वह परिवार अभी हाल - फ़िलहाल ही इस नए मोहल्लें में शिफ्ट हुआ था।
छः लोगों के इस परिवार में पति - पत्नी और दो बेटियों के अलावा, बुज़ुर्ग माता - पिता ही थे।
अभी मोहल्लें के किसी भी परिवार से इस नए परिवार का कोई विशेष मेल - जोल नही हो पाया था। वो परिवार जैसे सबसे कटा - कटा सा और अलग - थलग सा रहता था और यही वजह थी कि पूरे मोहल्ले में इस वक्त यह परिवार चर्चा का विषय बना हुआ था।
रात - बिरात लगभग हर रोज़ ही, घर की औरतों को कहीं जाते, या कहीं बाहर से घर लौटते कई बार पड़ोसियों ने देखा था लेकिन वो इतने चुपचाप और खामोश रहते थे कि किसी की हिम्मत नही हुई थी कि उन्हें रास्ते में रोक कर इस बारे में पूछ ले।
हां, उड़ती - उड़ती बस इतनी सी ही खबर सामने आई थी कि पिछले महीने उनके साथ कोई हादसा पेश आया था और यही वजह थी कि उन्होंने अपना पिछला घर और मोहल्ला, दोनों ही छोड़ दिया था और यहां चले आए थे।
एक सुबह उस मोहल्लें की गलियां एंबुलेंस के सायरन के आवाज़ से गूंज उठी और लोग अपने - अपने घरों के झरोखों और दरवाजों से झांकने लगे । एंबुलेंस के साथ ही पीछे - पीछे पुलिस की गाड़ी भी उस नए शिफ्ट हुए परिवार के घर के सामने आकर रूकी थी। अब तो लोग आपस में कानाफूसी करते जिज्ञासावश उसी ओर बढ़ चले कि आखिर माजरा क्या है?
उस घर के बाहर अच्छी - खासी भीड़ जमा हो गई थी। आख़िरकार सबको आज की "ताज़ा ख़बर" जो जाननी थी। अंदर से रोने - चिल्लाने की हृदयविदारक आवाज़ें आ रही थी।
अचानक ही एंबुलेंस का पिछला दरवाज़ा खुला और अस्पताल के दो कर्मचारी बाहर आए और आनन - फानन में एक स्ट्रेचर को बाहर निकाला गया। जिसमें एक शव था। फ़िर उन्होंने शव को घर के अंदर पहुंचाया और खाली स्ट्रेचर को वापिस एंबुलेंस में डाल कर खुद भी बैठ गए।
पीछे ही पीछे गाड़ी से एक पुरुष जो इस परिवार का मुखिया था, उतरा और शव के साथ ही घर के अंदर की ओर तेज़ी से बढ़ गया। अंदर से आती रोने - चीखने की आवाज़ें और तेज़ हो गई।
थोड़ी देर बाद ही सिसकती हुई पत्नी और बेटी को कुछ समझाते - बुझाते पुरुष बाहर आया और पुलिस की गाड़ी में बैठ गया।
पुलिस की गाड़ी एंबुलेंस के पीछे - पीछे ही मोहल्ले से निकल गई ।
पीछे हैरान - परेशान बुज़ुर्ग दंपति और अपनी मां को संभालती उनकी करीब बारह वर्ष की बेटी ही रह गई थी।
ख़बर फै़लते देर नही लगी कि इस परिवार की एक और बच्ची थी, जो रेप विक्टिम थी और पिछले एक महीने से अस्पताल में भर्ती थी। ज़िन्दगी और मौत के बीच की लड़ाई लड़ती उस लड़की ने, आख़िरकार मौत से हार मान ली थी और ज़िंदगी का दामन छोड़ दिया था।
मोहल्लें के लोग पीड़ित परिवार के घर के बाहर जमा होने लगे थे। देखते ही देखते भीड़ बढ़ने लगी थी और लोग अलग - अलग ग्रुप में खड़े "क्या हुआ होगा, कैसे हुआ होगा" वाली अटकलों में मशगूल "आज की ताज़ा ख़बर के सीधा प्रसारण " का लुफ़्त उठाने में लग गए।
"क्या कहा... रेप...? आ..आ..!" एक महिला मुंह को साड़ी के पल्लू से दबाए फुसफुसाई।
"श..श...श..चुप...। ऐसी बातें ज़ोर से नही बोलते.."हमारे उन्होंने" तो कई बार आधी रात को "इनकी औरतों" को कहीं बाहर जाते या घर आते देखा था...अब राम ही जाने कि आधी रात को घर से बाहर औरतों को क्या काम होता होगा....? राम ही बचाए...।" दूसरी महिला ने पहली वाली को कोहनी मारते हुए कहा।
"क्या कह रही हो बहन....? लेकिन परिवार तो शरीफों का लगता था....ऐसे कैसे कांड किए बैठे है सब....?" पीछे कहीं कान लगाकर खड़ी कोई दूसरी महिला अचरज से बोली।
एक सुबह उस मोहल्लें की गलियां एंबुलेंस के सायरन के आवाज़ से गूंज उठी और लोग अपने - अपने घरों के झरोखों और दरवाजों से झांकने लगे । एंबुलेंस के साथ ही पीछे - पीछे पुलिस की गाड़ी भी उस नए शिफ्ट हुए परिवार के घर के सामने आकर रूकी थी। अब तो लोग आपस में कानाफूसी करते जिज्ञासावश उसी ओर बढ़ चले कि आखिर माजरा क्या है?
