दिल्ली के मूलचंद फ्लाइओवर के नीचे इस बार बिकने वाले झंडे का आकार काफी बड़ा हो गया है। इतना बड़ा कि कार वाले सोच में पड़ते दिखे कि घर के लिए ख़रीदें या कार के लिए, बिना बालकनी और छत वाले अपने फ्लैट में कहां लगायेंगे। इतना बड़ा तिरंगा बच्चे को भी नहीं दे सकते, क्या पता वो संभाल न पाए और जाने अनजाने में अनादर न हो जाए। उस रोज़ आसमान में काले बादल थे। ज़ाहिर है तीनों रंग बादलों के रंग की पृष्ठभूमिक में खूब खिल रहे थे। ड्राईविंग सीट पर बैठे बैठे अकड़ से गए हम जैसों को तिरंगा सूकून दे रहा था।
जिन बच्चों के हाथ में हमारा तिरंगा सुशोभित हो रहा था, बिक रहा था, वही बच्चे हैं जो अन्य दिनों में चौराहों पर भीख मांगते हैं। अमिताभ घोष और अमितावा कुमार की किताबों की नकली प्रति बेचते हैं। प्लास्टर आफ पेरिस, जिसका कोई हिन्दी नाम आज तक नहीं सुना, की बने देवी देवताओं की मूर्तियां बेचते हैं। चीन से आए खिलौनों को ट्रे में सजा कर बेचते हैं और कार की सफाई के लिए कपड़े वगैरह भी। चीन का बहुत सारा सामान सबसे पहले इन्हीं बच्चों के हाथों भारत की सड़कों पर लांच होता है। भारत के राष्ट्रवाद का सबसे पवित्र और सर्वोत्तम प्रतीक घर घर पहुंचने के लिए इन्हीं बच्चों पर निर्भर हैं, जो भारत भाग्य विधाता अर्थात सरकार की ज़ुबान में स्कूल या कालेज से ड्राप आउट हैं।
तिरंगा हम सबको भावुक कर देता है। आसमान में लहराता दिखता है तो लगता है कि हम भी ट्रैफिक जाम से निकल कर, अपनी तकलीफ देह जीवन यात्रा से ऊपर उठ कर उसके साथ उड़ रहे हैं। सरकारों से लेकर आंदोलनकारियों तक सबको ये बात पता है। अन्ना आंदोलन के वक्त कई लोगों ने तिरंगा थामा था। दूसरी आज़ादी का नाम दिया गया। वो लोकपाल आज तक नहीं आया। लोग अपनी दूसरी आजादी भूल गए और वो कसमें भी जो उन दिनों तिरंगे के नीचे खा रहे थे। उस साल दिल्ली में ख़ूब तिरंगा बिका था। आइसक्रीम और मूंगफली बेचने वाले तिरंगा बेचने लगे।
उन दिनों कई लोग तिरंगा लिये रामलीला और जंतर मंतर चले जा रहे थे। मंच से जो लोग तिरंगा लहरा रहे थे वो आगे चल कर अलग अलग रास्तों पर निकल गए। उन लोगों में से कुछ ने दो नए राजनीति क दल का गठन किया। उनके अपने झंडे हो गए। कुछ ने पुराने दलों से हाथ मिला लिया। नतीजे में एक नई सरकार बनी, बहुत से विधायक बने, मुख्यमंत्री बने, केंद्रीय मंत्री बने, उप राज्यपाल बने, प्रवक्ता बने। एक का बिजनेस विशालकाय हो गया। यह मैं इसलिए बता रहा हूं कि तिरंगा हाथ में थाम लेने से सबका मकसद एक नहीं हो जाता है। सब किसी काल्पनिक एकता के शिकार नहीं हो जाते हैं। उन्हें तब भी ध्यान रहता है कि अपनी पार्टी और अपने लिए क्या करना है। तब भी का मतलब जब उनके हाथ में तिरंगा होता है।
मेरी बात शुरू हुई थी मूलचंद फ्लाईओवर के उन ड्राप आउट बच्चों से तमाम सरकारी योजनाओं के बाग़ी हैं। ये बच्चे न होते तो हम सब दिल्ली के सदर बाज़ार या पूर्वी दिल्ली के सीलमपुर या जाफ़राबाद जाने का जोखिम उठाते? मैं आज उन इलाकों में गया था। एक किलोमीटर से भी कम का सफ़र डेढ़ घंटे में तय करके आया हूं। सड़कों के किनारे पतंग और तिरंगा की दुकानें देखकर आसमान के ख़्यालों में खो गया। ऐसा लगा जैसे ख़ुद अमिताभ बच्चन साहब ने आकर सर पर नवरत्न तेल मल दिया हो।
