प्रत्येक मनुष्य का जन्म जिन परिस्थितियों एवं वातावरण में होता है, ये सब पूर्व निर्धारित है। भाग्य पूर्व निर्धारित होता है। मानव जीवन में होने वाली घटनाएं पूर्व निर्धारित न होतीं तो कोई भी ज्योतिषी उसे जान नहीं सकता था। भविष्य में क्या होने वाला है, ज्योतिषी इसका मात्र संकेत दे सकता है। ब्रह्मा(परम शक्ति) के अतिरिक्त कोई भी व्यक्ति निश्चित रूप से यह नहीं कह सकता कि भविष्य में क्या होगा। वस्तुतः भाग्य सर्वोपरि है, किन्तु कर्म की महत्ता के बिना इसकी कोई सार्थकता नहीं है। यह जान लें कि संचित कर्म ही भाग्य रूप में परिवर्तित होते हैं, वर्तमान हमारे भूतकाल के कर्मों पर आधारित होता है और हमारा भविष्य उन कर्मों पर आधारित होगा जो हम वर्तमान में कर रहे हैं।
यदि आप कहते हैं कि ज्योतिष एक कपड़ा है तो वह निश्चित रूप से कर्म के धागे में बुना है। यदि आप नकारात्मक हैं तो आप बुरे कर्म या कुकर्मों में लिप्त हो सकते हैं, जिसका परिणाम दुःखद् है। यदि आप सकारात्मक हैं तो आप सुकर्म या अच्छे रचनात्मक कर्मों में लिप्त हो सकते हैं जिसका परिणाम सुखद् है। कर्म की अवधारणा से तात्पर्य यह है कि हम अपने कार्यों के लिए जिम्मेदार रहें। जैसा हम बोएंगे वैसा हमें काटना होगा। भाग्य कर्मों का ही प्रतिफल है। एक जीवन यात्रा की पूर्णता पर सुकर्म की राशि अधिक है तो अगली जीवन यात्रा में भाग्यशाली होंगे और यदि कुकर्म की राशि अधिक है तो अगली जीवन यात्रा में दुर्भाग्य आपका पीछा नहीं छोड़ेगा। वस्तुतः भाग्य हमारे कर्मों का परिणाम है। यहां पर यह बात ज्ञातव्य है कि बीज आप कैसे बोएंगे, यदि आपने अच्छे कर्म करें होंगे तो आपके बीज भी अच्छे होंगे और उसका फल भी अच्छा होगा।
ज्योतिष शास्त्र में यह अध्ययन किया जाता है कि किसी मनुष्य एवं उसके कर्मों पर ग्रह कैसे प्रभाव डालते हैं। पूर्वजन्मों के कर्मों का प्रभाव भाग्य है और वर्तमान जीवन में हमारे कर्मों के रूप में उसका जो प्रभाव पड़ता है वह पुरुषार्थ कहलाता है। कर्म का फल चाहे शुभ हो या अशुभ हमें भोगना अवश्य पड़ेगा। यह शुभाशुभ फल कभी कम या कभी अधिक नहीं होता है, यह कर्म विधि का एक गुण है।
कर्म के कई रूप होते हैं-शरीर द्वारा किए गए कर्म कायक कहे जाते हैं। वाणी द्वारा किए गए कर्म वाचक कहे जाते हैं। मन को प्रभावित करने वाले कर्म मानसिक कहे जाते हैं। व्यक्ति के कर्म उसके संस्कारों पर निर्भर रहते हैं। संस्कार हमारे पूर्वजन्म एवं वर्तमान जन्म में बार-बार किए जा रहे कर्मों की मूलभावना की प्रकृति को कहते हैं। कर्म सिद्धान्त की मूलभावना यह है कि जैसा बोओगे(कर्म करोगे)वैसा भाग्य रूपी फसल के रूप में काटना पड़ेगा।
कर्मफल तीन प्रकार के कर्मों पर आधारित होता है-संचित, प्रारब्ध एवं क्रियमाण। इस जन्म या पूर्वजन्म में किए जा चुके कर्म संचित कहे जाते हैं। संचित कर्म का जो भाग भुक्त अवस्था में रहता है उसे प्रारब्ध(भाग्य) कहते हैं और जो कर्म वर्तमान में कर रहे हैं या भविष्य में करने हैं उन्हें क्रियमाण कहते हैं।
