shabd-logo

कर्मभूमि अध्याय 2

7 फरवरी 2022

12 बार देखा गया 12

भाग 1

उत्तर की पर्वत-श्रेणियों के बीच एक छोटा-सा रमणीक गांव है। सामने गंगा किसी बालिका की भांति हंसती, उछलती, नाचती, गाती, दौड़ती चली जाती है। पीछे ऊंचा पहाड़ किसी वृध्द योगी की भांति जटा बढ़ाए शांत, गंभीर, विचारमग्न खड़ा है। यह गांव मानो उसकी बाल-स्मृति है, आमोद-विनोद से रंजित, या कोई युवावस्था का सुनहरा मधुर स्वप्न। अब भी उन स्मृतियों को हृदय में सुलाए हुए, उस स्वप्न को छाती से चिपकाए हुए है।
इस गांव में मुश्किल से बीस-पच्चीस झोंपड़े होंगे। पत्थर के रोड़ों को तले-ऊपर रखकर दीवारें बना ली गई हैं। उन पर छप्पर डाल दिया गया है। द्वारों पर बनकट की टट्टियां हैं। इन्हीं काबुकों में इस गांव की जनता अपने गाय-बैलों, भेड़-बकरियों को लिए अनंत काल से विश्राम करती चली आती है।
एक दिन संध्याग समय एक सांवला-सा, दुबला-पतला युवक मोटा कुर्ता, ऊंची धोती और चमरौधो जूते पहने, कंधो पर लुटिया-डोर रखे बगल में एक पोटली दबाए इस गांव में आया और एक बुढ़िया से पूछा-क्यों माता, यहां परदेशी को रात भर रहने का ठिकाना मिल जाएगा-
बुढ़िया सिर पर लकड़ी का गट्ठा रखे, एक बूढ़ी गाय को हार की ओर से हांकती चली आती थी। युवक को सिर से पांव तक देखा, पसीने में तर, सिर और मुंह पर गर्द जमी हुई, आंखें भूखी, मानो जीवन में कोई आश्रय ढूंढ़ता फिरता हो। दयार्द्र होकर बोली-यहां तो सब रैदास रहते हैं, भैया ।
अमरकान्त इसी भांति महीनों से देहातों का चक्कर लगाता चला आ रहा है। लगभग पचास छोटे-बड़े गांवों को वह देख चुका है, कितने ही आदमियों से उसकी जान-पहचान हो गई है, कितने ही उसके सहायक हो गए हैं, कितने ही भक्त बन गए हैं। नगर का वह सुकुमार युवक दुबला तो हो गया है पर धूप और लू, आंधी और वर्षा, भूख और प्यास सहने की शक्ति उसमें प्रखर हो गई है। भावी जीवन की यही उसकी तैयारी है, यही तपस्या है। वह ग्रामवासियों की सरलता और सहृदयता, प्रेम और संतोष से मुग्ध हो गया है। ऐसे सीधे-सादे, निष्कपट मनुष्यों पर आए दिन जो अत्याचार होते रहते हैं उन्हें देखकर उसका खून खौल उठता है। जिस शांति की आशा उसे देहाती जीवन की ओर खींच लाई थी, उसका यहां नाम भी न था। घोर अन्याय का राज्य था और झंडा उठाए फिरती थी।
अमर ने नम्रता से कहा-मैं जात-पांत नहीं मानता, माताजी जो सच्चा है, वह चमार भी हो, तो आदर के योग्य है जो दगाबाज, झूठा, लंपट हो वह ब्राह्यण भी हो तो आदर के योग्य नहीं। लाओ, लकड़ियों का गट्ठा मैं लेता चलूं।
उसने बुढ़िया के सिर से गट्ठा उतारकर अपने सिर पर रख लिया।
बुढ़िया ने आशीर्वाद देकर पूछा-कहां जाना है, बेटा-
'यों ही मांगता-खाता हूं माता, आना-जाना कहीं नहीं है। रात को सोने की जगह तो मिल जाएगी?'
'जगह की कौन कमी है भैया, मंदिर के चौंतरे पर सो रहना। किसी साधु-संत के फेरे में तो नहीं पड़ गए हो- मेरा भी एक लड़का उनके जाल में फंस गया। फिर कुछ पता न चला। अब तक कई लड़कों का बाप होता।'
दोनों गांव में पहुंच गए। बुढ़िया ने अपनी झोपडी की टट्टी खोलते हुए कहा-लाओ, लकड़ी रख दो यहां। थक गए हो, थोड़ा-सा दूध रखा है, पी लो। और सब गोई तो मर गए, बेटा यही गाय रह गई है। एक पाव भर दूध दे देती है। खाने को तो पाती नहीं, दूध कहां से दे।
अमर ऐसे सरल स्नेह के प्रसाद को अस्वीकार न कर सका। झोपडी में गया तो उसका हृदय कांप उठा। मानो दरिद्रता छाती पीट-पीटकर रो रही है। और हमारा उन्नत समाज विलास में मग्न है। उसे रहने को बंगला चाहिए सवारी को मोटर। इस संसार का विधवंस क्यों नहीं हो जाता।
बुढ़िया ने दूध एक पीतल के कटोरे मे उंड़ेल दिया और आप घड़ा उठाकर पानी लाने चली। अमर ने कहा-मैं खींचे लाता हूं माता, रस्सी तो कुएं पर होगी-
'नहीं बेटा, तुम कहां जाओगे पानी भरने- एक रात के लिए आ गए, तो मैं तुमसे पानी भराऊं?'
बुढ़िया हां, हां, करती रह गई। अमरकान्त घड़ा लिए कुएं पर पहुंच गया। बुढ़िया से न रहा गया। वह भी उसके पीछे-पीछे गई।
कुएं पर कई औरतें पानी खींच रही थीं। अमरकान्त को देखकर एक युवती ने पूछा-कोई पाहुने हैं क्या, सलोनी काकी-
बुढ़िया हंसकर बोली-पाहुने होते, तो पानी भरने कैसे आते तेरे घर भी ऐसे पाहुने आते हैं-
युवती ने तिरछी आंखों से अमर को देखकर कहा-हमारे पाहुने तो अपने हाथ से पानी भी नहीं पीते, काकी ऐसे भोले-भाले पाहुने को मैं अपने घर ले जाऊंगी।
अमरकान्त का कलेजा धक-धक-से हो गया। वह युवती वही मुन्नी थी, जो खून के मुकदमे से बरी हो गई थी। वह अब उतनी दुर्बल, उतनी चिंतित नहीं है। रूप माधुर्य है, अंगों में विकास, मुख पर हास्य की मधुर छवि । आनंद जीवन का तत्वउ है। वह अतीत की परवाह नहीं करता पर शायद मुन्नी ने अमरकान्त को नहीं पहचाना। उसकी सूरत इतनी बदल गई है। शहर का सुकुमार युवक देहात का मजूर हो गया है।
अमर झेंपते हुए कहा-मैं पाहुना नहीं हूं देवी, परदेशी हूं। आज इस गांव में आ निकला। इस नाते सारे गांव का अतिथि हूं।
युवती ने मुस्कराकर कहा-तब एक-दो घड़ों से पिंड न छूटेगा। दो सौ घड़े भरने पड़ेंगे, नहीं तो घड़ा इधर बढ़ा दो। झूठ तो नहीं कहती, काकी ।
उसने अमरकान्त के हाथ से घड़ा ले लिया और चट फंदा लगा, कुंए में डाल, बात-की-बात में घड़ा खींच लिया।
अमरकान्त घड़ा लेकर चला गया, तो मुन्नी ने सलोनी से कहा-किसी भले घर का आदमी है, काकी देखा कितना शरमाता था। मेरे यहां से अचार मंगवा लीजियो, आटा-वाटा तो है-
सलोनी ने कहा-बाजरे का है, गेहूं कहां से लाती-
'तो मैं आटा लिए आती हूं। नहीं, चलो दे दूं। वहां काम-धंधो में लग जाऊंगी, तो सुरति न रहेगी।'