उस घर के बाहर अच्छी - खासी भीड़ जमा हो गई थी। आख़िरकार सबको आज की "ताज़ा ख़बर" जो जाननी थी। अंदर से रोने - चिल्लाने की हृदयविदारक आवाज़ें आ रही थी।
अचानक ही एंबुलेंस का पिछला दरवाज़ा खुला और अस्पताल के दो कर्मचारी बाहर आए और आनन - फानन में एक स्ट्रेचर को बाहर निकाला गया। जिसमें एक शव था। फ़िर उन्होंने शव को घर के अंदर पहुंचाया और खाली स्ट्रेचर को वापिस एंबुलेंस में डाल कर खुद भी बैठ गए।
पीछे ही पीछे गाड़ी से एक पुरुष जो इस परिवार का मुखिया था, उतरा और शव के साथ ही घर के अंदर की ओर तेज़ी से बढ़ गया। अंदर से आती रोने - चीखने की आवाज़ें और तेज़ हो गई।
थोड़ी देर बाद ही सिसकती हुई पत्नी और बेटी को कुछ समझाते - बुझाते पुरुष बाहर आया और पुलिस की गाड़ी में बैठ गया।
पुलिस की गाड़ी एंबुलेंस के पीछे - पीछे ही मोहल्ले से निकल गई ।
पीछे हैरान - परेशान बुज़ुर्ग दंपति और अपनी मां को संभालती उनकी करीब बारह वर्ष की बेटी ही रह गई थी।
ख़बर फै़लते देर नही लगी कि इस परिवार की एक और बच्ची थी, जो रेप विक्टिम थी और पिछले एक महीने से अस्पताल में भर्ती थी। ज़िन्दगी और मौत के बीच की लड़ाई लड़ती उस लड़की ने, आख़िरकार मौत से हार मान ली थी और ज़िंदगी का दामन छोड़ दिया था।
मोहल्लें के लोग पीड़ित परिवार के घर के बाहर जमा होने लगे थे। देखते ही देखते भीड़ बढ़ने लगी थी और लोग अलग - अलग ग्रुप में खड़े "क्या हुआ होगा, कैसे हुआ होगा" वाली अटकलों में मशगूल "आज की ताज़ा ख़बर के सीधा प्रसारण " का लुफ़्त उठाने में लग गए।
"क्या कहा... रेप...? आ..आ..!" एक महिला मुंह को साड़ी के पल्लू से दबाए फुसफुसाई।
"श..श...श..चुप...। ऐसी बातें ज़ोर से नही बोलते.."हमारे उन्होंने" तो कई बार आधी रात को "इनकी औरतों" को कहीं बाहर जाते या घर आते देखा था...अब राम ही जाने कि आधी रात को घर से बाहर औरतों को क्या काम होता होगा....? राम ही बचाए...।" दूसरी महिला ने पहली वाली को कोहनी मारते हुए कहा।
"क्या कह रही हो बहन....? लेकिन परिवार तो शरीफों का लगता था....ऐसे कैसे कांड किए बैठे है सब....?" पीछे कहीं कान लगाकर खड़ी कोई दूसरी महिला अचरज से बोली।
चुप... एकदम चुप....।" अचानक ही एक तीखी, क्रोधित नारी स्वर सुनकर भीड़ एकदम से चुप हो गई और आवाज़ के स्रोत की ओर सबकी निगाहें उठ गई।
ये घर की बड़ी लड़की थी जो केवल बारह वर्ष की थी। उसकी आंखें जैसे अंगारे बरसा रही थी और बदन क्रोध से कांप रहा था। वह अपने दाएं हाथ को उठाए, सामने की ओर उंगली दिखाते हुए गरजी, "अब एक शब्द किसी ने और कुछ कहा ना तो एक - एक की ज़ुबान खींच लूंगी.....।" भीड़ उसका रौद्र रूप देखकर अवाक, हतप्रभ रह गई थी।