क्या प्रारब्ध को बदला जा सकता है? प्रारब्ध के भी तीन वर्ग हैं-अपरिवर्तनीय अर्थात् वे कर्म जिनका फल दैवीय शक्ति या भाग्यानुरूप मिलना आवश्यक है और कदापि बदले नहीं जा सकते हैं। ऐसे कर्मफल अशुभ होते हैं तो उन्हें अरिष्ट कहा जाता है।
परिवर्तनीय अर्थात् वे कर्म जो सदैव अशुभ होते हैं और उपायों द्वारा टाले जा सकते हैं या उनका परिहार किया जा सकता है।
मिश्रित अर्थात् वे कर्म जो शुभाशुभ या मिश्रित होते हैं और यह बता पाना कठिन होता है कि जीवन में किसका प्रभाव अधिक होता है, दैवीय शक्ति का या पुरुषार्थ का। अशुभ फल जो इस कर्म से प्राप्त होते हैं, उन्हें गण्ड कहते हैं जोकि उचित आराधना द्वारा शान्त किए जा सकते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो ज्योतिष शास्त्र की उपयोगिता नहीं रह जाती।
किसी व्यक्ति के जीवन में ऐसी घटनाएं होती हैं जिन पर उस व्यक्ति का कोई अधिकार नहीं होता है, वे भाग्याधीन होती हैं। ज्योतिषी व्यक्ति के शुभाशुभ को जानते हैं और जन्मपत्री के आधार पर भविष्यवाणी कर सकते हैं। ज्योतिषी को यह स्मरण रखना चाहिए कि बड़े-बड़े सिद्ध पुरुष भी यह नहीं बता पाते हैं कि क्या कर्म है और क्या अकर्म। कई मामलों में यह नहीं कहा जा सकता है कि कहां तक भाग्य की सीमा है और कहां से कार्य करने का क्षेत्र प्रारम्भ होता है।एक बच्चे को पहले चार वर्ष तक माता के कर्मों का फल, अगले चार वर्षों तक पिता के कर्मों का फल एवं अगले चार वर्षों तक स्वयं के कर्मों का फल भुगतना पड़ता है, अतः बारह वर्षों तक आयु सम्बन्धी कोई भी भविष्यिवाणी बच्चे के लिए नहीं करनी चाहिए।
प्रकृति के गुणत्रयी(सत्त्व, रज, तम) प्रवृत्तियां सभी कर्मों के लिए प्रेरित करती हैं। यदि कोई व्यक्ति यह सोचे कि वह कर्म कर रहा है तो यह गलत है क्योंकि गुणत्रयी प्रवृत्तियां उसको ऐसा करने के लिए बाध्य करती हैं। ऐसे में तो प्रत्येक मनुष्य भाग्य के सहारे बैठ सकता है। भाग्य एवं स्वतन्त्र इच्छा में समन्वय कैसे किया जाए, यह सबसे बड़ा प्रश्न है। इसका उत्तर महाभारत में इस प्रकार दिया गया है-कर्म वह बीज है जिससे पौधा, पेड़, पुष्प और फल आदि उत्पन्न होते हैं। क्षेत्र मनुष्य की स्वतन्त्र इच्छा है जिसके बिना किसी भी बीज से पौधा नहीं निकल सकता। भाग्य बीज के रूप में है और स्वतन्त्र इच्छा(कर्म करना)वह क्षेत्र है जिस पर हमारे जीवन की फसल उत्पन्न होती है। भाग्य और पुरुषार्थ दोनों साथ-साथ चलते हैं। मनुष्य को स्वयं ही अपने शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ फल भोगने परमावश्यक हैं। उसको मिलने वाला फल उसके कर्मों पर निर्भर होता है। जो व्यक्ति भरपूर परिश्रम करता है उसे आदर और सम्मान अपने भाग्यानुरूप मिलता है। परिश्रम में पुण्य कर्म, पूजा-पाठादि भी सम्मिलित होती है। पुरुषार्थ से हीन मनुष्य अपने दुर्भाग्य रूपी घावों पर स्वतः नमक छिड़कता है। पुरुषार्थ या परिश्रम से आनन्द, ईश्वरीय आशीर्वाद, बुद्धि एवं स्थिरता प्राप्त होती है जबकि इसके विपरीत भाग्य पर निर्भर व्यक्ति को कुछ नहीं मिल पाता है। पुरुषार्थी हेतु अनेक सफलता आरक्षित हैं। कर्मफल यदि नहीं मिलता तो सभी व्यक्ति भाग्य पर निर्भर होते और प्रतीक्षा करते रहते कि भाग्य स्वतः हमें दे देगा जो हमें मिलना है। पुरुषार्थ से भाग्य में चमक आती है और यदि यह नहीं तो भाग्य से भी कुछ नहीं मिलेगा।