मुन्नी को तीन साल हुए मुखिया का लड़का हरिद्वार से लाया था। एक सप्ताह से एक धर्मशाला के द्वार पर जीर्ण दशा में पड़ी थी। बड़े-बड़े आदमी धर्मशाला में आते थे, सैकड़ों-हजारों दान करते थे पर इस दुखिया पर किसी को दया न आती थी। वह चमार युवक जूते बेचने आता था। इस पर उसे दया आ गई। गाड़ी पर लाद कर घर लाया। दवा-दारू होने लगी। चौधरी बिगड़े, यह मुर्दा क्यों लाया पर युवक बराबर दौड़-धूप करता रहा। वहां डॉक्टर-वै? कहां थे- भभूत और आशीर्वाद का भरोसा था। एक ओझे की तारीफ सुनी, मुर्दों को जिला देता है। रात को उसे बुलाने चला, चौधरी ने कहा-दिन होने दो तब जाना। युवक न माना, रात को ही चल दिया। गंगा चढ़ी हुई थी उसे पार जाना था। सोचा, तैरकर निकल जाऊंगा, कौन बहुत चौड़ा पाट है। सैकड़ों ही बार इस तरह आ-जा चुका था। निशंक पानी में घुस पड़ा पर लहरें तेज थीं, पांव उखड़ गए, बहुत संभलना चाहा पर न संभल सका। दूसरे दिन दो कोस पर उसकी लाश मिली एक चट्टान से चिमटी पड़ी थी। उसके मरते ही मुन्नी जी उठी और तब से यहीं है। यही घर उसका घर है। यहां उसका आदर है, मान है। वह अपनी जात-पांत भूल गई, आचार-विचार भूल गई, और ऊंच जाति ठकुराइन अछूतों के साथ अछूत बनकर आनंदपूर्वक रहने लगी। वह घर की मालकिन थी। बाहर का सारा काम वह करती, भीतर की रसोई-पानी, कूटना-पीसना दोनों देवरानियां करती थीं। वह बाहरी न थी। चौधरी की बड़ी बहू हो गई थी।

