फ़ेसबुक पर मैंने लिखा, "रमजान का महीना आज से शुरू हो गया है. मैंने भी 30 दिनों के लिए रोजा रखना तय किया है."
लिखते ही यह पोस्ट वायरल होने लगा लेकिन इस पर जो टिप्पणियां आईं, उससे मन व्यथित हो गया.
कुछ ने इसे अच्छा बताया तो कुछ ने असहमतियां जाहिर कीं, यहां तक तो ठीक था लेकिन अधिकांश परिचित-अपरिचित मित्रों ने नफ़रत का ज़हर उगलना शुरू कर दिया.
मुझ पर व्यक्तिगत शाब्दिक हमले किए गए. मेरी मां, बहन और बेटी को लक्षित करके गालियां दी गईं. मुझे धर्म परिवर्तन कराने और खतना करा लेने को कहा गया.
दरअसल, सोशल मीडिया पर नफ़रत का बाज़ार बहुत गर्म हो गया है. धार्मिक उन्माद से भरे भड़काऊ संदेशों की भरमार है.
हिंदू-मुसलमान
चूंकि प्रत्यक्ष रूप से किसी से बात नहीं हो रही होती है तो आभासीय रूप से अपने कंप्यूटर या मोबाइल से बड़ी आसानी से सांप्रदायिकता का ज़हर फैला दिया जाता है.
यह सब देखकर मुझे मेरा बचपन याद आया. मैं मूलतः बिहार के मिथिला क्षेत्र का रहनेवाला हूं. मैं अपने गांव में देखता था कि हिंदू-मुसलमान बड़े प्रेम से रहते थे.
सुख-दुःख और एक-दूसरे के पर्वों में शामिल होते. हिंदू जब छठ पूजा करते तो मुस्लिम इसे देखने घाट पर आते.
गांव में महारानी स्थान का मंदिर बन रहा था तो कई मुस्लिमों ने उदारतापूर्वक आर्थिक सहयोग किया.
इसी तरह, मुस्लिम जब तजिया, हमारे यहां इसे दाहा कहते हैं, निकालते तो हिंदू इसमें केवल सहभागी ही नहीं होते, बल्कि मन्नतें भी मांगते.
रमज़ान के समय हिंदू कुछ दिनों के लिए रोजा रखते. मैं अपनी ही दादी, मां और बहन को रोजा करते हुए देखता था.
निज़ामुद्दीन औलिया
इसी परंपरा में मेरी पत्नी भी कुछ दिनों के लिए रोजा रखती है.
मेरी पत्नी जब मां बननेवाली थी और हम आश्रम (दिल्ली) स्थित एक अस्पताल में उन्हें चेक-अप कराने हेतु लेकर जा रहे थे तो रास्ते में निज़ामुद्दीन औलिया चिश्ती का मजार आया, उसने श्रद्धा से सिर झुका दिया और मन्नत भी मांग ली कि सब सकुशल रहने पर चादर चढ़ाएंगे.
विचारने पर और अतीत में गया तो पता चला कि अपने देश में सांप्रदायिक सौहार्द की शानदार परंपरा रही है.
हजरत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह पर वसंत पंचमी की पूर्व संध्या पर फूल चढा़ने की परंपरा आज भी चली आ रही है.
अब्दुर्ररहीम खानखाना ने हिंदू देवी-देवताओं के लिए पद रचे.
इस्लाम धर्म में पुनर्जन्म की अवधारणा नहीं हैं लेकिन इसके बावजूद रसखान की कामना थी कि उनका अगला जन्म कृष्ण चरणों में हो.
बिस्मिल्लाह ख़ान
संत लालदास मुसलमान थे लेकिन हरि भक्ति का प्रचार करते थे. औरंगज़ेब की भतीजी ताजबीबी की कृष्ण भक्ति मशहूर थी.
शायर हसरत मोहानी हज करके जब लौटते थे तो कृष्ण मंदिर ज़रूर जाते थे. मुगलकाल तो बहुत पहले की बात है.
हमारे समय में भी सुप्रसिद्ध शहनाई वादक भारत रत्न बिस्मिल्लाह ख़ान सरस्वती के भक्त थे.
वह अकसर हिन्दू मंदिरों, विशेष रूप से काशी विश्वनाथ मंदिर, में जाकर शहनाई वादन किया करते थे.
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम हर दिन कर्नाटक भक्ति संगीत सुनते थे और सरस्वती वीणा बजाते थे.
वैसे तो मीडिया में हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसालों का कम ज़िक्र होता है लेकिन यदा-कदा सांप्रदायिक सौहार्द की ख़बरें आती रहती हैं.
रामायण-महाभारत-कुरान
काशी विश्वनाथ की वो पगड़ी, जिसे पहनकर महादेव अपने ससुराल जाते हैं, इसे गयासुद्दीन बनाते हैं, और ये तीसरी पीढ़ी हैं जो बाबा की सेवा कर रही हैं.
बुंदेलखंड के झांसी जिले में 'वीरा' एक ऐसा गांव है, जहां होली के मौके पर हिंदू ही नहीं, मुसलमान भी देवी के जयकारे लगाकर गुलाल उड़ाते हैं.
हाल ही में केरल के मालाबार इलाके में ईद-मिलाद-उन-नबी के दौरान हिंदुओं ने मिठाइयां बांटकर भाईचारे की मिसाल पेश की.
बिहार के बेगूसराय जिले में मुस्लिमों ने एक हनुमान मंदिर के जीर्णोद्धार न केवल अपनी ज़मीन दान दी, बल्कि आर्थिक मदद की और श्रमदान भी किया.
दुर्भाग्य से आज हिंदू-मुस्लिम के बीच संवादहीनता बढ़ती जा रही है. नफ़रत की दीवार खड़ी हो गई है. दूसरे धर्मों के बारे में हम बहुत कम जानकारी रखते हैं.
रामायण-महाभारत-क़ुरान में क्या लिखा है, हमें जानना चाहिए.
धार्मिक कट्टरता
ताजिया क्यों निकलता है, रोजा क्यों रखते हैं, दुर्गा पूजा क्यों मनाते है और एकादशी का व्रत क्या है, इसकी जानकारी होनी चाहिए.
दरअसल, पोस्ट लिखने के पीछे मेरी मंशा थी कि यह सांप्रदायिक सद्भाव के लिए अच्छा रहेगा.
हिंदू-मुसलमान आपस में जितना करीब आएंगे, सुख-दुःख में सहभागी होंगे और एक-दूसरे के पर्वों में शरीक होंगे तो हमारा राष्ट्रीय समाज समरस होगा.
लेकिन गत तीन दिनों से जिस तरीके से सोशल मीडिया पर मुझे गालियां दी गईं, वह प्रताड़नापूर्ण रहा.
बचपन में सांप्रदायिक सद्भाव के माहौल में बड़ा हुआ, लेकिन सोशल मीडिया पर सांप्रदायिकता का ज़हर फैलते देखना दुर्भाग्यपूर्ण है.
मैं मानता हूं कि इसके लिए धार्मिक कट्टरता और संकीर्ण राजनीति जिम्मेदार है.
साभार