लड़की का गर्जन जारी रहा, "क्या इज्ज़त इज्ज़त लगा रखा है आप सबने... हां? हमनें... हमनें कहा था समाज से कि अपनी इज्ज़त हमारे शरीर में रखे...हां, हमने कहा था ? हमने कहा था कि अपनी इज्ज़त की पगड़ी हमारे दुपट्टे से बांधे... या साड़ी के पल्लू में... या अपनी नाक की ऊंचाई हमारी हंसी में, हमारे कपड़ो में लटका दे..हां? नहीं, नहीं न... फ़िर क्या इज्ज़त इज्ज़त की राग अलाप रहे है सब...क्या लगा रखा है ये सब? अरे ले जाओ....ले जाओ अपनी इज्ज़त का ढकोसला और लेजाकर अपने घर के "चिरागों" के संस्कारों में छुपा दो....हम लड़कियां अब नही उठाएंगी ये बोझ...ना, अब बहुत हुआ...।" लड़की के होंठो के किनारे थूक से गीले होने लगे थे। उसने अपनी हथेली की उल्टी और से अपने होंठ पोंछ और फ़र जैसे फट पड़ी, " और कपड़ो...कपड़ों की बात कर रहे थे आप सब ना...आइए - आइए मेरे साथ।" लड़की ने आगे बढ़कर सामने खड़ी एक महिला की कलाई पकड़ी और उसे खींचते हुए एक कमरे के सामने लेजाकर खड़ी हो गई, " ये... ये है....ये है रेप विक्टिम....। क्या अब भी आपको लगता है कि गलती इसके छोटे कपड़ों की थी?" लड़की ने झटके से महिला की कलाई छोड़ दी और अपना चेहरा अपने हाथों में छुपाए फुट - फुट कर रोने लगी।
वह महिला और उसके पीछे - पीछे कमरे तक आई पड़ोसियों की भीड़ अवाक खड़ी रह गई थी। दीवार पर खिलखलाती हुई एक पांच या छह साल की बच्ची की तस्वीर लगी थी और तस्वीर वाली बच्ची की बेजान, बुरी तरह से चोटिल, सफ़ेद पड़ चुकी लाश बिस्तर पर रखी हुई थी, " ये...ये तो....!"
सबकी आंखों में सन्नाटा सा उतर आया था और ज़ुबान पर जैसे ताला जड़ गया था। शर्म से अपनी - अपनी गर्दन झुकाए, नम आंखों को पोंछते, शव को प्रणाम करते सब एक - एक कर वहां से निकल कर बाहर आ गए।
परिवार के बुज़ुर्ग सदस्य निर्विकार भाव से, शून्य में नज़रे टिकाए पाषाण प्रतिमा की तरह बैठे थे। वहीं लड़की ने भीड़ के वहां से हटते ही घर का दरवाजा बंद कर लिया और दरवाज़े से टिक कर गहरी - गहरी सांसें लेने लगी। उसने कस कर अपनी आंखें मूंद ली और पलकों की सीमा तोड़कर उसके आंसुओं का दरिया बहने लगा।
फ़िर स्वयं को संयमित सी करती, वह आहिस्ते से आगे बढ़ी और शव का सर अपनी गोद में रखकर उसे ऐसे झुलाने लगी जैसे बच्ची को सुला रही हो। पास ही बैठी उसकी मां का बिलखना अब और बढ़ गया था।