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दोहरे मापदण्ड

20 जुलाई 2018

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शुभा सुबह से ही जल्दी -जल्दी अपने काम को निपटाने में लगी हुई थी। वैसे तो ये रोज के ही काम थे,पर आज उन्हे निपटाने की कुछ ज्यादा ही जल्दी थी।सुबह की चाय से लेकर झाडू-पोछा फिर नाश्ता और उसके बाद खाने की तैयारी बस ये ही तो दिनचर्या थी उसकी ।

हर लडकी को अपने ससुराल में खुद को समायोजित करने के लिए कितने ही त्याग करने पडते हैं। अपने घर में हमेशा बच्ची समझी जाती रही थी, पर यहाँ आते ही परिपक्वता की उम्मीद की जाती रही हैं। काम करते-करते सोचती जा रही थी शुभा ।

ससुरजी की आवाज से शुभा का ध्यान भंग हुआ। उफ! ये चाय ,काम ही खत्म नही होने देती। बीच में पोछा छोडकर चाय बनाकर दे के आती हैं। कुछ देर बाद मम्मीजी सर दबाने के लिए बुलाती हैं। सोच-सोचके मेरे तो सर में दर्द हो गया। बाम लगा के दबा दे थोडा सा। वहाँ से आके फिर पोछा लगाना शुरू करती है ।तभी संजीव जी आवाज लगाते है,'मेरे प्रेस किये कपडे कहाँ हैं'

जी अलमारी मे।शुभा हाथ पोंछते हुये जवाब देती हैं।

मुझे तो ये कपडे पहनने थे।अभी प्रेस करके दे।

शुभा जानती हैं की इनसे बहस करना बेकार हैं, इसलिए वो कपडो को इस्त्री करने लग जाती हैं। नीचे आती हैं, वैसे ही रीना हाथ पकड लेती हैं। भाभी मुझे सलाह दो ना मैं क्या करू। मुझे डर सा लग रहा हैं।मुझे वहाँ नही जाना।

शुभा उन्हे समझाके वापस अपने काम पर लगती हैं।

बहू आज तो बहुत लेट कर लिया । कल ही कह दिया था ,जल्दी कर लेना। फुर्ती तो है ही नही।कितना भी जरूरी हो पर अपनी रफ्तार में ही लगी रहेगी।

