोएगा। दगा,

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कर्मभूमि अध्याय 2

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भाग 1 उत्तर की पर्वत-श्रेणियों के बीच एक छोटा-सा रमणीक गांव है। सामने गंगा किसी बालिका की भांति हंसती, उछलती, नाचती, गाती, दौड़ती चली जाती है। पीछे ऊंचा पहाड़ किसी वृध्द योगी की भांति जटा बढ़ाए शांत,

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भाग 2

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अमरकान्त सवेरे उठा, मुंह-हाथ धोकर गंगा-स्नान किया और चौधरी से मिलने चला। चौधरी का नाम गूदड़ था। इस गांव में कोई-जमींदार न रहता था। गूदड़ का द्वार ही चौपाल का काम देता था। अमर ने देखा, नीम के पेड़ के न

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भाग 3

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दो महीने बीत गए। पूस की ठंडी रात काली कमली ओढ़े पड़ी हुई थी। ऊंचा पर्वत किसी विशाल महत्तवाकांक्षी की भांति, तारिकाओं का मुकुट पहने खड़ा था। झोंपड़ियां जैसे उसकी वह छोटी-छोटी अभिलाषाएं थीं, जिन्हें वह

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भाग 4

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तीन महीने तक अमर ने किसी को खत न लिखा। कहीं बैठने की मुहलत ही न मिली। सकीना का हाल जानने के लिए हृदय तड़प-तड़पकर रह जाता था। नैना की भी याद आ जाती थी। बेचारी रो-रोकर मरी जाती होगी। बच्चे का हंसता हुआ

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गांव में एक आदमी सगाई लाया है। उस उत्सव में नाच, गाना, भोज हो रहा है। उसके द्वार पर नगड़ियां बज रही है गांव भर के स्त्री, पुरुष, बालक जमा हैं और नाच शुरू हो गया है। अमरकान्त की पाठशाला आज बंद है। लोग

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सलोनी काकी ने अपने घर की जगह पाठशाले के लिए दे दी है। लड़के बहुत आने लगे हैं। उस छोटी-सी कोठरी में जगह नहीं है। सलोनी से किसी ने जगह मांगी नहीं, कोई दबाव भी नहीं डाला गया। बस, एक दिन अमर और चौधरी बैठे

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कई महीने गुजर गए। गांव में फिर मुरदा मांस न आया। आश्चर्य की बात तो यह थी कि दूसरे गांव के चमारों ने भी मुरदा मांस खाना छोड़ दिया। शुभ उद्योग कुछ संक्रामक होता है। अमर की शाला अब नई इमारत में आ गई थी।

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कर्मभूमि अध्याय 3

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भाग 1 लाला समरकान्त की जिंदगी के सारे मंसूबे धूल में मिल गए। उन्होंने कल्पना की थी कि जीवन-संध्यि में अपना सर्वस्व बेटे को सौंपकर और बेटी का विवाह करके किसी एकांत में बैठकर भगवत्-भजन में विश्राम लेंग

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भाग 2

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अमरकान्त का पत्र लिए हुए नैना अंदर आई, तो सुखदा ने पूछा-किसका पत्र है- नैना ने खत पाते ही पढ़ डाला था। बोली-भैया का। सुखदा ने पूछा-अच्छा उनका खत है- कहां हैं- 'हरिद्वार के पास किसी गांव में हैं।'

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भाग 3

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एक महीने से ठाकुरद्वारे में कथा हो रही है। पृं मधुसुदनजी इस कला में प्रवीण हैं। उनकी कथा में श्रव्य और दृश्य, दोनों ही काव्यों का आनंद आता है। जितनी आसानी से वह जनता को हंसा सकते हैं, उतनी ही आसानी से

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भाग 4

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उस दिन फिर कथा न हुई। कुछ लोगों ने ब्रह्मचारी ही पर आक्षेप करना शुरू किया। बैठे तो थे बेचारे एक कोने में, उन्हें उठाने की जरूरत ही क्या थी- और उठाया भी, तो नम्रता से उठाते। मार-पीट से क्या फायदा- दूस

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भाग 5

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नैना बार-बार द्वार पर आती है और समरकान्त को बैठे देखकर लौट जाती है। आठ बज गए और लालाजी अभी तक गंगा-स्नान करने नहीं गए। नैना रात-भर करवटें बदलती रही। उस भीषण घटना के बाद क्या वह सो सकती थी- उसने शातिंक

