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ध्यान योग-(अध्याय-05)

22 अप्रैल 2022

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प्रवचन – अंश

क्या तुम ध्यान करना चाहते हो?

क्या तुम ध्यान करना चाहते हो? तो ध्यान रखना कि ध्यान में न तो तुम्हारे सामने कुछ हो, न पीछे कुछ हो। अतीत को मिट जाने दो और भविषय को भी। स्मृति और कल्पना–दोनों को शून्य होने दो। फिर न तो समय होगा और न आकाश ही होगा। उस क्षण जब कुछ भी नहीं होता है–तभी जानना कि तुम ध्यान में हो।

ध्यान कैसे करें?

ध्यान के लिए पूछते हो कि कैसे करें? कुछ भी न करो। बस, शांति से श्वास-प्रश्वास के प्रति जागो। होशपूर्वक श्वास-पथ को देखो। श्वास के आने-जाने के साक्षी रहो। यह कोई श्रमपूर्ण चेष्टा न हो, वरन शांत और शिथिल विश्रामपूर्ण बोध-मात्र हो। और फिर तुम्हारे अनजाने ही, सहज और स्वाभाविक रूप से एक अत्यंत प्रसादपूर्ण स्थिति में तुम्हारा प्रवेश होगा। इसका भी पता नहीं चलेगा तुम कब प्रविष्ट हो गए हो। अचानक ही तुम अनुभव करोगे कि तुम वहां हो, जहां कि कभी नहीं थे।

मौन कैसे हों?

पूछते हो, मौन कैसे हों? बस, हो जाओ। बहुत विधि और व्यवस्था की बात नहीं है। चारों ओर जो हो रहा है, उसे सजग होकर देखो। और जो सुनाई पड़ रहा है, उसे साक्षी-भाव से सुनो। संवेदनाओं के प्रति होश तो पूरा हो, पर प्रतिक्रिया न हो। प्रतिक्रिया शून्य सजगता से मौन सहज ही निश्पन्न होता है।

स्वप्न में कैसे जागें?

स्वप्न में–“जो हम देख रहे हैं वह सत्य नहीं है, स्वप्न है”–इसे स्मरण रखने का उपाय है?

जो व्यक्ति जाग्रत अवस्था में यह स्मरण रखता है कि वह जो भी देख रहा है वह सब स्वप्न है, तब वह धीरे-धीरे स्वप्न में भी जानने लगता है कि जो वह देख रहा है, वह सत्य नहीं है। जाग्रत को क्योंकि हम सत्य मानते हैं, इसलिए स्वप्न भी सत्य मालूम होते हैं। जाग्रत में जो हमारे चित्त की आदत है, स्वप्न में उसी का प्रतिफलन होता है।

विचारों से कैसे मुक्त हों?

विचारों से मुक्ति का क्या उपाय है? साधारणतः जब तक मनुष्य प्रत्येक विचार की गति के साथ गतिमय होता रहता है, तब तक उसे विचारों से पैदा हो रही अशांति का अनुभव ही नहीं होता है। लेकिन जब वह रुककर–ठहरकर विचारों को देखता है, तभी उसे उनकी सतत दौड़ और अशांति का प्रत्यक्ष बोध होता है।

विचारों से मुक्ति की दिशा में यह आवश्यक अनुभूति है। हम खड़े होकर देखें तभी विचारों की व्यर्थ भागदौड़ का पता चल सकता है। निश्चय ही, जो उनके साथ ही दौड़ता रहता है, वह इसे कैसे जान सकता है!

विचारों की प्रक्रिया के प्रति एक निर्वैयक्तिक भाव को अपनाएं–एकमात्र दर्शक का भाव। जैसे देखने-मात्र से ज्यादा आपका उनसे और कोई संबंध नहीं। और जब विचारों के बादल मन के आकाश को घेरें, और गति करें, तो उनसे पूछें–विचारो! तुम किसके हो? क्या तुम मेरे हो?”और आपको स्पष्ट उत्तर मिलेगा–“नहीं, तुम्हारे नहीं।”