ज़ाफ़राबाद की उन दुकानों के आगे की सड़क तंग हो गई है मगर तिरंगा बड़ा हो गया है। छोटे तिरंगे वाली दुकानें बहुत कम दिखीं। तिरंगे को इस तरह से रखा गया था कि दूर से ही लगे कि बड़ा वाला है। आकारों की प्रतियोगिता नज़र आ रही थी। इस साल आकार को लेकर होड़ है। आकार ही ब्रांड है। दूर से झंडे को देखता रहा। उन्हीं के बीच एक कार दिखी जिस पर ब्राह्मण लिखा था। हम जात तो भी राष्ट्र की तरह प्रदर्शित करते हैं। वैसे कारों पर राजपूत और गुर्जर भी लिखा होता है। उन्हीं कारों के डैश बोर्ड पर तिरंगा भी रखा होता है।
इस साल के शुरू में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्लाय के विवाद के समय आदेश हुआ था कि वहां 207 फीट ऊंचा तिरंगा लहराया जाएगा। वहां पहले से ही प्रशासनिक भवन पर तिरंगा लहराता है मगर इतना बड़ा तिरंगा लहरा सकता है, ये किसी के ज़हन में नहीं आया था। उसी दौरान ये भी आदेश हुआ था कि सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों मे तिरंगा लहराता हुआ नज़र आना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि विशालकाय तिरंगे के नीचे बैठे वाइस चांसलर सिर्फ और सिर्फ देशभक्ति की भावना से काम कर रहे होंगे। किसी के दबाव में किसी के भतीजे को भर्ती नहीं कर रहे होंगे और पाई पाई का सही हिसाब रख रहे होंगे। सारे खाली पद भर गए होंगे और छात्र देशभक्ति से लबालब पढ़ने लिखने में मशरूफ हो गए होंगे।
पहले भी उत्साही नागरिकों का दल कनाट प्लेस से लेकर तमाम जगहों पर सबसे ऊंचा और सबसे बड़ा तिरंगा लहराने का कार्यक्रम करता रहा लेकिन जे एन यू विवाद के समय आकार और ऊंचाई को संस्थानिक रूप दे दिया गया। हाल ही में कांवड़ यात्रा में तिरंगे को जगह मिली है। क्यों किया गया इसका मुकम्मल जवाब अभी तक नहीं मिला है। वैसे तिरंगे के बगल में डीजे धुन पर नाचते गाते भक्तों को देखकर थोड़ा उत्साह कम हो गया। कहीं ऐसा तो नहीं कि अब हर तीर्थ यात्रा या त्योहारों में तिरंगा जुड़ता चला जाएगा।
कई जगहों से ख़बरें आईं कि विशालकाय तिरंगा लेकर कांवड़िया लौट रहे हैं।किसी को पूछना चाहिए था कि शिव भक्ति के लिए गए तो तिरंगा क्यों लेकर जा रहे हैं। जाने में मनाही नहीं है लेकिन सवाल तो पूछा ही जा सकता है। शिव के लिए सब भक्त समान हैं। चाहे वो भारतीय भक्त हो या किसी अन्य देश की नागरिकता वाला भक्त हो। कम से कम भोले तो ऐसे नहीं है। वो भक्तों में राष्ट्र के आधार पर अंतर नहीं करते और यही तो शिव की सार्वभौम व्याख्या है। जो भी जैसा है, बस चले आए, शिव के लिए सब समान हैं। लेकिन हम एक बार पूछे तो सही कि शिव के दरबार में तिरंगा लेकर क्यों जा रहे हैं? क्या हम आश्वस्त हैं या हो सकते हैं कि तिरंगा के साथ लौटने वाले ये तमाम भक्त अपने गांव घरों में देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत देखे जा रहे हैं।