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भाग 6

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दूसरे दिन मंदिर में कितना समारोह हुआ, शहर में कितनी हलचल मची, कितने उत्सव मनाए गए, इसकी चर्चा करने की जरूरत नहीं। सारे दिन मंदिर में भक्तों का तांता लगा रहा। ब्रह्मचारी आज फिर विराजमान हो गए थे और जित

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भाग 7

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उसी रात को शान्तिकुमार ने अमर के नाम खत लिखा। वह उन आदमियों में थे जिन्हें और सभी कामों के लिए समय मिलता है, खत लिखने के लिए नहीं मिलता। जितनी अधिक घनिष्ठता, उतनी ही बेफिक्री। उनकी मैत्री खतों से कहीं

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भाग 9

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सुखदा सड़क पर मोटर से उतरकर सकीना का घर खोजने लगी पर इधर से उधर तक दो-तीन चक्कर लगा आई, कहीं वह घर न मिला। जहां वह मकान होना चाहिए था, वहां अब एक नया कमरा था, जिस पर कलई पुती हुई थी। वह कच्ची दीवार और

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भाग 10

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सुखदा सेठ धनीराम के घर पहुंची, तो नौ बज रहे थे। बड़ा विशाल, आसमान से बातें करने वाला भवन था, जिसके द्वार पर एक तेज बिजली की बत्ती जल रही थी और दो दरबान खड़े थे। सुखदा को देखते ही भीतर-बाहर हलचल मच गई।

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भाग 11

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सावन में नैना मैके आई। ससुराल चार कदम पर थी, पर छ: महीने से पहले आने का अवसर न मिला। मनीराम का बस होता तो अब भी न आने देता लेकिन सारा घर नैना की तरफ था। सावन में सभी बहुएं मैके जाती हैं। नैना पर इतना

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भाग 12

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अब भी मूसलाधार वर्षा हो रही थी। संध्यां से पहले संध्या हो गई थी। और सुखदा ठाकुरद्वारे में बैठी हुई ऐसी हड़ताल का प्रबंध कर रही थी, जो म्युनिसिपल बोर्ड और उसके कर्ण-धारों का सिर हमेशा के लिए नीचा कर दे

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कर्मभूमि अध्याय 4

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भाग 1 अमरकान्त को ज्योंही मालूम हुआ कि सलीम यहां का अफसर होकर आया है, वह उससे मिलने चला। समझा, खूब गप-शप होगी। यह खयाल तो आया, कहीं उसमें अफसरी की बू न आ गई हो लेकिन पुराने दोस्त से मिलने की उत्कंठा

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भाग 2

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अमरकान्त के जीवन में एक नया उत्साह चमक उठा है। ऐसा जान पड़ता है कि अपनी यात्रा में वह अब एक घोड़े पर सवार हो गया है। पहले पुराने घोड़े को ऐड़ और चाबुक लगाने की जरूरत पड़ती थी। यह नया घोड़ा कनौतियां खड

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भाग 3

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इस इलाके के जमींदार एक महन्तजी थे। कारकून और मुख्तार उन्हीं के चेले-चापड़ थे। इसलिए लगान बराबर वसूल होता जाता था। ठाकुरद्वारे में कोई-न-कोई उत्सव होता ही रहता था। कभी ठाकुरजी का जन्म है, कभी ब्याह है,

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भाग 4

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अमर घर लौटा, तो बहुत हताश था। अगर जनता को शांत करने का उपाय न किया गया, अवश्य उपद्रव हो जाएगा। उसने महन्तजी से मिलने का निश्चय किया। इस समय उसका चित्त इतना उदास था कि एक बार जी में आया, यहां से सब छोड

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भाग 5

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अमर गूदड़ चौधरी के साथ महन्त आशाराम गिरि के पास पहुंचा। संध्यात का समय था। महन्तजी एक सोने की कुर्सी पर बैठे हुए थे, जिस पर मखमली गद्दा था। उनके इर्द-गिर्द भक्तों की भीड़ लगी हुई थी, जिसमें महिलाओं की

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भाग 6

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सलीम यहां से कोई सात-आठ मील पर डाकबंगले में पड़ा हुआ था। हलके के थानेदार ने रात ही को उसे इस सभा की खबर दी और अमरकान्त का भाषण भी पढ़ सुनाया। उसे इन सभाओं की रिपोर्ट करते रहने की ताकीद दी गई थी । सली