निश्चय ही यह उत्तर मिलेगा, क्योंकि विचार आपके नहीं हैं। वे आपके अतिथि हैं। आपको सराय बनाया हुआ है। उन्हें अपना मानना भूल है। और वही भूल उनसे मुक्त नहीं होने देती है। उन्हें अपना मानने से जो तादात्म्य पैदा होता है, वही तो विसर्जित नहीं होने देता है। ऐसे, जो मात्र अतिथि हैं, वे ही स्थायी निवासी बन जाते हैं।

विचारों को निर्वैयक्तिक भाव से देखने से क्रमशः उनसे संबंध टूटता है। जब कोई वासना उठे या विचार, तब ध्यान दें कि यह वासना उठ रही है–या कि विचार उठ रहा है। फिर देखें और जानें कि अब विलीन हो रहा है–अब विलीन हो चुका है। अब दूसरा विचार उठ रहा है—-विलीन हो गया है।

और इस भांति शांति से, अनुद्विग्न भाव से दर्शक की भांति साक्षी बनकर विचारों की सतत धारा का निरीक्षण करें। इस भांति शांत चुनावरहित निरीक्षण से विचारों की गति क्षीण होती जाती है, और अंततः निर्विचार-समाधि उपलब्ध होती है।

निर्विचार-समाधि में विचार तो विलीन हो जाते हैं और विचारशक्ति का उद्भव होता है। उस विचारशक्ति को ही मैं प्रज्ञा कहता हूं।

विचारशक्ति के जागरण के लिए विचारों से मुक्त होना अत्यंत आवश्यक है।

शून्य कैसे हों?

शून्य से पूर्ण का दर्शन होता है। और शून्य आता है विचार-प्रक्रिया के तटस्थ, चुनावरहित साक्षी-भाव से। विचार में शुभाशुभ का निर्णय नहीं करना है। वह निर्णय राग या विराम लाता है। किसी को रोक रखने और किसी को परित्याग करने का भाव उससे पैदा होता है। वह भाव ही विचार-बंधन है। वह भाव ही चित्त का जीवन और प्राण है। उस भाव के आधार पर ही विचार की श्रृंखला अनवरत चलती जाती है।

विचार के प्रति कोई भी भाव हमें विचार से बांध देता है। उसके तटस्थ साक्षी का अर्थ है, विचार को निर्भाव के बिंदु से देखना। विचार को निर्भाव के बिंदु से देखना ध्यान है। बस, देखना है, “जस्ट सीइंग” और चुनाव नहीं करना है, और निर्णय नहीं लेना है।

यह–“बस देखना”–बहुत श्रमसाध्य है। यद्यपि कुछ करना नहीं है, पर कुछ न कुछ करते रहने की हमारी इतनी आदत बनी है कि “कुछ न करने” जैसा सरल और सहज कार्य भी बहुत कठिन हो गया है। बस, देखने-मात्र के बिंदु पर स्थिर होने से क्रमशः विचार विलीन होने लगते हैं। वैसे ही, जैसे प्रभात में सूर्य के उत्ताप में दूब पर जमे ओसकण वाष्पीभूत हो जाते हैं।

बस, देखने का उत्ताप विचारों के वाष्पीभूत हो जाने के लिए पर्याप्त है। वह राह है जहां से शून्य उदघटित होता है और मनुष्य को आंख मिलती है–और आत्मा मिलती है।

ध्यान की परिभाषा

ध्यान किसे कहते हैं, और उसे करने की क्या विधि है?

निर्विचार-चेतना ध्यान है। और निर्विचारणा के लिए विचारों के प्रति जागना ही विधि है।

विचारों का सतत प्रवाह है मन। इसी प्रवाह के प्रति मूर्च्छित होना–सोए होना–अजाग्रत होना साधारणतः हमारी स्थिति है।

इस मूर्च्छा से पैदा होता है तादात्म्य। मैं मन ही मालूम होने लगता हूं। जागें और विचारों को देखें।

जैसे कोई राह चलते लोगों को किनारे खड़े होकर देखे। बस, इसे जागकर देखने से क्रांति घटित होती है। विचारों से स्वयं का तादात्म्य टूटता है। इस तादात्म्य-भंग के अंतिम छोर पर ही निर्विचार-चेतना का जन्म होता है। ऐसे ही, जैसे आकाश में बादल हट जाएं, तो आकाश दिखाई पड़ता है। विचारों से रिक्त चित्ताकाश ही स्वयं की मौलिक स्थिति है। वही समाधि है।