सलोनी को ले जाकर मुन्नी ने थाल में आटा, अचार और दही रखकर दिया पर सलोनी को यह थाल लेकर घर जाते लाज आती थी। पाहुना द्वार पर बैठा हुआ है। सोचेगा, इसके घर में आटा भी नहीं है- जरा और अंधेरा हो जाय, तो जाऊं।
मुन्नी ने पूछा-क्या सोचती हो काकी-
'सोचती हूं, जरा और अंधेरा हो जाय तो जाऊं। अपने मन में क्या कहेगा?'
'चलो, मैं पहुंचा देती हूं। कहेगा क्या, क्या समझता है यहां धन्नासेठ बसते हैं- मैं तो कहती हूं, देख लेना, वह बाजरे की ही रोटियां खाएगा। गेहूं की छुएगा भी नहीं।'
दोनों पहुंचीं तो देखा अमरकान्त द्वार पर झाडू लगा रहा है। महीनों से झाडू न लगी थी। मालूम होता था, उलझे-बिखरे बालों पर कंघी कर दी गई है।
सलोनी थाली लेकर जल्दी से भीतर चली गई। मुन्नी ने कहा-अगर ऐसी मेहमानी करोगे, तो यहां से कभी न जाने पाओगे।
उसने अमर के पास जाकर उसके हाथ से झाडू छीन ली। अमर ने कूडे। को पैरों से एक जगह बटोर कर कहा-सगाई हो गई, तो द्वार कैसा अच्छा लगने लगा-
'कल चले जाओगे, तो यह बातें याद आएंगी। परदेसियों का क्या विश्वास- फिर इधर क्यों आओगे?'
मुन्नी के मुख पर उदासी छा गई।
'जब कभी इधर आना होगा, तो तुम्हारे दर्शन करने अवश्य आऊंगा। ऐसा सुंदर गांव मैंने नहीं देखा। नदी, पहाड़, जंगल, इसकी भी छटा निराली है। जी चाहता है यहीं रह जाऊं और कहीं जाने का नाम न लूं।'
मुन्नी ने उत्सुकता से कहा-तो यहीं रह क्यों नहीं जाते- मगर फिर कुछ सोचकर बोली-तुम्हारे घर में और लोग भी तो होंगे, वह तुम्हें यहां क्यों रहने देंगे-
'मेरे घर में ऐसा कोई नहीं है, जिसे मेरे मरने-जीने की चिंता हो। मैं संसार में अकेला हूं।'
मुन्नी आग्रह करके बोली-तो यहीं रह जाओ, कौन भाई हो तुम-
'यह तो मैं बिलकुल भूल गया, भाभी जो बुलाकर प्रेम से एक रोटी खिला दे वही मेरा भाई है।'
'तो कल मुझे आ लेने देना। ऐसा न हो, चुपके से भाग जाओ।'
अमरकान्त ने झोपडी में आकर देखा, तो बुढ़िया चूल्हा जला रही थी। गीली लकड़ी, आग न जलती थी। पोपले मुंह में ठ्ठंक भी न थी। अमर को देखकर बोली-तुम यहां धुएं में कहां आ गए, बेटा- जाकर बाहर बैठो, यह चटाई उठा ले जाओ।
अमर ने चूल्हे के पास जाकर कहा-तू हट जा, मैं आग जलाए देता हूं।
सलोनी ने स्नेहमय कठोरता से कहा-तू बाहर क्यों नहीं जाता- मरदों का इस तरह रसोई में घुसना अच्छा नहीं लगता।
बुढ़िया डर रही थी कि कहीं अमरकान्त दो प्रकार के आटे न देख ले। शायद वह उसे दिखाना चाहती थी कि मैं भी गेहूं का आटा खाती हूं। अमर यह रहस्य क्या जाने- बोला- अच्छा तो आटा निकाल दे, मैं गूंथ दूं।
सलोनी ने हैरान होकर कहा-तू कैसा लड़का है, भाई बाहर जाकर क्यों नहीं बैठता-
उसे वह दिन याद आए, जब उसके बच्चे उसे अम्मां-अम्मां कहकर घेर लेते थे और वह उन्हें डांटती थी। उस उजड़े हुए घर में आज एक दिया जल रहा था पर कल फिर वही अंधेरा हो जाएगा। वही सन्नाटा। इस युवक की ओर क्यों उसकी इतनी ममता हो रही थी- कौन जाने कहां से आया है, कहां जाएगा पर यह जानते हुए भी अमर का सरल बालकों का-सा निष्कपट व्यवहार, उसका बार-बार घर में आना और हरेक काम करने को तैयार हो जाना, उसकी भूखी मात्-भावना को सींचता हुआ-सा जान पड़ता था, मानो अपने ही सिधारे हुए बालकों की प्रतिध्वूनि कहीं दूर से उसके कानों में आ रही है।
एक बालक लालटेन लिए कंधो पर एक दरी रखे आया और दोनों चीजें उसके पास रखकर बैठ गया। अमर ने पूछा-दरी कहां से लाए-
'काकी ने तुम्हारे लिए भेजी है। वही काकी, जो अभी आई थीं।'
अमर ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा-अच्छा, तुम उनके भतीजे हो तुम्हारी काकी कभी तुम्हें मारती तो नहीं
बालक सिर हिलाकर बोला-कभी नहीं। वह तो हमें खेलाती है। दुरजन को नहीं खेलाती वह बड़ा बदमाश है।
अमर ने मुस्कराकर पूछा-कहां पढ़ने जाते हो-
बालक ने नीचे का होंठ सिकोड़कर कहा-कहां जाएं, हमें कौन पढ़ाए- मदरसे में कोई जाने तो देता नहीं। एक दिन दादा दोनों को लेकर गए थे। पंडितजी ने नाम लिख लिया पर हमें सबसे अलग बैठाते थे सब लड़के हमें 'चमार-चमार' कहकर चिढ़ाते थे। दादा ने नाम कटा लिया।
अमर की इच्छा हुई, चौधरी से जाकर मिले। कोई स्वाभिमानी आदमी मालूम होता है। पूछा-तुम्हारे दादा क्या कर रहे हैं-
बालक ने लालटेन से खेलते हुए कहा-बोतल लिए बैठे हैं। भुने चने धरे हैं, बस अभी बक-झक करेंगे, खूब चिल्लाएंगे, किसी को मारेंगे, किसी को गालियां देंगे। दिन भर कुछ नहीं बोलते। जहां बोतल चढ़ाई कि बक चले।
अमर ने इस वक्त उनसे मिलना उचित न समझा।
सलोनी ने पुकारा-भैया, रोटी तैयार है, आओ गरम-गरम खा लो।
अमरकान्त ने हाथ-मुंह धोया और अंदर पहुंचा। पीतल की थाली में रोटियां थीं, पथरी में दही, पत्तो पर आचार, लोटे में पानी रखा हुआ था। थाली पर बैठकर बोला-तुम भी क्यों नहीं खातीं-
'तुम खा लो बेटा, मैं फिर खा लूंगी।'
'नहीं, मैं यह न मानूंगा। मेरे साथ खाओ ।'
'रसोई जूठी हो जाएगी कि नहीं?'
'हो जाने दो। मैं ही तो खाने वाला हूं।'
'रसोई में भगवान् रहते हैं। उसे जूठी न करनी चाहिए।'
'तो मैं भी बैठा रहूंगा।'
'भाई, तू बड़ा खराब लड़का है।'
रसोई में दूसरी थाली कहां थी- सलोनी ने हथेली पर बाजरे की रोटियां ले लीं और रसोई के बाहर निकल आई। अमर ने बाजरे की रोटियां देख लीं। बोला-यह न होगा, काकी। मुझे तो यह फुलके दे दिए, आप मजेदार रोटियां उड़ा रही हैं।
'तू क्या बाजरे की रोटियां खाएगा बेटा- एक दिन के लिए आ पड़ा, तो बाजरे की रोटियां खिलाऊं?'
'मैं तो मेहमान नहीं हूं। यही समझ लो कि तुम्हारा खोया हुआ बालक आ गया है।'
'पहले दिन उस लड़के की भी मेहमानी की जाती है। मैं तुम्हारी क्या मेहमानी करूंगी, बेटा रूखी रोटियां भी कोई मेहमानी है- न दारू, न सिकार।'
'मैं तो दारू-शिकार छूता भी नहीं, काकी।'
अमरकान्त ने बाजरे की रोटियों के लिए ज्यादा आग्रह न किया। बुढ़िया को और दु:ख होता। दोनों खाने लगे। बुढ़िया यह बात सुनकर बोली-इस उमिर में तो भगतई नहीं अच्छी लगती, बेटा यही तो खाने-पीने के दिन हैं। भगतई के लिए तो बुढ़ापा है ही।'
'भगत नहीं हूं, काकी मेरा मन नहीं चाहता।'
'मां-बाप भगत रहे होंगे।'
'हां, वह दोनों जने भगत थे।'
'अभी दोनों हैं न?'
'अम्मां तो मर गईं, दादा हैं। उनसे मेरी नहीं पटती।'
'तो घर से रूठकर आए हो?'
'एक बात पर दादा से कहा-सुनी हो गई। मैं चला आया।'
'घरवाली तो है न?'
'हां, वह भी है।'
'बेचारी रो-रोकर मरी जाती होगी। कभी चिट़ठी-पत्तार लिखते हो?'
'उसे भी मेरी परवाह नहीं है, काकी बड़े घर की लड़की है, अपने भोग-विलास में मग्न है। मैं कहता हूं, चल किसी गांव में खेती-बारी करें। उसे शहर अच्छा लगता है।'
अमरकान्त भोजन कर चुका, तो अपनी थाली उठा ली और बाहर आकर मांजने लगा। सलोनी भी पीछे-पीछे आकर बोली-तुम्हारी थाली मैं मांज देती, तो छोटी हो जाती-
अमर ने हंसकर कहा-तो क्या मैं अपनी थाली मांजकर छोटा हो जाऊंगा-
'यह तो अच्छा नहीं लगता कि एक दिन के लिए कोई आया तो थाली मांजने लगे। अपने मन में सोचते होगे, कहां इस भिखारिन के यहां ठहरा?'
अमरकान्त के दिल पर चोट न लगे, इसलिए वह मुस्कराई।
अमर ने मुग्ध होकर कहा-भिखारिन के सरल, पवित्र स्नेह में जो सुख मिला, वह माता की गोद के सिवा और कहीं नहीं मिल सकता था, काकी ।
उसने थाली धो धाकर रख दी और दरी बिछाकर जमीन पर लेटने ही जा रहा था कि पंद्रह-बीस लड़कों का एक दल आकर खड़ा हो गया। दो-तीन लड़कों के सिवाय और किसी की देह पर साबुत कपड़े न थे। अमरकान्त कौतूहल से उठ बैठा, मानो कोई तमाशा होने वाला है।
जो बालक अभी दरी लेकर आया था, आगे बढ़कर बोला-इतने लड़के हैं हमारे गांव में। दो-तीन लड़के नहीं आए, कहते थे वह कान काट लेंगे।
अमरकान्त ने उठकर उन सभी को कतार में खड़ा किया और एक-एक का नाम पूछा। फिर बोले-तुममें से जो-जो रोज हाथ-मुंह धोता है, अपना हाथ उठाए।
किसी लड़के ने हाथ न उठाया। यह प्रश्न किसी की समझ में न आया।
अमर ने आश्चर्य से कहा-ऐ तुममें से कोई रोज हाथ-मुंह नहीं धोता-
सभी ने एक-दूसरे की ओर देखा। दरी वाले लड़के ने हाथ उठा दिया। उसे देखते ही दूसरों ने भी हाथ उठा दिए।
अमर ने फिर पूछा-तुम में से कौन-कौन लड़के रोज नहाते हैं, हाथ उठाएं।
पहले किसी ने हाथ न उठाया। फिर एक-एक करके सबने हाथ उठा दिए। इसलिए नहीं कि सभी रोज नहाते थे, बल्कि इसलिए कि वे दूसरों से पीछे न रहें।
सलोनी खड़ी थी। बोली-तू तो महीने भर में भी नहीं नहाता रे, जंगलिया तू क्यों हाथ उठाए हुए है-
जंगलिया ने अपमानित होकर कहा-तो गूदड़ ही कौन रोज नहाता है। भुलई, पुन्नू, घसीटे, कोई भी तो नहीं नहाता।
सभी एक-दूसरे की कलई खोलने लगे।
अमर ने डांटा-अच्छा, आपस में लड़ो मत। मैं एक बात पूछता हूं, उसका जवाब दो। रोज मुंह-हाथ धोना अच्छी बात है या नहीं-
सभी ने कहा-अच्छी बात है।
'और नहाना?'
सभी ने कहा-अच्छी बात है।
'मुंह से कहते हो या दिल से?'
'दिल से।'
'बस जाओ। मैं दस-पांच दिन में फिर आऊंगा और देखूंगा कि किन लड़कों ने झूठा वादा किया था, किसने सच्चा।'
लड़के चले गए, तो अमर लेटा। तीन महीने लगातार घूमते-घूमते उसका जी ऊब उठा था। कुछ विश्राम करने का जी चाहता था। क्यों न वह इसी गांव में टिक जाय- यहां उसे कौन जानता है- यहीं उसका छोटा-सा घर बन गया। सकीना उस घर में आ गई, गाय-बैल और अंत में नींद भी आ गई। 