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भाग 7

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आज कई दिन के बाद तीसरे पहर सूर्यदेव ने पृथ्वी की पुकार सुनी और जैसे समाधि से निकलकर उसे आशीर्वाद दे रहे थे। पृथ्वी मानो अंचल फैलाए उनका आशीर्वाद बटोर रही थी। इसी वक्त स्वामी आत्मानन्द और अमरकान्त दोन

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भाग 8

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साथ के पढ़े, साथ के खेले, दो अभिन्न मित्र, जिनमें धौल-धप्पा, हंसी-मजाक सब कुछ होता रहता था, परिस्थितियों के चक्कर में पड़कर दो अलग रास्तों पर जा रहे थे। लक्ष्य दोनों का एक था, उद्देश्य एक दोनों ही देश

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कर्मभूमि अध्याय 5

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भाग 1 यह हमारा लखनऊ का सेंटल जेल शहर से बाहर खुली हुई जगह में है। सुखदा उसी जेल के जनाने वार्ड में एक वृक्ष के नीचे खड़ी बादलों की घुड़दौड़ देख रही है। बरसात बीत गई है। आकाश में बड़ी धूम से घेर-घार ह

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भाग 2

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सुखदा अपने कमरे में पहुंची, तो देखा-एक युवती कैदियों के कपड़े पहने उसके कमरे की सफाई कर रही है। एक चौकीदारिन बीच-बीच में उसे डांटती जाती है। चौकीदारिन ने कैदिन की पीठ पर लात मारकर कहा-रांड, तुझे झाड़

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भाग 3

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पुलिस ने उस पहाड़ी इलाके का घेरा डाल रखा था। सिपाही और सवार चौबीसों घंटे घूमते रहते थे। पांच आदमियों से ज्यादा एक जगह जमा न हो सकते थे। शाम को आठ बजे के बाद कोई घर से निकल न सकता था। पुलिस को इत्तिला

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भाग 4

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प्रात:काल समरकान्त और सलीम डाकबंगले से गांव की ओर चले। पहाड़ियों से नीली भाप उठ रही थी और प्रकाश का हृदय जैसे किसी अव्यक्त वेदना से भारी हो रहा था। चारों ओर सन्नाटा था। पृथ्वी किसी रोगी की भांति कोहरे

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भाग 5

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अमरकान्त को जेल में रोज-रोज का समाचार किसी-न-किसी तरह मिल जाता था। जिस दिन मार-पीट और अग्निकांड की खबर मिली, उसके क्रोध का वारापार न रहा और जैसे आग बुझकर राख हो जाती है, थोड़ी देर के बाद क्रोध की जगह

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भाग 6

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अमरकान्त को लखनऊ जेल में आए आज तीसरा दिन है। यहां उसे चक्की का काम दिया गया है। जेल के अधिकारियों को मालूम है, वह धनी का पुत्र है, इसलिए उसे कठिन परिश्रम देकर भी उसके साथ कुछ रिआयत की जाती है। एक छप्

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भाग 7

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लाला समरकान्त के चले जाने के बाद सलीम ने हर एक गांव का दौरा करके असामियों की आर्थिक दशा की जांच करनी शुरू की। अब उसे मालूम हुआ कि उनकी दशा उससे कहीं हीन है, जितनी वह समझे बैठा था। पैदावर का मूल्य लागत

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भाग 8

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काले खां के आत्म-समर्पण ने अमरकान्त के जीवन को जैसे कोई आधार प्रदान कर दिया। अब तक उसके जीवन का कोई लक्ष्य न था, कोई आदर्श न था, कोई व्रत न था। इस मृत्यु ने उनकी आत्मा में प्रकाश-सा डाल दिया। काले खां

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भाग 9

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पठानिन की गिरफ्तारी ने शहर में ऐसी हलचल मचा दी, जैसी किसी को आशा न थी। जीर्ण वृध्दावस्था में इस कठोर तपस्या ने मृतकों में भी जीवन डाल दिया, भीई और स्वार्थ-सेवियों को भी कर्मक्षेत्र में ला खड़ा किया। ल

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भाग 10

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इधर सकीना जनाने जेल में पहुंची, उधर सुखदा, पठानिन और रेणुका की रिहाई का परवाना भी आ गया। उसके साथ ही नैना की हत्या का संवाद भी पहुंचा। सुखदा सिर झुकाए मूर्तिवत् बैठी रह गई, मानो अचेत हो गई हो। कितनी म

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