ध्यान है विधि। समाधि है उपलब्धि।

लेकिन, ध्यान के संबंध में सोचें मत। ध्यान के संबंध में विचारना भी विचार ही है। उसमें तो जाएं। डूबें। ध्यान को सोचें मत–चखें।

मन का काम है सोना और सोचना। जागने में उसकी मृत्यु है। और ध्यान है जागना। इसीलिए मन कहता है–चलो, ध्यान के संबंध में ही सोचें। यह उसकी आत्म-रक्षा का अंतिम उपाय है।

इससे सावधान होना। सोचने की जगह, देखने पर बदल देना। विचार नहीं, दर्शन–बस, यही मूलभूत सूत्र है। दर्शन बढ़ता है, तो विचार क्षीण होते हैं। साक्षी जागता है, तो स्वप्न विलीन होता है।

ध्यान आता है, तो मन जाता है। मन है द्वार, संसार का। ध्यान है द्वार, मोक्ष का। मन से जिसे पाया है, ध्यान में वह खो जाता है। मन से जिसे खोया है, ध्यान में वह मिल जाता है।

निराकार के ध्यान की विधि

क्या निराकार वस्तु का ध्यान हो सकता है? और यदि हो सकता है, तो क्या निराकार निराकार ही बना रहेगा?

ध्यान का साकार या निराकार से कोई भी संबंध नहीं है। और न ध्यान का विषय-वस्तु से ही कोई संबंध है। ध्यान है विषय-वस्तु-रहितता–प्रगाढ़ निद्रा की भांति। लेकिन, निद्रा में चेतना नहीं है–और ध्यान में चेतना पूर्णरूपेण है। अर्थात निद्रा अचेतन-ध्यान है, या ध्यान सचेतन-निद्रा है। प्रगाढ़ निद्रा में भी हम वहीं होते हैं, जहां ध्यान में होते हैं–लेकिन, मूर्च्छित। ध्यान में भी हम वहीं होते हैं, जहां निद्रा में होते हैं–लेकिन, जाग्रत।

जागते हुए सोना ध्यान है। या सोते हुए जागना ध्यान है। फिर जो जाना जाता है, वह न आकार है, न निराकार है। वह है आकार में निराकार, या निराकार में आकार। असल में वहां द्वंद्व नहीं है, द्वैत नहीं है। और, इसलिए हमारे सब शब्द व्यर्थ हो जाते हैं। वहां न ज्ञाता है, न ज्ञेय है; न दृश्य है, न द्रष्टा है। इसलिए, वहां जो है, उसे कहना असंभव है। कठिन नहीं, असंभव है।

ध्यान है मन की मृत्यु, और भाषा है मन की अर्धांगिनी। वह मन के साथ ही सती हो जाती है। वह विधवा होकर जीना नहीं जानती है। जाने, तो जी नहीं सकती है। और उसका पुनर्विवाह भी नहीं हो सकता है। क्योंकि मन के पार जो है, वह उससे विवाह के लिए चिर-अनुत्सुक है। उसका विवाह हो ही चुका है–शून्यता से।

स्वाध्याय और ध्यान का अंतर

स्वाध्याय और ध्यान में क्या अंतर है?

स्वाध्याय अर्थात स्वयं का अध्ययन। और स्वयं का अध्ययन विचार के बिना संभव नहीं है। इसलिए स्वाध्याय विचार की ही प्रक्रिया है, जबकि ध्यान है विचारातीत। वह है विचारों के प्रति जागना। स्वाध्याय है, सोचना।

ध्यान है, जागना। सोचने में जागना नहीं है। क्योंकि जागे और सोचना गया। सोच-विचार में होने के लिए निद्रा आवश्यक है।

