बहुत दिया देनेवाले ने तुझको, आँचल ही न समाए तो क्या कीजे
जिस JNU को इतना महामंडित किया जाता है वहां से उपलब्धि के नाम पर क्या हासिल हुआ? सिर्फ कुछ आईएएस, जिन्होंने शायद सचमुच पढाई की होगी.
आप इनकी एलुमनाई लिस्ट देखें एक भी साहित्यकार को नोबेल प्राइज नही मिला, कोई ज्ञानपीठ पुरुष्कार प्राप्त साहित्यकार नही है,एक भी स्पेस साइंटिस्ट नहीै,एक भी नुक्लेअर साइंटिस्ट नहीै, एक भी बायोकेमिस्ट्री का वैज्ञानिक नहीै, एक भी अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त कलाकार, किसी भी कला में, नही है.यहाँ से!
कोई भी अर्थशास्त्री अंतर्राष्ट्रीय फलक पर अपनी छाप नही छोड़ पाया जिस पर देश गर्व करे. सामाजिक क्षेत्र में एक भी ऐसा नाम नही है जिसे लोग उनके काम के लिए याद करें जैसे बांग्लादेश के मोहम्मद यूनुस जिन्होंने माइक्रो इकोनॉमिक्स से बांग्लादेश के गरीबों का उत्थान किया.
यहाँ से कोई मदर टेरेसा नही निकली, यहाँ से कोई बाबा आमटे नही निकला,यहाँ से कोई उद्योगपति नही निकला....!
अगर यहाँ से निकले हैं तो सिर्फ बकैत.
राजनीती के क्षेत्र में एक नाम है वह है नेपाल के प्रधानमन्त्री का लेकिन इस में JNU का योगदान कम और उनका संघर्ष ज्यादा है.
यहाँ से निकले राजनीतिज्ञों में प्रकाश कारंत और उनकी पत्नी वृंदा कारंत, सीताराम येचुरी, निर्मला सीतारमण, डी.पी.त्रिपाठी, दिग्विजय सिंह(जनता पार्टी/समता पार्टी वाले) उदित राज आदि सामान्य से नेता हैं जिनमें से कोई मुश्किल से किसी लोकसभा सीट से जीता होगा. क्या ये ऐसे नाम है जो आगे चलकर भारत के इतिहास में कभी याद किया जायेगा?.
यहाँ से निकली फ़ौज में ज्यादातर दोयम दर्जे के पत्रकार हैं, आप में से कोई किसी जानेमाने पत्रकार को जानते हैं जो JNU से पढ़ा हो?
आजके AAP नेता आशुतोष JNU के पढ़े हैं. क्या आप उनकी किसी रिपोर्ट को याद करते हैं सिर्फ छिछोरपन के अलावा? बल्कि इन्ही जैसे पत्रकारों की वजह से पत्रकारिता की अवमानना ही हुई है!
क्या JNU से निकले किसी पत्रकार की रिपोर्ट पर किसी को अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार मिला है मेरे ज्ञान में तो नही है. उदयन मुखर्जी, उमेश उपाध्याय जैसे पत्रकारों की उपलब्धि आप जानते हैं.
यहाँ के ज्यादातर प्रोफ्फेसर यहीं के पढ़े हैं और जुगाड़ से यहीं प्रवचन करते हैं. यहाँ खाना पीना और रहना इतना सस्ता है कि कोई यहाँ से जाना ही नही चाहता है इसीलिए ये लोग कभी सोशल साइंस कभी लैंग्वेज आदि पढ़ते रहते हैं और अपनी जिन्दगी का ज्यादातर भाग यहाँ नेतागिरी में बिता देते हैं.
जब सोवियत जिन्दा था तब कल्चरल एक्सचेंज के बहाने यहाँ के टीचर USSR और ईस्टर्न ब्लाक का दौरा करते थे,वोडका का स्वाद भारतीयों ने तब से ही ज्यादा जाना.इनके दुर्भाग्य से USSR खत्म हो गया और रूस अपनी ही अर्थव्यवस्था को ही सँभालने में लगा है और फोकटिया काम उन्होंने बंद कर दिया है.
जिस विदेशनीति की ये बात करते हैं वहां भी सन्नाटा रहा, जब तक विदेशनीति पर इनका प्रभाव रहा तबतक हमारी पहचान USSR के पिछलग्गू के रूप में ही रही और मुस्लिम कन्ट्रीज की पूजा अर्चना तक सिमित रही। तब इस्राइल का नाम लेना इनके लिए देशद्रोह के बराबर था, हालाँकि मुस्लिम कन्ट्रीज बराबर पाकिस्तान को मदद करते थे। एक बार तो जग हंसाई हो गयी जब रबात में मुस्लिम कन्ट्रीज का सम्मेलन था और हमें बुलाया गया नही था लेकिन हमारी सेक्युलर सरकार ने बड़ी मुस्लिम जनसंख्या वाले देश होने के नाते स्व.फखरुद्दीन अली अहमद के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल रबात भेज दिया लेकिन उन्होंने इस प्रतिनिधिमंडल को उलटे पैर लौटा दिया.
यहाँ के वामपंथियों ने यहाँ पढने वाली कई पीढ़ियों का भविष्य ख़राब कर दिया. इनके नाटकीय भाषणों से पढने वाले छात्र अपनी पढाई छोडकर नुक्कड़ नाटक, मोमबत्ती जलना, मानव श्रृंखलाएं बनाना जैसे गैर-रचनात्मक कामों के करने में ही लगे रहे और पढाई भूल गये इसीलिए यहाँ से ज्यादातर छात्र 35 की उम्र में ही बाहर निकल पाते हैं!
इस पोस्ट का उद्देश्य JNU को बदनाम करना नही है लेकिन इस सच्चाई को सामने लाना है! इसके अलावा प्रार्थना वामपंथियों से है यहाँ पढने वालों की जिन्दगी से खिलवाड़ न करें। इन्हें पढने दें और बाद में चाहे इन्हें अपना कैडर बनायें यदि इनकी यही इच्छा हैं।
यहाँ पढने वाले कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से आते हैं और उनके मां-बाप इस आशा में उन्हें यहाँ भेजते हैं कि वे पढ़लिखकर अपने परिवार का जीवन स्तर उठायें.
Via-Vibhu agarwal