53
रचनाएँ
कर्मभूमि
0.0
प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। कर्मभूमि का कथासार ‘कर्मभूमि’ यथार्थ और आदर्श के अद्भुत समन्वय की एक ऐसी कृति है जो मानव मन के विविध रूपों को कुशलता से चित्रित करती है। महात्मा गांधी के नेतृत्व में लड़े गए स्वाधीनता आंदोलन की झांकी प्रस्तुत करने वाली यह कृति मनुष्य के देववत्व की विजय का उद्घोष है। ‘कर्मभूमि ‘ में यह संदेश दिया गया है। प्रेमचन्द का कर्मभूमि उपन्यास एक राजनीतिक उपन्यास है जिसमें विभिन्न राजनीतिक समस्याओं को कुछ परिवारों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। ये परिवार यद्यपि अपनी पारिवारिक समस्याओं से जूझ रहे हैं तथापि तत्कालीन राजनीतिक आन्दोलन में भाग ले रहे हैं। उपन्यास का कथानक काशी और उसके आस-पास के गाँवों से संबंधित है। कर्मभूमि उपन्यास की विषय निर्धनों के मकान की समस्या, अछूतोद्धार की समस्या, अछूतों के मन्दिर में प्रवेश की समस्या, भारतीय नारियों की मर्यादा और सतीत्व की रक्षा की समस्या, ब्रिटिश साम्राज्य के दमन चक्र से उत्पन्न समस्याएँ, भारतीय समाज में व्याप्त धार्मिक पाखण्ड की समस्या पुनर्जागरण और नवीन चेतना के समाज में संचरण की समस्या, राष्ट्र के लिए .है।
1