सोच-विचार, आंखें खोलकर स्वप्न देखना है। स्वप्न, आदिम सोच-विचार है। स्वप्न चित्रों की भाषा में सोचते हैं। सोचना स्वप्न का सभ्य रूप है। सोचने में चित्रों की जगह शब्द और प्रत्यय ले लेते हैं। लेकिन ध्यान एक अलग ही आयाम है। वह स्वप्न-मात्र से मुक्ति है। वह विचार-मात्र के पार जाना है। स्वप्न अचेतन मन का चिंतन है। विचार चेतन मन का चिंतन है। ध्यान मनातीत है।

चेतन मन जब अन्य को विषय बनाता है, तो भी वह विचार है, और जब स्वयं को विषय बनाता है, तो भी। ध्यान में विषय से ऊपर उठना है–विषय मात्र से।

इससे कोई मौलिक भेद नहीं पड़ता है कि विषय क्या है। धन है या धर्म? पर है या स्व। मौलिक भेद–रूपांतरण या क्रांति तो तभी घटित होती है, जब चेतना विषय के बाहर हो जाती है। क्योंकि तभी “स्व” को जाना जा सकता है। जब चेतना के पास जानने को कुछ भी शेष नहीं बचता है, तभी वह स्वयं को जान पाती है। ज्ञेय जब कोई भी नहीं है, तभी आत्मज्ञान होता है। अर्थात स्वाध्याय है स्वयं के संबंध में सोच-विचार, और ध्यान है स्वयं को जानना। और निश्चय ही, जिसे जानते ही नहीं, उसके संबंधों में सोचेंगे-विचारेंगे क्या? और जिसे जान ही लिया, उसके संबंध में सोच-विचार का प्रश्न ही कहां है?

इसलिए स्वाध्याय से बचें तो अच्छा है। क्योंकि वह भी ध्यान में बाधा है–और सर्वाधिक सबल। क्योंकि वह ध्यान का नाटक बन जाती है। मन तो उससे बहुत प्रसन्न होता है, क्योंकि इस भांति वह पुनः स्वयं को बचा लेता है। लेकिन, साधक भटक जाता है। वह फिर विषय में उलझ जाता है।

मन है विषय-उन्मुखता। उसे चाहिए विषय। यह विषय फिर चाहे कोई भी हो–काम हो या राम, वह विषय मात्र से राजी है। इसीलिए ध्यान के लिए काम और राम दोनों से ऊपर उठना आवश्यक है। “पर” और “स्व” दोनों को सम-भाव से विदा देनी है। तभी वह प्रकट होता है, जो “स्व” है–और जो कि “पर” भी है। या कि जो न “स्व” है न “पर” है वरन “बस है”।

ध्यान की अंतिम अवस्था तथा दिन-प्रतिदिन वृद्धि

ध्यान की गहराई में उतरने से उसकी दिन-प्रतिदिन वृद्धि किस प्रकार से होगी, और ध्यान की अंतिम अवस्था क्या है?

आप भोजन कर लेते हैं, फिर उसे पचाना नहीं होता है, वह पचता है। ऐसे ही आप जागें विचारों के प्रति। विचारों के प्रति मूर्च्छा न रहे–इतना आप करें। यह है ध्यान का भोजन। फिर पचना अपने आप होता है। पचना याने ध्यान का खून बनना–ध्यान की गहराई। भोजन आप करें–और पचना परमात्मा पर छोड़ दें। वह काम सदा से ही उसने स्वयं के हाथों में ही रखा हुआ है।

लेकिन, यद्यपि आप भोजन पचा नहीं सकते हैं, फिर भी उसके पचने में बाधा जरूर डाल सकते हैं। ध्यान के संबंध में भी यही सत्य है। आप ध्यान के गहरे होने में बाधा जरूर डाल सकते हैं। विचारों के प्रति सूक्ष्मतम चुनाव और झुकाव ही बाधा है।

शुभ या अशुभ में चुनाव न करें। निंदा या स्तुति, दोनों से बचें। न कोई विचार अच्छा है, न बुरा। विचार सिर्फ विचार है। और आपको विचार के प्रति जागना है। सूक्ष्मतम चुनाव भी बाधा है जागने में। तराजू के दोनों पलड़े सम हों, तभी ध्यान का कांटा स्थिर होता है। और ध्यान का कांटा स्थिर हुआ कि तराजू, पलड़े और कांटा–सब तिरोहित हो जाते हैं। फिर जो शेष रह जाता है, वही समाधि है; वही ध्यान की अंतिम अवस्था है।

निर्विचार हो जाने पर मन की परिस्थिति

साक्षीभाव से मन को देखने से जब मन निर्विचार हो जाता है, उसके बाद क्या परिस्थिति होती है?