हमारी समस्या है कि हम सवालों से जवाब की तरफ नहीं जाते। बयानों को जवाब समझने लगे हैं। हम सब तिरंगा के प्रति ख़ास किस्म की भावुकता रखते हैं। हम अमरीकी लोगों की तरह नहीं है कि अपने राष्ट्र झंडे की कमीज़ सिलवा ली, पर्दा बनवा लिया या सोफा कवर सिलवा लिया। अमरीकी अपने राष्ट्रीय झंडे का उपभोग करते हैं। हम उपभोग नहीं करते हैं। तिरंगे और अशोक चक्र के साथ गेंद बनाकर कोई हमारी तरफ फेंक दे तो यकीनन हम सबके हाथ कांप जायेंगे। वैसे तिरंगे के नीचे बैठे उन नेताओं की देशभक्ति नापनी हो तो आप उनके या उनकी पार्टी के घोटाले और काले कारनामों के अनगिनत किस्सों से नाप कर देखियेगा।
कुछ तो है कि इन दिनों तिरंगे के सम्मान के नाम पर असहज सा हो रहा है। मैं चाहता हूं कि आप सोचें कि जो भी हो रहा है क्या वो सामान्य है। तिरंगे के आकार को लेकर राजनीतिक दलों और सरकारों में होड़ लगने वाली है। एक बड़े राज्य के मुख्यमंत्री पंद्रह अगस्त के रोज़ बड़े आकार का तिरंगा लहराना चाहते हैं। उसका आकार चालीस फुट बटा साठ फुट का है। कीमत एक लाख रुपये है। इस होड़ का ही नतीजा है कि राज्य की नज़र में एक लाख की कीमत नहीं जबकि उसका निवासी या नागरिक इंजेक्शन लगाने के बीस रुपये नहीं दे पाता है और उसका बच्चा मर जाता है। झंडे के कारोबार से जुड़े लोग खुश हैं कि दस हज़ार से लेकर एक लाख तक का तिरंगा बन रहा है। लेकिन जो कारोबारी खुश है उसी का ये भी कहना है कि ये तो इंडस्ट्री बन गया है, सब दिखावा हो गया है, देशभक्ति नहीं है, बड़ा झंडा लगायेंगे तो काफी लोग आ जाएंगे।
छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त की तमाम स्मृतियों में यह बात भी ख़ास है कि इन्हीं दो दिन हम सामूहिक रूप से तिरंगा लहराते हैं। हमारे लिए ये दो दिन तिरंगे का अपना त्योहार हैं। इन्हीं दो दिनों के लिए हम अपनी भावुकता और सामूहिकता को बचा कर रखते हैं जैसे हम ईद, दिवाली, होली और छठ के लिए बचा कर रखते हैं। इसलिए हमारी नागरिकता के विकास की जो कमियां हैं, संस्थाओं के दायित्व से मुकरने के जो सवाल हैं उन्हें आप तिरंगे से विस्थापित न करें। यह न सोचें कि सबको रोज़ तिरंगा दिखा देने से देशभक्ति आ जाएगी और देशभक्ति आ जाएगी तो हम ग़लत सोच रहे हैं। व्यवस्था में बदलाव उसे ठीक करने से आता है न कि उसकी छत पर तिरंगा लहराने से आता है।
ख़्याल रहे कि तिरंगे का आकार बड़ा होते होते कहीं यह नागरिकों के बीच अमीरी ग़रीबी की खाई का एक और प्रतीक न बन जाए। ज़ाहिर है दस हज़ार से एक लाख का बड़ा झंडा वही ख़रीदेगा जो अमीर होगा। ग़रीब तो दो रुपये का झंडा ही अपने बच्चे को देगा। सबके हाथ में एक आकार का तिरंगा हो, मेरी राय में यही उचित है। कम से कम हम राष्ट्र के प्रति भावुकता के प्रदर्शन में तो बराबर रहें। वहां अंतर न करें तो बेहतर रहेगा। देशभक्ति का आकार नहीं होता है। जज़्बा होता है। बेशक तिरंगा लेकर चलिये, मगर आकार पर इतना ज़ोर न दीजिए कि उसके नीचे का इंसान छोटा लगने लगे। मंदिर भव्य बना देने से भगवान नहीं बदल जाते हैं। भव्यता भक्त की अपनी श्रद्धा या सनक भी हो सकती है। उसी पैसे से ग़रीबों का कल्याण भी हो सकता है। दरिद्रनारायण को हम भूलने लगे हैं। सिर्फ नारायण नारायण करने लगे हैं।