कर्मभूमि अध्याय 1

7 फरवरी 2022
11
4
1

भाग 1 हमारे स्कूलों और कॉलेजों में जिस तत्परता से फीस वसूल की जाती है, शायद मालगुजारी भी उतनी सख्ती से नहीं वसूल की जाती। महीने में एक दिन नियत कर दिया जाता है। उस दिन फीस का दाखिला होना अनिवार्य है।

2

भाग 2

7 फरवरी 2022
9
3
0

अमरकान्त के पिता लाला समरकान्त बड़े उद्योगी पुरुष थे। उनके पिता केवल एक झोंपडी छोड़कर मरे थे मगर समरकान्त ने अपने बाहुबल से लाखों की संपत्ति जमा कर ली थी। पहले उनकी एक छोटी-सी हल्दी की आढ़त थी। हल्दी

3

भाग 3

7 फरवरी 2022
6
3
0

स्कूल से लौटकर अमरकान्त नियमानुसार अपनी छोटी कोठरी में जाकर चरखे पर बैठ गया। उस विशाल भवन में, जहां बारात ठहर सकती थी, उसने अपने लिए यही छोटी-सी कोठरी पसंद की थी। इधर कई महीने से उसने दो घंटे रोज सूत

4

भाग 4

7 फरवरी 2022
5
2
0

अमरकान्त मैटि'कुलेशन की परीक्षा में प्रांत में सर्वप्रथम आया पर अवस्था अधिक होने के कारण छात्रवृत्ति न पा सका। इससे उसे निराशा की जगह एक तरह का संतोष हुआ क्योंकि वह अपने मनोविकारों को कोई टिकौना न देन

5

भाग 5

7 फरवरी 2022
3
2
0

अमरकान्त ने अपने जीवन में माता के स्नेह का सुख न जाना था। जब उसकी माता का अवसान हुआ, तब वह बहुत छोटा था। उस दूर अतीत की कुछ धुंधली-सी और इसीलिए अत्यंत मनोहर और सुखद स्मृतियां शेष थीं। उसका वेदनामय बाल

6

भाग 6

7 फरवरी 2022
3
2
0

डॉ. शान्तिकुमार एक महीने तक अस्पताल में रहकर अच्छे हो गए। तीनों सैनिकों पर क्या बीती, नहीं कहा जा सकता पर अच्छे होते ही पहला काम जो डॉक्टर साहब ने किया, वह तांगे पर बैठकर छावनी में जाना और उन सैनिकों

7

भाग 7

7 फरवरी 2022
3
2
0

अमरकान्त ने आम जलसों में बोलना तो दूर रहा, शरीक होना भी छोड़ दिया पर उसकी आत्मा इस बंधन से छटपटाती रहती थी और वह कभी-कभी सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में अपने मनोविकारों को प्रकट करके संतोष लाभ करता था। अब व

8

भाग 8

7 फरवरी 2022
3
2
0

अमरकान्त नौ बजते-बजते लौटा तो लाला समरकान्त ने पूछा-तुम दूकान बंद करके कहां चले गए थे- इसी तरह दूकान पर बैठा जाता है- अमर ने सफाई दी-बुढ़िया पठानिन रुपये लेने आई थी। बहुत अंधोरा हो गया था। मैंने समझा

9

भाग 9

7 फरवरी 2022
2
2
0

जीवन में कुछ सार है, अमरकान्त को इसका अनुभव हो रहा है। वह एक शब्द भी मुंह से ऐसा नहीं निकालना चाहता, जिससे सुखदा को दुख हो क्योंकि वह गर्भवती है। उसकी इच्छा के विरूद्वद्व' वह छोटी-से-छोटी बात भी नहीं

10

भाग 10

7 फरवरी 2022
2
2
0

तीन महीने तक सारे शहर में हलचल रही। रोज आदमी सब काम-धंधों छोड़कर कचहरी जाते। भिखारिन को एक नजर देख लेने की अभिलाषा सभी को खींच ले जाती। महिलाओं की भी खासी संख्या हो जाती थी। भिखारिन ज्योंही लारी से उत