परिस्थिति? परिस्थिति वहां कहां? बस, सब परिस्थितियां मिट जाती हैं, और वही शेष रह जाता है जो है। और जो है, वह सदा से है। परिस्थिति प्रतिपल बदलती है, वह कभी नहीं बदलता है। परिस्थिति परिवर्तन है, और वह सनातन। परिस्थिति में सुख है, दुख है। सुख दुख में बदलता है, दुख सुख में बदलता है। बदलता है, तो और कोई राह भी नहीं है। और वहां न सुख है न दुख है, क्योंकि वहां परिवर्तन नहीं है। फिर वहां जो है उसी का नाम आनंद है।

ध्यान रहे कि आनंद सुख नहीं है। क्योंकि सुख वही है, जो दुख में बदल सकता है। और आनंद दुख में नहीं बदलता है। आनंद बदलता ही नहीं है। इसीलिए आनंद से विपरीत कोई स्थिति नहीं है, आनंद अकेला है। आनंद अद्वैत है।

ऐसे ही, परिस्थिति में ही जन्म है, मृत्यु है। जहां जन्म है, वहां मृत्यु होगी ही। वे एक ही पेंडुलम की दो परिवर्तन स्थितियां हैं। जन्म मृत्यु बनता रहा है। फिर मृत्यु जन्म बनती रहती है। परिस्थिति इसी चक्र का नाम है। और वहां–सत्य में–न जन्म है, न मृत्यु।

कहें कि वहां जीवन है। जन्म की उलटी परिस्थिति मृत्यु है। जीवन से उलटा कुछ भी नहीं है। वहां जीवन है, जीवन है, और जीवन है। रस, आनंद, जीवन का नाम ही ब्रह्म है।

मन स्थिर करने का उपाय

मन को स्थिर कैसे करें? उसका उपाय क्या है?

मन स्थिर होता ही नहीं। वस्तुतः अस्थिरता, चंचलता का नाम ही मन है। इसीलिए मन या तो होता है, या नहीं होता है। मन या अ-मन, बस ऐसी ही दो स्थितियां हैं। मन से सत्य संसार की भांति दिखता है। संसार अर्थात चंचलता के द्वार से देखा गया ब्रह्म। और अ-मन से, जो है, वह वैसा ही दिखता है, जैसा है।

सत्य जैसा है, उसे वैसा ही जानना ब्रह्म है। इसलिए मन को स्थिर करने की बात ही न पूछें। मन को स्थिर नहीं करना है, बल्कि मिटाना है। शांत-तूफान-जैसी कोई चीज देखी-सुनी है? ऐसे ही शांत-मन-जैसी कोई चीज नहीं है। मन अशांति का ही पर्याय है। और तब उपाय का तो सवाल ही नहीं उठता है। सब उपाय मन के ही हैं। मन मिटाना है तो उपाय करने में नहीं, निरुपाय में जाना पड़ता है। उपाय करने से मन घटता नहीं बढ़ता है। क्योंकि उपाय वही तो करता है। और मन ही जो करता है, उससे मन कैसे मिट सकता है?

फिर क्या करें? नहीं, करें कुछ भी नहीं। बस, जागें–देखें, सारी बातें। मन को ही देखें; मन के प्रति होशपूर्ण हों। और फिर धीरे-धीरे मन गलता है, पिघलता है, मिटता है। साक्षी-भाव सूर्योदय की भांति मन की ओस को वाष्पीभूत कर देता है। चाहें तो कहें कि यही उपाय है।

मन में उठते बुरे भावों का निराकरण

मन में उठते बुरे भावों को किस प्रकार रोका जाए?