प्रत्येक मनुष्य का यह कर्त्तव्य है कि वह सुकर्म करे और उसके फल की इच्छा न करे, मात्र कर्मों को योग्यता पूर्वक शान्त चित्त से करते रहना चाहिए। योग्यता पूर्वक किए गए कर्म ही कर्मयोग है। ज्योतिष शास्त्र महाविज्ञान है जिसका ज्ञान मानव जाति को है क्योंकि वह जीवों में सर्वोपरि है। इससे कर्मों के फल का झुकाव किस ओर है और उसके भाग्य की दशा कैसी है, यह सब जानने में सहायक है। गीता कहती है-संसार एक क्षेत्र है, व्यक्ति उसका क्षेत्रज्ञ, उसके कर्म और उसका फल भी मिलता है, लेकिन इनके अतिरिक्त एक अदृश्य वस्तु है जिसे भाग्य कहते हैं। भाग्य ज्योतिषी बता सकता है, कभी-कभी सब सत्य बताया जाता है और कभी-कभी असत्य, यह सब योग्यता पर निर्भर है।
ज्योतिष शास्त्र अगाध और अनन्त है। यह सदैव अपूर्ण अवस्था में रहने वाला शास्त्र है। यदि यह पूर्णता पा जाता तो जगत् में ईश्वर के अस्तित्त्व का महत्त्व नहीं रह जाता है। फलित ज्योतिष सर्वाधिक कठिन और असन्तोषजनक है और यह ऐसा ही रहे ऐसी परमेश्वर की मनोकांक्षा रही होगी क्योंकि जगत् सुख की अपेक्षा दुःख का सागर है और पूर्व में ही अमुक घटना कब होगी यह जान लेने पर तो लोग पागल हो जाते या आत्महत्या कर बैठते। फलित ज्योतिष का पूर्ण ज्ञान परमेश्वर को है। ज्योतिषी की आत्मा जिस स्तर तक शुद्ध होती है वह उसी स्तर तक ज्योतिष के ज्ञान का साक्षात्कार कर पाता है। फलित ज्योतिष ईश्वरीय ज्ञान है और जिसको इसका साक्षात्कार हो जाता है वह महाभाग्यवान् है।
आपके सभी कार्य भलीभांति चल रहे हैं और आपके समक्ष किसी प्रकार की बाधा नहीं है तो आप व्यस्त हैं और आपको कभी भी किसी ज्योतिषी का स्मरण नहीं होगा। जब आप परेशान हैं, तनाव में हैं, आपके कार्य नहीं बन रहे हैं तब आप ज्योतिषी के दर पर भटकते मिलेंगे।
यहां आपका व्यवहार उसी प्रकार का है जैसा आप ईश्वर संग करते हैं, कहने का तात्पर्य यह है कि सुख में प्रभु का स्मरण भी नहीं होता है और दु:ख आने पर प्रभु दिनरात याद आने लगते हैं। ज्योतिष कोई चमत्कार नहीं है जो आपको चुटकियों में कुछ भी दिला दे। वह तो आपके कर्मों के लेखेजोखे की बैंलसशीट में सौभाग्य एवं दुर्भाग्य के रूप में जो आपको मिला है, उसको पढकर संकेत मात्र देता है। इस संकेतों को समझकर आप किस प्रकार योजनाएं बनाकर सक्रिय होते हैं कि आप लाभ एवं उन्नति की स्थिति में होते हैं और हानि एवं अवनति को पास फटकने ही नहीं देते हैं। यहां आप भाग्य के दिए संकेतों को दैवज्ञ या ज्योतिषी के द्वारा समझकर एक प्रबन्धक की भांति सुयोजना बनाते हैं और परिणाम सदैव सकारात्मक ही पाते हैं। ज्योतिष भविष्य के लिए आशा की एक किरण मात्र है जो आपको आशावादी बनाती है, एक स्वर्णिम भविष्य के लिए। ज्योतिष का ज्ञाता ही ज्योतिषी है, जोकि सांसारिक एवं आध्यात्मिक रूप से सफल होने के लिए एक उत्तम साधन जुटाने के लिए एक अच्छे सहायक के रूप में सबके लिए उपहार सदृश है। बात इतनी सी है कि इस शास्त्र का उपयोग हम किस रूप में कर रहे हैं।