11

भाग 11

7 फरवरी 2022
2
2
0

सारे शहर में कल के लिए दोनों तरह की तैयारियां होने लगीं-हाय-हाय की भी और वाह-वाह की भी। काली झंडियां भी बनीं और फलों की डालियां भी जमा की गईं, पर आशावादी कम थे, निराशावादी ज्यादा। गोरों का खून हुआ है।

12

भाग 12

7 फरवरी 2022
2
2
0

सलीम ने सोचा अमरकान्त रुपये लिए आता होगा पर आठ बजे, नौ का अमल हुआ और अमर का कहीं पता नहीं। आया क्यों नहीं- कहीं बीमार तो नहीं पड़ गया। ठीक है, रुपये का इंतजाम कर रहा होगा। बाप तो टका न देंगे। सास से ज

13

भाग 13

7 फरवरी 2022
2
2
0

मुन्नी के बरी होने का समाचार आनन-फानन सारे शहर में फैल गया। इस फैसले की आशा बहुत कम आदमियों को थी। कोई कहता था-जज साहब की स्त्री ने पति से लड़कर फैसला लिखाया। रूठकर मैके चली जा रही थीं। स्त्री जब किसी

14

भाग 15

7 फरवरी 2022
2
1
0

अमरकान्त के जीवन में एक नई स्फूनर्ति का संचार होने लगा। अब तक घरवालों ने उसके हरेक काम की अवहेलना ही की थी। सभी उसकी लगाम खींचते रहते थे। घोड़े में न वह दम रहा, न वह उत्साह लेकिन अब एक प्राणी बढ़ावा द

15

भाग 16

7 फरवरी 2022
1
1
0

इधर कुछ दिनों से अमरकान्त म्युनिसिपल बोर्ड का मेंबर हो गया था। लाला समरकान्त का नगर में इतना प्रभाव था और जनता अमरकान्त को इतना चाहती थी कि उसे धोला भी नहीं खर्च करना पड़ा और वह चुन लिया गया। उसके मुक

16

भाग 17

7 फरवरी 2022
1
1
0

अमरकान्त खादी बेच रहा है। तीन बजे होंगे, लू चल रही है, बगूले उठ रहे हैं। दूकानदार दूकानों पर सो रहे हैं, रईस महलों में सो रहे हैं मजूर पेड़ों के नीचे सो रहे हैं और अमर खादी का गट्ठा लादे, पसीने में तर

17

भाग 18

7 फरवरी 2022
2
1
0

अमरकान्त गली के बाहर निकलकर सड़क पर आया। कहां जाए- पठानिन इसी वक्त दादा के पास जाएगी। जरूर जाएगी। कितनी भंयकर स्थिति होगी कैसा कुहराम मचेगा- कोई धर्म के नाम को रोएगा, कोई मर्यादा के नाम को रोएगा। दगा,

18

कर्मभूमि अध्याय 2

7 फरवरी 2022
1
1
0

भाग 1 उत्तर की पर्वत-श्रेणियों के बीच एक छोटा-सा रमणीक गांव है। सामने गंगा किसी बालिका की भांति हंसती, उछलती, नाचती, गाती, दौड़ती चली जाती है। पीछे ऊंचा पहाड़ किसी वृध्द योगी की भांति जटा बढ़ाए शांत,

19

भाग 2

7 फरवरी 2022
1
1
0

अमरकान्त सवेरे उठा, मुंह-हाथ धोकर गंगा-स्नान किया और चौधरी से मिलने चला। चौधरी का नाम गूदड़ था। इस गांव में कोई-जमींदार न रहता था। गूदड़ का द्वार ही चौपाल का काम देता था। अमर ने देखा, नीम के पेड़ के न

20

भाग 3

7 फरवरी 2022
1
1
0

दो महीने बीत गए। पूस की ठंडी रात काली कमली ओढ़े पड़ी हुई थी। ऊंचा पर्वत किसी विशाल महत्तवाकांक्षी की भांति, तारिकाओं का मुकुट पहने खड़ा था। झोंपड़ियां जैसे उसकी वह छोटी-छोटी अभिलाषाएं थीं, जिन्हें वह

21

भाग 4

7 फरवरी 2022
1
1
0

तीन महीने तक अमर ने किसी को खत न लिखा। कहीं बैठने की मुहलत ही न मिली। सकीना का हाल जानने के लिए हृदय तड़प-तड़पकर रह जाता था। नैना की भी याद आ जाती थी। बेचारी रो-रोकर मरी जाती होगी। बच्चे का हंसता हुआ

22

भाग 5

7 फरवरी 2022
1
1
0

गांव में एक आदमी सगाई लाया है। उस उत्सव में नाच, गाना, भोज हो रहा है। उसके द्वार पर नगड़ियां बज रही है गांव भर के स्त्री, पुरुष, बालक जमा हैं और नाच शुरू हो गया है। अमरकान्त की पाठशाला आज बंद है। लोग

23

भाग 6

7 फरवरी 2022
1
1
0

सलोनी काकी ने अपने घर की जगह पाठशाले के लिए दे दी है। लड़के बहुत आने लगे हैं। उस छोटी-सी कोठरी में जगह नहीं है। सलोनी से किसी ने जगह मांगी नहीं, कोई दबाव भी नहीं डाला गया। बस, एक दिन अमर और चौधरी बैठे

24

भाग 7

7 फरवरी 2022
1
1
0

कई महीने गुजर गए। गांव में फिर मुरदा मांस न आया। आश्चर्य की बात तो यह थी कि दूसरे गांव के चमारों ने भी मुरदा मांस खाना छोड़ दिया। शुभ उद्योग कुछ संक्रामक होता है। अमर की शाला अब नई इमारत में आ गई थी।