नीचे से बडबडाने की आवाज आती हैं ।संजीव भी घुर्राने लगते हैं,पर शुभा के लिए ये सब नया नही था। वो चुपचाप अपने काम में लगी रहती हैं ।खाने की तैयारी हो जाती हैं। सब खायेंगे तब गर्मागरम पूरियाँ उतार दूंगी । गाडी के हाँर्न की आवाज आती हैं। शुभा खिडकी में से देखती हैं। कौन -कौन आया हैं। रीना के ससुराल का पूरा परिवार था। मन को एक सुकून सा हुआ ।भगवान करे सब ठीक हो जाये। उसे रीना के साथ पूरी हमदर्दी थी,आखिर वो भी तो ये सब झेल के बैठी हैं। नीचे आकर चाय पानी नाश्ते का प्रबन्ध करती हैं। कुछ देर बाद आरोप- प्रत्यारोप का सिलसिला चालू हो जाता हैं। रीना और दीपक मे बात चलते - चलते कहासुनी का रूप ले लेती हैं। दीपक के परिवार वाले उसका पूरा सपोर्ट कर रहे थे और ससुरजी,संजीव और सासूमाँ रीना के पूरे पक्ष में थे। बातचीत अब लम्बी बहस बन चुकी थी और पीछे हटने वाला कोई नहीं लग रहा था।अब ये हार जीत का प्रश्न बन चुका था। शुभा समझ नही पा रही थी की वो क्या करे ।शुभा ऊपर आके रसोई की तैयारी देखने लग जाती हैं।अचानक खाने के लिए बोल दिया तो डाँट पडेगी।अभी खाना भी तैयार नही हुआ।सलाद काट लेती हुँ। सलाद काटते -काटते वो दिन याद आ रहे थे जब उसकी भी नयी -नयी शादी हुई थी। कितने सपने कितने अरमान लेकर वो इस घर में आयी थी लेकिन संजीव ने जल्दी ही उन्हे छिन्न-भिन्न कर दिया। कितना रोती थी मैं उनके रूखे और उपेक्षित व्यवहार को देखकर। छोटी -छोटी बात पर चाय फेंक देना,थाली फेंक देना। हर काम में कमी निकालना।ये सब कुछ मेरे लिये कितना असहनीय था। मेरी ऐसी हालत देखकर बडे स्नेह से सास- ससुर ने समझाया था। ,' शुभा तु हमारी बहू नही हैं,ना ही बेटी हैं बल्की उससे भी बढकर हैं। इसी नाते तुझे समझा रहे हैं। गृहस्थी के चारो पल्ले कीच मे होते हैं। कब किसके साथ क्या हो जाये, कुछ पता नही हैं। इसीलिये गृहस्थ आश्रम को सबसे बडा और कठिन माना जाता हैं।ये एक तपस्या हैं जिसे पूरा करना बहुत मुश्किल होता हैं। एक औरत ही घर को स्वर्ग और नर्क बनाती हैं। ये तुम सोचो की तुम्हे अपने घर को क्या बनाना हैं।हमेशा लडकी को ही झुकना पडता हैं। लडका कभी नही झुकता ।लडकी को अपने ससुराल के अनुसार अपने को ढाल लेना चाहिएँ। रिश्तो को निभाने की जिम्मेदारी लडकी की ही होती हैं। फिर हमारा संजीव तो लाखो में एक है,बस थोडा गुस्सा ही तो ज्यादा हैं। और तो कुछ कमी नहीं हैं।वरना बाहर जाके देखो आजकल के लडको को,नाक में दम किया रखते हैं। ये तेरा घर हैं और इसकी सारी जिम्मेदारीयाँ तेरी हैं। हमेशा इसे अपना ही समझना। हमारा क्या हैं,हम आज हैं कल नही रहेंगे।'

शुभा उनके स्नेह की बारीश में पूरी तरह सिक्त हो चुकी थी। उनकी दी हुई सीख पर वो आज तक अमल कर रही हैं। हर लडकी यही तो करती हैं।


शोर सुनके शुभा नीचे आती हैं। ससुरजी गुस्से में तमतमा रहे थे और संजीव को काबू करना भी बडा मुश्किल हो रहा था। दीपक ने पूछा ,'आखिरी बार कह रहा हुँ,तुम्हे चलना हैं या नही।'

अगर मुझे ढंग से रखोगे तो ही मैं चलुंगी। रीना का जवाब था।

ढंग से का क्या मतलब ,कैसे रहना चाहती हो तुम।

रीना कुछ बोलती इससे पहले ही ससुरजी बोले,' मान,सम्मानऔर इज्जत से रखोगे तो ही मेरी बेटी जायेगी। वरना पूरी जिन्दगी रख सकता हुँ अपनी बेटी को। एक लडकी अपना घर बार सब कुछ छोडकर जाती हैं और बदले में उसे क्या मिलता हैं ,केवल उपेक्षा ।क्या तुमने कोशिश की इस रिश्ते को संभालने की। किसी की बेटी को अपने घर में यूँ ही नही रखा जाता। बहुत प्यार और सम्मान देना पडता हैं। तुम्हारा भी तो कुछ फर्ज बनता हैं उसके लिए ,पर तुमने क्या किया आज तक। जब घर में कोई नया सदस्य आता हैं तो पूरे परिवार का उसे सहयोग मिलना चाहिये ।धीरे-धीरे प्यार से अपने परिवार के अनुसार ढालना चाहियें। हमारे घर में भी बहू हैं लेकिन बेटी बनाके रखते उसे।'


शुभा दीवार का सहारा लिए खडी- खडी सोच रही थी। ससुरजी का नजरिया बदला है या बहू और बेटी के दोहरे मापदण्ड ़़़़़़़

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