यदि रोकना है, तो रोकना ही नहीं। रोका, कि वे आए। उनके लिए निषेध सदा निमंत्रण है। और दमन से उनकी शक्ति कम नहीं होती, वरन बढ़ती है। क्योंकि दमन से वे मन की और भी गहराइयों में चले जाते हैं। और न ही उन भावों को बुरा कहना। क्योंकि बुरा कहते ही उनसे शत्रुता और संघर्ष शुरू हो जाता है। और स्वयं में स्वयं से संघर्ष, संताप का जनक है। ऐसे संघर्ष से शक्ति का अकारण अपव्यय होता है, और व्यक्ति निर्बल होता जाता है। जीतने का नहीं, हारने का ही यह मार्ग है।

फिर क्या करें?

पहली बात–जानें कि न कुछ बुरा है, न भला है–बस भाव हैं। उन पर मूल्यांकन न जड़ें; क्योंकि तभी तटस्थता संभव है।

दूसरी बात–रोकें नहीं, देखें। कर्ता नहीं, द्रष्टा बनें। क्योंकि तभी संघर्ष से विरत हो सकते हैं।

तीसरी बात–जो है, उसे बदलना नहीं है, स्वीकार करना है। जो है, सब परमात्मा का है। इसलिए आप बीच में न आएं, तो अच्छा है।

आपके बीच में आने से ही अशांति है। और अशांति में कोई भी रूपांतरण संभव नहीं है। समग्र-स्वीकृति का अर्थ है कि आप बीच से हट गए हैं। और आपके हटते ही क्रांति है। क्योंकि जिन्हें आप बुरे भाव कह रहे हैं, उनके प्राणों का केंद्र अहंकार है। अहंकार है, तो वे हैं। अहंकार गया कि वे गए। आपके हटते ही वह सब हट जाता है, जिसे कि आप जन्मों-जन्मों से हटाना चाहते थे और नहीं हटा पाए थे। क्योंकि उन सबों की जड़ें आपमें ही छिपी थीं।

लेकिन, लगता है कि आप सोच में पड़ गए!

सोचिए नहीं, हटिए। बस हट ही जाइए, और देखिए। जैसे अंधे को अनायास आंखें मिल जाएं, बस ऐसे ही सब कुछ बदल जाता है। जैसे अंधेरे में अचानक दीया जल उठे, बस ऐसे ही सब कुछ बदल जाता है।

कृपा करिए और हटिए!

सजग जीने की विधि और सजगता से तात्पर्य

सजगता से आपका क्या तात्पर्य है? पल-पल सजग जीवन कैसे जीया जाता है?

सजगता से तात्पर्य है, बस सजगता। साधारणतः मनुष्य सोया-सोया जीता है। स्वयं की विस्मृति निद्रा है। और स्वयं का स्मरण जागृति। ऐसे जीएं कि कोई भी स्थिति स्वयं को न भुला सके। उठते-बैठते, चलते-फिरते–सब में–विश्राम में “स्व” न भूलें। “मैं हूं” इसकी सतत चेतना बनी रहे। फिर धीरे-धीरे “मैं” मिट जाता है। और मात्र “हूं” रह जाता है।

क्रोध आए, तो जानें कि “मैं हूं”–और क्रोध नहीं आएगा। क्योंकि क्रोध केवल निद्रा में ही प्रवेश करता है। विचार घेरें, तो जानें कि “मैं हूं”–और विचार विदा होने लगेंगे। क्योंकि वे केवल निद्रा के ही संगी-साथी भर हैं। और जब चित्त से काम, क्रोध, लोभ, मोह सब विदा हो जाएंगे, तब अंत में विदा होगा “मैं”, और जहां मैं नहीं वहीं वह है, जो ब्रह्म है।

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ध्यान योग, प्रथम और अंतिम मुक्ति
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ओशो अपनी किताब ध्यान योग, प्रथम और अंतिम मुक्ति में कहते हैं कि 'ध्यानयोग प्रथम और अंतिम मुक्ति' ओशो द्वारा सृजित अनेक ध्यान विधियों का विस्तृत व प्रायोगिक विवरण है। ध्यान में कुछ अनिवार्य तत्व हैः विधि कोई भी हो, वे अनिवार्य तत्व हर विधि के लिए आवष्यक है। पहली है एक विश्रामपूर्ण अवस्थाः मन के साथ कोई संघर्ष नहीं, मन पर कोई नियंत्रण नहीं; कोई एकाग्रता नहीं।
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