25

कर्मभूमि अध्याय 3

7 फरवरी 2022
1
1
0

भाग 1 लाला समरकान्त की जिंदगी के सारे मंसूबे धूल में मिल गए। उन्होंने कल्पना की थी कि जीवन-संध्यि में अपना सर्वस्व बेटे को सौंपकर और बेटी का विवाह करके किसी एकांत में बैठकर भगवत्-भजन में विश्राम लेंग

26

भाग 2

7 फरवरी 2022
1
1
0

अमरकान्त का पत्र लिए हुए नैना अंदर आई, तो सुखदा ने पूछा-किसका पत्र है- नैना ने खत पाते ही पढ़ डाला था। बोली-भैया का। सुखदा ने पूछा-अच्छा उनका खत है- कहां हैं- 'हरिद्वार के पास किसी गांव में हैं।'

27

भाग 3

7 फरवरी 2022
1
1
0

एक महीने से ठाकुरद्वारे में कथा हो रही है। पृं मधुसुदनजी इस कला में प्रवीण हैं। उनकी कथा में श्रव्य और दृश्य, दोनों ही काव्यों का आनंद आता है। जितनी आसानी से वह जनता को हंसा सकते हैं, उतनी ही आसानी से

28

भाग 4

7 फरवरी 2022
1
1
0

उस दिन फिर कथा न हुई। कुछ लोगों ने ब्रह्मचारी ही पर आक्षेप करना शुरू किया। बैठे तो थे बेचारे एक कोने में, उन्हें उठाने की जरूरत ही क्या थी- और उठाया भी, तो नम्रता से उठाते। मार-पीट से क्या फायदा- दूस

29

भाग 5

7 फरवरी 2022
1
1
0

नैना बार-बार द्वार पर आती है और समरकान्त को बैठे देखकर लौट जाती है। आठ बज गए और लालाजी अभी तक गंगा-स्नान करने नहीं गए। नैना रात-भर करवटें बदलती रही। उस भीषण घटना के बाद क्या वह सो सकती थी- उसने शातिंक

30

भाग 6

7 फरवरी 2022
1
1
0

दूसरे दिन मंदिर में कितना समारोह हुआ, शहर में कितनी हलचल मची, कितने उत्सव मनाए गए, इसकी चर्चा करने की जरूरत नहीं। सारे दिन मंदिर में भक्तों का तांता लगा रहा। ब्रह्मचारी आज फिर विराजमान हो गए थे और जित

31

भाग 7

7 फरवरी 2022
1
1
0

उसी रात को शान्तिकुमार ने अमर के नाम खत लिखा। वह उन आदमियों में थे जिन्हें और सभी कामों के लिए समय मिलता है, खत लिखने के लिए नहीं मिलता। जितनी अधिक घनिष्ठता, उतनी ही बेफिक्री। उनकी मैत्री खतों से कहीं

32

भाग 9

7 फरवरी 2022
1
1
0

सुखदा सड़क पर मोटर से उतरकर सकीना का घर खोजने लगी पर इधर से उधर तक दो-तीन चक्कर लगा आई, कहीं वह घर न मिला। जहां वह मकान होना चाहिए था, वहां अब एक नया कमरा था, जिस पर कलई पुती हुई थी। वह कच्ची दीवार और

33

भाग 10

7 फरवरी 2022
1
1
0

सुखदा सेठ धनीराम के घर पहुंची, तो नौ बज रहे थे। बड़ा विशाल, आसमान से बातें करने वाला भवन था, जिसके द्वार पर एक तेज बिजली की बत्ती जल रही थी और दो दरबान खड़े थे। सुखदा को देखते ही भीतर-बाहर हलचल मच गई।

34

भाग 11

7 फरवरी 2022
1
1
0

सावन में नैना मैके आई। ससुराल चार कदम पर थी, पर छ: महीने से पहले आने का अवसर न मिला। मनीराम का बस होता तो अब भी न आने देता लेकिन सारा घर नैना की तरफ था। सावन में सभी बहुएं मैके जाती हैं। नैना पर इतना

35

भाग 12

7 फरवरी 2022
1
1
0

अब भी मूसलाधार वर्षा हो रही थी। संध्यां से पहले संध्या हो गई थी। और सुखदा ठाकुरद्वारे में बैठी हुई ऐसी हड़ताल का प्रबंध कर रही थी, जो म्युनिसिपल बोर्ड और उसके कर्ण-धारों का सिर हमेशा के लिए नीचा कर दे

36

कर्मभूमि अध्याय 4

7 फरवरी 2022
1
1
0

भाग 1 अमरकान्त को ज्योंही मालूम हुआ कि सलीम यहां का अफसर होकर आया है, वह उससे मिलने चला। समझा, खूब गप-शप होगी। यह खयाल तो आया, कहीं उसमें अफसरी की बू न आ गई हो लेकिन पुराने दोस्त से मिलने की उत्कंठा

37

भाग 2

7 फरवरी 2022
1
1
0

अमरकान्त के जीवन में एक नया उत्साह चमक उठा है। ऐसा जान पड़ता है कि अपनी यात्रा में वह अब एक घोड़े पर सवार हो गया है। पहले पुराने घोड़े को ऐड़ और चाबुक लगाने की जरूरत पड़ती थी। यह नया घोड़ा कनौतियां खड

38

भाग 3

7 फरवरी 2022
1
1
0

इस इलाके के जमींदार एक महन्तजी थे। कारकून और मुख्तार उन्हीं के चेले-चापड़ थे। इसलिए लगान बराबर वसूल होता जाता था। ठाकुरद्वारे में कोई-न-कोई उत्सव होता ही रहता था। कभी ठाकुरजी का जन्म है, कभी ब्याह है,

39

भाग 4

7 फरवरी 2022
1
1
0

अमर घर लौटा, तो बहुत हताश था। अगर जनता को शांत करने का उपाय न किया गया, अवश्य उपद्रव हो जाएगा। उसने महन्तजी से मिलने का निश्चय किया। इस समय उसका चित्त इतना उदास था कि एक बार जी में आया, यहां से सब छोड

40

भाग 5

7 फरवरी 2022
1
1
0

अमर गूदड़ चौधरी के साथ महन्त आशाराम गिरि के पास पहुंचा। संध्यात का समय था। महन्तजी एक सोने की कुर्सी पर बैठे हुए थे, जिस पर मखमली गद्दा था। उनके इर्द-गिर्द भक्तों की भीड़ लगी हुई थी, जिसमें महिलाओं की

41

भाग 6

7 फरवरी 2022
1
1
0

सलीम यहां से कोई सात-आठ मील पर डाकबंगले में पड़ा हुआ था। हलके के थानेदार ने रात ही को उसे इस सभा की खबर दी और अमरकान्त का भाषण भी पढ़ सुनाया। उसे इन सभाओं की रिपोर्ट करते रहने की ताकीद दी गई थी । सली

42

भाग 7

7 फरवरी 2022
1
1
0

आज कई दिन के बाद तीसरे पहर सूर्यदेव ने पृथ्वी की पुकार सुनी और जैसे समाधि से निकलकर उसे आशीर्वाद दे रहे थे। पृथ्वी मानो अंचल फैलाए उनका आशीर्वाद बटोर रही थी। इसी वक्त स्वामी आत्मानन्द और अमरकान्त दोन

43

भाग 8

7 फरवरी 2022
1
1
0

साथ के पढ़े, साथ के खेले, दो अभिन्न मित्र, जिनमें धौल-धप्पा, हंसी-मजाक सब कुछ होता रहता था, परिस्थितियों के चक्कर में पड़कर दो अलग रास्तों पर जा रहे थे। लक्ष्य दोनों का एक था, उद्देश्य एक दोनों ही देश

44

कर्मभूमि अध्याय 5

7 फरवरी 2022
1
1
0

भाग 1 यह हमारा लखनऊ का सेंटल जेल शहर से बाहर खुली हुई जगह में है। सुखदा उसी जेल के जनाने वार्ड में एक वृक्ष के नीचे खड़ी बादलों की घुड़दौड़ देख रही है। बरसात बीत गई है। आकाश में बड़ी धूम से घेर-घार ह

45

भाग 2

7 फरवरी 2022
1
1
0

सुखदा अपने कमरे में पहुंची, तो देखा-एक युवती कैदियों के कपड़े पहने उसके कमरे की सफाई कर रही है। एक चौकीदारिन बीच-बीच में उसे डांटती जाती है। चौकीदारिन ने कैदिन की पीठ पर लात मारकर कहा-रांड, तुझे झाड़

46

भाग 3

7 फरवरी 2022
1
1
0

पुलिस ने उस पहाड़ी इलाके का घेरा डाल रखा था। सिपाही और सवार चौबीसों घंटे घूमते रहते थे। पांच आदमियों से ज्यादा एक जगह जमा न हो सकते थे। शाम को आठ बजे के बाद कोई घर से निकल न सकता था। पुलिस को इत्तिला

47

भाग 4

7 फरवरी 2022
1
1
0

प्रात:काल समरकान्त और सलीम डाकबंगले से गांव की ओर चले। पहाड़ियों से नीली भाप उठ रही थी और प्रकाश का हृदय जैसे किसी अव्यक्त वेदना से भारी हो रहा था। चारों ओर सन्नाटा था। पृथ्वी किसी रोगी की भांति कोहरे

48

भाग 5

7 फरवरी 2022
1
1
0

अमरकान्त को जेल में रोज-रोज का समाचार किसी-न-किसी तरह मिल जाता था। जिस दिन मार-पीट और अग्निकांड की खबर मिली, उसके क्रोध का वारापार न रहा और जैसे आग बुझकर राख हो जाती है, थोड़ी देर के बाद क्रोध की जगह

49

भाग 6

7 फरवरी 2022
1
1
0

अमरकान्त को लखनऊ जेल में आए आज तीसरा दिन है। यहां उसे चक्की का काम दिया गया है। जेल के अधिकारियों को मालूम है, वह धनी का पुत्र है, इसलिए उसे कठिन परिश्रम देकर भी उसके साथ कुछ रिआयत की जाती है। एक छप्

50

भाग 7

7 फरवरी 2022
1
1
0

लाला समरकान्त के चले जाने के बाद सलीम ने हर एक गांव का दौरा करके असामियों की आर्थिक दशा की जांच करनी शुरू की। अब उसे मालूम हुआ कि उनकी दशा उससे कहीं हीन है, जितनी वह समझे बैठा था। पैदावर का मूल्य लागत

51

भाग 8

7 फरवरी 2022
1
1
0

काले खां के आत्म-समर्पण ने अमरकान्त के जीवन को जैसे कोई आधार प्रदान कर दिया। अब तक उसके जीवन का कोई लक्ष्य न था, कोई आदर्श न था, कोई व्रत न था। इस मृत्यु ने उनकी आत्मा में प्रकाश-सा डाल दिया। काले खां

52

भाग 9

7 फरवरी 2022
1
1
0

पठानिन की गिरफ्तारी ने शहर में ऐसी हलचल मचा दी, जैसी किसी को आशा न थी। जीर्ण वृध्दावस्था में इस कठोर तपस्या ने मृतकों में भी जीवन डाल दिया, भीई और स्वार्थ-सेवियों को भी कर्मक्षेत्र में ला खड़ा किया। ल

53

भाग 10

7 फरवरी 2022
2
1
1

इधर सकीना जनाने जेल में पहुंची, उधर सुखदा, पठानिन और रेणुका की रिहाई का परवाना भी आ गया। उसके साथ ही नैना की हत्या का संवाद भी पहुंचा। सुखदा सिर झुकाए मूर्तिवत् बैठी रह गई, मानो अचेत हो गई हो। कितनी म

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए